गांधी और गांधीवाद
96. भारत आगमन
1901, अक्तूबर-दिसम्बर
प्रवेश
गांधीजी तो यह मान कर चले थे कि
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को हमेशा के लिए छोड़ दिया है और उनका वापस लौटने का कोई
इरादा नहीं है। उन्होंने भारत में आगे के कार्यक्रम भी बना लिए थे, कि वे कलकत्ता में कांग्रेस की
आगामी वार्षिक बैठक में भाग लेंगे। वे गोखले को अपना सम्मान देंगे, भारत भर में यात्रा करेंगे, कुछ पवित्र स्थानों पर जाएंगे और समय
आने पर बंबई में एक लॉ ऑफिस खोलेंगे। उन्हें उम्मीद थी कि वे अपने जीवन का एक
अच्छा हिस्सा सार्वजनिक सेवा में लगाएंगे और समय के साथ शायद कांग्रेस के एक
पदाधिकारी बन जाएंगे।
भारत
के लिए रवाना हुए
20 अक्टूबर 1901 को गांधीजी ने पोर्ट नेटाल से एस.एस. नौशेरा जहाज
से भारत के लिए यात्रा शुरू की। उनके साथ कस्तूरबाई और उनके चार बच्चे भी थे। कस्तूरबाई
ने रास्ते के लिए खाना बनाकर रख लिया था। गांधीजी ने भी ढेर सारे फल ख़रीद लिया था।
दक्षिण अफ्रीका से भारत की यह एक लंबी यात्रा थी। लंबी यात्रा के दौरान, गांधीजी के पास
अपने देश में नए सिरे से जीवन शुरू करने की योजना बनाने के लिए पर्याप्त समय था।
किसी न किसी रूप में सार्वजनिक कार्य करना उनका मुख्य उद्देश्य था। लेकिन आजीविका
के लिए कानून का अभ्यास करना आवश्यक था। इसके लिए खुद को तैयार करने के लिए, उन्होंने अपना अधिकांश समय समुद्र में भारतीय साक्ष्य अधिनियम और उस
पर टिप्पणियों का अध्ययन करने में बिताया था।
मारिशस
(टापू)
पानी जहाज के मार्ग में
मारिशस (टापू) पड़ता था। इस समय द्वीप पर 2,59,086 भारतीय थे
जबकि 1,11,937 नॉन-इंडियन थे, जो कुल जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत था। उनमें से एक बड़ा हिस्सा
चीनी बागानों में मज़दूर के रूप में कार्यरत था। मॉरीशस भारत और दक्षिण अफ्रीका के
बीच चलने वाले सभी ‘कुली’ जहाजों के लिए बंदरगाह था। मारिशस में गांधीजी उतरे। वह मॉरीशस द्वीप पर लगभग तीन सप्ताह तक
रहे। स्थान देखने और स्थानीय गतिविधि से
परिचित होने के लिए वे मारीशस के बंदरगाह में ठहरे। उन्हें यह टापू काफ़ी पसंद
आया। वहां के भारतीयों ने उनका अभिवादन और सत्कार किया। उन लोगों ने भी गांधीजी के
दक्षिण अफ़्रीका में किए गए सार्वजनिक काम के बारे में सुन रखा था। मुस्लिम और तमिल
व्यापारियों ने 13 नवंबर को गांधीजी के सम्मान में एक स्वागत समारोह आयोजित किया।
इस अवसर पर ताहिर बाग स्थित बंगले को हरियाली और झंडियों से सजाया गया था और भवन
के सामने के बगीचे को रोशन किया गया था। स्वागत भाषण का जवाब देते हुए गांधीजी ने
पहले गुजराती और फिर अंग्रेजी में बोलते हुए कहा कि द्वीप के चीनी उद्योग की
अभूतपूर्व समृद्धि मुख्य रूप से भारतीय प्रवासियों की देन है। उन्होंने भारतीयों
से कहा कि वे मातृभूमि में होने वाली घटनाओं से खुद को परिचित करना अपना कर्तव्य
समझें और राजनीति में रुचि लें। एक रात वे वहां
के गवर्नर सर चार्ल्स ब्रूस के यहां मेहमान बनकर रहे। गांधीजी ने सर चार्ल्स ब्रूस के साथ जो
संपर्क बनाया था, उसका परिणाम कई वर्षों
बाद तब सामने आया जब सर चार्ल्स ने औपनिवेशिक कार्यालय में प्रवेश किया। इसके बाद
वे दक्षिण अफ्रीका में न्यायपूर्ण अधिकारों के लिए भारतीयों के संघर्ष में एक
सशक्त स्तंभ बन गए। 1 दिसम्बर 1901 को पोर्ट लुइस और द्वीपवासियों की सुखद यादों
के साथ, जब बॉम्बे जाने वाला एक जहाज बंदरगाह पर रुका, तो गांधीजी अपने परिवार के साथ उस पर सवार हो गए।
भारत
पहुंचने पर
तीन सप्ताह की यात्रा के बाद दिसंबर के दूसरे
सप्ताह में जहाज मुम्बई बंदरगाह पर लगा। डेक पर गांधीजी
के साथ कस्तूरबाई और बच्चे भी खड़े थे। बंदरगाह पर उनका स्वागत करने के लिए भीड़ जमा
थी। लोग हाथ हिला-हिला कर ज़ोर से कह रहे थे, “गांधीजी आ गए हैं। गांधीजी आ गए हैं।” गांधीजी और कस्तूरबाई जब पायर से होते हुए तट की ओर बढ़ रहे थे तब मुम्बई
के लोग उन्हें हार-माला पहनाने लगे। वहां से वे सब 14 दिसम्बर 1901 को राजकोट पहुंचे। राजकोट में दोस्तों और रिश्तेदारों द्वारा उनका भव्य
स्वागत हुआ।
बच्चों
की पढ़ाई
भारत आने के बाद भी बच्चों की
पढ़ाई की समस्या वैसी ही थी। हरिलाल की उम्र 13-14 साल की थी। बहन रालियात बेन के पुत्र गोकुलदास भी साथ में थे। उनकी
भी लगभग वही उम्र थी। गांधीजी की नज़र में दोनों बच्चों की हैसियत समान थी। समस्या
यह थी कि दोनों की पढ़ाई का आरंभ कहां किया जाए? उनके मन में गोंडल और बनारस दो स्थान थे। लेकिन किसको कहां भेजा जाए? इसका निर्णय करने के लिए गांधीजी ने
पड़ोस में से एक बच्चे को बुलाया। उसके एक हाथ में एक रुपया और दूसरे में पैसा रख
दिया। उस लड़के से कहा तुम्हें जहां उचित लगे इनको अलग-अलग जगह पर रख दो। उस बच्चे
ने वैसा ही किया। बाद में गांधीजी ने हरिलाल और गोकुलदास से उन्हें ढूंढ़ने के लिए
कहा। गोकुलदास को रुपया मिला और हरिलाल को पैसा मिला। इसलिए गोकुलदास को बनारस
भेजा गया और हरिलाल को गोंडल भेजा गया। लेकिन गांधीजी को गोंडल के छात्रावास से
संतोष न हुआ। कुछ समय के बाद उन्होंने हरिलाल को वहां से वापस बुला लिया। उन दिनों राजकोट में हरिलाल
खेल-कूद में भी लगे रहते थे। राजकोट में फुटबाल के खेल में हरिलाल उन दिनों बेजोड़
माने जाते थे। हरिलाल और मणिलाल को पढ़ाने का काम तीसरी पीढ़ी के भतीजे छगनलाल (गांधीजी
के काका जीवण चंद के पुत्र खुशाल चंद के पुत्र) करते थे।
देश-दर्शन
अब उनका इरादा स्थायी तौर पर
भारत में ही बसने का था। लेकिन एक बार कहीं जमने के पहले उन्होंने कुछ समय घूमने-फिरने में
बिताया। उनका इरादा देश को जानने समझने का था। जब पूरा जीवन इस देश की सेवा में
लगाना ही है, तो पहले इसे जानना ज़रूरी है। यह सोचकर उन्होंने कस्तूरबाई और पांचों
लड़कों को बड़े भाई लक्ष्मीदास के पास छोड़कर ‘भारत क्या है’ वह देखने निकल पड़े और
देश-दर्शन करते रहे।
उन्हें मालूम हुआ कि इसी माह के अन्त तक कलकत्ते में कांग्रेस का तीन दिवसीय अधिवेशन होने वाला है। 17 दिसम्बर 1901 को गांधीजी मुम्बई आ गए। 19 दिसंबर, 1901 को बॉम्बे से टाइम्स ऑफ इंडिया को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा था: "दक्षिण अफ्रीका में भारतीय उत्सुकता से यह देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि भारतीय जनता किस दिशा में उनका साथ देगी, उस संघर्ष में जो वे उस उपमहाद्वीप में अस्तित्व के लिए भयंकर बाधाओं के बावजूद कर रहे हैं।" उन्हें अधिवेशन में शमिल हो रहे डेलीगेट वकीलों से मिलना था। गांधीजी का विचार हुआ कि इसमें दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक भाषण दिया जाए। मुम्बई में गांधीजी सर फीरोजशाह मेहता से मुलाक़ात करने के लिए व्यग्र थे। किन्तु सर मेहता व्यस्त थे। उनसे मुलाक़ात न हो सकी। उन्हें पता लगा कि फीरोजशाह मेहता ने कलकत्ता जाने के लिए ट्रेन में सैलून बुक कराया है। गांधीजी ने उसी ट्रेन से जाने का निश्चय किया। उस साल दिनशॉ वाचा कांग्रेस के अध्यक्ष थे और चूंकि वे सर फिरोजशाह के मुख्य कानूनी सहायक थे, इसलिए वे दोनों एक साथ यात्रा करते थे। गांधीजी को स्टेशनों के बीच मेहता के सैलून में यात्रा करने के लिए आमंत्रित किया गया था। पारसी कोट और पतलून पहने गांधीजी ने उनसे मुलाक़ात की। उन्होंने कांग्रेस को संबोधित करने और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की ओर से एक प्रस्ताव पारित करने की अपनी इच्छा के बारे में बात की। सर फिरोजशाह बहुत ज़्यादा आशावान नहीं थे। उन्होंने कहा, "गांधी, ऐसा लगता है कि आपके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। बेशक हम आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रस्ताव पारित करेंगे। लेकिन हमारे अपने देश में हमारे पास क्या अधिकार हैं? मेरा मानना है कि जब तक हमारे पास अपनी ज़मीन पर कोई शक्ति नहीं होगी, तब तक आप उपनिवेशों की बेहतरी के लिए कुछ विशेष नहीं कर सकते।"
गांधीजी निराश हुए, लेकिन वे कुछ
नहीं कर सकते थे। बम्बई के बेताज बादशाह को तबके गांधीजी जैसे सामान्य
आदमी क्या समझा सकते थे? उन्होंने इतने से ही संतोष माना कि उन्हें कांग्रेस में प्रस्ताव पेश
करने दिया जाएगा। उनसे वादा किया गया था कि वह जो भी प्रस्ताव चाहेंगे, उसे पारित किया
जाएगा। उन्हें नहीं पता था कि कांग्रेस कई प्रस्तावों को यंत्रवत् पारित
करने की आदी थी। शायद ही कोई उन्हें सुनता था। प्रस्तावों को पारित करना एक
रस्म अदायगी था, और बिल्कुल अर्थहीन था। सर फिरोजशाह मेहता के मित्र और एक उत्कृष्ट
वकील, चिमनलाल सीतलवाड़ भी वहां मौजूद थे, जो सर फिरोजशाह की बात
से सहमत लग रहे थे। इस दौरान दिनशॉ वाचा उदास भाव से गांधी की ओर देख रहे थे। उन्होंने गांधीजी का उत्साह बढाने के लिए कहा, 'गांधी,
प्रस्ताव लिख कर मुझे बताना!' गांधीजी ने उनका उपकार माना। दूसरे स्टेशन
पर ज्योंही गाड़ी खड़ी हुई, उतरकर अपने डिब्बे में जाकर बैठ गए।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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