गांधी और गांधीवाद
103. कलकत्ता
में प्रमुख व्यक्तियों से मिले
बंगाल को अधिक से अधिक जानने की गांधीजी की इच्छा थी। वह लोगों से मिलने के लिए लंबी दूरियां पैदल चलकर तय करते थे।
गांधीजी ने अपने दिन के दो भाग कर दिये थे। एक भाग में दक्षिण
अफ्रीका के काम के सिलसिले में कलकत्ते में रहने वाले नेताओं से मिलने में बिताते थे, और दूसरे भाग में कलकत्ते की धार्मिक संस्थाएं
और दूसरी सार्वजनिक संस्थाएँ देखने में बिताते थे। ब्रह्मसमाज के बारे में उन्होंने सुन रखा
था। पढ़ भी रखा था। प्रताप मजुमदार के जीवन के बारे में वे पहले से जानते थे। उनके व्याख्यान सुनने भी
गए। उनके द्वारा लिखा गया केशवचन्द्र सेन के जीवन के बारे में भी उन्हीं दिनों उन्होंने पढ़ा। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन भी हुए। सर गुरु दास बनर्जी से मिले। दक्षिण अफ्रीका
के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्होंने राजा सर प्यारे मोहन मुखर्जी के भी दर्शन किए।
कालीचरण बनर्जी से मुलाकात
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने जो आध्यात्मिक खोज शुरू की थी, वह उन्हें विभिन्न धार्मिक आस्थाओं को मानने वाले अनेक अच्छे लोगों
के पास ले गयी। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने ईसाई मित्रों से वादा किया था कि
वे भारतीय ईसाइयों से मिलेंगे और उनकी स्थिति से अवगत होंगे। इसलिए गांधीजी भारत के ईसाइयों से मिलना चाहते थे। कालीचरण बनर्जी, (1847-1907) विद्वान,
वक्ता
और उत्साही देशभक्त, जो 17 वर्ष की उम्र में स्कॉटलैंड
के फ्री चर्च के माध्यम से ईसाई बन गये थे, जबकि वे तब
कॉलेज में पढ़ रहे थे। कलकत्ता क्रिस्टो समाज के संस्थापक
कालीचरण बनर्जी कांग्रेस के कामों में बढचढ कर
हिस्सा लेते थे। गांधीजी का उनके प्रति आदर भाव था। साधारण हिन्दुस्तानी ईसाई कांग्रेस
से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति उनके मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बनर्जी
के प्रति नहीं था। उन्होंने उनसे मिलने के बारे
में गोखलेजी से चर्चा की। गोखलेजी ने कहा, 'वहाँ जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी हैं पर मेरा ख्याल है कि वे तुम्हें संतोष नहीं दे सकेंगे।
मैं उन्हें भलीभाँति जानता हूँ। फिर भी तुम्हें जाना हो तो शौक़ से जाओ।' गांधीजी ने समय माँगा। उन्होंने समय
दिया और वह गए। उनके घर उनकी पत्नी काफी बीमार थीं। वह बंगाली धोती और कुर्ता पहने हुए थे। यह सादगी गांधीजी
को पसन्द आयी। गांधीजी उन दिनों स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनते थे। उन्होंने उनका समय न गँवाते हुए ईसाई धर्म से संबंधित अपनी उलझने पेश की। उन्होंने
गांधीजी से पूछा, 'आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते हैं?' गांधीजी ने कहा, 'जी हाँ।' कालीचरण बोले, 'तो इस मूल पाप का निवारण हिन्दू धर्म में नहीं है। जब कि ईसाई धर्म में है। पाप का बदला मौत है। बाईबल कहती हैं कि
इस मौत से बचने का मार्ग ईसा की शरण है।'
महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से मिलने पहुंचे
गांधीजी हिन्दू दार्शनिक, ब्रह्मसमाजी तथा धर्मसुधारक महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर (15
मई 1817 – 19 जनवरी 1905) से मिलने
उनके घर गए। वह ब्रह्म समाज के संस्थापकों में से एक थे। आध्यात्मिक
ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे और उन्हें 'महर्षि' सम्बोधित
करते थे। 1851 ई. में स्थापित होने वाले 'ब्रिटिश इंडियन
एसोसियेशन' का सबसे पहला सेक्रेटरी उन्हें ही नियुक्त किया गया था। 19वीं शताब्दी में
जिन मुट्ठी भर शिक्षित भारतीयों ने आधुनिक भारत की आधारशिला रखी, उनमें उनका नाम सबसे शीर्ष पर रखा जाता है। गांधीजी
जब उनसे मिलने गए, तो उन दिनों वे किसी से नहीं मिलते थे। उनके यहां ब्रह्मसमाज का
उत्सव था। उसमें शामिल होने का निमंत्रण मिला। गांधीजी खुशी-खुशी उसमें शामिल हुए।
वहां उन्हें उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुनने को मिला। तभी से बंगाली संगीत के
प्रति उनका अनुराग बढ़ गया। ताज्जुब कि किसी ने उनसे यह नहीं बताया कि महर्षि
देवेन्द्र नाथ के पुत्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी मिलने के योग्य थे। इस प्रकार गांधीजी द्वारा इस महाकवि से मिलन
चौदह वर्षों के लिए टल गया। अगर इनका मिलन होता,
तो शायद कालीघाट के मन्दिर की पशुबलि पर चर्चा ज़रूर होती।
1885 में ही कविगुरु
रवीन्द्रनाथ ठाकुर पशुबलि के ख़िलाफ़ हिन्दुओं की आत्मा को जगाने के लिए हृदयस्पर्शी
उपन्यास “राजर्षि” लिख चुके थे। इसके तीन साल बाद एक शक्तिशाली नाटक “विसर्जन” प्रकाशित हुआ। इसका अंग्रेज़ी
अनुवाद “सैक्रिफाइस” के नाम से जाना जाता है। लेकिन उस समय कविगुरु पाठकों और साहित्य
समालोचकों के एक छोटे से दायरे के बाहर कम ही जाने जाते थे, और उनमें भी बहुत से उनके आलोचक थे।
बेलूर मठ गए
वेदान्त के विख्यात और
प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द (12 जनवरी 1863 - 4 जुलाई 1902) से मिलने के लिए बड़े ही उत्साह के साथ गांधीजी पैदल ही बेलूर मठ गए। उनका वास्तविक नाम
नरेन्द्र नाथ दत्त था। स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के वकील थे, जबकि मां
भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। वह कहा
करते थे कि उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य की प्राप्ति
न हो जाए। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा
है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। बेलूर मठ
का एकान्त गांधीजी को बहुत भाया। पर यह जानकर उन्हें घोर निराशा हुई कि स्वामी जी
बीमार थे और उनसे मिला नहीं जा सकता था। स्वामी जी अपने कलकत्ते वाले घर में थे।
स्वामी जी के दर्शन का लाभ उन्हें नहीं मिला। क्या पता, यदि उनका संपर्क स्वामी विवेकानंद से
हो पाता, तो बहुत संभव है कि दरिद्रनारायण के उपासक इन दो क्रांतिकारियों के
मिलन से भारतीय क्रांति का उषाकाल और भी कांतिमान हो जाता। यहां यह उल्लेखनीय है
कि शिकागो की विश्व धर्म संसद में शामिल होने के लिए स्वामी विवेकानंद की अमरीका
यात्रा और भावी महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी की दक्षिण अफ़्रीका की पहली यात्रा एक
ही वर्ष यानी 1893 में हुई थी।
भगिनी निवेदिता से मिले
गांधीजी ने भगिनी निवेदिता (28 अक्टूबर 1867 - 13 अक्टूबर 1911) के निवास-स्थान का पता लगाया। सिस्टर निवेदिता का असली नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल है। स्वामी
विवेकानंद की यूरोपीय शिष्या सिस्टर निवेदिता उस समय अमेरिकी वाणिज्य दूतावास में
श्रीमती ओले बुल और मिस जोसेफिन मैकलियोड की मेहमान के रूप में चौरंगी के एक महल में रहती थीं। भगिनी निवेदिता कुछ समय अपने गुरु स्वामी विवेकानंद के साथ भारत भ्रमण करने के
बाद अंतत: कलकत्ता में बस गईं। जब लंदन में उनकी मुलाकात स्वामी
विवेकानंद से हुई तो वे समाजसेवा करने के लिए भारत आ गईं।
उन्होंने स्वामी विवेकानंद के तीन सूत्रों पर शास्त्र, गुरु और
भारतवर्ष में से भारतवर्ष को चुना और इसके प्रति समर्पित हो गई। उन्होंने
निस्वार्थ भाव से, देश की एकात्मकता को ध्यान में रखकर समाजसेवा की। अपने गुरु
की प्रेरणा से उन्होंने कलकत्ता में लड़कियों के लिए स्कूल खोला। निवेदिता स्कूल
का उद्घाटन रामकृष्ण परमहंस की जीवनसंगिनी मां शारदा ने किया था। गांधीजी
उनसे मिले। भारत के प्रति उनके भावुक प्रेम ने उन्हें प्रभावित किया। लेकिन उनकी तड़क-भड़क से गांधीजी चकरा गए। उनका दबदबा और ऐश्वर्य देखकर
उन्हें कुछ परेशानी हुई। बातचीत में भी दोनों के विचार मेल नहीं खाते थे। गांधीजी
ने जब इसका उल्लेख गोखले जी से किया, तो गोखले जी ने बताया कि वह तेज-तर्रार महिला हैं, उसके साथ तुम्हारे विचार नहीं
मिलेंगे। एक बार और उनसे मिलने का गांधीजी को अवसर मिला। भगिनी के हिन्दू धर्म के
प्रति उत्कट प्रेम और आदर को गांधीजी पहचान पाए।
सार्वजनिक
सभाओं को संबोधित किया
कलकत्ता प्रवास के दौरान गांधीजी ने अल्बर्ट हॉल में दो
सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया, एक 19 जनवरी को दक्षिण
अफ्रीका में भारतीयों की स्थिति के बारे में और दूसरी 27 जनवरी को बोअर युद्ध के
दौरान भारतीय एम्बुलेंस कोर द्वारा किए गए कार्यों के बारे में। दूसरी बैठक की
अध्यक्षता डॉ. मलिक ने की। गोखले को गांधीजी का भाषण पसंद आया और डॉ. रे ने इसकी
प्रशंसा की।
बर्मा-यात्रा
कलकत्ता में गोखले के साथ एक महीने बिताने के बाद, 28 जनवरी 1902 को गांधीजी ने समय बचाकर
रंगून के लिए प्रस्थान किया। 31 जनवरी को वे रंगून पहुंचे। तब बर्मा भारत में सम्मिलित था। वे वहां
के फुंगियों से मिले। बर्मा के पुरुष का आलस्य देख कर गांधीजी को दुख हुआ। वहां की
स्त्रियां अधिक कर्मठ थीं। बर्मी भिक्षुक भी सक्रिय न थे। गांधीजी ने स्वर्ण
पैगोडा के भी दर्शन किए। मंदिर में असंख्य मोमबत्तियां जल रही थीं। चूहे भी इधर-उधर दौड़ रहे थे।
वहां अपने एक परम मित्र डॉ. प्राणजीवन मेहता से मिले। वहां उन्हें यह देख कर बहुत
दुख हुआ कि बर्मा के लोगों का शोषण करने के लिए भारतीय समुदाय के व्यापारी भी
यूरोपियों को सहायता पहुंचा रहे थे। इस अनुभव ने उन्हें सिखाया कि उन भारतीयों के
लिए यह कितने महत्व की बात है, जिन्होंने बाहर के देशों में रहना चुना कि वे अपनी पहचान उस देश के
स्थानीय लोगों के साथ बनाए।
बर्मा से लौटने के बाद जब वे कलकत्ता
लौटे, तो उन्होंने गोखले जी से विदा ली। कलकत्ते का उनका काम
पूरा हो चुका था। अब वे काशी जाकर विदुषी एनी बेसण्ट के दर्शन करना चाहते थे। उन
दिनों वे बीमार थीं। इसके अलावा उन्होंने राजकोट जाने से पहले दिल्ली, आगरा, जयपुर और
पालनपुर से होते हुए पूरे भारत में आराम से यात्रा करने का फैसला किया। वे तीसरे
दर्जे में यात्रा करना चाहते थे ताकि अपने देशवासियों के साथ घुलमिल जाएं।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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