गांधी और गांधीवाद
102. काली मंदिर पहुंचे
उन दिनों कलकत्ता भारत का
प्रमुख महानगर था – राजनीतिक अर्थ में, और उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक अर्थ में। इसलिए गांधीजी स्वाभाविक रूप
से नगर को जानने, समझने और देखने के साथ-साथ कुछ प्रमुख व्यक्तियों से मिलने के लिए
आतुर थे। गांधीजी टिक कर बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने कलकत्ते की
एक-एक गली छान डाली। वे ज़्यादातर पैदल ही चलते थे। गुरुदास बनर्जी और प्यारे मोहन
मुखर्जी जैसी हस्तियों से भी मिले।
काली मंदिर
गांधीजी दिन-भर पैदल
घूम-घूमकर कलकत्ता देखते थे। वे अपने देश की अंतरात्मा को खोजने-पहचानने का प्रयास
करते थे। गांधीजी को कलकत्ते के प्रसिद्ध काली मंदिर देखने की तीव्र इच्छा थी।
पुस्तकों में उन्होंने इसके बारे में पढ़ रखा था,
काली बाबू के साथ भी इसकी चर्चा हुई थी। एक दिन वे काली
मंदिर पहुंचे। वहां के वातावरण ने गांधीजी को काफ़ी निराश किया। पूरा मंदिर में
देवी को प्रसन्न करने के लिए रोज़ाना बकरों की क़ुरबानी दी जाती थी। इलाका बलिदान के
बकरों की लंबी कतार से भरा था। मंदिर की गली में भिक्षुकों की भीड़ थी। साधु-संन्यासी
तो थे ही। गाँधीजी ने नियम बनाया हुआ था कि वे हृष्ट-पुष्ट भिखारियों को कुछ न
देंगे। भिखारियों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया। एक बाबा जी ने पूछा, “क्यों बेटा, कहां जा रहे हो?”
गांधीजी ने कहा, “मंदिर,
मां के दर्शन के लिए।”
बाबाजी ने गांधीजी को बैठने
के लिए कहा। गांधीजी उस चबूतरे पर बैठ गए। उन्होंने पूछा, “इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते
हैं?”
बाबाजी बोले, “जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?”
“तो आप यहां बैठकर लोगों को समझाते क्यों नहीं?”
“यह हमारा काम नहीं है। हम तो यहां बैठकर भगवद्-भक्ति करते हैं।”
“पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?”
बाबा जी ने समझाया, “हम सही जगह पर बैठे हैं, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो
भेड़ों के झुंड की तरह हैं। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते हैं, उसी रास्ते वे चलते हैं। हम साधुओं
को इससे क्या मतलब?”
गांधीजी ने बात आगे बढ़ाना
उचित नहीं समझा। वे मंदिर की ओर चल पड़े। वहां बलि प्रथा को देखकर वे भयाक्रांत हो
गए। मंदिर में निरीह पशुओं की बलि दी जा रही थी। यहां-वहां खून बिखरे थे। इस सब ने
उन्हें काफ़ी विचलित किया। दर्शन के लिए खड़े रहने की उनकी इच्छा न रही।
गांधीजी के मन से वह दृश्य हट
ही नहीं रहा था। पशुबलि और “ख़ून की नदियों” का भयानक दृश्य देखकर उनका दिल दहल गया, वितृष्णा हुई और जी मतलाने लगा। उनके
विचार थे कि यह क्रूर प्रथा बन्द होनी चाहिए। वे मानते थे कि भेड़ या मेमने में
मनुष्य की भांति जीव होता है। बकरों के जीवन का मूल्य मनुष्य के जीवन से कम नहीं
है। उनके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ, “मनुष्य-देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न
होऊंगा। जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने
का अधिक अधिकार है। पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है।
बकरों को इस पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्म शुद्धि और त्याग मुझमें है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है।
जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं
यह प्रार्थना करता हूं कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी स्त्री
उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य को बचाये,
निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवृत्ति वाला और भावना-प्रधान
बंगाल यह सब सहन कैसे करता है?”
काली मंदिर के दृश्य को गांधीजी
कभी नहीं भूले। बरसों बाद 1932 में यरवदा जेल में उन्होंने अपने मित्र-सचिव महादेव देसाई से कहा था, “स्वराज्य मिलने के बाद भी अनेक
सत्याग्रह आन्दोलन चलेंगे। अकसर मुझे यह विचार आया है कि स्वराज्य की स्थापना के
बाद मैं कलकत्ता जाऊंगा और धर्म के नाम पर दी जा रही पशु-बलि को रोकूंगा। उनकी
हालत बद से बदतर है। वे अपने सिंग से हमला नहीं कर सकते न। जब मैं ऐसी हिंसा की
बात सोचता हूं, मेरा ख़ून खौलने लगता है। वे लोग बकरे की जगह शेरों की बलि क्यों नहीं
देते?”
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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