गांधी और गांधीवाद
119. घर बसाने के झंझट से मुक्ति
1903
गांधीजी का चैम्बरलेन से न मिल पाने की घटना के बाद 1903 में जनवरी, फरवरी और मार्च में कुछ महत्वपूर्ण
बातें ये हुईं –
30 जनवरी को दादाभाई नौरोजी को पत्र लिखकर गांधीजी ने चैम्बरलेन से
मिलने गए शिष्टमंडल का ब्योरा दिया। “दो भारतीय प्रतिनिधिमंडलों ने नेटाल में श्री चैम्बरलेन से मुलाक़ात
की... माननीय सज्जन का मानना है कि पहले से लागू कानूनों के संदर्भ में वे कोई
ख़ास कुछ कर नहीं सकते हैं, क्योंकि कॉलोनी 'जिम्मेदारी से'(?) शासित है... उन्होंने यह भी कहा कि,
हाल ही में गिरमिटिया भारतीयों के बच्चों पर 3 पाउंड का कर लगाने वाले विधेयक के
संदर्भ में वे इंडिया ऑफिस की सलाह से मार्गदर्शन लेंगे... यह बात समझ से परे है कि श्री चैम्बरलेन द्वारा साम्राज्यवादी
देशभक्ति के उपदेश के बाद भी नेटाल द्वारा भारतीय श्रमिकों का शोषण केवल अपने लाभ
के लिए करने का प्रयास किया जाना, अनुबंध के उचित
सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना करना, तथा यह दर्शाता
है कि उपनिवेश ने ब्रिटिश भारतीयों के प्रति अपने शत्रुतापूर्ण रवैये में जरा भी
परिवर्तन नहीं किया है।”
23 फरवरी को गोखले जी को पत्र द्वारा गांधीजी ने ट्रांसवाल के घटनाक्रम
की जानकारी दी और कहा कि वे आ सकने की स्थिति में नहीं हैं। “इस देश में घटनाएँ बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं और स्वाभाविक रूप
से मैं इस लड़ाई में शामिल रहा हूँ। संघर्ष मेरी अपेक्षा से कहीं ज़्यादा तीव्र है....
बहुत ज़्यादा गुप्त काम चल रहा है। पुराने कानूनों को सख्ती से लागू किया जा रहा
है। और इसका मतलब शायद यह है कि मुझे मार्च से ज़्यादा समय तक यहाँ रुकना पड़ेगा।”
16 मार्च को दादाभाई नौरोजी को रिपोर्ट भेजा। भारतीयों के लिए अलग बाज़ारों की
स्थापना के पूरे सवाल पर विस्तृत विधान परिषद द्वारा सामूहिक रूप से विचार किया
जाएगा। दूसरी ओर, चैम्बरलेन ने एक भारतीय-विरोधी प्रतिनिधिमंडल से कहा कि यह एक ऐसा
सवाल है जिसे "जब इस पर अंतिम रूप से निर्णय लिया जाएगा" तो इसे गृह
मंत्रिमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए। उन्हें नए उपनिवेशों में प्रस्तावित
कानून पर सभी प्रयासों को केंद्रित करना चाहिए। केप और नेटाल की स्वशासित
कॉलोनियों में स्थान/लोकेशन प्रचलन में नहीं थे। उन्हें उम्मीद थी कि, जैसा कि लॉर्ड जॉर्ज हैमिल्टन ने
नवंबर 1902 के पहले सप्ताह में उनसे मिलने आए संयुक्त समिति के प्रतिनिधिमंडल को
अपनी टिप्पणियों में संकेत दिया था, उस सिद्धांत को कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी।
एक आम इंसान की तरह गांधीजी भी कुछ धन इकट्ठा करना चाहते थे। आत्मकथा
में कहते हैं, “अब तक कुछ द्रव्य इकट्ठा करने की मेरी इच्छा थी। परमार्थ के साथ स्वार्थ का मिश्रण था।” मुम्बई में जब उन्होंने अपना दफ़्तर खोला था, तो भविष्य के विषय में निश्चिंत होने
के लिए दस हज़ार का बीमा कराया था। दक्षिण अफ्रीका में कुछेक किस्त देने के बाद
उन्होंने उसे बंद कर दिया। उनके मन में प्रश्न उठने लगा कि “क्या ऐसी सुविचारित सुरक्षा ईश्वरीय शक्ति में विश्वास से मेल खाती है? दुनिया के अनगिनत ग़रीबों के परिवारों
का क्या होता रहा है? मैं ख़ुद को भी उनमें क्यों न गिनूं?”
उन्होंने उस पॉलिसी की अगली किस्त जमा नहीं की। उनके भाई
काफ़ी नाराज़ हुए। लगभग उन्हें त्याग ही दिया था। दोनों में बातचीत बंद हो गई थी।
कस्तूरबा भी इसे अपने बच्चों के भविष्य के प्रति जान-बूझ कर की गई लापरवाही मानकर
दुखी हुई। लेकिन गांधीजी कोई इरादा एक बार कर लेते थे, तो कुछ भी उसमें बाधक नहीं होता था।
भारतीयों के लिए यह बात
धीरे-धीरे स्पष्ट होती जा रही थी कि गांधीजी को ट्रांसवाल में ही रहना होगा और
लड़ाई लड़नी होगी। यह लड़ाई मुख्य रूप से कानूनी अदालतों में लड़ी जानी थी; इसलिए उन्हें ट्रांसवाल में वकालत
करने की अनुमति मिलनी चाहिए। यह पहला कदम था। इसके लिए आवेदन किया गया और अप्रैल 1903 में गांधीजी को सुप्रीम कोर्ट
के योग्य वकील के रूप में नामांकित किया गया। अब ट्रांसवाल में उनको मौजूदगी की
ज़रुरत थी, जहां टकराव तेज़ी से बढ़ता जा रहा था। वे जनता के ध्येय से जुड़े हुए
थे।
डरबन की तरह जोहान्सबर्ग में
भी उनकी गतिविधियाँ बहुमुखी थीं। उनका मुख्य उद्देश्य जनता की सेवा करना था। जनता
में उसके बुनियादी अधिकारों की चेतना पैदा करना था। उनको एकजुट करना था। उनमें साहस
और उत्साह का संचार करना था। कानूनी पेशा तो महज अपने इस ध्येय को जारी रखने की
शक्ति बनाए रखने का साधन था। इस बार दक्षिण अफ़्रीका में उन्हें बदले हुए हालात का
सामना करना पड़ रहा था। इन बदले हालात के कारण क्रमशः उनके विचारों में भी परिवर्तन आता
गया। जोहान्सबर्ग में काम करने के निश्चय के साथ-साथ उन्होंने “ट्रांसवाल
ब्रिटिश एसोसिएशन” का गठन किया। खुद उसके सेक्रेटरी बने। कोर्ट में वकालत शुरू करने के
साथ ही उन्होंने जोहान्सबर्ग में अपना ऑफिस भी खोल लिया था।
काम तो शुरू हो गया था लेकिन
कस्तूरबा को दिया वादा और बेटों की याद उन्हें हमेशा परेशान किए रहती थी। प्रारंभिक
दाम्पत्य जीवन में गांधीजी और कस्तूरबा में वैचारिक मतभेद बने रहते थे। छोटे-मोटे
झगड़े भी होते थे। लेकिन समय के साथ दोनों के बीच अद्भुत सामंजस्य हो गया। कस्तूरबा
बहादुर और बहिर्मुखी थी। वह दृढ़ और बेहद हिम्मती भी थी। गांधीजी मानते थे कि
कस्तूरबा सत्य के प्रति आग्रही थी। सही बात पर वह हमेशा अडिग रहती थी। वह गांधीजी
के लिए सबसे बड़ा संबल थी। मुम्बई छोड़ते वक़्त गांधीजी ने कस्तूरबा से कहा था कि वे 1903 के अंत तक वापस आ
जाएंगे, अगर किसी कारणवश यह संभव न हुआ, तो उन्हें दक्षिण अफ़्रीका बुला लेंगे। परिस्थितियां ऐसी बन पड़ी थीं
कि उनका निकट भविष्य में भारत जाना संभव नहीं था। लेकिन पत्नी को दिए वचन को पूरा
करना भी उनके लिए ज़रूरी था। उन्हें लगने लगा कि बाल-बच्चों से उन्हें अब बिल्कुल
ही अलग नहीं रहना चाहिए। उनके भरण-पोषण की व्यवस्था दक्षिण अफ़्रीका में ही होनी
चाहिए। यह कैसे पूरा किया जाए? यह आसान भी नहीं था। तीन-चार साल तो अफ़्रीका में लगने ही थे। क्या
इतने दिनों तक कस्तूरबा गांधीजी पर कोई दवाब न डालतीं उन्हें अफ़्रीका बुलाने के
लिए। उन्हें पता था कि कस्तूरबा उनके साथ ही रहना चाहेंगी, लेकिन उस समय ऐसा संभव नहीं था। यदि
साल के अंत तक उन्हें बुलाया जाए तो यहां रहने के लिए घर बसाना और फिर उसे तोड़ना
काफ़ी कठिन होने वाला था।
30 जून, 1903 को गांधीजी ने अपनी समस्या हरिदास वखतचंद वोरा को पत्र द्वारा बताई। हरिदास काठियावाड़ के एक नामी वकील थे और गांधीजी
के काफ़ी क़रीबी थे। पत्र में उन्होंने लिखा,
“मैं कार्यालय के काम के
संदर्भ में काफी अच्छा कर रहा हूँ; वास्तव में, पिछले कुछ महीनों में जब से मैंने यहाँ कार्यालय खोला है, मैंने देखा है कि मैंने एक अच्छा व्यवसाय स्थापित कर लिया है और मैं
चुन-चुनकर काम कर सकता हूँ। हालाँकि, सार्वजनिक काम
बहुत अधिक मांग वाला होता है और अक्सर बहुत अधिक चिंता का कारण बनता है। इसका
परिणाम यह है कि, अभी मुझे सुबह लगभग पौने
नौ बजे से रात के दस बजे तक काम करना पड़ता है, बीच-बीच में
भोजन और थोड़ी सैर भी करनी पड़ती है। यह निरंतर परिश्रम और चिंता का समय होता है, और मुझे निकट भविष्य में सार्वजनिक काम में कोई कमी आने की कोई
संभावना नहीं दिखती। सरकार अब मौजूदा कानून में संशोधन पर विचार कर रही है, और हमें बहुत सतर्क रहना होगा। इस बात का पूर्वानुमान लगाना बहुत
कठिन है। ऐसी स्थिति में, मुझे नहीं पता कि मेरी
भविष्य की योजनाएँ क्या होंगी, लेकिन जितना अधिक मैं
चीजों पर गौर करता हूँ, उतना ही अधिक मुझे लगता
है कि मेरे लिए कई वर्षों तक छुट्टी लेना लगभग असंभव होगा। बात यह है कि बहुत संभव
है कि मुझे वही करना पड़े जो मुझे नेटाल में करना पड़ा था। अब सवाल यह है कि
श्रीमती गांधी से किया गया मेरा वादा पूरा होगा या नहीं। मैंने उनसे कहा कि या तो
मैं साल के अंत में भारत लौट जाऊं या फिर वे उस समय तक यहां आ जाएं। मैं वादा पूरा
करने के लिए बहुत उत्सुक हूं। यह कैसे किया जाए,
यह
मुश्किल है। साल के अंत में लौटना तो सवाल ही नहीं उठता। लेकिन अगर वे मुझे वादा
पूरा न करने दें और यहां आने पर जोर न दें, तो इस बात की
संभावना है कि मैं पहले की तुलना में भारत लौट सकूं। वैसे भी, मौजूदा योजना के अनुसार मुझे तीन या चार साल तक लौटने के बारे में
नहीं सोचना चाहिए। क्या वे इतने समय तक वहां रहने के लिए राजी होंगी? अगर वे नहीं मानतीं, तो बेशक उन्हें साल के
अंत में यहां आना होगा और मुझे चुपचाप जोहान्सबर्ग में दस साल या उससे ज्यादा समय
तक बस जाना होगा। लेकिन यहां नया घर बनाना और उसे तोड़ना, जैसा कि मैंने नेटाल में किया, बहुत बुरी बात
होगी। अनुभव से मुझे पता चला है कि इसमें बहुत अधिक खर्च आएगा और यदि नेटाल में इस
बारे में बड़ी कठिनाइयाँ हैं, तो जोहान्सबर्ग में वे
और भी अधिक होंगी। इसलिए कृपया इस बात पर विचार करें और यदि श्रीमती गांधी आप
लोगों के साथ हैं, तो आप सभी सलाह-मशविरा
करके मुझे बताएँ। फिर भी, मैं सोचता हूँ कि यदि वे
कुछ समय के लिए वहाँ रहने के लिए सहमत हो जाएँ, तो इससे मैं
सार्वजनिक कार्यों पर पूरा ध्यान दे पाऊँगा। जैसा कि वे जानती हैं, नेटाल में उन्हें मेरा साथ बहुत कम मिला; संभवतः जोहान्सबर्ग में भी उन्हें मेरा साथ कम ही मिलेगा। फिर भी, मैं पूरी तरह से उनकी भावनाओं के अनुसार चलना चाहता हूँ और मैं अपने
आपको पूरी तरह से उनके हाथों में सौंपता हूँ। यदि उन्हें आना ही है, तो वे अक्टूबर में तैयारी करके नवंबर के शुरू में चली आएँ।” हरिदासभाई को कस्तूरबा से सलाह-मशवरा कर गांधीजी को जवाब भेजना था।
गांधीजी ने पत्र की एक प्रति
अपने भतीजे छगनलाल को इस निर्देश के साथ भेजा कि वे इसे अपनी चाची को पढ़कर सुनाएं।
छगनलाल
को लिखे पत्र में गांधीजी ने लिखा था,
" हरिदासभाई को लिखे अपने पत्र की एक प्रति संलग्न
कर रहा हूँ। उसमें मेरे बारे में सारी खबरें हैं। इसे पढ़कर अपनी चाची को यहाँ की
स्थिति समझाओ। यह बहुत ही वांछनीय है कि वह वहीं रहने का निर्णय ले, क्योंकि यहाँ का जीवन बहुत महंगा है। यदि वह वहाँ रहती है, तो यहाँ की बचत से वह और उसके बच्चे भारत में अपेक्षाकृत आसान जीवन
जी सकेंगे। उस स्थिति में, मैं दो या तीन वर्षों
में घर लौट सकूँगा। लेकिन यदि वह जिद करती है, तो मैं अपने
प्रस्थान की पूर्व संध्या पर उससे किए गए वादे से पीछे नहीं हटूँगा। यदि वह जाने
का निर्णय लेती है, तो अक्टूबर तक सभी
आवश्यक तैयारियाँ कर लो और नवंबर में उपलब्ध पहली स्टीमर ले लो। लेकिन उन्हें यह
समझाने का प्रयास करो कि उनके लिए भारत में रहना ही सबसे अच्छा होगा। रेवाशंकरभाई
से परामर्श करके, वह बम्बई या राजकोट में
रहना चुन सकती है। यदि तुम हरिलाल के साथ पहले से ही नहीं गए हो, और तुम्हारी चाची तुम्हारे साथ जाने का इरादा रखती हैं, तो रामदास और देवदास को भी अपने साथ ले आओ। बम्बई में मणिलाल और
गोकुलदास के रहने और शिक्षा के संबंध में उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। नहीं तो
दोनों की पढ़ाई खराब हो जाएगी। लेकिन अगर मणिलाल पीछे रहने को तैयार नहीं है, तो उसे भी अपने साथ ले आओ। अच्छा होगा अगर गोकुलदास बंबई में अपनी
पढ़ाई जारी रखे। मुझे उसके मन की बात बताइओ और यह भी कि रलियत बहन इस बारे में
क्या कहती है।”
कस्तूरबाई पति की समस्याओं को
कैसे नज़रअंदाज़ कर सकती थीं। उनके पति ने एक शर्त रखी थी जिसे कस्तूरबा संभवतः
अनदेखा नहीं कर सकती थीं। इसलिए उन्होंने
फिलहाल भारत में ही रहने का निश्चय किया। इस तरह गांधीजी को तुरत ही जोहान्सबर्ग
में घर बसाने के झंझट से मुक्ति मिली। अब वे अधिक एकाग्रता से अपने व्यवसाय और
राजनैतिक क्रियाकलापों को अंजाम दे सकते थे। गांधीजी ने कस्तूरबा से किए गए अपने वादे को कर्तव्यनिष्ठा से निभाया
था। ऐसा करते हुए उन्होंने वित्तीय पहलू को उजागर करना सुविधाजनक पाया, जिसे वे जानते थे कि वे आसानी से अनदेखा नहीं करेंगी। वे खुद मुख्य
रूप से सार्वजनिक सेवा की मांगों से निर्देशित थे। कोई यह देखे बिना नहीं रह सकता
कि इस अवसर पर वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भावनात्मक संबंधों से कम से कम बंधे
हुए महसूस करते थे।
जोहान्सबर्ग में उन्होंने
धीरे-धीरे अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। ऑफिस खोले पांच महीने ही हुए थे लेकिन उसका
काम अच्छा चल रहा था। सुबह पौने नौ से लेकर रात दस बजे तक वे लगातार काम करते रहते
थे। छगनलाल को पत्र लिखकर घर-परिवार की जानकारी भी ले लिया करते थे। बच्चों की
शिक्षा के बारे में सुझाव भी भेजा करते थे। मणिलाल ने जब एक पत्र में शिकायत भेजी
कि मां ने संगीत क्लास की फ़ीस देनी बंद कर दी है,
तो उन्होंने छगनलाल को पत्र लिखकर समझाया, “मुझे मणिलाल की फ़ीस देने में कोई
एतराज़ नहीं है, लेकिन उसे वाद्य संगीत सीखना चाहिए। उसकी संगीत शिक्षा बंद करना ठीक
नहीं था।”
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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