गांधी और गांधीवाद
98. क्लर्क का काम किया
दिसम्बर, 1901
कलकत्ता कांग्रेस का अधिवेशन दो दिनों के बाद शुरू होना था। इन दो
दिनों में क्या किया जाए? गांधीजी खाली बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने निश्चय किया कि
कांग्रेस को अपनी सेवा दी जाए और कुछ अनुभव हासिल किया जाए। जिस दिन वे कलकत्ता
पहुंचे थे, उसी दिन नहा-धोकर वे कांग्रेस के कार्यालय में गए। जहां उन्हें
ठहराया गया था वहां के माहौल ने तो उन्हें निराश किया ही था, कांग्रेस के दफ़्तर में भी अव्यवस्था
और अकौशल का माहौल था। वहां वे भूपेन्द्र बाबू से मिले। उनसे गांधीजी ने कहा, “मेरे पास काफ़ी समय है। यूं ही बैठा
हूं। अगर दफ़्तर के कोई काम आ सकूं तो ख़ुशी होगी।”
भूपेन्द्र बाबू ने कहा, “मेरे पास तो कोई काम नहीं है। आप
घोषाल बाबू से मिलिए, शायद वे आपको कुछ काम दे सकें। उनके पास चले जाइए।”
गांधीजी कांग्रेस के सचिव
जानकीनाथ घोषाल के पास गए। उन्होंने गांधीजी को बड़े ग़ौर से देखा और हंसते हुए बोले, “मेरे पास तो क्लर्क का काम है। आप
करेंगे?”
गांधीजी बोले, “ज़रूर करूंगा। मेरी शक्ति के बाहर न
हो, ऐसा हर काम करने
के लिए मैं आपके पास आया हूं।”
घोषाल बाबू बोले, “यही सच्ची भावना है।” उन्होंने गांधीजी को पत्रों का ढ़ेर दिखाते हुए कहा, “यह देखिए पत्रों का ढेर। आप इस
कुर्सी पर बैठिए। मेरे पास सैकड़ों लोग आते हैं मिलने के लिए। मैं उनसे मिलूं या इन
बेकार के पत्रों का जवाब लिखने बैठूं? मेरे पास कोई क्लर्क नहीं है जिनसे यह काम ले सकूं। इन पत्रों में से
अधिकांश में काम की कोई बात नहीं होती। फिर भी आप सबको एक बार ज़रूर देख लीजिए।
जिसका जवाब देना उचित समझें उसका जवाब दे दीजिए। जिसके जवाब के लिए मुझसे पूछना
ज़रूरी समझें, मुझसे पूछ लीजिएगा।”
घोषाल बाबू के विश्वास से गांधीजी
मुग्ध हो गए। शायद वे गांधीजी को पहचानते भी न रहे हों। नाम आदि भी उन्होंने बाद
में ही पूछा। एक स्वयंसेवक के रूप में गांधीजी ने वहां मुंशियाना काम सम्हाला।
पत्रों के ढेर को छांटना गांधीजी के लिए कोई मुश्किल काम न था। दक्षिण अफ़्रीका में
भी वे इस तरह के काम बड़े मनोयोग से करते रहे थे। उन्होंने इस काम को तुरंत ही
निबटा दिया।
मुंशी का काम करने के साथ-साथ
उन्होंने अपने आंख-कान भी खुले रखे ताकि वहां के माहौल के प्रति अधिक से अधिक अवगत
हो सकें। अपना काम किसी और के द्वारा होता देख बातूनी घोषाल बाबू काफ़ी ख़ुश हुए। वह
तो बातें बनाने में ही अपना बहुमूल्य समय बिता देते थे। अपने व्यवहार से गांधीजी
ने वहां के लोगों को मालूम नहीं होने दिया कि यह युवक दक्षिण अफ़्रीका में रईस
बैरिस्टर है। पर बातों-बातों में जब घोषाल बाबू को गांधीजी के बारे में मालूम हुआ, तो वे काफ़ी लज्जित हुए। गांधीजी ने
पूरी विनम्रता से कहा, “कहां आप और कहां मैं? आप कांग्रेस के पुराने सेवक हैं, मेरे लिए तो गुरु समान हैं। मैं एक अनुभवहीन नवयुवक हूं। आप सबों के
साथ कुछ सीखना चाहता हूं। यह काम मुझे देकर आपने मुझ पर उपकार ही किया है, क्योंकि मुझे तो कांग्रेस का काम
करना है। उसके काम-काज को समझने का आपने मुझे यह अवसर प्रदान किया, इसके लिए तो मैं आपका आभारी हूं।”
घोषाल बाबू ने कहा, “असल में यही सच्ची वृत्ति है। पर आज
के नवयुवक इसे नहीं मानते। वैसे मैं तो कांग्रेस को उसके जन्म से जानता हूं। उसे
जन्म देने में मि. ह्यूम के साथ मेरा भी सहयोग था।”
गांधीजी और कांग्रेस के
संस्थापक सदस्यों में से एक घोषाल बाबू में अच्छी मित्रता हो गई। उसके बाद वे गांधीजी
को अपने साथ ही रखते। घोषाल बाबू बड़े शान ओ शौकत के साथ रहते थे। उनके बटन भी
‘बैरा’ ही लगाता था। थोड़ी देर के बाद घोषाल बाबू गांधीजी के पास आए। उनकी कमीज़ का
बटन टूटा हुआ था। जब गांधीजी ने यह देखा, तो उन्होंने वह काम (बैरे का) भी ले लिया। उन्हें वह काम पसंद था।
बड़ों के प्रति उनके मन में हमेशा से बहुत आदर था। जब घोषाल बाबू गांधीजी के मन की
बात समझ गए, तो अपनी निजी सेवा के सभी काम गांधीजी से लेने लगे। गांधीजी बिना
हिचकिचाए सारे काम करते गए। बटन लगाते समय गांधीजी से मुसकुराते हुए कहते, “काम का अत्यधिक दवाब है। देखिए न, कांग्रेस के सेवक को बटन लगाने का
समय नहीं मिलता, क्योंकि उस समय भी उसे काम रहता है।” गांधीजी ने कहा लाइए मैं आपके बटन टांक दूं। और गांधीजी ने अनके बटन
टांक दिए। गांधीजी किसी भी काम को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे।
मन ही मन गांधीजी हंसते, पर उन्हें इन कामों से कभी अरुचि
नहीं हुई। इन कामों का जो फ़ायदा उन्हें पहुंचा वह आंका नहीं जा सकता। कुछ ही दिनों
में उन्हें कांग्रेस की अंदरूनी व्यवस्था के बारे में ढेर-सी जानकारी हासिल हो गई।
कई दिग्गज नेताओं से उनकी भेंट हुई। गोखले जी, सुरेन्द्रनाथ जी, आते जाते रहते थे। उन्हें क़रीब से देखने, जानने,
समझने का उन्हें अवसर मिला। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी
अनुभव हुआ कि कांग्रेस कार्यालय में समय की बरबादी भी खूब होती थी। लोग बातचीत में
अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते थे। यह देखकर गांधीजी को काफ़ी दुख हुआ। उन्होंने
देखा कि आसानी से एक आदमी द्वारा हो सकने वाले काम में अनेक आदमी लगाए जाते थे। और
यह भी अनुभव किया कि कई ऐसे महत्वपूर्ण काम थे, जो होने चाहिए थे, पर कोई उसको करने की जिम्मेदारी ही नहीं लेता था। गांधीजी को लगा कि
जो हो रहा है उसमें अधिक सुधार करना संभव नहीं होगा।
उपसंहार
क्लर्क के काम-काज के दौरान वे कांग्रेस के कामकाज के बारे
में जानकारी लेते रहे। उन्होंने अधिकांश नेताओं से मुलाकात की, और जब कांग्रेस खुली तो वे कांग्रेस के बारे में उतना ही जानते थे, या उससे बेहतर जानते थे जितना कि उपस्थित अधिकांश गण्यमान्य व्यक्ति
जानते थे। कांग्रेस का जो हाल था उसमें सुधार की बहुत गुंजाइश थी, लेकिन वह मान चुके थे कि जो
हो रहा हैं, उसमें अधिक सुधर करना सम्भव न होगा। इसलिए इसने गांधीजी
को किसी भी काम को कम करके आंकने से बचाया। उनके यथार्थवाद ने उन्हें चीज़ों को
वैसे ही देखने की क्षमता दी जैसी वे हैं, उनकी उदारता ने उन्हें
कठोर वास्तविकता का सामना करने और उसके साथ जीने की ताकत दी। एक 'व्यावहारिक
आदर्शवादी' के निर्माण के लिए दोनों की आवश्यकता थी।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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