सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

112. अपमान का कड़वा घूंट

 गांधी और गांधीवाद

112. अपमान का कड़वा घूंट

गांधी शताब्दी पर जारी डाक टिकट

1903

प्रवेश

कुछ हफ़्ते के लिए दक्षिण अफ़्रीका के प्रवास में चैम्बरलेन को डरबन से केपटाउन तक के 1100 मील से अधिक के भूखण्ड का तूफानी दौरा करना था। उसका अगला पड़ाव ट्रान्सवाल में था। गांधीजी को अभी भी उस पर विश्वास था और उसके समक्ष वहां के भारतीयों का केस भी पेश करना था। लेकिन गांधीजी के सामने समस्या वहां पहुंचने की थी। जब वे पिछली बार दक्षिण अफ़्रीका आए थे तो उन्होंने ट्रांसवाल का भी दौरा किया था। उन्हें मालूम था कि रंगभेद की नीति के लिए बदनाम बोअर शासन के तहत भारतीयों की दशा वहां नेटाल से भी बुरी थी। गांधीजी को उम्मीद थी कि बोअर से निकलकर अब जबकि वहां का शासन ब्रिटिश शासकों के हाथों में आ चुकी है, तो भारतीयों के कष्ट कम हो गए होंगे। लेकिन यह जानकर उनको धक्का लगा कि भले ही ट्रांसवाल अंग्रेजों का उपनिवेश बन गया हो, प्रवासी भारतीयों पर बंदिशें पहले से ज़्यादा थीं। अपमानजनक प्रतिबंध दूर होना तो दूर की बात थी, नियम अब तो और भी कड़े और अशोभन बना दिए गए थे।

ट्रांसवाल में दाखिल होना मुश्किल

युद्ध के पहले जो भारतीय चाहे जब ट्रांसवाल में दाखिल हो सकता था। अब वैसी स्थिति नहीं रह गई थी। उन सभी भारतीयों के लिए जो बोअर युद्ध के समय ट्रांसवाल छोड़कर चले गए थे, अब फिर से अपने घर वापस आने के लिए उन्हें परमिट लेना ज़रूरी कर दिया गया था। गांधीजी के लिए प्रिटोरिया जाने की अनुमति प्राप्त करना वहां के भारतीयों से संभव नहीं था। बोअर युद्ध के बाद ट्रांसवाल उजाड़-सा हो गया था, उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी और वह संकट की घड़ी से वह गुज़र रहा था। वहां न खाने को अन्न थे, न ही पहनने ओढ़ने के लिए कपड़े। वहां के लोग घरबार छोड़ कर अन्य इलाक़ों में भाग गए थे। लड़ाई के कारण वहां की बहुत-सी दुकानें अब भी खाली और बंद पड़ी हुई थीं। दुकानों का अधिकांश माल बोअर सरकार साफ कर गई थी। ऐसी दुकानों को माल से भरवाना और उन्हें पुनः खुलवाना वहां के नए प्रशासकों की प्रमुख समस्या थी। यह काम धीरे-धीरे ही हो सकता था। जैसे-जैसे माल इकट्ठा होता जाए, वैसे-वैसे ही घर-बार छोड़कर भाग कर चले गए लोगों को वापस आने दिया जा सकता था। इस कारण प्रत्येक ट्रांसवाल वासी को परवाना लेना पड़ता था। जो गोरे थे उन्हें तो परवाना मांगते ही मिल जाता था। उनके लिए तो परवाने देने के दफ़्तर दक्षिण अफ़्रीका के अलग-अलग बंदरगाहों पर खोले गए थे। मुसीबत थी भारतीयों की। उनके लिए अलग विभाग खोला गया था।

एशियाटिक विभाग की करतूतें

लड़ाई के दिनों में भारत और लंका से कई अधिकारी और सिपाही दक्षिण अफ़्रीका पहुंच गए थे। लड़ाई के बाद उनमें से जो वहीं बसना चाहते थे, उन्हें हर तरह की सुविधा मुहैया करना वहां के प्रशासकों का काम था। इसके लिए एशियाटिक विभाग नाम से अलग महकमा ही खोल दिया गया था। इसी नए विभाग की सिफ़ारिश पर ही एशियावासियों को परवाने मिल सकते थे। परमिट देने की प्रक्रिया लंबी थी। भारतीयों को इस महकमे के अफसर के पास अर्ज़ी भेजनी होती थी। वह मंज़ूर हो गई तो डरबन या किसी दूसरे बंदरगाह से आमतौर पर परवाना मिल जाता था। हालाकि उस दफ़्तर में एशियाई मूल के लोग के काम करते थे लेकिन उनकी तानाशाही गोरों से भी ज़्यादा भयानक थी। इस विभाग की हालत यह थी कि इनके यहां अर्ज़ी सप्ताहों पड़ी रहती। इसके अधिकारी लालची और लंपट थे। इनके भ्रष्टाचार और अत्याचार से भारतीय लोग त्रस्त थे। दलालों के चक्कर लगाने पड़ते। ग़रीब भारतीयों के पैसे लुट रहे थे। गांधीजी के पास इन सब के लिए समय कहां था? यदि वे अर्ज़ी देकर परवाने के मिलने की प्रतीक्षा करते तो चैम्बरलेन से ट्रांसवाल में मिलने की आशा रखना ही व्यर्थ था। चैम्बरलेन प्रिटोरिया के लिए रवाना हो चुका था। देरी की गुंजाइश नहीं थी, गांधीजी को भी पीछे-पीछे ही पहुंचना था।

अलेक्ज़ेण्डर की सहायता

गांधीजी को परवाने देने वाले अधिकारी से जान-पहचान नहीं थी। वे अपने पुराने मित्र डरबन के पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट आर.सी. अलेक्ज़ेण्डर के पास पहुंचे। फ़ील्ड स्ट्रीट वाले आक्रमण में अलेक्ज़ेंडर और उसकी पत्नी ने उनकी जान बचाई थी। उनसे मदद की गुजारिश की। अलेक्ज़ेण्डर ने तुरत मदद की। वह गांधीजी को साथ ले जाकर परवाना देने वाले पदाधिकारी से परिचय करा दिया। उसने यह भी बताया कि गांधीजी एक साल तक ट्रांसवाल में रह चुके हैं। इस आधार पर 29 दिसम्बर 1902 को गांधीजी को पुलिस अधिक्षक अलेक्ज़ेण्डर की सहायता से ट्रांसवाल जाने का परमिट मिला। सामान बांधने और ट्रेन पकड़ने के लिए गांधीजी के पास सिर्फ़ एक घंटे था। जल्दी से सब कुछ समेट कर वे प्रिटोरिया के लिए रवाना हुए। जनवरी 1903 को वे प्रिटोरिया पहुंचे। प्रार्थना पत्र तैयार कर वे चैम्बरलेन से मिलने की अर्ज़ी देने गए, तो उन्हें मालूम हुआ कि ट्रांसवाल का निवासी न होने के कारण उन्हें उपनिवेश सचिव से नहीं मिलने दिया जाएगा।

निरंकुश अधिकारी

पराजय से खीजा हुआ ट्रांसवाल, भारतीयों के लिए नेटाल से भी ज़्यादा कठोर और निर्मम था। ट्रांसवाल में उपनिवेश सचिव से कौन प्रतिनिधि मंडल कब मिल सकता है इसका काम एशिया निवासियों का मामला देख रहे नए विभाग के जिम्मे था। इसके अधिकारी नए और अप्राप्य थे। उन्हें भारतीयों के साथ बहुत कम सहानुभूति थी। इस विभाग के अधिकारी निरंकुश ढंग से प्रशासन चला रहे थे। ऐसा लगता था कि इस महकमे की स्थापना ही भारतीयों को दबाने के लिए किया गया है। एक तो खास तौर से यह महकमा कायम ही वर्ग-विशेष के स्वत्वों पर अंकुश रखने के लिए किया गया था उस पर से वहां के अधिकारी घुसखोर भी थे। 

तरह-तरह की चालें

2 जनवरी 1903 को जब मिलने वालों की अपने प्रतिनिधि मंडल की अर्ज़ी गांधीजी ने बढ़ाई, तो उस अधिकारी की समझ में नहीं आया कि यह आदमी ट्रांसवाल में दाखिल कैसे हो गया? उसने तो इसकी इज़ाज़त का कोई आदेश दिया नहीं था। गांधीजी से सीधे पूछने की तो उसकी हिम्मत नहीं हुई लेकिन आसपास के अन्य लोगों से उसने पूछा, पर वे बेचारे क्या जानते कि यह कैसे हुआ? उस अधिकारी ने यह अनुमान लगाया कि पुरानी जान-पहचान का फ़ायदा उठाकर गांधीजी बिना अनुमति-पत्र के दाखिल हो गए होंगे। वह मन-ही-मन सोच रहा था कि अगर इसने ज़्यादा चपड़-चुपड़ की तो इसे गिरफ़्तार करवा दूंगा। यदि उसने पुरानी जान-पहचान का फ़ायदा उठाया है, तो शांति संरक्षण अध्यादेश के तहत उसे गिरफ्तार कर कारावास की सजा दी जा सकती थी। लड़ाई के बाद शांति बहाली के लिए वहां के अधिकारियों को कुछ विशेष पावर दे दिए गए थे। उनमें से एक यह भी था कि यदि कोई बिना अनुमति-पत्र के ट्रांसवाल में दाखिल होता है, तो उसे गिरफ़्तार कर लिया जाएगा और क़ैद में रखा जाएगा। इसी क़ानून के तहत गांधीजी को पकड़ने के लिए सलाह-मशवरा चल रहा था। लेकिन स्पष्ट तौर पर कोई उनसे परवाना मांगने की हिम्मत न दिखा पाया। अधिकारियों ने डरबन के अधिकारियों से संपर्क साधा और तब उन्हें मालूम हुआ कि गांधीजी को अनुमति-पत्र दिया गया है। बेचारे निराश हुए, पर हिम्मत नहीं हारे। अड़ियल रुख उसने बरकरार रखा। तरह-तरह की चालें चलता रहा और गांधीजी को चैम्बरलेन के पास न पहुंचने दिया।


सरौते के बीच फंसी सुपारी जैसी दशा

गांधीजी ने डेविडसन से संपर्क करने का प्रयास किया, जो उस समय उपनिवेश सचिव थे, लेकिन असफल रहे। लगातार प्रयासों के बाद ही वे इस सज्जन से मिल पाए, और फिर उन्हें विनम्रतापूर्वक सहायक के पास भेज दिया गया। इस विभाग के अधिकांश अधिकारी एशिया से आए थे। इनमें रंगभेद के अलावे चालबाज़ी का गुण भी था। वे निरंकुश तो थे ही, षडयंत्र करने से भी बाज़ नहीं आते थे। जो अधिकारी पहले से वहां का काम देख रहे थे, उनपर कम-से-कम गोरों का अंकुश तो रहता था। पर ये एशिया से आए अधिकारी स्थानीय गोरों की भी नहीं सुनते थे, तो भारतीयों की दशा तो उस सुपारी जैसी थी जो सरौते के बीच फंसी हो। एशियाई विभाग के अधिकारी आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। गांधीजी को ट्रांसवाल में प्रवेश करने से रोकने के अपने प्रयास में असफल होने के बाद उन्होंने सोचा कि वे अब भी उन्हें चैंबरलेन की प्रतीक्षा करने से रोक लेंगे। सबसे पहले तो सभी प्रतिनिधियों के नाम मांगे गए। फिर उन्हें उच्चाधिकारी के पास बुलाया गया। वह अधिकारी लंका से आया था। वह सहायक उपनिवेश सचिव था और उसका नाम डब्ल्यू. एच. मूर था। वह सिलोन सिविल सर्विस का अधिकारी था। उसने सेठ तैयब हाजी खान महम्मद से पूछा, “गांधी कौन है? वह यहां क्यों आया है?”


तैयब सेठ ने बताया, “वे हमारे सलाहकार हैं। उन्हें हमने बुलाया है।


साहब ने हुंकार भरी, “तो हम सब यहां किस काम के लिए बैठे हैं? क्या हम तुम लोगों की रक्षा के लिए नियुक्त नहीं हुए हैं? ये गांधी यहां की हालत क्या जानेगा?”


तैयब सेठ ने अपनी क्षमता के हिसाब से जवाब दिया, “आप तो हैं ही, पर गांधीजी तो हमारे ही माने जाएंगे न? वे हमारी भाषा जानते हैं। हमें समझते हैं। आप तो आखिरकार अधिकारी ठहरे।


साहब ने हुक्म दिया, “गांधी को मेरे पास लाना।


तैयब सेठ के साथ गांधीजी ने उसके दफ़्तर में प्रवेश किया। कुर्सी मिलना या बैठने को कहना तो मानों वहां की परंपरा के खिलाफ़ होता। उसने आंखें टेढ़ी करके पूछा, “कहिए जनाब! आप यहां किसलिए आए हैं?”


गांधीजी ने शान्त स्वर में कहा, “अपने भाइयों के बुलाने पर मैं उन्हें सलाह देने आया हूं।


उस अधिकारी ने अपनी चाल चली, “पर क्या तुम जानते नहीं कि तुमको यहां आने का अधिकार ही नहीं है? परवाना तो तुम्हें भूल से मिल गया है। तुम यहां के निवासी नहीं माने जा सकते। मि. चैम्बरलेन के पास जाना तो दूर, तुम्हें यहां से वापस जाना होगा। रही बात यहां के हिन्दुस्तानियों की रक्षा, तो उसके लिए ही तो यह विभाग विशेष रूप से खोला गया है। ओके। अब तुम जा सकते हो।


गांधीजी को तो कुछ बोलने का मौक़ा ही नहीं दिया उस अधिकारी ने। जब वे बाहर निकलने लगे तो उस अधिकारी ने गांधीजी के अलावा शिष्टमंडल के सभी सदस्यों को रुकने को कहा। गांधीजी के जाने के बाद उसने सबको धमकाया और कहा कि वे अपनी ख़ैरियत चाहते हैं तो तुरत गांधी को ट्रांसवाल से विदा कर दें। उसने भारतीयों से कहा कि वे गांधीजी से किसी प्रकार का संपर्क न रखें और उनके साथ एक विदेशी की तरह व्यवहार करें। सभी लोग अपमान का कड़वा घूंट पीकर वापस आ गए। गांधीजी शांत थे। वे भावी कार्य-योजना की रूपरेखा मन-ही-मन तैयार कर रहे थे।

उपसंहार

जब जोहानिस्बर्ग की नगर परिषद ने किसी नए स्थान या "बाज़ार" के संबंध में प्रमुख भारतीयों से मिलना चाहा, तो श्री गांधीजी का नाम फिर से उनके लोगों द्वारा प्रस्तावित सूची से हटा दिया गया। लेकिन इस मामले में भारतीयों ने ऐसा कोई भी प्रतिनिधिमंडल भेजने से साफ इनकार कर दिया जिसमें उनके मुख्य सलाहकार शामिल न हों। भारतीयों के मन में यह विश्वास जगा हुआ था कि सरकारी अधिकारियों ने गांधीजी के साथ बेरहमी से लड़ने का संकल्प लिया है और यदि संभव हो तो ट्रांसवाल में एशियाई राजनीति से उनके प्रभाव को खत्म कर देंगे। यह अंग्रेज़ अधिकारियों के लिए एक स्वाभाविक रास्ता था। अंग्रेजों को लगा कि भारतीय समुदाय में एक स्पष्ट कानूनी दिमाग, बेदाग चरित्र और व्यापक अनुभव वाला नेता उनके उन व्यवहारों को जो वे भारतीय लोगों के साथ करते थे, जैसे उन्हें मवेशियों की तरह हांकना या उनके साथ अवमाननापूर्ण व्यवहार करना, को असंभव बना सकता है। इससे सरकारी भ्रष्टाचार की उस व्यवस्था को जारी रखना भी असंभव हो जाएगा जो पहले ही शुरू हो चुकी थी। अधिकारी गांधीजी से डरते थे। यह स्वाभाविक था कि वे गांधीजी के सामने आने से नाराज़ होते। लेकिन भारतीयों ने अपने सलाहकार पर पूरा भरोसा किया। वे उनका मूल्य जानते थे, और उनसे प्रेम करते थे। अपने नेता की उपेक्षा या अपमान करने का कोई भी प्रयास उन्हें अधिकारियों के प्रति अधिक संदिग्ध बनाता था, और उन्हें अपने बीच बनाए रखने के लिए अधिक दृढ़ संकल्पित बनाता था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 


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