गांधी और गांधीवाद
114. गांधीजी
के विदेशी सहयोगी-1. मिस
डिक
1903
जोहानिस्बर्ग में एक अश्वेत व्यक्ति के लिए आवास ढूँढना
आसान नहीं था। दो या तीन दिनों तक गांधीजी भारतीय स्थान पर एक भारतीय जमींदार
बद्री के साथ रहे।
बद्री बाद में उनके मुवक्किल और
प्रमुख सत्याग्रही बन गए। लुईस डब्ल्यू. रिच से गांधीजी का परिचय था। उनकी सहायता
से थर्स्टन एंड क्यू,
एस्टेट एजेंट्स, जोहानिस्बर्ग की फर्म के श्री चार्ल्स एच. क्यू के
कार्यालयों के माध्यम से,
शहर के रिसिक स्ट्रीट में £7 प्रति माह पर गांधीजी को कार्यालय के लिए उपयुक्त कमरे
मिल गए। कार्यालय के पीछे एक छोटे से कमरे में खुद रहने लगे। जोहानिस्बर्ग में
बसने के बाद उन्होंने अपना पेशेवर काम शुरू कर दिया। इसके लिए वह कर्मचारियों की
भर्ती करने में जुट गए।
गांधीजी की विभिन्न व्यस्तताओं के बावजूद,
उनका अधिकांश समय अभी भी कानूनी
अभ्यास में ही व्यतीत होता था। जोहानिस्बर्ग में उन्होंने अपने कार्यालय में काम
के लिए चार क्लर्क रखे,
फिर भी वे उनके बढ़ाते काम को
संभाल सकने में पर्याप्त नहीं थे। स्पष्ट था कि उन्हें लिपिकीय सहायता की कमी थी। उनके अभ्यास, उनकी पत्रिका,
फीनिक्स फार्म से संबंधित ढेर
सारे मेल अनुत्तरित पड़े थे। टाइपिंग के बिना तो गांधीजी का काम चल ही नहीं सकता था। काम काफी बढ़ गया था। उन्हें खुद टाइपराइटिंग करनी पड़ी क्योंकि क्लर्क अंग्रेजी
में कमजोर थे। उनके लिए यह सम्भव नहीं था कि वकालत और सार्वजनिक सेवा का काम, दोनों को ठीक से कर सकें। उन्हें एहसास हुआ कि जोहानिस्बर्ग में एक पुरुष सचिव मिलना
असंभव था; डरबन से एक प्राप्त करना भी उम्मीद से परे था, क्योंकि युद्ध के बाद से नटाल भारतीयों को ट्रांसवाल में
प्रवेश करने से रोकने के लिए कठोर कानून बनाए गए थे। निराशा में,
उन्होंने स्वीकार किया: 'कोई भी श्वेत महिला मेरे जैसे अश्वेत पुरुष के लिए काम नहीं
करेगी।' 'काले' आदमी के यहाँ क्या गोरे नौकरी करेंगे? उन्होंने प्रयत्न करने का निश्चय किया। गांधीजी टाइपराइटिंग एजेंट के पास गए और
उससे बोले कि जिसे काले आदमी के अधीन नौकरी करने में अड़चन न हो, ऐसे टाइप राइटिंग करने वाले गोरे भाई या बहन को उनके
लिए खोज दे। दक्षिण अफ़्रीका में शॉर्टहैंड और टाइपिंग का काम अधिकांशतः महिलाएं
ही करती थीं। एजेंट ने गांधीजी को वचन दिया कि वह ऐसा आदमी प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा। एक लड़की नई-नई स्कॉटलैंड से आई थी, उसका नाम कुमारी डिक था। वह रंग-भेद से अछूती थी।
उसने एक भारतीय के लिए काम करने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी। उस एजेंट ने मिस डिक
को गांधीजी के पास भेज दिया।
गांधीजी
ने उससे पूछा, “आपको किसी भारतीय के अधीन
काम करने में कोई कष्ट तो नहीं होगा?”
उसने
कहा, “बिल्कुल नहीं।”
“आप वेतन कितना लेंगी?”
“क्या साढ़े सतरह पौंड आपके
ख़्याल में अधिक होंगे?”
“आपसे मैं जितने काम की आशा
रखता हूं, अगर उतना काम आप करेंगी तब
तो मैं इसे बिल्कुल अधिक नहीं समझूंगा। आप काम पर कब से आ सकेंगी?”
“आप चाहें तो इसी क्षण से।”
गांधीजी
खुश हुए और उस महिला को सामने बैठने को कहा और डिक्टेशन देना शुरू कर दिया।
गांधीजी
के लिए मिस डिक काफ़ी उपयोगी साबित हुई। मिस डिक उन युवा स्कॉटिश महिलाओं में से एक थीं, जिनमें सामान्य ज्ञान था। मिस डिक में गांधी को नई बीसवीं सदी की एक महिला का सामना
करना पड़ा, जो स्टेनोग्राफर थी, जो उन 'अधिकारों' का प्रतीक थी, जिनकी मांग मिसेज बेसेंट और ऑलिव श्राइनर अपने लिंग के लिए कर रही थीं। कुछ ही समय में उसने
दफ़्तर का पत्र-व्यवहार अच्छी तरह से संभाल लिया। सिर्फ़ सहायक ही नहीं, वह गांधीजी के घर में बेटी की तरह रही। गांधीजी को
उसे कभी ऊंची आवाज़ में कुछ भी न कहना पड़ा। शायद ही वह अपने काम में कोई ग़लती
करती रही हो। खाते-बही का हिसाब-किताब भी वह रखने लगी। एक समय ऐसा था कि जब हजारों पौंड की व्यवस्था उसके हाथ में थी और वह हिसाब-किताब
भी रखने लगी, जिसमें न
केवल गांधी का पैसा बल्कि नेटाल इंडियन कांग्रेस का पैसा भी शामिल था। कुछ ही दिनों में उसने
अपने काम से गांधीजी का विश्वास अर्जित कर लिया। दोनों का एक-दूसरे पर भरोसा
दिनों-दिन बढ़ता गया। निजी मामलों में भी वह गांधीजी की सलाह लिया करती थी। यहां
तक कि जब अपना जीवन-साथी पसंद करने की बारी आई तो उसने इसके लिए गांधीजी से सलाह
ली और अपनी शादी तय की। उसका कन्यादान भी गांधीजी ने ही किया और उसकी शादी का पूरा
ख़र्च वहन किया। अब वह मिस डिक से मिसेज
मैकडॉनल्ड बन गई थी। गांधीजी ने उसे सहर्ष विदा किया। इसके बाद वह गांधीजी से अलग
रहने लगी। हां काम की अधिकता हो जाने पर यदा-कदा गांधीजी को उसकी सहायता मिलती
रही।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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