शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

109. तीसरी बार दक्षिण अफ़्रीका के लिए प्रस्थान

 गांधी और गांधीवाद

109. तीसरी बार दक्षिण अफ़्रीका के लिए प्रस्थान

1902

प्रवेश

थोड़े दिनों में ही गांधीजी ने काफ़ी अच्छी वकालत जमा ली। यह सब देखकर गोखले जी बहुत ख़ुश हुए। उस समय प्रतिभाशाली और निष्ठावान देशसेवकों की बड़ी कमी थी। गांधीजी जैसे सुयोग्य, उत्साही और लगनशील कार्यकर्ता को पाकर कौन ख़ुश न होता। लेकिन गांधीजी और गोखले जी की सारी योजनाएं धरी रह गईं। मुश्किल से तीन-चार महीने मुम्बई में गुज़रे थे कि दक्षिण अफ़्रीका से तार आयास्थिति गंभीर है। मि. चेम्बरलेन जल्दी ही आ रहे हैं। आपकी उपस्थिति आवश्यक है। तार से पूरी बात समझ में नहीं आई। गांधीजी ने अनुमान लगाया कि संकट ट्रांसवाल में ही होगा। चार-छह महीने में वहां की समस्या निबटा कर वे वापस आ जाएंगे इसलिए बाल-बच्चों को साथ लिए बिना ही वे दक्षिण अफ़्रीका के लिए रवाना हुए। गांधीजी की दक्षिण अफ़्रीका की यह तीसरी यात्रा थी। 

बुलाहट का एक तार

अभी थोड़ी स्थिरता हुई थी, बम्बई में उनका वकालत का काम जम चुका था। पेशे से उनको संतोष का अनुभव होना शुरू हुआ था। लेकिन नियति में कुछ और ही होना लिखा था। दक्षिण अफ़्रीका के संकट से घिरे प्रवासी भारतीयों को उनकी ज़रूरत थी। वकालत शुरू किए हुए पांच महीने भी पूरे नहीं हुए होंगे कि नवम्बर 1902 ई. में एक दिन जब गांधीजी दफ़्तर में बैठे हुए तो उनको दक्षिण अफ्रीका से बुलाहट का एक तार मिला। जोसेफ़ चेम्बरलेन इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं, आपको तत्काल यहां आना चाहिए।

गाांधीजी के भाग्य में स्थिरता शायद थी ही नहीं। उनका स्वभाव ही ऐसा था कि लोगों की सेवा का कोई भी अवसर मिलते ही वे अपने सुख चैन को तुरंत दांव पर लगा देते थे। डरबन से आते समय उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों को वचन दिया था, वहां के लोगों को एक साल के भीतर जब भी उनकी ज़रूरत होगी, वे चले आएंगे। वहां के लोगों ने उनसे वादानुसार वापस दक्षिण अफ़्रीका आने का अनुनय किया था। अब कोई चारा न था। जोसेफ चैम्बरलेन, उपनिवेश सचिव, लंदन से नेटाल एवं ट्रांसवाल के दौरे पर आ रहे थे। उनसे मिलने के लिए वहां हिन्दुस्तानी लोगों का एक डेलिगेसन तैयार करना था। वहां के प्रवासी भारतीय उन्हें अपनी नई-पुरानी शिकायतें सुनाना चाहते थे। इसलिए अफ्रीका के वहाँ के हिन्दुस्तानी समुदाय को लगा कि इस काम के लिए गाांधीजी का वहां होना जरूरी था क्योंकि उन्हें लगता था कि यह काम गाांधीजी ही ठीक से कर सकते हैं।  नेटाल कांग्रेस भी चाहती थी कि उनका केस गांधीजी प्रस्तुत करें। इसीलिए गांधीजी को तत्काल बुलाया गया था। गांधीजी ने अपना वादा रखा। गांधीजी को अपने वचन याद थे। गाांधीजी के लिए अपने पारिवारिक दायित्व और समाज सेवा के काम में जब-जब चुनाव करने का अवसर आया उन्होंने सार्वजनिक काम को हमेशा अपने निजी जीवन के पहले किया। उन्होंने तार दियामेरा ख़र्च भेजिए, मैं आने को तैयार हूं।उन्होंने तुरन्त रुपये भेज दिये और गांधीजी ने दफ्तर समेटना शुरू कर दिया।

भारत विरोधी क़ानून

गांधीजी सोचते रहे कि बोअर युद्ध में भारतीयों द्वारा दी गई सेवाओं के चलते उन्हें लाभ हुआ होगा, फिर ये कौन सा संकट आ पड़ा ! बोअर रिपब्लिक पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो गया था। भारतीयों को लग रहा था कि उस परिवर्तन से उनकी सामाजिक स्थिति कुछ ऊंची हो जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। उल्टे उनकी हालत और ख़राब हो गई। नई ब्रिटिश पार्लियामेंट में बेहद कड़े भारत विरोधी बिल आने वाले थे। अभी तक के “अफ़्रीकानेर के दोस्ताना व्यवहार की जगह ब्रिटिश क़ायदे-क़ानूनों ने ले ली। इसकी वजह से ट्रांसवाल में भारतीयों का घुसना भी मुश्किल हो गया। जो भारतीय युद्ध के दिनों में अपना घर धन्धा छोड़कर बाहर चले गए थे उनके साथ भी ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों की तरह व्यवहार किया जा रहा था।

बंबई का दफ़्तर समेटा

तुरत रुपए भी भेज दिए गए। गांधीजी ने अपना दफ़्तर समेटना शुरू कर दिया। 14 नवम्बर को उन्होंने गोखले जी को 20 नवम्बर को दक्षिण अफ़्रीका जाने की सूचना दी। जब मैं यह महसूस कर रहा था कि मैं बंबई में बस गया हूँ, तो मुझे नेटाल से एक संदेश मिला जिसमें मुझे तुरंत वहाँ जाने के लिए कहा गया था ... मुझे लगता है कि यह श्री चेम्बरलेन की दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के संबंध में है। ... मेरा प्रस्ताव है कि मैं पहले उपलब्ध स्टीमर से निकल जाऊँ। यह संभवतः 20 तारीख को होगा।

गोखले जी को इस निर्णय से निराशा हुई, लेकिन वे दक्षिण अफ़्रीका की समस्या से अवगत थे। फिरोज शाह मेहता ने कहा, “तुम दक्षिण अफ़्रीका मत जाओ। वहां तुम कोई खास काम नहीं कर पाओगे। बड़े भाई लक्ष्मी दास गांधी की चिंता गांधीजी को रहती थी ही। उनकी उम्र भी काफ़ी हो गई थी। सारे घर को वे ही संभाल कर रखे हुए थे। किंतु उनको गांधीजी के जाने से विशेष कष्ट नहीं था। जब तक उनके ऐश-आराम की व्यवस्था मोहन कर रहे थे, तब तक वे तटस्थ थे।

परिवार के लिए घर नहीं छोड़ा

पत्नी से ऐसे मामलों में मशविरा करने की प्रथा उन दिनों नहीं थी। कस्तूरबाई को तो लगा मानों तूफ़ान ने उनका बना बनाया आशियाना उजाड़ दिया हो। पर वे कुछ बोल न सकीं। मन ही मन सारे दुख पी गईं। गांधीजी ने सोचा चार-छह महीनों में काम पूरा कर लौट आएंगे। इसलिए उन्होंने सांताक्रूज के बंगले को रहने दिया और बाल-बच्चों को वहीं रखना उचित समझा। हां उन्होंने चैम्बर ज़रूर छोड़ दिया। घर की देखरेख बाइस वर्षीय छगनलाल गांधी (खुशालचंद गांधी के पुत्र) और उनकी पत्नी काशी के हाथों सौंपी गई। यह वही छगनलाल था, जिसने ग्रीन पम्फलेट बनाने में गांधीजी की मदद की थी। बच्चों में से रामदास और देवदास अभी स्कूल जाने की उम्र के नहीं थे। मणिलाल अपनी हाल की बीमारी से उबर रहे थे। राजकोट के प्लेग से मुक्त होते ही हरिलाल और गोकुलदास को राजकोट के कट्ट्यावर हाई स्कूल में दाखिला लेने के लिए भेजा जाना था और बैरिस्टर शुक्ला को उनकी शिक्षा की देखभाल के लिए एक उपयुक्त शिक्षक की तलाश करनी थी। गांधीजी ने अपने मित्र को लिखा, "मैं आपसे बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि कृपया लड़कों का ख्याल रखें, समय-समय पर उनसे मिलते रहें और अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो उन्हें अपने टेनिस कोर्ट का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करें।"

तीसरी बार दक्षिण अफ़्रीका के लिए

तैंतीस वर्षीय गांधीजी 20 नवम्बर 1902 को तीसरी बार दक्षिण अफ़्रीका के लिए प्रस्थान किए। अपने साथ चार-पांच नौजवानों को भी लेते गए। यह गांधी परिवार की पुरानी परिपाटी थी। काबा गांधी भी कुटुंब-मोहल्ले के लड़कों को नौकरियां दिलवाते रहते थे। गांधीजी ने भी रिश्तेदारों को आत्मनिर्भर बनने में सहायता करने की बात सोची। उस समय गांधीजी यह मानते थे कि जो नौजवान कोई काम-धाम न करता हो, और साहसी हो, उसे कमाने के लिए परदेश चला जाना चाहिए। गांधीजी चाहते थे कि उनके मुहल्ले के लड़के काम पर लगें। आत्मनिर्भर हों। नई दुनिया देखें। इस बार उनके साथ एक चचेरा भाई मगनलाल गांधी, खुशाल गांधी के पुत्र और छगनलाल का छोटा भाई, भी था, जो अब गांधीजी के शुरु होने वाले महान संघर्ष में काफी उपयोगी सिद्ध होने वाला था। गांधीजी के पिता गांधी परिवार के ऐसे सदस्यों को जीविका के साधन उपलब्ध कराते थे, जिनकी उन्हें आवश्यकता होती थी, अथवा उन्हें राजकीय सेवा में नियुक्त करके उनके लिए रोजगार उपलब्ध कराते थे। गांधीजी न तो उन्हें नौकरी दिला सकते थे, न ही चाहते थे। वे चाहते थे कि वे नौकरी के मोह से मुक्त होकर स्वावलंबी बनना सीखें। इसलिए उन्होंने उन्हें विदेश जाकर अपना भाग्य तलाशने के लिए प्रोत्साहित किया। बदली हुई परिस्थितियों में अपने पिता की परंपरा को बनाए रखने का उनका यही तरीका था।

बाल-बच्चों के वियोग का अहसास

कस्तूर, हरिलाल, मणिदास, रामदास, देवदास, सबके चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। पहली बार गांधीजी को बाल-बच्चों के वियोग का अहसास हो रहा था, बच्चों और पत्नी की ममता ने उन्हें घेरा। बसाये हुए घर को तोड़ना, निश्चित स्थिति से अनिश्चित स्थिति में प्रवेश करना – यह सब गांधीजी को अखरा तो ज़रूर, पर उन्हें तो इसकी आदत पड़ चुकी थी। उन्होंने सोचा जो विधाता करता है, सही ही करता है। लिखते हैंइस संसार में, जहां ईश्वर अर्थात्‌ सत्य के सिवा कुछ भी निश्चित नहीं है, निश्चितता का विचार करना ही दोषमय प्रतीत होता है। यह सब जो हमारे आसपास दिखता है और होता है, सो अनिश्चित है, क्षणिक है।

भारतीय कांग्रेस की बैठक

जब गांधीजी समुद्र में थे, तब दिसंबर 1902 में अहमदाबाद में पहली बार भारतीय कांग्रेस की बैठक हुई। यह पिछले वर्षों की तुलना में पहले की तिथि पर शुरू हुई, क्योंकि एडवर्ड सप्तम का राज्याभिषेक दरबार 10 जनवरी को दिल्ली में होना था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में इस कांग्रेस ने दक्षिण अफ्रीका पर एक नया प्रस्ताव पारित किया: "इन भारतीय बसने वालों की स्वीकार्य वफादारी और युद्ध के दौरान उनके द्वारा दी गई सहायता, साथ ही सबसे महत्वपूर्ण समय में भारत द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को दी गई अमूल्य सहायता को देखते हुए, कांग्रेस दिल से प्रार्थना करती है कि भारत सरकार दक्षिण अफ्रीका में बसने वाले भारतीय के साथ न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और उदार व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक व्यावहारिक कदम उठाए।"

उपसंहार

1893 में गांधीजी एक साल के लिए दक्षिण अफ़्रीका आए थे और आठ बरस रहकर गए1902 में वे छह महीने के लिए आए और लौटकर जाने में बारह बरस लग गए! गांधीजी आत्मकथा में लिखते हैंईश्वर ने अपने लिए बनाई हुई मेरी किसी योजना को कभी टिकने नहीं दिया है। निर्णय सदा हरि के हाथ रहा है। यह सब जो हमारे आसपास दिखता है और होता है, सो अनिश्चित है, क्षणिक है। उसमें एक परम तत्त्व निश्चित रुप से छिपा हुआ है, उसकी झाँकी हमें हो जाये, उस पर हमारी श्रद्धा बनी रहे, तभी जीवन सार्थक होता है उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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