शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

116. साउथ अफ़्रीका में - ‘इंडियन ओपिनियन’

 गांधी और गांधीवाद

116. साउथ अफ़्रीका में - इंडियन ओपिनियन’



1903

प्रवेश

गांधीजी एक स्वप्नदर्शी थे। वे दक्षिण अफ्रीका में एक ऐसे भारतीय समुदाय का सपना देखते थे, जो समान हितों और समान आदर्शों से जुड़ा हुआ हो, शिक्षित, नैतिक, उस प्राचीन सभ्यता के योग्य हो, जिसका वह उत्तराधिकारी है, मूलतः भारतीय बना रहे, इस तरह से व्यवहार करे कि दक्षिण अफ्रीका अंततः अपने पूर्वी नागरिकों पर गर्व करे, और उन्हें अधिकार के रूप में वे विशेषाधिकार प्रदान करे, जिनका हर ब्रिटिश नागरिक को आनंद लेना चाहिए। लेकिन गांधीजी एक व्यावहारिक स्वप्नदर्शी थे। उन्हें एहसास हुआ कि उनका स्वप्न दक्षिण अफ्रीकी उपनिवेशों में भारतीयों के साथ निरंतर संपर्क के किसी माध्यम के निर्माण से ही साकार हो सकता है। इंडियन ओपिनियन की शुरुआत गांधीजी के इसी स्वप्नद्रष्टा होने का परिणाम था।

इंडियन ओपिनियन के प्रकाशन का बीज

दक्षिण अफ्रीका में भारतीय स्वामित्व वाली एक प्रिंटिंग प्रेस और पत्रिका होनी चाहिए, यह समुदाय की 1890 के दशक से ही चाहत रही थी। गांधीजी के एक गुजरात के रहने वाले सहकर्मी थे मदनजीत व्यावहारिक। वे पहले मुम्बई के एक स्कूल के शिक्षक थे। 1898 में उन्होंने डरबन में इंटरनेशनल प्रेस नाम से एक छोटा-सा अंतर्राष्ट्रीय प्रिंटिंग प्रेस खोला था। गांधीजी ने मदनजीत को प्रिंटिंग प्रेस शुरू करने में मदद करने के लिए धन उधार दिया था। नेटाल भारतीय कांग्रेस के अधिकांश पम्फलेट और ब्रोशर वहीं से छपा करते थे। 1903 में मदनजीत इस प्रस्ताव के साथ गांधीजी से मिले कि एक साप्ताहिक पत्र चार भाषाओं, अंग्रेजी, गुजराती, तमिल और हिंदी में प्रकाशित किया जाए। किसी भी राजनीतिक कार्य के संचालन में प्रेस की भूमिका से गांधीजी भलिभांति परिचित थे। गांधीजी की सहायता और मार्गदर्शन से स्थापित अंतर्राष्ट्रीय प्रिंटिंग प्रेस को अस्तित्व में आए चार वर्ष हो चुके थे। यह प्रस्तावित पत्रिका की छपाई के लिए तैयार था। गांधीजी ने मदनजीत के आइडिया का स्वागत किया। गांधीजी ने संकेत दिया कि वे अपनी कलम से और आवश्यकता पड़ने पर धन से भी इंडियन ओपिनियन को समर्थन देने के लिए तैयार हैं। इस प्रकार इंडियन ओपिनियनके प्रकाशन का बीज बोने की शुरुआत हुई।

दक्षिण अफ्रीका में समाचार पत्रों का इतिहास

दक्षिण अफ्रीका की पहली गैर-यूरोपीय यूरोपीय समाचार पत्र, जो 1884 में दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी प्रांत में एक अफ्रीकी शिक्षक, जॉन टेंगो जबावु ने किंगविलियम्स टाउन में शुरू की थी, का नाम ल्मवो ज़बांटसुंडु, जिसे अंग्रेजी में नेटिव ओपिनियन कहा जाता था। गांधीजी के अखबार का नाम इंडियन ओपिनियन था। पी.एस. अय्यर 1898 से एक साप्ताहिक पत्र इंडियन वर्ड मारित्ज़बर्ग से निकालते रहे थे। इस पत्र के बंद हो जाने पर 1901 से उन्होंने कॉलोनियल इंडियन न्यूज़ नाम से दूसरा अखबार निकालना शुरू किया। शुरू में यह दो भाषाओं में निकलता था, लेकिन 1902 के अप्रैल से केवल तमिल संस्करण ही निकाला जाता रहा। केवल तमिल व्यापारियों से विज्ञापन मिलने के कारण इसका आधार भी काफ़ी सीमित रहा और गुजराती व्यापारियों के बीच इसकी लोकप्रियता नहीं बढ़ पाई थी। गुजराती व्यापारियों के उदासीन रहने के कारण पी.एस. अय्यर को यह पत्र 1903 में बंद ही कर देना पड़ा।

इंडियन ओपिनियन का पहला अंक

4 जून 1903 को इंडियन ओपिनियन का पहला अंक डरबन से हिंदी, तमिल, गुजराती और अंग्रेज़ी में निकला। यह छह पेज का पेपर होना था। दरअसल, पहला अंक दस पेज का था, आखिरी चार पेज पूरक के तौर पर 6 मई, 1903 को जोहानिस्बर्ग में बाज़ार नोटिस के खिलाफ़ भारतीय विरोध सभा की कहानी को प्रकाशित करने के लिए थे। यह पेपर इंटरनेशनल प्रेस द्वारा छापा गया था जिसका कार्यालय 113, ग्रे स्ट्रीट, डरबन में था। शुरू में यह अखबार हर बुधवार को निकलता था, लेकिन डाक वितरण में अनियमितताओं को ध्यान में रखते हुए, इसे शुक्रवार को जारी करने का दिन बदल दिया गया ताकि ग्राहक रविवार को अपने खाली समय में इसे पढ़ सकें। इसका मुख्य उद्देश्य प्रवासी भारतीयों की समस्याओं की वकालत करना था। इस अख़बार का लक्ष्य भारतीयों को उनकी कमियां बता कर उनके समाधान का रास्ता दिखाना था। साथ ही भारतीयों को उनकी ग़लतियों का अहसास कराना और अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान कराना था। यह भी लक्ष्य था कि भारतीय और ब्रिटिश समुदाय के बीच एक सद्भावना का माहौल तैयार हो, उनके बीच की दूरियां घटे और ग़लतफ़हमियां दूर हो। बाद के दिनों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के वर्चस्व को चुनौती और उसके विरोधी आंदोलन में इस अखबार की अग्रणी भूमिका रही। इसके पहले अंक में ही गांधीजी ने अपनी बात शीर्षक आलेख में लिखा थाइस समाचार पत्र की ज़रूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है। ... भारतीय समाज की भावनाओं को प्रकट करनेवाले और विशेष रूप से उसके हित में संलग्न समाचार पत्र के प्रकाशन से उसकी एक बड़ी कमी पूरी होगी। यह पत्रिका दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की 'अनुचित और अन्यायपूर्ण' अक्षमताओं को उजागर करेगी, तथा भारतीयों की गलतियों को भी 'बेझिझक उजागर करेगी'... समय सिद्ध करेगा कि जो सही है, वही करने की हमारी इच्छा है। ...टाइम्स ऑफ नेटाल ने लिखा कि भारतीय मामले को 'बहुत संयमित और निष्पक्ष' ढंग से प्रस्तुत किया गया।

गांधीजी द्वारा लगातार लेखन

बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत में रहते हुए भी गांधीजी कभी अखबार ही नहीं पढ़े थे। जब वे विलायत पढ़ने गए तो उन्हें मालूम हुआ कि अखबार क्या होता है? लंदन में जब वे जुलाई 1888 में पहुंचे तो दलपतराम शुक्ल के सुझाव पर ‘डेली न्यूज़’, ‘डेली टेलीग्राफ’ और ‘पेलमेल गजट’ आदि अंग्रेज़ी अखबार पढ़ना शुरू किया। वही गांधीजी 1903 में एक अखबार प्रकाशित करते हैं। तब उनकी उम्र मात्र 34 साल की थी। गांधीजी अपने जीवन में पत्रकारों को काफ़ी महत्व देते रहे थे। उनसे बातचीत करना, साक्षात्कार देना, उनके क्रियाकलापों का एक अहम हिस्सा था। लेकिन इंडियन ओपिनियन के अस्तित्व में आने के बाद उनके लिए यह बेहद ज़रूरी हो गया था कि वे लगातार लेखन भी करें। इसके कारण उनके दैनिक क्रियाकलापों में एक यह काम भी आ जुड़ा। गांधीजी के विचारों की सबसे बड़ी शक्ति उनकी संप्रेषणीयता थी। वे बात की गहराई को समझते थे और उसे जनसाधारण तक पहुंचाने की योग्यता रखते थे। वे जो भी लिखते थे उसका मुख्य उद्देश्य प्रवासी भारतीयों को जागरूक करना होता था। गांधीजी की लेखनी और शैली इतनी उद्देश्य परक और प्रभावी होती थी कि पाठकों को इसे नकारना मुश्किल होता था। उनकी पत्रकारिता निर्भय पत्रकारिता थी। वह अपने उद्देश्य की सच्चाई में विश्वास करते थे और हमेशा पाठकों के सामने तथ्यों को उनके नग्न रूप में रखते थे।

इंडियन ओपिनियन के संपादक

इंडियन ओपिनियन के संपादक गांधीजी नहीं थे। उन्होंने तो पैसा लगाकर इसे चालू किया था। इस हिसाब से वे इसके मालिक थे।  1890 के दशक से डरबन में गांधीजी के साथ जुड़े रहे मनसुखलाल हीरालाल नज़र  ने अवैतनिक संपादक के रूप में काम करना स्वीकार कर लिया। 20 जनवरी 1906 को प्रातःकाल उनकी अचानक मृत्यु हो जाने तक वे इंडियन ओपिनियन के अवैतनिक संपादक बने रहे। वह एक महान संस्कृति के व्यक्ति थे, बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्नातक थे, एक प्रशिक्षित पत्रकार थे। वे मुंबई में पत्रकार रहे थे। उनकी मृत्यु समुदाय के लिए एक बड़ी क्षति थी। मदनजीत व्यावहारिक इसका प्रिंटर नियुक्त हुआ। किंतु वास्तव में इसकी समस्त संपादकीय दायित्व गांधीजी पर ही था। नज़र का मानना था कि दक्षिण अफ़्रीका के विषय पर गांधीजी ही बेहतर लिख सकते हैं। इसलिए जिन-जिन विषयों पर लिखना उन्हें ज़रूरी लगता उसका बोझ वे गांधीजी पर डाल दिया करते। थोड़े समय के लिए हर्बर्ट किचिन ने उनकी जगह ली। जब निष्क्रिय प्रतिरोध अपनाने पर गांधीजी से असहमति के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया, तो एच.एस.एल. पोलाक (1906-1916) ने उनका स्थान लिया। 1909 में गांधीजी के लंदन दौरे के समय भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में पोलाक को एक व्यक्ति के प्रतिनिधिमंडल पर भारत भेजा गया था। इसके बाद रेव जोसेफ डोक ने इंडियन ओपिनियन के संपादक का पद संभाला। वे पहली बार नवंबर 1907 में गांधीजी से मिले थे। 2 फरवरी 1910 को उन्हें मिशनरी सम्मेलन के सिलसिले में इंग्लैंड की लंबी अवधि की यात्रा पर जाना पड़ा। वहां से वे अमेरिका चले गए। इसके बाद पोलाक ने फिर से पद संभाला और 1916 में दक्षिण अफ्रीका से अपने अंतिम प्रस्थान तक इस पद पर बने रहे।

छोटे प्रेस के लिए एक चुनौती



प्रत्येक सामग्री को तीन अन्य भाषाओं में अनुवाद करना तथा चार भाषाओं में टाइप तैयार करना, मामूली कर्मचारियों तथा छोटे प्रेस के लिए एक चुनौती थी। इस पत्रिका ने शीघ्र ही एक आवश्यकता को पूरा कर दिया, भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका और भारत में होने वाली घटनाओं की जानकारी देना शुरू कर दिया, तथा इच्छुक यूरोपीय लोगों को भारतीय मन की बात जानने में सक्षम बनाया। इस अख़बार में ट्रांसवाल को अधिक जगह मिलना स्वाभाविक ही था। लेकिन वह केवल दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों की पीड़ा का ही इज़हार नहीं करता था, वह केवल उनके क़ानूनी अधिकारों और सम्मान की रक्षा की लड़ाई नहीं लड़ता था, बल्कि यह अखबार आत्मिक शुद्धि, आंतरिक शक्तियों का गठन भी करता दिखाई देता था।

सारा पैसा झोंक दिया

जब पत्र शुरू किया गया, तो किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि इसमें इतनी लागत आएगी। गांधीजी ने इसमें अपना सारा पैसा झोंक दिया। संपादकीय और अन्य कई ऐसे व्यावसायिक काम थे जो स्वेच्छा से अवैतनिक करने होते थे। नेटाल भारतीय कांग्रेस और ट्रांसवाल ब्रिटिश एसोसिएशन ने इसे मदद करनी शुरू कर दी थी। इसके एवज में उन्हें इसके कुछ कम्प्लीमेंटरी प्रति मिल जाया करते थे। इसके बावज़ूद इसकी आर्थिक स्थिति तंग ही रहती थी। अखबार न निकलता तब भी कोई हानि होने वाली नहीं थी। पर गांधीजी को लगा कि निकालने के बाद उसके बंद होने से भारतीयों की बदनामी होगी और समाज को हानि पहुंचेगी। साथ ही यह भी तय था कि इसे ज़िन्दा रखने के लिए गांधीजी को अपनी जेब से इसका खर्च उठाना पड़ेगा। पहले ही वर्ष में गांधीजी को इसके संचालन के लिए दो हज़ार पाउंड की राशि खर्च करनी पड़ी। सौभाग्यवश, इस महत्वपूर्ण क्षण में, 1,600 पाउंड उन्हें जोहान्सबर्ग नगरपालिका से प्राप्त हो गए, जो कि कई मुकदमों में मिले खर्चों के माध्यम से प्राप्त हुए थे। एक समय तो ऐसा आया कि जब गांधीजी की सारी बचत उसी पर खर्च हो जाती थी। धन कमाने का विचार तो उनका कभी था ही नहीं, फिर भी भारतीय समाज की सेवा के लिए गांधीजी ने अपनी जेब से धन क्या इसमें अपनी आत्मा ही उड़ेल दी थी।

नाप-तौल कर शब्दों का प्रयोग

गांधीजी इसके हर अंक में कोई न कोई आलेख ज़रूर लिखते। सत्याग्रह के सिद्धांत को इससे लोगों को समझाने का प्रयत्न करते। वे बड़े नाप-तौल कर शब्दों का प्रयोग किया करते थे। जान-बूझकर बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था। इसलिए उनके संयम की परीक्षा इस अखबार के ज़रिए खूब हुई। मित्रों के लिए यह उनके विचारों से अवगत होने का माध्यम बना। आलोचकों को यहां से कुछ खास मिल नहीं पाता था। गांधीजी का कहना था कि इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती। अफ़्रीका के भारतीयों का सही हाल जानने का यह एक उपयोगी माध्यम बना। यह पत्र लोगों को शिक्षित करने के लिए था, साथ ही उन्हें सूचनाएं देने के लिए भी था। इस अखबार के कारण गांधीजी की भविष्य में होने वाली लड़ाई संभव हो सकी। उन्होंने इंडियन ओपिनियन के 'पहले ही महीने' में यह महसूस कर लिया था कि अखबार पर बाहर से नियंत्रण 'नियंत्रण की कमी से भी अधिक जहरीला है', लेकिन 'अनियंत्रित कलम' भी विनाशकारी हो सकती है। वे कहते थे कि पत्रिका ने उन्हें आत्म-संयम का प्रशिक्षण दिया, आलोचक को भी 'अपनी कलम पर अंकुश लगाने के लिए मजबूर किया' और भारतीय समुदाय को पत्रों और टिप्पणियों के माध्यम से 'स्पष्ट रूप से सोचने' में सक्षम बनाया।

गांधी का एक नया शिष्य – पोलाक

मनसुखलाल नज़र की अकाल मृत्यु के बाद गांधीजी के एक अंग्रेज़ मित्र हर्बर्ट किचन इसके संपादक हुए। बाद में हेनरी एस.एल. पोलक संपादक हुए और कई वर्षों तक इस दायित्व को संभालते रहे। प्लेग के समय, गांधी ने प्रेस को एक कड़ा पत्र लिखा था जिसमें नगरपालिका पर भारतीय मजदूरों के लिए पर्याप्त सुविधाएं न देने का आरोप लगाया गया था। इस पत्र ने डोवर में जन्मे एक अंग्रेज यहूदी हेनरी पोलाक का ध्यान खींचा, जो द क्रिटिक नामक साप्ताहिक पत्रिका के सहायक संपादक थे। वह शाकाहारी था, गांधी के साथ अक्सर उसी रेस्तराँ में जाता था, और एक शाम, गांधी को रेस्तराँ में देखकर उसने अपना कार्ड भेजा। गांधी ने उसे अपनी मेज़ पर आमंत्रित किया, और उन्होंने शाम का बाकी समय बातचीत करते हुए बिताया। इस तरह गांधी को एक नया शिष्य मिल गया जो काफी दिनों तक इन्डियन ओपिनियन से जुड़ा रहा। जब गांधीजी और पोलक जेल में थे, तो पादरी जोसफ़ डोक ने भी कुछ दिनों तक इसके संपादक के रूप में काम किया।

अलबर्ट वेस्ट इन्डियन ओपिनियन से जुड़े

अप्रैल 1904 में मदनजीत ने गांधीजी को बताया कि वह भारत लौटने की योजना बना रहा है। मदनजीत ने कहा कि वह गांधीजी के ऋण चुकाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन गांधीजी चाहें तो प्रेस और पत्रिका को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं और इसकी आय का आनंद ले सकते हैं। गांधीजी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वहीं सौदा पक्का कर लिया। इस अखबार में शुरू में विज्ञापन और बाहर की छपाई के कुछ काम भी लिए जाते थे। पर इस सब काम में लोगों की खुशामद करनी होती थी। इसके अलावा कौन-से विज्ञापन दिए जाएं कौन-से न दिए जाएं, इसे तय करने में काफ़ी समय नष्ट होता था। इसलिए बाद में विज्ञापन छापना बंद कर दिया गया। किंतु आर्थिक तंगी के कारण गांधीजी के सामने यह प्रश्न अब भी था कि वे इसे चलायें या बंद कर दें। ऐसे में एक मित्र के रूप में अलबर्ट वेस्ट से उनकी मुलाक़ात हुई। एक दिन उसने समाचार पत्र में प्लेग की खबर और गांधीजी का पत्र पढ़ा और गांधीजी से मिलने चला आया। उसने कहा, कहिए मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं? गांधीजी ने अलबर्ट वेस्ट से कहा मैं और मदनजीत तो प्लेग बीमारों की सेवा में लगे हैं, क्या आप डरबन जाकर मेरे अखबार को संभाल सकते हैं? हालाकि वेस्ट के पास उसका अपना प्रेस था, फिर भी उसने हामी भर दी। इस प्रकार प्रतिमाह मात्र दस पौंड वेतन पर उसने डरबन जाना स्वीकार कर लिया। वेस्ट को गांधीजी और मदनजीत से ज़्यादा धंधे की समझ थी। उसे समझते देर न लगी कि अखबार और प्रेस की हालत खस्ता है। जब वेस्ट डरबन पहुंचा तो उसे जांच से पता लगा कि वहां तो आर्थिक घपले किए गए हैं। मदनजीत और नज़र ने गांधीजी को बहकावे में रखा था। प्रेस पर काफ़ी उधारी थी। वेस्ट ने गांधीजी को समझाया कि उन्हें खुद डरबन आकर कुछ मामलों को फ़ौरन सुलझाना पड़ेगा। सितम्बर 1904 में गांधीजी ने डरबन की 24 घंटे की लंबी यात्रा के लिए जाने की निश्चय किया।

फिनिक्स आश्रम की नींव

वेस्ट, कालेनबाख और गांधीजी फीनिक्स आश्रम में

गांधीजी जब जोहान्सबर्ग से डरबन जाने के लिए रेल में सवार हुए तो उनके पत्रकार मित्र पोलक ने रास्ते में पढ़ने के लिए रस्किन की किताब
 अनटू दिस लास्ट पुस्तक दी। गांधीजी ने जब किताब पढ़नी शुरू की तो इसमें पूरी तरह रम गए। दूसरे दिन शाम को जब गाड़ी डरबन पहुंची तब तक वह पुस्तक वे पढ़ चुके थे और रस्किन के सिद्धांत को अमल में लाने का निश्चय कर चुके थे। इस पुस्तक से उन्हें काफ़ी प्रेरणा मिली। उन्होंने इंडियन ओपिनियन प्रेस के गोरे प्रबंधक और अपने मित्र एलबर्ट वेस्ट के साथ प्रेस को एक फार्म में ले जाने की योजना बनाई। इसके लिए यह निर्धारित किया गया कि फार्म के सभी निवासी श्रमजीवी होंगे और सबको समान वेतन मिलेगा। सभी मिलकर प्रेस चलायेंगे। डरबन से 14 मील दूर फिनिक्स में एक हज़ार पौंड में गांधीजी ने गन्ने के खेतों के बीच सौ एकड़ ज़मीन ख़रीदी और फिनिक्स आश्रम की नींव डाली। ज़मीन पथरीली और उबड़-खाबड़ थी। उसमें पानी का एक झरना भी था। आम, पपीते और कुछ मलबेरी के पेडों को छोड़कर पूरा मैदान सूखी घास से भरा था। वहां सांपों का उपद्रव भी था। नज़दीक का फिनिक्स स्टेशन यहां से तीन मील दूरी पर था। इस आश्रम के सबसे पहले निवासियों में पोलक, वेस्ट और गांधीजी के चचेरे भाई छगनलाल गांधी, मगनलाल गांधी और मेकेनिक गोविंदस्वामी थे। इंडियन ओपिनियन को डरबन से फिनिक्स लाया गया। प्रेस के लिए पचहत्तर फुट लंबा और पचास फुट चौड़ा एक छप्परनुमा हॉल बनाया गया। संस्था वासियों के रहने के लिए आठ मकान खड़े किए गए। मदनजीत 16 अक्टूबर 1904 को भारत के लिए रवाना हुए।

पहला फीनिक्स-मुद्रित संस्करण

24 दिसम्बर 1904 को पहला फीनिक्स-मुद्रित संस्करण भेजा गया। वहां से निकलने वाले पहले अंक की कहानी भी बहुत ही रोचक है। जिस रात अखबार छपना था, उस दिन मशीन टूट गई। गांधीजी तो पहले से ही यह मानते थे कि मशीन पर बहुत निर्भर न रहा जाए। लेकिन उनकी बात कोई मानता ही न था। अब तो हाथ से मशीन चलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। गांधीजी ने अकेले ही मशीन चलानी शुरू कर दी। वेस्ट आंखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था। तेल के इंजन से चलने वाले प्रेस को उन्होंने हैंडप्रेस में तबदील कर दिया। इस प्रकार पत्र का प्रकाशन ट्रेडिल मशीन पर हाथ की ताक़त से होने लगा। उस मशीन की हैंडल चलाने के लिए चार लोगों की ज़रूरत पड़ती थी। उस समय उतने लोग वहां न थे। गांधीजी ने सोते हुए बढ़ई, लोहार आदि को जगा दिया। थोड़ी ही देर में वहां से छपाई होने लगी। सुबह ठीक समय पर अखबार निकला।

हिंदी और तमिल संस्करण बंद

गांधीजी का स्वावलंबन का यह प्रयोग काफ़ी सफल रहा। पोलक ने जब सुना कि गांधीजी ने फिनिक्स से इंडियन ओपिनियन नामक अखबार निकालना शुरू किया है तो उसने अपने पुराने अखबार क्रिटिक से इस्तीफ़ा दे दिया और ओपिनियन में आ गया। गांधीजी और पोलक प्रूफ़ जांचने का काम करते थे। खर्च घटाने के लिए 28 जनवरी 1906 से इसका हिंदी और तमिल संस्करण बंद कर दिया गया। जनवरी 1906 के प्रथम सप्ताह में हिन्दी और तमिल अनुभागों के लिए टाइपसेटर और कंपोजिटर मिलने में कठिनाई के कारण इन अनुभागों को जारी रखने के प्रश्न पर पुनर्विचार करना पड़ा और 27 जनवरी 1906 से इन्हें बंद कर दिया गया। 1913 में गांधीजी की जेल से रिहाई के बाद सत्याग्रह की लड़ाई फिर से शुरू होने पर तमिल अनुभाग को पुनर्जीवित किया गया, लेकिन अंतिम समझौते के बाद अप्रैल, 1914 से इसे फिर से बंद कर दिया गया। इंडियन ओपिनियन ने नेटाल के समाचार-पत्र जगत में एक शांत और अप्रत्याशित प्रवेश किया। कॉलोनी में एकमात्र महत्वपूर्ण समकालीन समाचार-पत्र था टाइम्स ऑफ नेटाल। जहां सामान्यतः इस अखबार के 1200 से 1500 तक ग्राहक होते थे, जब आंदोलन ने उग्र रूप लिया तो धीरे-धीरे इस अखबार के ग्राहकों की संख्या 3500 हो गई। पाठकों की संख्या 20,000 रही होगी।

सत्याग्रह की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका

इस अखबार ने गांधीजी की लड़ाई में बहुत निर्णायक और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी पत्र के द्वारा गांधीजी ने सत्याग्रह शब्द का आगाज़ किया। हिंद स्वराज का क्रमिक प्रकाशन इसी अखबार से हुआ। गांधीजी के भारत प्रस्थान करने तक, अर्थात 18 जुलाई 1914 तक इंडियन ओपिनियन के 581 अंक निकले। इनकी कुल पृष्ठ संख्या 15,544 थी। गांधीजी के जाने के बाद इसके ग्राहकों की संख्या 3500 से घटकर 500 ही रह गई। उनके भारत चले आने के बाद उनके पुत्र मणिलाल गांधी ने 1916 से 1958 तक संपादक के रूप में इस पत्र को चलाया। 1958 में मणिलाल की मृत्यु के बाद सुशीला मशरूवाला, मणिलाल की पत्नी, किशोरलाल मशरूवाला की भतीजी, इसकी संपादक बनीं। उन्होंने इसका नाम बदल कर ओपिनियन कर दिया। वे इसे 4 अगस्त 1961 तक चला सकीं।

ट्रस्ट के अधीन रखने का फैसला

साप्ताहिक पत्रिका और फीनिक्स आश्रम दोनों ही पूरी तरह से गांधीजी की अपनी आय से स्थापित किए गए थे। इसलिए यह उनकी निजी संपत्ति थी। उन्होंने इसमें सभी स्वामित्व अधिकारों को त्यागने और इसे एक ट्रस्ट के अधीन रखने का फैसला किया। कुछ सोच-विचार के बाद 1911 में इस फैसले को अंतिम रूप दे दिया गया। गांधीजी इस अखबार को समाज की सम्पत्ति मानते थे। वे यह मानते थे कि समाचारपत्र सेवाभाव से ही चलाए जाने चाहिए। यह अखबार उनकी आवाज़ और पुकार के रूप में प्रतिध्वनित हुआ। इसमें न सिर्फ़ समसामयिक विषय पर विचार किया जाता था बल्कि स्थाई समस्याओं पर भी विचार किया जाता था। गांधीजी ने पत्रकारिता के कई नए कीर्तिमान क़ायम किए। जितनी सामग्री आती थी, अखबार में छपने के पहले वे उसे खुद देखते थे। सामग्री वे भारत से भी मंगवाते थे। रामनरेश त्रिपाठी की एक कविता जो सरस्वती में छपी थी, उसे इस अखबार में उन्होंने छापी। अखबार में साहित्यिक योगदान के लिए उन्होंने कई विद्वानों से सलाह लिया, उनमें से प्रमुख हैं मदनमोहन मालवीय। वे अच्छे लेखकों की खोज में रहते थे। इंडियन ओपिनियन में उस ज़माने के बड़े-बड़े लोग लिखा करते थे।

उपसंहार

इंडियन ओपिनियन का जन्म काफी कठिनाइयों के साथ हुआ, गर्भकाल काफी लम्बा था और जन्म-पूर्व तथा जन्म-पश्चात परेशानियां भी कम नहीं थीं। नज़र को छोड़कर इन्डियन ओपिनियन के सभी संपादक यूरोपीय थे। यह उस अख़बार के आदर्श के अनुरूप था जिसका घोषित उद्देश्य नस्लीय पूर्वाग्रह का मुकाबला करना और उसके स्थान पर सभी मानव जाति के भाईचारे के आदर्श को स्थापित करना था। इसकी शुरुआत से ही यह स्पष्ट मान्यता थी कि साप्ताहिक एक व्यावसायिक उद्यम नहीं बल्कि सेवा का साधन होना चाहिए। इसलिए गांधीजी ने स्पष्ट कर दिया था कि यह पत्र किसी "उद्देश्य" के लिए प्रकाशित किया जा रहा है, न कि लाभ के लिए। इंडियन ओपिनियन ने कभी भी गोरों और गैर-गोरों के बीच सामाजिक मेलजोल की वकालत नहीं की, यह कई कारणों से अनावश्यक और अवांछनीय था। लेकिन इसने भारतीयों और यूरोपीय लोगों के बीच सद्भावना को बढ़ावा देने के लिए हर संभव प्रयास किया। इससे गांधीजी को गोरों में से भी विवेकशील और सुसंस्कृत लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में सहायता मिली और मोटे तौर पर कहें तो उन्होंने उनकी सहानुभूति और समर्थन भी प्राप्त कर लिया। दक्षिण अफ़्रीकी पत्रकारिता की दुनिया में इंडियन ओपिनियन ने अपनी शुरुआत से ही अपना दबदबा कायम कर लिया था। जिस बात ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा, वह थी सत्य के प्रति उसका ईमानदार सम्मान, द्वेष का पूर्ण अभाव और संयमित सोच।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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