मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

113. जोहानिस्बर्ग में दफ़्तर रखने का निश्चय

 गांधी और गांधीवाद

113. जोहानिस्बर्ग में दफ़्तर रखने का निश्चय

1903

प्रवेश

एशियाटिक विभाग के अधिकारी न सिर्फ़ गांधीजी को चैम्बरलेन से मिलने से रोक दिया बल्कि शिष्टमंडल के सदस्यों को डराया-धमकाया भी। संबंधित अधिकारी ने उन व्यक्तियों की लिस्ट से गांधीजी का नाम निकाल दिया जो उपनिवेश सचिव से मिलने वाले थे। इस अपमान से गांधीजी को बड़ा दुख हुआउनके दिल को चोट पहुंची। ऐसा नहीं था कि यह उनके साथ पहली बार हुआ था। न सिर्फ़ दक्षिण अफ़्रीका में बल्कि भारत में भी उन्हें कई बार अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़े थे। इसलिए उन्होंने अपमान की परवाह न करते हुए तटस्थता-पूर्वक काम करने का निश्चय किया। स्थिति नाज़ुक ही नहीं गंभीर भी थी। एक तरफ़ तो चैम्बरलेन से मदद तो दूर कोई आश्वासन भी नहीं मिला था, दूसरे उस अधिकारी ने अपने हस्ताक्षर में जो पत्र दिया थाउसमें लिखा थाचूंकि गांधीजी डरबन में चैम्बरलेन से मिल चुके हैंइसलिए अब उनका नाम प्रतिनिधियों की लिस्ट से निकाल डालने की ज़रूरत है। जब यह जानकारी अन्य साथियों को मिली तो यह उनके लिए असह्य था। यह अजीब बात थी। गांधीजी को युद्ध से पहले ब्रिटिश अधिकारियों के समक्ष ब्रिटिश भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई थी, जिनमें प्रिटोरिया में ब्रिटिश एजेंट और जोहानिस्बर्ग में ब्रिटिश उप-वाणिज्यदूत भी शामिल थे। सबने राय दी कि अब प्रतिनिधि मंडल के जाने का विचार त्याग ही दिया जाए।

भारतीय समाज का अपमान

गांधीजी को यह विचार उचित नहीं लगा। उन्हें समझाते हुए उन्होंने कहा, “अगर आप चैम्बरलेन के पास नहीं जाएंगेतो यह मान लिया जाएगा कि यहां भारतवासियों को कोई कष्ट ही नहीं है। मेरे जाने न जाने से बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता। हमें जो बात कहनी थी, सो तो हम लिख कर कह ही देंगे। … और लिखा हुआ प्रार्थना-पत्र तो तैयार है ही। उसे मैं पढ़ूं या दूसरा कोई और पढ़ेइसकी चिंता मत कीजिए। वैसे भी चैम्बरलेन हमसे कोई चर्चा थोड़े ही करेंगे। रही बात मेरे अपमान कीतो वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए उसे कड़वे घूंट की तरह हमें पी जाना है।

तैयब सेठ से सहा न गया, वे बोल पड़े, “पर आपका अपमान सारे भारतीय समाज का अपमान है। आप हमारे प्रतिनिधि हैं, इसे कैसे भुलाया जा सकता है?”

गांधीजी ने शांतिपूर्वक उन्हें समझाया, “यह सच है, पर समाज को भी ऐसे अपमान पी जाने पड़ेंगे। हमारे पास दूसरा इलाज ही क्या है?”

तैयब सेठ अब भी विचलित थे, “भले जो होना हो सो हो, पर जान-बूझकर दूसरा अपमान क्यों सहा जाए? जो बिगड़ना था सो तो बिगड़ ही चुका है। हमें हक़ ही कौन-से मिले हैं?”

यह जोश और जज़्बा गांधीजी को अच्छा लगा। पर वे जानते थे कि इस तरह से काम नहीं चलने वाला है। उन्हें अपने समाज की मर्यादा का भान था। इसलिए उन्होंने साथियों को शांत किया और अपनी जगह शिष्टमंडल दल के नेता के रूप में जॉर्ज गॉडफ़्रे, जो भारतीय बैरिस्टर थे, को ले जाने की सलाह दी। गॉडफ़्रे प्रतिनिधिमंडल के नेता बने।

प्रतिनिधिमंडल चैम्बरलेन से मिला

जो भी हुआ था ऐसा नहीं है कि उस पर चैम्बरलेन की सहमति की मुहर नहीं लगी होगी। भारतीय प्रतिनिधिमंडल निर्धारित समय के अनुसार 7 जनवरी 1903 को चैम्बरलेन के पास गया, जेम्स गॉडफ्रे ने गांधीजी द्वारा उनके लिए तैयार किया गया भाषण पढ़ा और प्रार्थना-पत्र उसे सौंप दिया। ब्रिटिश भारतीयों की विकलांगताओं में, जो उन्हें दिवंगत गणराज्य से विरासत में मिली थीं और जिन्हें शाही सरकार ने निरस्त नहीं किया था, उनके प्रतिनिधित्व में सूचीबद्ध थीं कि वे (1) स्थानों को छोड़कर संपत्ति के मालिक नहीं हो सकते थे। (2) उनके आगमन के आठ दिनों के भीतर उनके नाम एक अलग रजिस्टर में दर्ज किए जाने की आवश्यकता थी, इसके लिए उन्हें 3 पाउंड स्टर्लिंग की राशि का भुगतान करना था, (3) केवल नियत स्थानों पर ही व्यापार और निवास करना था, (4) विशेष अनुमति के बिना रात 9 बजे के बाद बाहर नहीं रह सकते थे, (5) तीसरे दर्जे को छोड़कर रेलवे में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी, (6) जोहानिस्बर्ग और प्रिटोरिया में फुटपाथों पर चलने या किराए के वाहनों में ड्राइव करने पर प्रतिबंध था, और (7) देशी सोना नहीं रख सकते थे या खुदाई करने का लाइसेंस नहीं ले सकते थे।

वहां जब गांधीजी की बात चली, तो चैम्बरलेन ने कहा था, “मि. गांधी से तो मैं डरबन में मिल चुका हूं। इसलिए यह सोचकर कि यहां के लोगों का वृत्तांत यहीं के लोगों से सुनना ज़्यादा अच्छा होगा मैंने उनसे मिलने से इंकार कर दिया। एशियाटिक महकमे ने जो सिखाया था, चैम्बरलेन ने वही कहा।

एक बार फिर गांधीजी को यह बात समझ आ गई कि "तर्क पर आधारित संवाद हमेशा सत्ता में बैठे लोगों को पसंद नहीं आते"। चैम्बरलेन पर उस वक़्त स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों का काफ़ी असर था। गोरों को संतुष्ट करने के लिए वह इतना आतुर था कि उसके हाथों से न्याय होने की आशा बहुत ही कम थी। कुछ लोगों ने व्यंग्य करते हुए गांधीजी को यह भी सुना दिया कि बोअर युद्ध में अंगेज़ों की सहायता कर हमें क्या मिला? आपके कहने से समाज ने लड़ाई में हिस्सा लिया, पर परिणाम तो यही निकला न?”

इस तरह के तानों से गांधीजी ने विचलित होना नहीं सीखा था। उन्होंने कहामुझे इस सलाह का पछतावा नहीं है। मैं अब भी यह मानता हूं कि हमने लड़ाई में भाग लेकर ठीक ही किया। वैसा करके हमने अपने कर्तव्य का पालन किया। हमें उसका फल चाहे देखने को न मिले, पर मेरा यह पक्का विश्वास है कि अच्छे काम का फल हमेशा अच्छा ही होता है। लेकिन अब बीती बातों पर माथा-पच्ची करने से बेहतर है कि फिलहाल हमारे सामने जो चुनौतियां हैं हम उस पर विचार करें।

चाहे जो भी उनके साथ अपमान की घटना हुई होचाहे जितना भी उन्हें धक्का लगा होदुख हुआ होलेकिन उनका अब भी मोहभंग नहीं हुआ था। उन्हें अब भी अंगेज़ों की न्याय-भावना और औचित्यपूर्ण व्यवहार पर विश्वास था। अब भी साम्राज्य के उच्च और महान उद्देश्यों में उनकी आस्था थी। उन्हें अब भी उम्मीद थी कि आज न कल सच्चाई जानकर अंग्रेज़ों की आंखें खुलेंगीऔर तब वे अपने आपको सुधारेंगे।

दक्षिण अफ्रीका में रहने का निर्णय

गांधीजी जिस काम के लिए ट्रांसवाल गए थे वह काम तो पूरा हो चुका था। प्रार्थना-पत्र तो चैम्बरलेन को सौंप दिया गया था। लेकिन गांधीजी का काम इतने से समाप्त नहीं हुआ था। जो कुछ उन्होंने देखा था, उससे वे विचलित थे। उन्हें लगा कि अभी उन्हें वहां से वापस नहीं जाना चाहिए। उन्हें लगा कि ऐसी कष्टमय हालत में ट्रांसवाल से निकल जाना कायरता होगी। उन्हें यह भी लगा कि ट्रांसवाल के भारतीयों को नेटाल के भारतीयों की अपेक्षा उनकी अधिक ज़रूरत है। उन्हें स्पष्ट तौर पर दिख रहा था कि यदि वे वहां के लोगों की मदद करना चाहते हैंतो छह महीने क्या साल भर में भी भारत लौटना मुश्किल था। वस्तुस्थिति तो यह थी कि उन्हें वहां भी वही सब करना होगा जो उन्होंने नेटाल में किया था। स्थिति का आकलन करने पर उन्होंने पाया कि फिलहाल कुछ नया तो किया नहीं जा सकता, मौजूदा क़ानून के अंदर ही जितना हो सके अधिक-से-अधिक प्रशासनिक सुविधा हासिल की जाए। जिस क़ानून को क्रूगर लागू न कर पाया, यदि वर्तमान शासक ब्रिटिश शासन की मदद से लागू कर देता है, तो भारतीयों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो जाएगी।

आत्मकथा में उन्होंने लिखा हैअगर मैं कौम को भयावह स्थिति में देखते हुए भी भारत में सेवा करने के अभिमान से वापस जाऊं तो जिस सेवा-धर्म की झांकी मुझे हुई है वह दूषित हो जाएगी। मैंने सोचा कि मेरी ज़िंदगी भले ही दक्षिण अफ़्रीका में बीत जाए, पर जब तक घिरे हुए बादल बिखर नहीं जाते या हमारी सारी कोशिश के बावज़ूद और अधिक उमड़कर कौम फट नहीं पड़ते, तब तक मुझे ट्रांसवाल में ही रहना चाहिए।

उन्होंने नेताओं के साथ बातचीत की। निश्चय किया कि वहीं रहना है और अपना काम अब उन्हें नेटाल से नहीं प्रिटोरिया से ही चलाना चाहिए। एक साल के अंदर भारत वापस जाने के जिस इरादे से वे आए थे, उसे अब त्याग देना ही उचित था। फिर से वकालत का धंधा उन्हें शुरू कर देना चाहिए। ये जो नया विभाग खोला गया है, उससे निबट लेने की हिम्मत तो उनमें है ही। यदि मुक़ाबला न किया गया, तो इससे भारतीय समाज का बहुत बड़ा अहित होगा। हो सकता है कि उनके पैर ही वहां से उखड़ जाएं। समाज का अपमान और तिरस्कार दिन-प्रति-दिन बढ़ता ही जाएगा। उनका मानना था, “इस अन्यायअनीति का प्रतिकार करना धर्म है।

अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैंचैम्बरलेन मुझसे नहीं मिले, उस अधिकारी ने मेरे साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया, यह तो सारे समाज के अपमान की तुलना में कुछ भी नहीं है। यहां हमारा कुत्तों की तरह रहना बरदाश्त किया ही नहीं जा सकता।

जोहानिस्बर्ग में घर और दफ़्तर

दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों का संकट इतना बड़ा और विकट था और गांधीजी पर उनका विश्वास इतना अधिक और दृढ़ था कि लौट जाने का गांधीजी का मन नहीं हुआ। इस बार उनकी गतिविधियों का केन्द्र ट्रांसवाल के सबसे बड़े शहर जोहानिस्बर्ग होने वाला था। इसलिए गांधीजी ने प्रिटोरिया और जोहानिस्बर्ग में रहने वाले भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद फरवरी 1903 के मध्य में, जोहानिस्बर्ग में दफ़्तर रखने का निश्चय किया। यह पहला कदम था। ट्रांसवाल में सबसे ज़्यादा भारतीयों की संख्या जोहानिस्बर्ग में थी वकालत करने के उनके प्रार्थना-पत्र का विरोध नहीं हुआ और ट्रान्सवाल की बड़ी अदालत ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। हालाकि भारतीय को अच्छे स्थान में ऑफिस के लिए घर मिलना मुश्किल था, लेकिन अंग्रेज मित्र मि. रीच, जो उस समय के व्यापारी-वर्ग में प्रतिष्ठित थे, की मदद से एक अच्छी बस्ती, ट्रॉयविल में बड़ा-सा बंगला14-अल्बमेरी स्ट्रीट, भाड़े पर लिया। यह एक कमरे वाला मकान था। वे अपने कार्यालय के बगल में एक कमरे में अत्यंत सादगी से रहते थे। उनके कार्यालय की दीवारों पर चार तस्वीरें सजी हुई थीं। उनकी डेस्क के ऊपर वाली दीवार पर ईसा मसीह का सुंदर तस्वीर था। गांधीजी अपने मित्रों से कहा करते थे, "मुझे इसे वहां रखना अच्छा लगता है। जब भी मैं अपनी डेस्क से नज़रें उठाता हूँ, तो मुझे यह दिखाई देता है।" अन्य तीन दीवारों पर रानाडे, श्रीमती बेसेंट और डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर की तस्वीरें लगी हुई थीं, जो भारत पर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक के लेखक थे, जिन्होंने टाइम्स में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों का समर्थन किया था। उनके घर पर उनके पिता की एक तस्वीर और दादाभाई नौरोजी की एक बड़ी तस्वीर थी। जब ऑफिस के लिए घर मिल गया, तो अप्रैल 1903 में उन्होंने ट्रांसवाल के सर्वोच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में खुद को नामदर्ज़ कराया। चूंकि ट्रांसवाल में भारतीयों की सबसे बड़ी आबादी जोहानिस्बर्ग में थी, इसलिए आजीविका और सार्वजनिक काम दोनों की दृष्टि से जोहानिस्बर्ग ही गांधीजी के अनुकूल केंद्र था। वे एक समर्थ और ईमानदार वकील के रूप में पहले से ही अपने समुदाय के बीच प्रतिष्ठित थे। जल्द ही उनके पास काफी काम आ गया। जून 1903 तक उनका व्यवसाय जम गया था। एक बार जब वहां उनके पैर जम गए, तो उन्होंने सोचा कि अब मुम्बई का दफ़्तर बंद कर दिया जाए।

समुदाय की सेवा मुख्य लक्ष्य

लेकिन उनका मुख्य सरोकार तो अपने समुदाय की सेवा करना था। वकालत के अलावा गांधीजी को जिन सवालों से जूझना था उसमें सबसे प्रमुख था गोरे उपनिवेशों की उग्र रंग-भेद नीति। इसके अलावा उन्हें नागरिक अधिकारों को पाने की लड़ाई लड़नी थी। मेहनत से अर्ज़ी हुई संपत्ति को बचाने के लिए लड़ना था। कोई नहीं जानता था यह लड़ाई कितनी लंबी होगी। हालाकि उनका मुख्य उद्देश्य अपने समुदाय की सेवा करना था, लेकिन इसके लिए उन्हें उनमें बुनियादी अधिकारों के लिए चेतना पैदा करना था। एकजुट कार्यवाही के लिए तैयार करना था। उनकी दमित और हतोत्साहित आत्माओं में साहस और आस्था का संचार करना था। हालांकि वे ट्रांसवाल में थे, लेकिन नेटाल के भारतीय समुदायों के हितों की उपेक्षा भी वह नहीं कर सकते थे। उनके अधिकारों के लिए भी उन्हें लड़ाइयां लड़नी थीं। क़ानूनी पेशा तो महज अपने ध्येय को ज़ारी रखने की शक्ति बनाए रखने के लिए एक साधन था। इसलिए इस बार उनका दायरा काफी बड़ा हो गया था। अब भारतीयों का उद्देश्य स्पष्ट हो चुका था। एशियाई विभाग भारतीयों को ब्रिटिश नागरिकता की भावना से अलग मानता था। गांधीजी का उद्देश्य भारतीय समुदाय को ट्रांसवाल के एक उपयोगी हिस्से के रूप में शामिल करना और उसके सदस्यों को "साम्राज्य के सच्चे नागरिक" के रूप में मान्यता दिलाना था। समुदाय विविधतापूर्ण था। उनके बीच का अंतर भी बहुत बड़ा था। बिखरा हुआ भी था। अलग-अलग राग अलापने वाले लोगों से भरा हुआ था। उन्हें एकीकृत करना था। इसके अलावे दो गोरे समुदाय भी थे, ब्रिटिश नौकरशाहों की शासक जाति, और नस्लीय दंभ के शिकार बोअर। ये पुराना हिसाब चुकाने के लिए कुलबुलाए जा रहे थे।

भारतीयों की स्वतन्त्रता पर अंकुश

गांधीजी ने 30 जनवरी को दादाभाई नौरोजी को पत्र लिखकर चैम्बरलेन से मिलने गए शिष्टमंडल का ब्योरा दिया। उन्होंने 16 फरवरी को गोखले जी को पत्र द्वारा ट्रांसवाल के घटनाक्रम की जानकारी दी और कहा कि वे आ सकने की स्थिति में नहीं हैं। भारतीयों के प्रति अब पहले भी ज़्यादा कड़ा रुख अपनाया जाने लगा था। ट्रांसवाल और औरेंज फ्री स्टेट पर ब्रिटिश झंडा लहराने लगा था। लॉर्ड मिलनर की एक कमेटी नियुक्त की गई थी, जिसका काम था इन दोनों राज्यों के पुराने कानूनों की जांच कर ऐसे कानूनों की सूची तैयार करना, जो भारतीयों की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने वाला हो। साथ ही साथ उन कानूनों से भी छुटकारा पाना था जो ब्रिटिश के काम में रुकावट उत्पन्न करते थे। रिपोर्ट आ गई। रंगभेद वाले कानून बना दिए गए। इस नए कानून के तहत एशियाई लोग मतदान नहीं दे सकते थे। सरकार द्वारा निर्धारित किए गए मुहल्लों के बाहर ज़मीन नहीं खरीद सकते थे। भारतीय जब चाहें ट्रांसवाल में प्रवेश नहीं कर सकते थे। वे जो चाहे वह व्यापार नहीं कर सकते थे। गोरे यह चाहते थे कि स्थिति को इतनी कठिन बना दी जाए कि भारतीय घबराकर ट्रांसवाल छोड़ कर चले जाएं। और अगर न छोड़ें तो केवल मज़दूर बनाकर वहाँ अपना जीवन जिएँ। ये कानून एशियाटिक विभाग के पास अमल के लिए भेज दी गए। इस विभाग ने बड़ी ही सख्ती से इसका पालन शुरू कर दिया था। गांधीजी ने 16 मार्च को दादाभाई नौरोजी को दक्षिण अफ्रीका की स्थिति पर एक रिपोर्ट भेजा। गांधीजी लगातार एशियाटिक विभाग के कृत्यों का विरोध करते रहे। जिस नीति के तहत एशियाई विभाग बनाया गया था, उसे वे ब्रिटिश नागरिकता की भावना के विपरीत और न्यायपूर्ण शासन के लिए विध्वंसकारी मानते थे। इसका कड़ा विरोध किया जाना चाहिए। हालाँकि, पुराने डच शासन के तहत भारतीयों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, लेकिन ऐसा कोई विभाग नहीं था। ब्रिटिश झंडे के नीचे, युद्ध-पूर्व नीति विकसित की गई थी, जिसका उद्देश्य एशियाई लोगों को एक अलग वर्ग बनाना था, उनके साथ अलग से व्यवहार करना था और साम्राज्य के लिए विदेशी के रूप में उनके खिलाफ कानून बनाना था। हम पाते हैं कि 1907 का एशियाई कानून संशोधन अधिनियम अलगाव के इस सिद्धांत का तार्किक परिणाम था, जिसमें अपमानजनक प्रतिबंध लगाए गए थे और भारतीयों की छवि अपराधी के रूप में प्रदर्शित की गयी थी। 1903 में, नीति पहले से ही मौजूद थी।

उपसंहार

एक बार फिर से संकट की घड़ी ने उनके और उनके परिवार की जीवन धारा ही बदल दी। 1893 में गांधीजी एक साल के लिए दक्षिण अफ़्रीका आए थे और आठ साल रहकर गए1902 में वे छह महीने के लिए आए और लौटकर जाने में उन्हें बारह वर्ष लग गए। अब गांधीजी के जीवन का नया अध्याय शुरू होने वाला था। रंगभेद की नीतियां खत्म होने की जगह और भी उग्र हो गई थी। उसके विरुद्ध उन्हें लड़ना था। प्रवासी भारतीयों के अधिकार की लड़ाई कोई बराबरी की लड़ाई नहीं कमज़ोर का बलवान से मुक़ाबला होने वाला था। यह लड़ाई कितनी लंबी होगी यह कोई नहीं जानता था। इस लड़ाई ने गांधीजी के सारे मूल्य-बोध बदल दिया। उनमें एक नई दृष्टि, एक नया दर्शन नए मूल्य-बोध का प्रादुर्भाव हुआ। उनके भीतर नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का अद्भुत उत्थान हुआ जिसने इतिहास की दिशा ही बदल दी। उनके विचारों में गंभीर परिवर्तन हुए। अगर सरकार में शिष्ट और विवेकशील सज्जन होते, जो भारतीय लोगों के काम की सराहना कर सकते, और उनके सोचने के तरीके को समझने का कष्ट उठाते, और उन्हें "कुली" मानने से इनकार करते, तो यह सारी परेशानी टल सकती थी। जोसेफ डोक कहते हैं, आधिकारिक अज्ञानता, जाति-पूर्वाग्रह और अहंकार ने सब कुछ बिगाड़ दिया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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