गांधी
और गांधीवाद
121. निरामिष आहार का
प्रचार-प्रसार
1903
सादगी से जीवन जीना भी उनके
सिद्धांत का हिस्सा था। उनका मानना था कि हर तरह की विलासिता ग़लत है। वे सिखाते
हैं कि बहुत सी बीमारियाँ और हमारे समय के ज़्यादातर पाप इसी स्रोत से जुड़े हैं।
शरीर को मज़बूती से थामना, उसे सूली पर चढ़ाना, थोरो और टॉल्स्टॉय की तरह अपने जीवन की ज़रूरतों को सबसे सीमित दायरे में लाना,
उनके लिए सकारात्मक आनंद था। भारतीयता
पर उन्हें हमेशा गर्व रहा। उनके भोजन संबंधी आदतों और प्रयोगों को उनको परंपरागत
हिन्दू पृष्ठ-भूमि की विरासत कहा जा सकता है। उनकी नैतिक संवेदना धार्मिक चेतना को
भी ईसा, तालस्ताय, रस्किन और थोरो से कम से कम उसी सीमा तक प्रभावित माना जा
सकता है जिस सीमा तक जैन धर्म और गीता से उनके गुजराती मित्र रायचंद भाई के सिखाए
हुए पाठों से।
गांधीजी के जीवन में
धीरे-धीरे त्याग और सादगी बढ़ने लगी। धर्म की प्रवृत्ति का विकास हुआ। स्वास्थ्य
के नियमों के प्रति वे सजग तो थे ही, इसे वे प्रकृति के अनुरूप जीवन बिताना मानते थे। इसके कारण
उनका शाकाहार प्रेम बढ़ता गया। मुख्यतः जीवन की पवित्रता की भावना और स्वास्थ्य के प्रति उनके विचारों के
कारण, शाकाहार उनके लिए एक धार्मिक सिद्धांत था। बचपन में उनकी मां के प्रभाव में इस
लक्षण ने उनके मन में जड़ें जमाई थीं। उस समय से, सभी पशु खाद्य पदार्थों से परहेज करना उनके लिए दृढ़ विश्वास का विषय बन गया, और वे निरामिष आहार के प्रचार-प्रसार में जुट गए। गांधीजी
के प्रचार कार्य की एक ही रीति थी। वह है, आचार की, और आचार के साथ जिज्ञासुओं
से वार्तालाप की।
केवल शाकाहार अपनाने से संतुष्ट न होकर,
गांधीजी ने अपनी आय का एक
हिस्सा खाद्य सुधार की अपरिहार्य संस्थाओं, अर्थात् शाकाहारी रेस्तरां को बनाए रखने में खर्च किया। जोहान्सबर्ग में एक
निरामिषहारी गृह (शाकाहारी भोजनालय) था। एक जर्मन, एडोल्फ
ज़िग्लर, जो कुह्ने की जल-चिकित्सा में विश्वास रखता था, उसे चलाता था। गांधीजी उसी भोजनालय में दोस्त-मित्रों के साथ खाना खाते थे। कुछ ही दिनों में गांधीजी ने
महसूस किया कि आर्थिक तंगी से जूझ रहा यह भोजनालय लंबे समय तक चल नहीं सकता। अपने सामर्थ्य के अनुसार
उन्होंने इसकी जब-तब मदद भी की थी। अपने अंग्रेज मित्रों को वहां लाए। लेकिन अंततः वह बंद हो गया।
गांधीजी का स्वभाव था कि वे किसी व्यक्ति पर अविश्वास नहीं
करते थे, भले ही सावधानी बरतने की आवश्यकता हो। थियॉसोस्फिस्ट में अधिकांश शाकाहारी हुआ करते थे। इस
मंडली की एक महिला मिस एडा एम.
बिसिक्स (Ada M. Bissicks) ने अक्टूबर
1904 में बड़े पैमाने पर एक शाकाहारी रेस्तरां "द एलेक्जेंड्रा" खोला।
उसने
शाकाहारी भोजनालय खोलने के लिए गांधीजी से पैसे ठग लिए। यह महिला कला की शौकीन थी। वह खुले हाथों वाली
महिला बेहिसाब खर्च करती थी। उसकी खासी बड़ी मित्र-मंडली थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ, पर उसने उसे बढ़ाने और
बड़ी जगह लेने का निश्चय किया। उस महिला ने भी गांधीजी से मदद मांगी। उस अति उत्साही महिला ने उन्हें
समझाया कि अगर वो एक हज़ार पाउण्ड की मदद करें तो एक नया रेस्टोरेंट खोलकर
शाकाहारी विचारधारा को और अच्छी तरह फैलाया जा सकता था। उस समय गांधीजी को उसके हिसाब
आदि की कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने यह मान लिया था कि उसका अन्दाज ठीक ही होगा। उनके पास पैसे की सुविधा थी। कई मुवक्किलों के रुपये उनके पास जमा रहते थे। उनमें से एक से पूछ कर उसकी रकम में से शाकाहार के प्रचार-प्रसार के अति-उत्साह
में उन्होंने एक हज़ार पौंड उस महिला को दिए। वह मुवक्किल विशाल हृदय का स्वामी और
विश्वासी था। वह पहले गिरमिट में आया था।
उसने कहा, 'भाई, आपका दिल चाहे तो पैसा दे दो। मैं कुछ ना जानूँ। मैं तो आप ही को जानता हूँ।' उसका नाम बदरी था। उसने सत्याग्रह में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। वह जेल भी भुगत आया था। बाद में वह तमिल बेनिफिट सोसाइटी के प्रमुख बने। उसकी सम्मति के सहारे उन्होंने उसके पैसे उधार दे दिये। कुछेक महीने में गांधीजी
को पता लग गया कि दिया हुआ पैसा वापस आने से रहा, रेस्टोरेंट चल नहीं रहा था। कुछ ही दिनों बाद रेस्टोरेंट
बंद हो गया। पैसे कभी
वापस नहीं किए गए और गांधीजी को अपने ग्राहक को हुए नुकसान की भरपाई करनी पड़ी।
गांधीजी ने मिस बिसिक्स को एक ऐसी महिला के रूप में वर्णित किया,
"जो कला की
शौकीन, फिजूलखर्च और हिसाब-किताब से अनभिज्ञ थीं।" जब एक साल बाद उनकी मृत्यु
हुई तो इंडियन ओपिनियन में एक संक्षिप्त श्रद्धांजलि छपी,
जिसमें उनके बारे में वे बस
इतना ही कह सकते थे कि "कई मायनों में उन्हें भारतीयों से बहुत सहानुभूति
थी।"
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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