गांधी और गांधीवाद
95.
दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने का निर्णय
1901
प्रवेश
1901 में बोअर
युद्ध की समाप्ति हुई। गांधीजी बोअर युद्ध के काम से मुक्त
हो चुके थे। वह
एक महीने रुकने
के लिए गए थे, उसके बदले वह वहाँ छह वर्ष रह चुके थे। गांधीजी
को आशा थी कि युद्ध में भारतीय समुदाय की भूमिका से ब्रिटिश अधिकारियों को प्रसन्न
होना चाहिए और उनकी न्याय भावना भारतीय निवासियों के प्रति गोरों की दुश्मनी को कम
करने में मदद करेगी। बोअर युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण
अफ़्रीका के क़ानून कायदों की जांच-पड़ताल के लिए एक समिति बिठा दी। उसे यह काम सौंपा
गया था कि जो भी नियम क़ानून ब्रिटिश विधान से मेल न खाता हो और महारानी विक्टोरिया
की प्रजा के नागरिक अधिकारों में बाधक हों, उन्हें रद्द कर दिया जाए। समिति ने
महारानी विक्टोरिया की प्रजा का अर्थ ‘गोरी प्रजा’ लिया और नए सुधारों में प्रवासी
भारतीयों के अधिकारों का कहीं ज़िक्र नहीं हुआ।
युद्ध के बाद के इस अनुभव ने
उनकी विचारधारा को बदल डाला। गांधीजी ने कभी भी दक्षिण अफ्रीका में स्थायी रूप
से बसने का लक्ष्य नहीं रखा था। भारत की सेवा करना हमेशा से उनका सपना रहा था। गांधीजी के पास भारत से बराबर पत्र आ रहे थे। गोखले, दिनशा वाच्छा, फिरोजशाह मेहता आदि एक ही बात कहते
थे कि गांधीजी भारत लौटकर देश में काम करें। उनके बच्चों का भविष्य
भी उन्हें परेशान कर रहा था। उनकी शिक्षा पहले ही काफी प्रभावित हो चुकी थी। अब गांधीजी को लगने लगा कि स्थानीय भारतीयों में नया आत्मविश्वास
पनपा है और अपने अधिकारों के लिए वे व्यवस्थित ढंग से लड़ सकते हैं। वे अब अन्याय
का प्रतिकार करने में भी समर्थ थे। इसलिए अब गांधीजी को लगने लगा कि जब भारत उनको
बुला रहा है तो मातृभूमि की सेवा के लिए भारत लौट जाना चाहिए। उन्हें डर था कि
अब दक्षिण अफ्रीका में उनका मुख्य काम कहीं पैसा कमाना न होकर रह जाए। वकालत से पैसा कमाना ही तो उनका जीवन-ध्येय नहीं था। यदि वे दक्षिण
अफ़्रीका में रुके रहे तो कुछ न कुछ काम तो अवश्य ही कर लेंगे, पर वह उनका मुख्य धंधा धन कमाना भर
ही रह जाएगा। वे समझते थे, स्वदेश में भी ग़ुलामी है, वहां उनकी ज़रूरत अधिक है। दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों की
सेवा के लिए कुछ कार्यकर्ता भी अब तक तैयार हो चुके थे। कुछ हिन्दुस्तानी नवयुवक दक्षिण
अफ्रीका से इंग्लैण्ड
जाकर बैरिस्टर बनकर आ चुके थे। नेटाल का काम देखने के लिए मनसुखलाल नाजर और ख़ान तो थे ही। गांधीजी को लग रहा था कि भारत में उनकी ज़्यादा
ज़रूरत है। इसलिए आठ वर्षों तक वहां रहकर देशवासियों की सेवा करते रहने के बाद 1901 में गांधी जी ने दक्षिण अफ़्रीका छोड़ने का निर्णय
किया।
सशर्त भारत वापस लौटने की स्वीकृति
गांधीजी ने अपने विचार
मित्रों के सामने रखा। उनका निर्णय सुनकर नेटाल इंडियन कांग्रेस के मित्रों में
मायूसी फैल गई। दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों ने गांधीजी को अपना
संकटहारी माना था। उन सबने गांधीजी से वहीं रुके रहने की प्रार्थना की। गांधीजी
उनका दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। उन्हें इस प्रकार छोड़ना आसान भी नहीं था। गांधीजी
ने उनसे वादा किया कि भविष्य में जब कभी भी उनकी आवश्यकता पड़ेगी, वे अवश्य आएंगे। नेटाल, दक्षिण अफ़्रीका के उनके साथी तो यह नहीं चाहते थे
कि गांधीजी भारत वापस जाएं, गांधीजी को इस
शर्त पर भारत वापस लौट जाने की स्वीकृति मिली कि यदि एक साल के भीतर दक्षिण
अफ्रीका के भारतीयों को उनकी मदद की ज़रूरत हुई तो वे पुन: वापस लौट जाएंगे। शर्त
कड़ी थी, पर गांधीजी तो वहां के लोगों के प्रेम बंधन में जकड़े हुए थे। वे उन्हें निराश
नहीं कर सकते थे। दोस्तों की बात ठुकराना उनके वश की
बात नहीं थी। बिना किसी हिचकिचाहट के, उन्होंने अपने
दोस्तों द्वारा रखी गई शर्त को स्वीकार कर लिया और अपनी योजना को आगे बढ़ाने के
लिए उनकी अनुमति प्राप्त कर ली। नेटाल इंडियन कांग्रेस ने अफ़सोस के साथ गांधीजी
के मानद सचिव पद से इस्तीफ़ा स्वीकार कर लिया और उनके द्वारा अथक सेवा के लिए उनके
प्रति गहरी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए प्रस्ताव पारित किए। 20 अक्तूबर, 1901 को
उनका प्रस्थान तय किया गया।
विदाई समारोह
यह ख़बर चारों तरफ़ फैल गई। सब
जान गए कि गांधीजी सपरिवार भारत लौट रहे हैं। अक्तूबर 1901 तक गांधीजी ने
सारे केस निबटाए और अपनी वकालत समेट लिए। चार-पांच वर्षों में गांधीजी की
समाज-सेवा, ईमानदारी आदि ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। उनके जाने की पूर्व
संध्या पर नेटाल के भारतीय समुदाय ने गांधीजी को अपने स्नेह से अभिभूत कर दिया। 12
अक्टूबर 1901 को दोपहर 3.30 बजे पारसी रुस्तमजी ने उनके सम्मान में अपने निवास पर
लगभग 100 मेहमानों के लिए एक पार्टी दी। समय-समय
पर साथी या वकील मित्र उनको और उनके परिवार को मूल्यवान उपहार या आभूषण आदि सौगात
देते रहते थे। दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों ने गांधीजी और उनके परिवार के सम्मान
में अनेक विदाई समारोह आयोजित किए। चारों तरफ़ से पार्टियां होने लगीं।
स्वागत-सत्कार अलग। विदाई
समारोहों में उन्हें हर जगह क़ीमती भेंट हीरे-जवाहरात उपहार स्वरूप दिए गए। कुछ ने कस्तूरबाई को सोने के ज़ेवर भेंट में
दिए। उनके प्रशंसकों द्वारा कृतज्ञता और स्नेह के प्रतीक के रूप में उन पर
और कस्तूरबा पर बरसाए गए उपहारों ने उन्हें बेचैन कर दिया। भेंटों में सोने, चांदी और यहां तक कि हीरे की चीज़ें थीं। गांधीजी सोच में पड़ गए कि
क्या उन चीज़ों को स्वीकार करने का उनका अधिकार है?
प्रश्न यह था कि यदि वे उन चीज़ों को स्वीकार कर लेते, तो अपने मन को यह कैसे समझाते कि क़ौम
की सेवा वे पैसे लेकर नहीं करते? भेटों को देखकर तो यही लग रहा था कि ये उनकी सार्वजनिक सेवा के
निमित्त से ही मिली हैं।
भेंट में क़ीमती उपहार
मूल्यवान
गहनों के साथ जब गांधीजी घर लौटे, तो कस्तूरबा उन्हें ख़ुशी से उलट-पलट कर देख रही
थीं और गांधीजी चुपचाप एक ओर खड़े रहे। गांधीजी
परिवार सहित भारत रवाना होने वाले थे। रवाना होने के एक दिन पहले की शाम को गांधीजी
दक्षिण अफ़्रीकी समुदाय के द्वारा दी गई क़ीमती उपहारों की सूची बनाने लगे। गुजराती हिंदुओं
ने कस्तूरबाई को पचास गिन्नी का सोने का हार, एक हीरे की पिन, एक हीरे की अंगूठी, एक सोने की घड़ी, एक सोने की चेन, सात सोने के सिक्कों
वाला एक सोने का पर्स, एक चांदी का कप और प्लेट
भेंट की थी। गांधीजी पेशोपेश में पड़ गए कि उन्हें और उनके परिवार को हार स्वीकार
करने चाहिए या नहीं। पूरी रात गांधीजी सो नहीं पाए। गहनों से सजा कमरा था। अपने
कमरे में चक्कर काटते रहे। वे उलझन में थे। जहां एक तरफ़ इतनी क़ीमती उपहार छोड़ना
कठिन लग रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें रखना उससे भी अधिक कठिन लग रहा था। वे ख़ुद ही प्रश्न
करते, “मैं शायद भेंटों को पचा पाऊं, पर मेरे बच्चों का क्या होगा? स्त्री का क्या होगा? उन्हें शिक्षा तो सेवा की मिलती है। उन्हें हमेशा समझाया जाता था कि
सेवा के दाम नहीं लिये जा सकते।” अपने भीतर की उथल-पुथल और खुद से बहस
करने के बाद, आखिरकार
उसे अपनी अंतरात्मा की शांति मिली जब उन्होंने फैसला किया कि वह अपनी कीमती चीज़ों
को अपने पास रखने के बजाय उन्हें समुदाय के लिए समर्पित कर देंगे। अपने विचार को
व्यावहारिक रूप देने से पहले, उन्हें अपने परिवार को इस दृष्टिकोण के लिए तैयार करना ज़रूरी था।
कस्तूरबा को समझाना मुश्किल
कुल मिलाकर लगभग एक हजार पाउंड का सोना
और गहने थे, और
उन्होंने सोचा कि उन्हें नेटाल इंडियन कांग्रेस के उपयोग के लिए एक कोष बनाने के
लिए बेच दिया जाना चाहिए। उनके मन में यह चल रहा था कि इन गहनों पर मेरा क्या हक़ है? मैंने तो
अपने देशवासियों को बिना किसी पुरस्कार के सेवा करने का प्रण किया था। ये जो दिया गया वह तो जनसेवा के बदले दिया गया
है। इसे रख लेना उचित नहीं है। उन्होंने अंत में
यह निर्णय लिया कि उन्हें उन ज़ेवरातों को नहीं रखना है। पारसी रुस्तमजी आदि को इन
गहनों का ट्रस्टी नियुक्त कर इनसे दक्षिण अफ़्रीका में एक सार्वजनिक ट्रस्ट स्थापित
करेंगे। गांधीजी को मालूम था कि कस्तूरबा को समझाना कठिन होगा। हां, उन्हें विश्वास था कि बच्चों को
समझाने में ज़रा भी कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने सोचा कि बच्चों का सहारा इस बात की
पैरवी के लिए लिया जाए। हुआ भी ऐसा ही। सुबह होते ही गांधीजी ने अपने चौदह वर्ष के
पुत्र हरिलाल और नौ वर्ष के मणिलाल को बुलाया और दोनों से इस विषय पर चर्चा की।
दोनों बेटों ने लोभ-लालसा के बिना भेंट-आभूषण नहीं लेना चाहिए, ऐसा अपना स्पष्ट मत दिया। वे बोले कि
उन्हें इन गहनों की ज़रूरत नहीं है, ये सब लौटा देने चाहिए। गांधीजी ख़ुश हुए। बोले, “तो तुम अपनी मां को समझा सकोगे न?”
बच्चों ने कहा, “ज़रूर,
ज़रूर! यह काम हमारा समझिए। उसे कौन ये गहने पहनने हैं? वह तो हमारे लिए ही रखना चाहती है।
हमें उनकी ज़रूरत नहीं है, फिर ज़िद क्यों करेगी?”
पर वह इतना आसान काम नहीं था।
हरिलाल ने अपनी मां के सामने उपहार वापस देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन कस्तूरबा को यह बात अच्छी नहीं
लगी। भेंट
में एक 50 गिन्नी मूल्य का हार भी था। वह कस्तूरबा को भेंट
किया गया था। लेकिन गांधीजी उसे भी रखने के पक्ष में नहीं थे। वह भी तो उनकी
सार्वजनिक सेवा के बदले मिला था। बा तब तक उन
उपहारों को अपनी मिल्कियत मान चुकी थीं। वे उन्हें लौटाने को तैयार नहीं थीं। बा
की आंखों से अश्रु धारा निकल पड़ी और वे गांधीजी को कोसते हुए बोलती जा रही थीं, “भले आपको ज़रूरत न हो और लड़कों को भी
न हो। बच्चों को तो जिस रास्ते लगा दो, उसी रास्ते वे लग जाते हैं। भले मुझे न पहनने हैं, पर मेरी बहुओं का क्या होगा? उनके तो ये चीज़ें काम आएंगी न? क्या
सोना संकट के समय काम नहीं आता? और कौन जानता है
कल क्या होगा? इतने प्रेम से दी गयी चीज़ें वापस नहीं की जा सकतीं। घर आई लक्ष्मी को
कोई ठुकराता है क्या?” मैं इन्हें नहीं लौटाने दूंगी।
एक तरफ़ जहां बच्चे दृढ़ रहे
वहीं दूसरी तरफ़ गांधीजी के तो अपने निर्णय से डिगने का सवाल ही नहीं था। उन्होंने
धीरे से कहा, “लड़कों का ब्याह तो होने दो। हमें कौन उन्हें बचपन में ब्याहना है? बड़े होने पर तो वे स्वयं ही जो करना
चाहेंगे, करेंगे। और हमें कहां गहनों की शौकीन बहुएं खोजनी हैं? इतने पर भी कुछ कराना ही पड़ा, तो मैं कहां चला जाऊंगा?”
बा ने तर्क दिया, “जानती हूं आपको। मेरे गहने तो उतरवा
दिए न! जिन्होंने मुझे सुख से न पहनने दिये, वह मेरी बहुओं के लिए क्या लाएंगे?
लड़कों को आप अभी से बैरागी बना रहे हैं! ये गहने वापस
नहीं दिये जा सकते। और, मेरे हार पर आपका क्या अधिकार है? आपको जो उपहार मिले हैं, उन्हें आप लौटा दीजिए, लेकिन जो मुझे मिले हैं, इन्हें मैं नहीं लौटाऊंगी।”
गांधीजी की अपनी दलील थी, “पर यह हार तुम्हारी सेवा के बदले में
मिला है या मेरी सेवा के?”
बा अपनी ज़िद पर कायम रहीं, “कुछ भी हो। आपकी सेवा भी मेरी सेवा
हुई। मुझे रुला-रुलाकर सेवा करने के लिए विवश किया है आपने। ग़ैरमर्दों के गू-मूत
उठाएं हैं हमने। आपकी ख़ातिर मैंने दिन-रात एक करके मेहनत-मशक्कत की है। क्या वह
सेवा नहीं है? आपने चाहे जिस किसी को मुझपर थोप दिया और मुझे ख़ून के घूंट पीने पर
मज़बूर किया, लेकिन उन सबके लिए मैं मरती खपती रही।”
बा के सारे बाण नुकीले थे।
बापू को चुभ भी रहे थे। पर उन्हें तो गहने वापस करने ही न थे।
उपहार ट्रस्ट में नाम
बा के सारे तर्क धरे रह गए।
जैसे-तैसे उन्होंने कस्तूरबाई से सहमति प्राप्त की। 15 अक्तूबर 1901 को उपहार लौटा दिए। 1896 से 1901 तक जो भी उपहार मिले थे उनका
एक ट्रस्ट बना दिया। उन्होंने
सभी वस्तुओं की एक सूची बनाई और उन्हें सार्वजनिक सम्पत्ति के रूप में एक न्यास
बनाकर अफ्रीकन बैंक निगम में जमा कर दिया। इसका
उपयोग दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों के कल्याण के लिए गांधीजी अथवा
ट्रस्टियों की इच्छा के अनुसार किया जाए, इस शर्त के साथ सारे उपहार बैंक में रख दिया गया। दिन बीतने के साथ
कस्तूरबाई को भी इसके औचित्य की प्रतीति हो गई। गांधीजी अपना मत सबको समझाने में
सफल हुए कि सार्वजनिक सेवा के लिए निजी भेंटें नहीं हो सकतीं। कस्तूरबाई का
दिल टूट गया और गांधी को यह जानकर खुशी हुई कि उनका सबसे बड़ा बेटा हरिलाल अपने
पिता के नक्शेकदम पर चल रहा है।
नेटाल के भारतीयों ने उन्हें "प्रेम के अमृत से
नहलाया।" भारी मन से गांधीजी अपने परिवार के साथ 1901 के अंत में भारत के लिए रवाना हुए।
उपसंहार
संभवतः पूरी तरह से जागरूक हुए बिना ही
गांधीजी धीरे-धीरे उस शक्ति की गतिशीलता की ओर बढ़ रहे थे, जिसका उपयोग उन्होंने बाद में भारत के
स्वतंत्रता के अहिंसक संघर्ष में इतने प्रभावी ढंग से किया। दक्षिण अफ्रीका में
उनके प्रवास ने उन्हें अपने कार्यकलापों का लक्ष्य स्वार्थ के बजाय सेवा करना
सिखाया था। गांधीजी
इस प्रसंग के बारे में लिखते हैं: “अपने इस
कदम के लिए मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ। कुछ समय बाद कस्तूरबाई की समझ में भी आ गया कि मेरा यह कदम सही था। इसकी वजह से हम जीवन में अनेक प्रलोभनों से बच गये
हैं। बाद में
सत्याग्रह आंदोलन के समय यह धन काफी काम आया।”
समाज सेवक को उपहार लेने का कोई हक़ नहीं होता, ऐसा आदर्श अपरिग्रह को 1901 में गांधीजी ने स्वयं
चरितार्थ कर दिखाया। काश समाज-सेवा के नाम पर राजनीति करने वाले आज के नेतागण इस
तथ्य का पालन करते!
... और जब परिवार के साथ गांधीजी भारत के लिए रवाना हुए तो अफ़्रीका में
एक नई चेतना और नई क्रान्ति का सूत्रपात हो चुका था। इधर गांधीजी ने
अभी तक खुद को नहीं पाया था। उनके पास कोई स्थिर लक्ष्य या वास्तविक व्यवसाय नहीं
था। जब वह भारत लौटे, तो
उनकी महत्वाकांक्षा बॉम्बे में एक लॉ ऑफिस खोलने की थी। यह बॉम्बे वकील बनने का
उनका तीसरा प्रयास था और पहले की तरह ही असफल रहा।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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