गांधी और गांधीवाद
111. उत्साह पर पानी फिर गया
प्रवेश
भारत में गांधीजी के दिन हंसी-ख़ुशी से
गुज़र रहे थे।
लेकिन यह ख़ुशी ज़्यादा दिनों तक टिक न सकी। दक्षिण अफ़्रीका से बुलावे का तार आ गया।
वहां के प्रवासी भारतीयों ने उन्हें अपना नेतृत्व प्रदान करने के लिए तुरंत आ जाने
को कहा। इंग्लैंड के उपनिवेश मंत्री चेंबरलेन दक्षिण अफ़्रीका के दौरे पर जा रहे
थे। प्रवासी भारतीय उन्हें अपनी शिकायतें सुनाना चाहते थे। इसलिए दक्षिण अफ़्रीका
के भारतीयों ने गांधीजी को तत्काल बुलाया। अपने परिवार को पीछे छोड़कर गांधीजी एक
बार फिर दक्षिण अफ़्रीका के लिए चल पड़े। उन्होंने सोचा था दो-चार महीने में मामला
निपटाकर वे भारत लौट आएंगे।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की वास्तविक स्थिति
एक घटनारहित यात्रा के बाद 25 दिसम्बर 1902 को जब गांधीजी डरबन पहुंचे, लोगों ने खुशी और उत्साह के साथ उनका
स्वागत किया। नेटाल इंडियन कांग्रेस के कार्यकारी सचिव मनसुखलाल नज़र और रहीम के.
खान ने उनके आगमन की घोषणा करने के लिए एक परिपत्र ज़ारी किया था, फलस्वरूप भारतीय समुदाय के शीर्ष लोग उन्हें लेने और उन्हें नेशनल
होटल ले जाने के लिए पॉइंट पर एकत्र हुए थे। उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव जोसेफ
चेम्बरलेन को अगले दिन (26 दिसंबर) दक्षिण अफ्रीका का अपना दौरा शुरू करने के लिए
आना था। गांधीजी की जब लोगों से बातचीत हुई, तो उनको वहां की वास्तविक स्थिति का पता चला। उनको
आशा थी कि बोअर युद्ध के बाद दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दशा सुधर जाएगी। ट्रांसवाल और फ़्री स्टेट में तो किसी विषम परिस्थिति की उन्होंने
कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि लॉर्ड लेंसडाउन और लॉर्ड सेलबर्न जैसे बड़े अधिकारियों ने
आश्वासन दिया था कि बोअर राज्यों में भारतीयों की खराब हालत का होना भी युद्ध के
कई कारणों में से एक कारण है, और युद्ध के बाद इस पर ग़ौर किया जाएगा। प्रिटोरिया में रहने वाले
ब्रिटिश राजदूत ने भी गांधीजी को आश्वासन दिया था कि ट्रांसवाल जब ब्रिटिश उपनिवेश
हो जाएगा तो सारे भारतीयों के सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। यह
माना जा रहा था कि सत्ता बदल जाने पर ट्रांसवाल के पुराने कानून भारतीयों पर लागू
नहीं किए जा सकते, लेकिन हुआ उलटा। सब कुछ बदल चुका था। अधिकारी नए और पहुंच से बाहर थे। एक एशियाई
विभाग बनाया गया था, और इसके प्रभारी लोगों
को, जाहिर तौर पर, भारतीयों के साथ
बहुत कम सहानुभूति थी। भारतीय समुदाय दहशत में था क्योंकि बोअर्स पर ब्रिटिश जीत के
परिणामस्वरूप उनके रहने के नियम बदले जा रहे थे। प्रतिबंध और भी सख्त हो गए थे, और ट्रांसवाल
में तो ये प्रतिबंध और भी सख्त थे।
ज़मीन की रजिस्ट्री करने से मना कर दिया
ज़मीन की नीलामी में जिन
भारतीयों ने बोली लगाई थी, उसे गोरों ने मंज़ूर कर लिया, क्योंकि अधिकारियों को यह आभास था कि नई सरकार के आते ही भारत विरोधी
क़ानून समाप्त हो जाएंगे। लेकिन जब प्रवासी भारतीय ज़मीन की रजिस्ट्री के लिए गए तो
उन्हें 1885 क़ानून का हवाला देकर ज़मीन की रजिस्ट्री उनके नाम करने से मना कर दिया
गया। डरबन में पहुंचते ही गांधीजी को मालूम हुआ कि बोअर युद्ध में प्रवासी
भारतीयों ने अंग्रेज सरकार की जो सहायता की थी, वह उसे भूल चुकी है और उन पर कई नए कर और पाबंदी लाद दिए गए हैं।
उनकी हालत बद से बदतर हो गई है।
सुधार में भारतीयों का ज़िक्र नहीं
बोअर युद्ध समाप्त होने के
बाद ब्रिटिश सरकार ने वहां के नियम-क़ानून की जांच-पड़ताल के लिए एक कमेटी गठित की
थी। उसका मुख्य काम था उन नियम-क़ानूनों की पहचान करना जो ब्रिटिश विधान से मेल न
खाते हों और महारानी विक्टोरिया की प्रजा के नागरिक अधिकारों में जो क़ानून बाधक
हों और उन्हें रद्द कर देना। हालाकि ‘महारानी विक्टोरिया की प्रजा’ में भारतीय प्रजा भी शामिल थी
लेकिन समिति ने इसका अर्थ केवल गोरी प्रजा से ही लिया। जो भी सुधार हुए उनमें
भारतीयों का कहीं ज़िक्र भी नहीं था। उलटे बोअरों के राज्य में जितने भी भारतीय
विरोधी क़ानून थे उन सबको नए सिरे से एक अलग नियम संहिता में समेट कर प्रभावशाली
ढंग से लागू कर दिया। जो लोग “जोहानिस्बर्ग एशियाटिक लोकेशन” में रह रहे थे उन्हें देश
छोड़ने का नोटिस दे दिया गया।
प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के अवसर कम
गांधीजी जब भारत में थे, तब नवम्बर 1901 में नेटाल की
सरकार ने एक अधिनियम पारित किया। इसके तहत यह प्रावधान रखा गया कि कोई भी व्यक्ति
जो स्थाई मताधिकार की योग्यता से वंचित कर दिया जाता है उसे सरकारी महकमे में नौकरी
पाने योग्य न समझा जाएगा। इससे साफ़ था कि प्रवासी भारतीयों के लिए रोज़गार के अवसर
कम हो रहे थे। यह गांधीजी की जानकारी में नहीं लाया गया था। वहां पर उन दिनों प्रवासी
भारतीयों की स्थिति काफ़िरों, जुलू और मलायी लोगों की तरह ही बहुत ही दयनीय थी और गांधीजी के सामने
चुनौती थी कि कैसे उन्हें उनका अधिकार दिलाया जाए।
चैम्बरलेन को दिया जाने वाला प्रार्थना-पत्र तैयार
ट्रांसवाल में प्रवेश पर प्रतिबन्ध कायम था। बोअर युद्ध के पहले कोई भी भारतीय
ट्रांसवाल में आ जा सकता था। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी थी। उन पर प्रतिबन्ध लागू हो गया था और
उन्हें प्रवेश करने के लिए परवाना लेना पड़ता था। सितंबर 1902 में, औपनिवेशिक सचिव कार्यालय के एक उप-विभाग
के रूप में एशियाई मामलों के लिए एक अलग विभाग, भारतीयों को परवाना देने के लिए, एशियाटिक
विभाग खोला गया। हब्शियों से सम्बन्ध रखने वाला एक अलग विभाग
पहले से ही था। ऐसी दशा में एशियावासियों के लिए भी अलग विभाग क्यों न हो? दलील ठीक मानी गयी। यह नया विभाग गांधीजी के दक्षिण
अफ्रीका पहुंचने से पहले ही खुल चुका था और धीरे-घीरे अपना जाल बिछा रहा था। परवाना लेने की प्रक्रिया जटिल बना
दी गई थी। यह विभाग भारतीयों को दबाने के लिए
खोला गया था। ट्रांसवाल जाने के इच्छुक भारतीयों को
सबसे पहले इस विभाग के प्रमुख के पास आवेदन करना पड़ता था। विभाग स्वयं परमिट जारी
नहीं करता था। यह केवल परमिट के लिए आवेदनों की सिफारिश करता था। आवेदनों को
मंजूरी देने के बाद, क्षेत्रीय कार्यालय के पर्यवेक्षक
सिफारिशों की सूची निकटतम परमिट कार्यालय को भेजते थे और परमिट कार्यालय इसकी
सूचना डरबन (या केप टाउन) में अपने कार्यालय को भेजता था। इसके बाद परमिट आम तौर
पर प्रवेश के बंदरगाह पर प्राप्त किए जा सकते थे। अधिकारी रिश्वत खाते थे। काफी पक्षपात किया जाता था। युद्ध के दौरान भारत से सशस्त्र बलों के
साथ निजी सेवक, वाहक और शिविर-अनुयायी के रूप में कई
भारतीय आए थे। उनमें से कई पीछे ही रह गए थे। श्वेत लोग सैन्य शासन की आड़ में
भारतीयों को युद्ध के बाद के ट्रांसवाल में पैर जमाने की अनुमति नहीं देने के लिए
दृढ़ थे। युद्ध का अंत हो जाने के बाद भी दुकानें पूरी तरह से नहीं खुली थीं। दुकानों के अधिकांश सामान बोअर सरकार
हड़प चुकी थी।
जब गांधीजी डरबन पहुंचे तो
उन्हें कहा गया कि उन्हें ट्रांसवाल भी जाना होगा। गांधीजी के वहां पहुंचने के
साथ-साथ ही चैम्बरलेन भी डरबन पहुंच चुका था। गांधीजी ने सोचा कि नेटाल की स्थिति
से चैम्बरलेन को वाकिफ़ करा कर वह उसके पीछे-पीछे ही ट्रांसवाल जाएंगे। तैयारी पूरी
कर ली गई थी और चैम्बरलेन के पास शिष्टमंडल के जाने की तारीख भी निश्चित हो चुकी
थी। मतलब गांधीजी के पहुंचते ही उनके लिए वहां काम तैयार था। सबसे पहले तो उन्हें चैम्बरलेन
के सामने पढ़ा जाने वाला प्रार्थना-पत्र तैयार करना था। वे अपने काम में जुट गए। हिंद कौम की तरफ़ से एक अर्ज़ी
तैयार की।
नेटाल के भारतीयों का प्रतिनिधि-मंडल
जोसेफ़ चैम्बरलेन (8 जुलाई 1836 - 2 जुलाई 1914) को भारतीयों का हमदर्द समझा जाता था। उसने पहले मदद भी की थी। उसी के
सहयोग से मताधिकार संशोधन बिल को महारानी की स्वीकृति नहीं मिल पाई थी। लेकिन तब
से अब तक में फ़र्क़ आ गया था। गोरे समाज ने चैम्बरलेन के उस कृत्य को बदसलूकी के रूप में लिया और उसे माफ़ नहीं किया था। गांधीजी
के नेतृत्व में नेटाल के भारतीयों का 16 व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि-मंडल उपनिवेश
मंत्री चैम्बरलेन
से मिलने पहुंचा। जब 28 दिसम्बर 1902 को गांधीजी ने नेटाल में चैम्बरलेन के समक्ष नेटाल भारतीय कांग्रेस
के प्रतिनिधि मंडल के साथ भारतीयों की समस्याओं से सम्बन्धित ज्ञापन प्रस्तुत किया, तो उसका रुख बदला हुआ पाया। गांधीजी और 15
अन्य लोगों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन में डीलर्स लाइसेंस अधिनियम, आव्रजन प्रतिबंध अधिनियम, भारतीय शिक्षा
के लिए सुविधाओं की अपर्याप्तता, भारतीय आव्रजन विधेयक और
पास प्रतिबंधों से उत्पन्न कठिनाइयों का उल्लेख किया गया था। अपने आरंभिक भाषण में
चैम्बरलेन ने कहा कि उपनिवेशों को "यह समझना चाहिए कि साम्राज्य के केंद्र
में बैठे लोगों के लिए कभी-कभी चीजों को व्यापक रूप से देखना और सही निर्णय पर
पहुंचना संभव होता है, भले ही इसके लिए
उपनिवेशी राय का बलिदान देना पड़े।" उसने प्रतिनिधि
मंडल की सारी बातें और गांधीजी की दलील शांति और धीरज से सुनी और अत्यंत
टालमटोल के साथ उत्तर दिया। उसने नेटाल के मंत्री-मंडल से हिन्दुस्तानियों की स्थिति
के बारे में बातचीत करने का वचन दिया।
बोअर-युद्ध से पहले जो कानून पास हो चुके थे, उनमें तुरंत सुधार होने की कोई आशा नहीं थी। बोअर-युद्ध से पहले कोई भी हिन्दुस्तानी किसी भी समय ट्रांसवाल में जा सकता था। आज यह स्थिति
नहीं थी। इस मुलाक़ात का कोई नतीजा नहीं निकला। चैम्बरलेन, जो अंग्रेजों
और बोअर्स का दिल जीतने आया था, ने नेटाल के भारतीय
प्रतिनिधिमंडल को बहुत ही ठंडा रिस्पौंस दिया। उसने गांधी से कहा, "आप जानते हैं, शाही सरकार का
स्वशासित उपनिवेशों पर बहुत कम नियंत्रण है। कॉलोनी के पास एक जिम्मेदार सरकार
होने के कारण पहले से लागू कानूनों के बारे में मैं बहुत कुछ नहीं कर सकता।" यह
एक "आँख खोलने वाली बात" थी। चैम्बरलेन ने व्यावहारिक रूप से यूरोपीय
लोगों की इस दलील का समर्थन किया था कि अगर एशियाई लोगों के आगमन पर और प्रतिबंध
नहीं लगाए गए तो उनके डूब जाने का खतरा है, यह दलील तथ्यों के आधार
पर पूरी तरह से निराधार थी।
प्रतिनिधिमंडल ट्रांसवाल में
गांधीजी इतनी आसानी से टलने वाले नहीं
थे। लेकिन प्रिटोरिया
कैसे पहुँचें? बोअर युद्ध से पहले
कोई भी भारतीय किसी भी समय ट्रांसवाल में प्रवेश कर सकता था। लेकिन अब नेटाल और
ट्रांसवाल की सीमा पार करने वाले सभी भारतीयों के पास परमिट होना ज़रूरी था। परवाना
एशियाटिक विभाग से मिलता था। जिसका उद्देश्य भारतीयों को गोरों से अलग करना था। एशियाटिक
विभाग एक भयानक विभाग था और
वह केवल हिन्दुस्तानियों को दबाने के लिए ही खोला गया था। गांधीजी काफ़ी मशहूर थे, और परमिट मिलना मुश्किल था। उन्होंने
अपने दोस्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट अलेक्जेंडर से संपर्क किया, और सुपरिंटेंडेंट की मदद से वे परमिट
पाने में सफल रहे। नेटाल से गांधीजी 1 जनवरी 1903 को प्रिटोरिया पहुंचे। इस तरह उन्होंने चैम्बरलेन का पीछा ट्रांसवाल तक किया। ट्रांसवाल बोअर युद्ध
के बाद ब्रिटेन का एक उपनिवेश बन चुका था। युद्ध के पहले ट्रांसवाल में भारतीयों
की दशा नेटाल से भी बदतर थी। अब जबकि यह ब्रिटिश उपनिवेश बन चुका था, गांधीजी को उम्मीद थी कि देशवासियों
के कष्ट कम हो गए होंगे। लेकिन गांधीजी को जो अनुभव हुआ उससे उन्हें काफी बड़ा झटका
लगा। युद्ध के बाद ट्रान्सवाल उजाड़ जैसा हो गया था। वहाँ न खाने को अन्न था, न पहनने ओढ़ने को कपड़े मिलते थे।
प्रिटोरिया के भारतीय चैम्बरलेन को एक
और याचिका देना चाहते थे, और उन्होंने गांधी
से इसे लिखने के लिए कहा। लेकिन जब ट्रांसवाल के भारतीयों की याचिका चैम्बरलेन के
सामने पेश करने की बात आई, तो गांधीजी को
प्रतिनिधिमंडल से बाहर कर दिया गया। हर जगह गांधीजी को नस्लभेद का प्रत्यक्ष अनुभव
हो रहा था। प्रिटोरिया के अधिकारियों ने गांधीजी को किसी तरह बाहर रखने की योजना
बनाई थी और वे उन्हें पहले से ही वहां पाकर हैरान थे। वे शांति संरक्षण अध्यादेश
के तहत उन पर मुकदमा चलाना चाहते थे, जिसके
अनुसार बिना परमिट के ट्रांसवाल में प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार
कर जेल भेजा जा सकता था। जब एशियाई विभाग को पता चला कि गांधीजी ने उचित परमिट
हासिल कर लिया है तो अधिकारी नाराज़ हो गए कि गाँधीजी को वहाँ आने के लिए परवाना
कैसे मिल गया? जोहानिस्बर्ग के एशियाई विभाग के अधिकारी ने किसी अन्य बहाने से
उनके काम में बाधा डालने का प्रयास किया। उसने भारतीयों को सूचित किया कि गांधीजी
की उपस्थिति से मिलने वाली सुरक्षा की अब कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि सरकारी हलकों में वे अवांछित
व्यक्ति थे। एशियाई मामलों के विभाग के अधिकारियों ने यह सुनिश्चित किया कि
गांधीजी को ट्रांसवाल भारतीयों के प्रवक्ता के रूप में कार्य करने की अनुमति न दी
जाए।
गांधीजी ने अपने अपमान की परवाह न करते
हुए अन्य लोगों को चैम्बरलेन से मिलने के लिए कहा। गांधीजी ने अर्जी तैयार कर दी थी। भारतीय बैरिस्टर जॉर्ज गौडफ्रे ने अर्जी
पढी। चैम्बरलेन ने
प्रतिनिधिमंडल की सारी बातें शांतिपूर्वक सुनी। फिर उसने कहा, “मैं गांधीजी से
डरबन में मिल चुका हूँ,
इसलिए मैंने उनसे यहाँ मिलने से इनकार कर दिया। मैंने सोचा कि ट्रांसवाल की बातें मैं
ट्रांसवाल के लोगों से ही सुनूँ।
उपनिवेश तो स्वराज्य-भोगी है। अपने घरेलू मामलों में आज़ाद है। आपको यहां के गोरों
से ही समझौता करनी चाहिए।”
चैम्बरलेन ने नेटाल के मंत्रिमंडल से बात करने का आश्वासन
भी दिया। चैम्बरलेन बड़ी मधुरता दिखाते हुए मिला,
लेकिन गोल-गोल बातें करते हुए असली मुद्दे को टाल गया। यह
मुलाक़ात निरर्थक रही। उसने भारतीय लोगों की मांगों को कोई महत्व ही नहीं दिया। उसका उत्तर
जलती आग में घी डालने जैसा था। वह एशियाटिक विभाग की सिखाई गई बात बोल रहा था। एशियाटिक
विभाग ने चैम्बरलेन को यह सिखाया कि डरबन में रहने वाला गाँधी ट्रांसवाल के हिन्दुस्तानियों की बात क्या जान सकता है? गांधीजी
ट्रांसवाल में रह चुके थे। लेकिन चैम्बरलेन
स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों के प्रभाव में इतना अधिक आ चुका
था और वहाँ के गोरों को संतुष्ट करने के लिए इतना आतुर था कि उससे न्याय पाने की आशा बिलकुल नहीं की जा सकती थी।
3.5 करोड़ पौंड का तोहफ़ा
प्रतिनिधिमंडल को कोई सफलता हाथ नहीं लगी। ब्रिटिश विदेश
सचिव उपनिवेशों का दौरा भारतीयों की शिकायतें सुनने के लिए नहीं बल्कि यूरोपियों
को ख़ुश करने के लिए कर रहा था जिनसे उसे 3.5 करोड़ पौंड का तोहफ़ा मिलने की उम्मीद थी। चैम्बरलेन के दक्षिण अफ़्रीकी दौरे के
दो मुख्य मकसद थे। एक तो वह वहां से साढ़े तीन करोड़ पौण्ड लेने गया था, जो उसे गोरों से ही मिलते। यह वह
राशि थी जो अफ़्रीका के गोरों को ब्रिटिश सरकार को बोअर युद्ध के हरजाने के रूप में
देनी थी। इसलिए वह गोरी सरकार के ख़िलाफ़ कुछ कहना-सुनना नहीं चाहता था। बल्कि उसका
ध्यान गोरों और उसकी समस्याओं पर ही केन्द्रित था। दूसरे वहां स्थित अंग्रेज़ों और बोअरों का मन भी उसे जीतना था। बोअर युद्ध के बाद
बोअरों और अंग्रेज़ों के बीच की
दूरियां काफ़ी बढ़ गई थीं। इस दूरी को जहां तक हो सके उसे मिटाना था। इन उद्देश्यों
के सामने भारतीयों का प्रतिनिधिमंडल कहां ठहरता। शिष्टमंडल को उसकी ओर से तो उन्हें
चैम्बरलेन का यह उपदेश मिला, …
“आप तो जानते हैं कि उत्तरदायी उपनिवेशों पर साम्राज्य-सरकार का अंकुश
नाम मात्र का ही है। आपकी शिकायतें तो सच्ची जान पड़ती हैं। मुझसे जो हो सकेगा, मैं करूंगा। मैं नेटाल सरकार
से बात करूंगा, लेकिन मैं नहीं समझता कि जो क़ानून एक बार बन चुका है और लागू हो चुका
है उसे इतनी जल्दी बदलना उनके लिए संभव होगा। आप जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार एक इंसाफ़
पसंद सरकार है। पर हम उपनिवेशों के मामलों में ज़्यादा दखलंदाज़ी नहीं करते। इसलिए
यदि आप लोगों को दक्षिण अफ़्रीका में रहना है,
तो जिस तरह भी बने, यहां के गोरों से ही समझौता
करके रहना चाहिए। ... आखिर आपको उन्हीं के बीच तो रहना है।”
भारतीयों के उत्साह पर पानी फिर गया
‘गोरों से ही समझौता कर रहना चाहिए’ इससे यह स्पष्ट था कि ब्रिटिश विदेश सचिव, उपनिवेशों का दौरा भारतीयों की
शिकायतें सुनने के लिए नहीं बल्कि यूरोपियों को ख़ुश करने के लिए कर रहा था। यह
जवाब सुनकर सारे प्रतिनिधियों का जोश ठंडा पड़ गया,
मानों उनके उत्साह पर पानी फिर गया हो। शुरू में तो गांधीजी
भी निराश हुए ... ब्रिटिश सरकार इतनी जल्दी प्रवासी भारतीयों की सेवा और बलिदान को
कैसे भूल गई, ... लेकिन वे इतनी आसानी से हार
मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने मन ही मन सोचा, “जब जागे तभी सवेरा। फिर से श्रीगणेश
करना होगा।” उन्हें समझ आ गया की बदली परिस्थिति
में औपनिवेशिक
सचिव निश्चित रूप से बोअर्स को नाराज़ करने का खतरा मोल नहीं ले सकता था, खासकर जब उसे दक्षिण
अफ्रीका से पैंतीस मिलियन पाउंड का उपहार मिल रहा था और वह तो बोअर्स और ब्रिटिशों
के बीच युद्ध के बाद के संबंधों को मजबूत करने के लिए आया था। इसके विपरीत, वह उन्हें हर संभव रियायत देने
के लिए उत्सुक था। उन्होंने साथियों को भी यह बात
समझाई। सब लोग चिंतित हो गए। उनके सामने अंधकार था … मुख्य प्रश्न था, अब हमारी कौन सुनेगा? .. अब हम क्या करें? इस प्रकरण पर प्रतिक्रिया व्यक्त
करते हुए गांधीजी लिखते हैं, … “हां चैम्बरलेन अपने हिसाब से ठीक ही था। गोलमोल बात कहने के बदले उसने
साफ बात कह दी। जिसकी लाठी उसकी भैंस का क़ानून उसने मीठे शब्दों में समझा दिया था।
पर हमारे पास लाठी थी ही कहां? हमारे पास तो प्रहार झेलने लायक शरीर भी मुश्किल से थे।”
अपने दक्षिण अफ्रीकी दौरे में औपनिवेशिक सचिव ने निश्चित रूप
से बोअर्स को नाराज करने का प्रस्ताव नहीं रखा था। वास्तव में, बहुत जल्द ही, बोअर नेता जनरल
लुईस बोथा ब्रिटिश-प्रभुत्व वाले दक्षिण अफ्रीका संघ का प्रधानमंत्री बन गया तथा
एक अन्य बोअर जनरल और वकील जान क्रिश्चियन स्मट्स उसका वित्त और रक्षा मंत्री बन गया।
ब्रिटेन बोअर के घावों पर मरहम लगा रहा था और इसलिए उसका इरादा भारतीयों की
शिकायतों का निवारण करके बोअर की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था। एक तरह से तो गांधीजी का काम पूरा हो चुका था। वह चैम्बरलेन को प्रतिवेदन
देने आए थे। उसे अब वह दे चुके थे। अब
चैम्बरलेन के दक्षिण अफ्रीका छोड़ते ही वह भारत वापस लौट सकते थे। दूसरी ओर दक्षिण
अफ्रीका में हिन्दुस्तानी कौम भयंकर स्थिति में थे। उनकी आत्मा उन्हें हिंदुस्तान
लौट जाने की गवाही नहीं दे रही थी। कौम की सेवा के लिए उन्हें वहीँ रहना चाहिए। जब
तक घिरे हुए बादल बिखर नहीं जाते या सारी कोशिश के बावजूद और अधिक उमडकर फट नहीं पडते" तब तक
दक्षिण अफ्रीका में रहने का गांधीजी ने फैसला कर लिया।
उपसंहार
ट्रांसवाल की स्थिति देखकर गांधीजी को धक्का लगा। ब्रिटिश शासन कायम होने बाद
अपमानजनक प्रतिबंध कम होना तो दूर की बात थी, स्थिति और भी अधिक क्षोभजनक और
बदतर हो गई थी। धक्का लगने के बाद भी गांधीजी का
मोहभंग नहीं हुआ था। अंग्रेजों की न्याय की भावना और
औचित्यपूर्ण व्यवहार में उनकी आस्था अभी भी बनी हुई थी। भारतीयों का मनोबल बनाए रखना और उसे मज़बूत बनाना ज़रूरी था। गांधीजी को समझ आ गया कि दक्षिण अफ़्रीका का संकट काफी बड़ा था। संघर्ष
का क्षेत्र फैल रहा था। नस्लीय भेदभाव तेज़ी से फैल रहा था। वहां के भारतीयों को गांधीजी पर दृढ़
विश्वास था। गांधीजी ने वहीं रहने का फैसला कर लिया। 1893 में गांधीजी एक साल के लिए आए थे, और
आठ साल रह गए। इस बार वे सिर्फ़ छह महीने के लिए आए थे, और लौटकर जाने में बारह बरस
लग गए।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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