गांधी और गांधीवाद
93. गांधीजी की सादगी
धोबी की गुलामी से मुक्ति
गांधीजी ने घर तो बसाया, पर उनके मन में उसके प्रति कभी मोह
उत्पन्न नहीं हो सका। आराम और प्राचुर्य का उनकी ज़िन्दगी में कोई खास महत्व नहीं
था। घर बसाने के साथ ही उन्होंने खर्च कम करना शुरु कर दिया। धोबी का
खर्च भी उन्हें अधिक लग रहा था। चूंकि धोबी निश्चित समय पर कपड़े नहीं लौटाता, इसलिए दो-तीन दर्जन कमीजों और उतने
ही कालरों से भी उनका काम चल नहीं पाता था। वे रोज़ कॉलर बदलते थे। कमीज रोज़ नहीं
तो एक दिन के अन्तराल पर तो ज़रूर ही बदलते थे। इससे दोहरा खर्च होता था। उन्हें यह
फ़ालतू ख़र्च लगा। इसलिए उन्होंने धुलाई का सामान जुटाया। धुलाई-कला पर किताबें पढ़ी।
धोना सीखा। कस्तूरबा को भी सिखाया। हालाकि काम का कुछ बोझ बढ़ा पर उन्हें इसमें
आनन्द भी आने लगा।
जब पहली बार वे कॉलर धो रहे थे तो
उसमें कलफ़ अधिक लग गया। उस पर से इस्तरी पूरी तरह से गरम नहीं थी। जब वे इस्तरी कर
रहे थे तो उन्हें लगा कि कहीं कॉलर न जल जाए, इस डर से उन्होंने उसे पूरी तरह दबाया भी नहीं। इससे कॉलर में कड़ापन
तो आ गया, पर उसमें से कलफ झड़ता रहता था। ऐसी हालत में वे कोर्ट गए। उनकी हालत
देख बैरिस्टरों ने उनका मज़ाक़ उड़ाना शुरु कर दिया।
अपनी सफ़ाई देते हुए गांधीजी
ने कहा, “अपने हाथों कॉलर धोने का मेरा यह पहला प्रयोग है, इस कारण इसमें से कलफ झड़ता है। मुझे
इससे कोई अड़चन नहीं होती; ऊपर से आप सब लोगों के लिए विनोद की इतनी सामग्री जुटा रहा हूं, सो घाटे में।”
इस पर एक मित्र ने पूछा, “पर क्या धोबियों का अकाल पड़ गया है?”
गांधीजी ने कहा, “यहां धोबी का ख़र्च मुझे तो असह्य
मालूम होता है। कॉलर की क़ीमत के बराबर धुलाई हो जाती है। और इतनी धुलाई देने के
बाद भी धोबी की गुलामी करनी पड़ती है। इसकी अपेक्षा अपने हाथ से धोना मैं ज़्यादा
पसन्द करता हूं।”
हालाकि स्वावलम्बन की यह खूबी
वे मित्रों को समझा नहीं सके, फिर भी धीरे-धीरे धुलाई के लिए काम लायक कुशलता उन्होंने पा ही ली।
उस पर से घर की धुलाई धोबी की धुलाई से ज़रा भी घटिया नहीं होती थी। कॉलर का कड़ापन
और चमक धोबी के धोए कॉलर से कम न रहती थी।
उन्हीं दिनों गोपालकृष्ण
गोखले आए हुए थे। उनके पास महादेव गोविन्द रानडे की प्रसादी-रूप एक दुपट्टा था।
गोखले उस दुपट्टे को बड़े जतन से रखते थे। विशेष अवसर पर ही उसका उपयोग करते थे।
जोहान्सबर्ग में उनके सम्मान में भोज का आयोजन किया गया था। यह एक विशेष अवसर था।
इसलिए उस अवसर पर उन्हें उस दुपट्टे का उपयोग करना था। जब उन्होंने उसे बक्से से
बाहर किया तो देखा कि उसमें सिलवटें पड़ी हुई थीं। उस पर इस्तरी करने की ज़रूरत थी।
समय अधिक नहीं था, इसलिए धोबी को बुलाकर यह काम उससे कराना सम्भव नहीं था। गांधीजी ने
यह काम कर देने का प्रस्ताव दिया। यह सुन गोखले जी ने कहा, “मैं तुम्हारी वकालत का तो विश्वास कर
लूंगा, पर इस दुपट्टे पर तुम्हें अपनी धोबी-कला का उपयोग नहीं करने दूंगा।
इस दुपट्टे पर तुम दाग़ लगा दोगे।”
गांधीजी ने फिर भी विनती की
और दाग न पड़ने देने की जिम्मेदारी ली। उन्हें इस्तरी करने की अनुमति मिली। ... और
जब वे गोखले जी को दुपट्टा सौंपे तो गोखले जी के मुख पर की मुस्कान बता रही थी कि गांधीजी
को उनकी कुशलता का प्रमाण-पत्र मिल गया हो!
नाई
की गुलामी से भी मुक्ति
दाढ़ी बनाना तो विलायत जाने वाले सभी लोग
सीख लेते हैं, पर बाल बनाने के लिए तो हज्जाम की दुकान पर जाना ही पड़ता था। गांधीजी
एक बार प्रिटोरिया में एक अंग्रेज़ हज्जाम की दुकान पर पहुंचे। उसने गांधीजी की
हजामत बनाने से साफ़ इन्कार कर दिया। यहां तक तो ठीक था, पर उसने जो तिरस्कार के शब्द कहे वह गांधीजी
के लिए असह्य था। उन्हें काफ़ी दुख हुआ। वे बाज़ार गए और बाल काटने की मशीन खरीद
लाए। घर आकर आईने के सामने खड़े होकर बाल काटने लगे। बाल जैसे-तैसे कट तो गए, पर पीछे के बाल काटने में उन्हें बड़ी
कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही नहीं पाए। जब दूसरे रोज़ वे कोर्ट गए तो लोग उन्हें
देख कर हंस रहे थे।
एक ने तो कह ही डाला, “तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गए थे?”
गांधीजी ने कहा, “जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे
छू सकता है? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं।”
स्वावलम्बन और सादगी के उनके
शौक ने आगे चलकर जो तीव्र स्वरूप धारण किया उसका परिणाम आगे चलकर देखने को मिला।
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मनोज कुमार
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संदर्भ : यहाँ पर
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