गांधी और गांधीवाद
100. लॉर्ड कर्जन का दरबार
कांग्रेस का अधिवेशन समाप्त
हुआ। गांधीजी को दक्षिण अफ़्रीका के कई काम करने थे। कलकत्ते के चैम्बर ऑफ कॉमर्स
के सदस्यों से मिलने का उन्होंने कार्यक्रम तय किया। वे एक महीने तक वहां रहने का
इरादा कर चुके थे। पिछली बार तो वे होटल में ठहरे थे। इस बार ‘इंडिया क्लब’ में
उन्होंने व्यवस्था की।
उन्हीं दिनों लॉर्ड कर्जन का
दरबार हुआ। उसमें शामिल होने वाले कई राजा-महाराजा भी इंडिया क्लब में ठहरे हुए
थे। ये लोग अन्य दिनों तो सुन्दर बंगाली धोती, कुर्ता और चादर धारण करते थे। पर उस दिन वे पतलून, चोंगा,
पगड़ी और चमकीले बूट पहने हुए थे। गांधीजी को यह बदलाव देख
कर दुख हुआ। उन्होंने इस परिवर्तन का कारण जानना चाहा। जवाब दिया गया, “हमारा दुख हम ही जानते हैं। अपनी
सम्पत्ति और अपनी उपाधियों को सुरक्षित रखने के लिए हमें जो अपमान सहने पड़ते हैं, उन्हें आप कैसे जान सकते हैं।”
“पर ये खानसामे जैसी पगड़ी और बूट किसलिए?”
“हममें और खानसामे में आपने क्या फ़र्क़ देखा? वे हमारे खानसामे हैं तो हम लॉर्ड
कर्जन के खानसामा हैं। यदि मैं दरबार में अनुपस्थित रहूं, तो मुझको उसका दण्ड भुगतना पड़े। अपनी
साधारण पोशाक पहन कर जाऊं, तो यह अपराध माना जाएगा। और वहां जाकर भी क्या मुझे लॉर्ड
कर्जन से बातें करने का अवसर मिलेगा? कदापि नहीं।”
गांधीजी को उनपर दया आई। यहां
पहली बार उन्हें भारत के प्रमुख और धनी लोगों को क़रीब से देखने का मौक़ा मिला।
भद्दे ढ़ंग से रंगे पुते ये धनवान लोग वायसराय के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते थे। ये
लोग बिल्कुल वायसराय के नौकर लगते थे।
ऐसे ही एक प्रसंग का उल्लेख
करते हुए गांधीजी बताते हैं कि काशी विश्वविद्यालय की नींव लॉर्ड हार्डिंग के
हाथों रखी गई थी। इस अवसर पर उनका दरबार हुआ था। मालवीय जी के कहने पर गांधीजी
वहां गए थे। जो राजा-महाराजा आए थे उन्होंने केवल स्त्रियों को शोभा देने वाली
पोशाकें पहन रखी थी। रेशमी पाजामे, रेशमी अंगरखे, गले में हीरे-मोतियों की माला, हाथ पर बाजूबन्द और पगड़ी पर हीरे-मोती की झालरें। कमर में सोने की
मूठ वाली तलवार लटकती हुई। ये चीज़ें उनके राज्याधिकार की ही नहीं उनकी गुलामी की
भी निशानियां थीं। नामर्दी-सूचक आभूषण वे स्वेच्छा से नहीं मज़बूरी में पहनते थे।
कइयों को ऐसे आभूषण पहनने से घृणा थी। ऐसे दरबारों को छोड़कर वे इन्हें अन्यत्र
कहीं नहीं पहनते थे। औरतों को शोभा देने वाले आभूषणों को पहन कर दरबार में शामिल
होना उनकी विवशता थी। बचपन में उन्हें यह
देखकर दुख हुआ था कि उनके पिता को राजकीय समारोहों में निर्धारित वस्त्र संबंधी
अनुष्ठान का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था। उन्होंने भारतीय
राज्यों के शासकों में विदेशी शासन प्रणाली द्वारा थोपी गई सांस्कृतिक गुलामी के
शिकार देखे। पाप करने से ज़्यादा उनके खिलाफ़ पाप किया गया, उनकी नज़र में
वे अपने देशवासियों के आक्रोश के बजाय दया के पात्र थे। धन, सत्ता और मान मनुष्य से कितने पाप और अनर्थ कराते हैं!
इंडिया क्लब में भारत के
गण्य-मान्य लोग आया करते थे। गांधीजी को लगा कि वहां ठहरने से वे उन लोगों से
मेल-जोल बढ़ाकर उनके मन में दक्षिण अफ़्रीका के लिए दिलचस्पी पैदा कर सकते हैं। उस
क्लब में गोखले जी भी कभी-कभार बिलियर्ड खेलने आया करते थे। जैसे ही उन्हें पता
चला कि गांधीजी कलकत्ते में कुछ दिन रुकने वाले हैं,
उन्होंने गांधीजी को अपने साथ ठहरने का न्यौता दिया। गांधीजी
के लिए तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई। हालाकि यह एक औपचारिक निमंत्रण नहीं था, फिर भी संकोच वश दो दिनों तक जब गांधीजी
खुद ही नहीं गए तो गोखले जी स्वयं आकर गांधीजी को अपने साथ ले गए। गांधीजी से बोले, “गांधी,
तुम्हें इस देश में रहना है। इसलिए इस तरह से शर्म करने
से काम नहीं चलेगा। जितने अधिक लोगों के साथ मेल जोल बढ़ा सको, तुम्हें बढ़ाना चाहिए। मुझे तुमसे
कांग्रेस का काम लेना है।”
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मनोज कुमार
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संदर्भ : यहाँ पर
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