गांधी और गांधीवाद
107. मणिलाल की बीमारी
1902
प्रवेश
गांधीजी के चले जाने के बाद
नेटाल में कांग्रेस का काम धीमा पड़ गया था। मनसुखलाल नज़र और खान का पारसी
रुस्तमजी से तालमेल नहीं बैठा और रुस्तमजी ने शिकायत की कि उन्हें उनका पूरा सहयोग
नहीं मिल रहा है। गांधीजी ने उन्हें कुछ अच्छी सलाह दी: ''आपको धैर्य रखना चाहिए और उनसे जो भी
काम लिया जा सके, उसे ले लेना चाहिए। लोग हमेशा एक ही तरह से नहीं बोल सकते या काम
नहीं कर सकते। मुझे लगता है कि इस बारे में कोई भी प्रतिकूल राय बनाना उचित नहीं
है।'' मार्च 1902 के अंतिम सप्ताह
में, सेसिल रोड्स की हृदय रोग से मृत्यु हो गई। उसी दिन उन्हें जहाज से
इंग्लैंड जाना था। गांधीजी ने अपने मित्र मौरिस को एक पत्र में लिखा था। 'चाहे कोई उनकी नीति को कितना भी नापसंद करे, अब जब वह आदमी चला गया है, तो आंसू रोकना
असंभव है; यह इनकार करना बहुत
मुश्किल होगा कि वह साम्राज्य का सच्चा मित्र था।'
मणिलाल को बुखार
गांधीजी सपरिवार बम्बई (मुम्बई) आ गए। बम्बई आते ही मुसीबत ने घेर लिया। उनका
चैंबर फ़ोर्ट में था और घर गिरगांव में। जिस घर में वे रहते थे उसके कमरों में अंधेरा रहता था, हवा ठीक से न आ पाती थी और सीलन भी
बहुत थी। कुछ ही दिनों बाद उनके दस वर्षीय दूसरे पुत्र मणिलाल को बुखार आने लगा।
कुछ ही दिनों पहले हुए चेचक से अभी वह उबरा ही था। शरीर कमज़ोर था ही, उसपर से यह बुखार जो 104 -105 डिग्री तक पहुंच
जाता और उतरने का नाम नहीं लेता था। बीमारी बढ़ती ही गई, गांधीजी और बा परेशान हो गए। ज्वर
उतरता न था और ऐसे ही कई दिन बीत गए। ज्वर के बढ़ते ही रात को मणिलाल बड़बड़ाने लगता।
शाकाहार एक विश्वास
एक पारसी डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने बताया बुखार ने गंभीर रूप धारण कर लिया है, इसे टायफायड के साथ निमोनिया भी हो गया है। इसके लिए दवा बहुत कम
उपयोगी होगी। बच्चा एकदम कमज़ोर हो गया है। पारसी डॉक्टर कमज़ोर और रुग्ण मणिलाल को
अंडे, मुर्गी का शोरबा और दूध की देने की सलाह दे
रहे थे जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़े, अन्यथा टायफायड और निमोनिया को झेलना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा।
डॉक्टर का कहना था कि केवल दवा से काम नहीं चलेगा। इस तरह के आहार की बहुत ज़रूरत
है।
शाकाहार, गांधीजी के लिए
एक विश्वास था। वे इसके साथ समझौता करने को तैयार न थे। शाकाहारी होने के नाते, वह न तो अंडे और न ही चिकन शोरबा खा सकते थे, और दूध के बारे में भी उन्हें संदेह था। वे डॉक्टर से तर्क करने लगे, “ज़िन्दा रहने के लिए यह ज़रूरी नहीं कि मांसाहार किया ही जाए। डॉक्टर
साहब हम शाकाहारी हैं। हम इसे न अंडा दे सकते हैं न ही मुर्गी का शोरबा। क्या आप
इसकी जगह और कोई चीज़ नहीं बता सकते?”
डॉक्टर बोला, “आपके लड़के के प्राण संकट में हैं।
दूध और पानी मिलाकर दिया जा सकता है, पर इससे उसे पूरा पोषण नहीं मिल सकेगा। दूध से कितनी ताक़त आएगी? फिर भी जैसा आप सोचें, निर्णय तो आपको ही लेना है, पर मैं सोचता हूं कि आप अपने लड़के पर
ऐसी सख़्ती न करें, तो अच्छा होगा।”
धर्म
और विश्वास की परीक्षा
गांधीजी दुविधा में थे। कुछ चीजें ऐसी थीं जो जीवन को बचाने
के लिए भी नहीं की जा सकती थीं, और उनमें से एक थी किसी
प्राणी की जान लेना। अंडे, मांस और इस तरह के अन्य
खाद्य पदार्थों के उपयोग के संबंध में उनके मन में धार्मिक संकोच था। क्या तब उन्हें अपने या अपने किसी प्रियजन के जीवन को बचाने के लिए
अपनी धार्मिक आस्था को त्याग देना चाहिए? उन्होंने मन ही
मन सोचा, "ऐसे ही अवसरों पर किसी
की आस्था की वास्तविक परीक्षा होती है।" उन्होंने अच्छे डॉक्टर से पूरी
विनम्रता से कहा: "अपने आप को जीवित रखने के साधनों की भी एक सीमा होनी
चाहिए। जीवन भर भी हम कुछ चीजें नहीं कर सकते ... इसलिए मुझे वह जोखिम उठाना होगा
जो आप कहते हैं कि संभव है। मैं आपके उपचार का लाभ नहीं उठा सकता।" गांधीजी बोले, “आप कहते हैं, सो ठीक है। आपको यही कहना भी चाहिए। पर मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है।
लड़का बड़ा होता तो मैं अवश्य ही उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न करता। यहां तो मुझे ही
इस बालक के बारे में निर्णय करना है। यह मेरे धर्म और विश्वास की परीक्षा की घड़ी है। सही हो या ग़लत, मैंने यह माना है कि मनुष्य को मांस
नहीं खाना चाहिए। इसलिए मुझे वह जोखिम उठानी ही होगी।”
उन्होंने कहा, “अब इसका इलाज मैं स्वयं करूंगा। मैं
प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लूंगा।” उन्होंने डॉक्टर से कहा, “यदि आप बच्चे की नाड़ी गति, छाती और फेफड़े की समय-समय पर जांच करते रहें, तो बड़ी कृपा होगी।” डॉक्टर ने गांधीजी की बात मान ली। वह बीच-बीच में आता था, मणिलाल की चेकअप किया करता था।
गांधीजी ने मणिलाल को डॉक्टर
के साथ हुई सारी बात बता दी। मणिलाल ने कहा, “ठीक है बापू। आप अपनी विधि से इलाज कीजिए। मैं अंडा और मुर्गी का
शोरबा नहीं लूंगा।” गांधीजी के
सबसे बड़े बेटे हरिलाल के भावी ससुर हरिदास वोरा ने ही गांधीजी को प्राकृतिक
चिकित्सा में आस्था से भर दिया था। नेटाल में रहते हुए गांधीजी ने कूने के हिप-बाथ
का लाभ उठाया था।
जल
चिकित्सा
स्वास्थ्य के नियमों के प्रति गांधीजी का सरोकार बहुत अधिक था। वे प्रकृति के अनुरूप जीवन बिताना चाहते थे। उनका शाकाहार प्रेम तो जग ज़ाहिर था ही। अक्सरहां भोजन संबंधी प्रयोग किया करते थे। इसके अलावा प्राकृतिक चिकित्सा में भी उनकी पूरी आस्था थी। कटि स्नान, कीचड़ की पुटलियों से चिकित्सा, आदि उनके ईलाज़ करने के तरीक़े थे। कुह्न की ‘जलीय उपचार की पैरवी’ और जस्ट की ‘प्रकृति की ओर वापसी’ ने उन पर काफ़ी प्रभाव डाला था। प्रसिद्ध जर्मन जल चिकित्सक डॉ. लुडविग कूने की पद्धति से गांधीजी ने जल चिकित्सा आरंभ कर दी। मणिलाल को उन्होंने कटिस्नान कराना शुरू किया। जहां तक आहार का सवाल था, उन्होंने फलों के जूस और पानी देना शुरु किया। शुरु में तो सुधार के कोई लक्षण न दिखे। बुखार उतरता न था। रात को वह अंट-संट बकता था। तापमान 104 डिग्री तक जाता था। गांधीजी घबरा गए। यदि मणिलाल गुजर गया तो दुनिया क्या कहेगी? कभी-कभी वे खुद से भी प्रश्न करते कि बच्चे की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने का उनका क्या अधिकार है? दूसरे डॉक्टर को क्यों न बुलाया जाए? बैद्य को क्यों न दिखाया जाए? मन में मन्थन चलता रहता। फिर भी उन्होंने सब कुछ ईश्वर के हाथों में सौंप कर मणिलाल का उसी तरह से इलाज ज़ारी रखा।
बा पूछीं, “मेरे बच्चे को कुछ होगा तो नहीं?”
गांधीजी ने कहा, “ईश्वर पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा।”
एक समय तो ऐसा आया कि बालक
मणिलाल की हालत बहुत ही नाज़ुक हो गई। गांधीजी मणिलाल को बगल में लेकर सोये थे। तभी उसके मन में
ख्याल आया कि गीली चादर की मदद से वह ठीक हो सकता है। उन्होंने भिगोकर निचोड़ी हुई चादर में मणीलाल को लपेटने का निश्चय
किया। वे उठे। चादर लेकर ठण्डे पानी में भिंगोया। निचोड़ा। बच्चे को सिर से पैर तक लपेट दिया। ऊपर
से दो कम्बल ओढ़ा दिया। सर पर गीला तौलिया रख दिया। बुखार से शरीर तवे की तरह तप
रहा था। पसीना आता ही न था।
ईश्वर
ने लाज रखी
गांधीजी थक गए। अपने आंदोलित
मन को शांत करने के लिए बच्चे को मां के जिम्मे कर आधे घंटे के लिए चौपाटी पर चले
आए। धैर्यमूर्ति ममतामयी मां अपने बीमार बेटे के पास मौन बैठी रहीं। गांधीजी थोड़ी
हवा खाकर ताज़ा हुए। कुछ शांति मिली। रात के क़रीब एक बज रहे थे। लोगों का आना-जाना
कम हो गया था। वे विचारों में डूब गए। “हे भगवान! इस धर्म-संकट से तू मेरी लाज रख।” थोड़े चक्कर लगाकर वापस आए। घर में पैर रखते ही मणीलाल ने पुकारा, “बापू,
आप आ गए?”
“हां, बेटे। मैं आ गया।”
“मुझे अब इससे निकालिए न। मैं जला जा रहा हूं।”
“क्यों, क्या पसीना छूट रहा है?”
“मैं पसीने से नहा गया हूं। अब मुझे निकालिए न, बापूजी!”
गांधीजी ने गौर से देखा, माथे पर पसीने की बूंदें दिखाई दीं।
बुखार कम हो गया था। उन्हें धीरज आया। उन्होंने प्रभु को धन्यवाद दिया। चादर हटाकर
बच्चे के शरीर को पोंछा और दोनों बाप बेटे सो गए। अगली सुबह बुखार काफी कम
हो गया था। उसके बाद से उनकी हालत में सुधार हुआ और वे लगातार स्वस्थ होते गए।
पूरे चालीस दिन लगे, जिसके दौरान गांधीजी ने
उन्हें केवल पतला दूध और फलों का रस दिया। बाद के दिनों में मणिलाल
गांधीजी के बेटों में सबसे स्वस्थ और सशक्त हुए।
उन्होंने इस घटना को याद करते
हुए लिखा है,
“मणिलाल का नीरोग होना राम की देन है, अथवा पानी के उपचार की, या अल्पाहार की और सार-संभाल
की, इसका निर्णय कौन कर सकता है?
सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार जैसा
चाहें, करें। मैंने तो यह जाना कि ईश्वर ने मेरी लाज रखी, और आज भी मैं यही मानता हूं।”
उपसंहार
मणिलाल को ठीक करने में उनकी सफलता के साथ, गांधीजी का एक चिकित्सक के रूप में उनकी शक्तियों में विश्वास बढ़
गया। इसके बाद से वे सभी बीमारियों पर अपनी सलाह स्वतंत्र रूप से देते थे, क्योंकि उनके विचार में वे सभी उपवास,
गीली
चादरें और भगवान के नाम के उच्चारण से ठीक हो सकते हैं। किसी भी चिकित्सा
प्रशिक्षण के बिना, वे स्वास्थ्य और बीमारी
के विषय पर लेख और पुस्तिकाएँ लिखते थे, जिसमें लंबे समय
तक सफलता से मिलने वाला अपार अधिकार होता था। डॉक्टर और चिकित्सा सलाहकार के रूप
में उनका दूसरा करियर, जिसे उन्होंने अपने जीवन
के अंत तक निभाया, शुरू हो गया था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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