गांधी और गांधीवाद
99. दक्षिण अफ़्रीका का प्रस्ताव पास हुआ
दिसम्बर, 1901
बीडन स्क्वायर में एक बड़ा और सुंदर मंडप बनाया गया था, जिसे कलकत्ता
निगम ने इस अधिवेशन के लिए उधार दिया था। इस भव्य मंडप में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ। पूरा चौक एक शानदार
दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। मंडप को कई
मंचों में विभाजित किया गया था, जिनके प्रवेश द्वारों पर
गमलों में लगे ताड़ के पेड़ और अन्य सदाबहार पौधे लगे हुए थे। स्तंभों पर सुन्दर
ढंग से सजावट की गई थी तथा आंतरिक भाग को पर्दों, तोरणों, पताकाओं और
झंडियों से सजाया गया था। राष्ट्रवादी हलकों में भी उच्च वर्ग की भारतीय महिलाएँ उस
समय सख्त एकांत में रहती थीं। इसलिए उनके लिए एक अलग मंच आरक्षित किया गया था। चिकन
और पर्दों से घिरे इस मंच पर एक अलग प्रवेश द्वार बनाया गया था ताकि वे अपनी गाड़ियों
से उतर सकें और बाहरी नज़रों से बचकर अपने मंच पर जा सकें। उनके लिए एक अलग तम्बू भी
बनाया गया था जिससे प्रवेश भी एकांत में हो। एक बड़े गुंबद से घिरा और झंडियों और झंडियों
से लटका हुआ, कांग्रेस मंडप का प्रवेश द्वार एक भव्य और आकर्षक रूप प्रस्तुत करता
था। गेट के ऊपर बने मंच से नोहोबत पार्टियाँ बीच-बीच में मधुर संगीत सुनाती थीं। औद्योगिक
प्रदर्शनी का अपना अलग मंडप था और दोनों ही झंडों से सजे हुए दिख रहे थे। कांग्रेस मंडप को रंग-बिरंगे बिजली से रोशन किया गया था। कांग्रेस का अधिवेशन औपचारिक रूप से 26 दिसंबर, 1901 को दोपहर 2.30 बजे शुरू हुआ। स्वयं सेवक कतारों में खड़े थे। अध्यक्ष का जुलूस भीड़
के बीच से धीरे-धीरे गुजरा। स्वयंसेवकों के कप्तान और कई वार्डन के साथ ... सोने
की कढ़ाई वाले रेशमी पट्टों के साथ,... लंबे डंडे लिए हुए जिनके
शीर्ष पर झंडे लगे हुए थे, स्वागत समिति के अध्यक्ष ने निर्वाचित अध्यक्ष, पूर्व अध्यक्षों
और अन्य लोगों के साथ एक प्रभावशाली जुलूस के रूप में मंडप में प्रवेश किया।
मार्गों के किनारे इतनी उत्सुक भीड़ थी कि जुलूस के लिए राष्ट्रपति के मंच तक
पहुँचना आसान नहीं था।
कार्यक्रम की शुरुआत एक गीत से हुई जिसे विशेष रूप से सरला
देवी ने लिखा था। सरला देवी घोषाल बाबू की प्रतिभाशाली बेटी थीं। बाद में घोषाल
पंजाब की प्रसिद्ध श्रीमती चौधरी रामभज दत्त के रूप में गांधीजी के सार्वजनिक और
व्यक्तिगत जीवन में ऐसी परिस्थितियों में आईं जिसकी कल्पना उस समय दोनों में से
किसी ने भी नहीं की थी। भारत के सभी हिस्सों से आए और सभी अलग-अलग धर्मों का
प्रतिनिधित्व करने वाले अट्ठावन गायकों के एक समूह द्वारा गाए गए इस गीत को मिस
घोषाल ने खुद ऑर्केस्ट्रा का निर्देशन करते हुए गाया। इस गीत को कोरस में लगभग 400
स्वयंसेवकों ने गाया।
उड़ीसा, बिहार, बंगाल, अवध, पंजाब, नेपाल,
मद्रास, बॉम्बे और
राजपुताना!
हिंदू, पारसी और जैन, सिख, ईसाई, मुसलमान!
हर आवाज़ में एकता की गूंज हो,
हर जुबान पर बोझ हो,
हिंदुस्तान की जय हो!
उन दिनों कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन
देशभक्ति की भावनाओं को बाहर निकालने के लिए एक भव्य समारोह होता था। प्रतिनिधियों
और आगंतुकों के बीच कोई भेद नहीं था, सिवाय बैठने की व्यवस्था
और वोट देने के अधिकार के। कोई भी व्यक्ति दस रुपये देकर प्रतिनिधि बन सकता था, आगंतुक टिकट की
कीमत आधी थी। राष्ट्रीय महत्व की बैठक में उपस्थित
होने का अलग ही रोमांच था। देश भर से बड़े-बड़े नेतागण आए थे। गांधीजी को थोड़ी-सी
घबराहट होने लगी। इतने बड़े लोगों के बीच उनकी स्थिति क्या रहेगी, यह सोच कर वे बेचैन हो उठे। कांग्रेस
अध्यक्ष ने अपने संबोधन की शुरुआत रानाडे को भावभीनी श्रद्धांजलि से की, जो अपने पीछे एक महान स्मृति छोड़ गए थे। इसके बाद उन्होंने दिवंगत
महारानी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। नए राजा सम्राट के बारे में बात करने के बाद, अध्यक्ष अकाल के विषय पर आ गए। सभापति महोदय बहुत ही लंबा-चौड़ा भाषण लिख कर लाए थे। पूरा पढ़ना तो
बहुत समय लेता इसलिए 40,000 शब्दों के लंबे
संबोधन में से उसका कुछ अंश ही पढ़ा गया।
बाद में विषय-निर्वाचनी के
सदस्य चुने गए।
महादेव गोविन्द रानडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले एक स्वतंत्रता
सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक थे। वह वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ रखते थे। वह सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी के संस्थापक थे। गोखले से गांधीजी की भेंट हुई। गोखले जी बड़े समझदार, ज़मीनी व्यक्ति थे। आत्मप्रशंसा से
उनका दूर का रिश्ता भी न था। उन्हें किसी से शर्ट के बटन भी न टंकवाने थे। 1866
में जन्मे गोखले हालाकि गांधीजी से मात्र तीन साल बड़े थे, किन्तु गांधीजी के साथ उनका व्यवहार
पिता समान होता था। गांधीजी का रहन-सहन, पहनावा, बोलने-सोचने का तरीक़ा, गोखले जी को भाता था। वे हर विषय पर गांधीजी के विचार जानना चाहते
थे। हालाकि कई विषयों पर दोनों में मतभेद होते, लेकिन दोनों के बीच एक अटूट बंधन था। शायद गुरु-शिष्य का। बीस साल बाद
गांधीजी ने लिखा कि वे "गोखलेजी कांच की तरह शुद्ध, भेड़ की तरह कोमल, शेर की तरह बहादुर और बहुत
शूरवीर थे।" गोखले जी गांधीजी को
विषय-निर्वाचनी की बैठक में ले गए।
गांधीजी ने "दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले लाखों ब्रिटिश
भारतीयों की ओर से एक याचिकाकर्ता" के रूप में एक प्रस्ताव पेश किया। जब गांधीजी का प्रस्ताव रखा गया, तो सर फिरोज शाह मेहता ने उसे लेने की स्वीकृति दे दी। अब समस्या थी
कि उसे कांग्रेस की विषय निर्वाचनी समिति में कौन रखेगा। गांधीजी के मन में यही
विचार चल रहे थे। जब भी कोई प्रस्ताव रखा जाता उस पर लम्बे-लम्बे भाषण होते थे।
सारी कार्रवाई अंग्रेज़ी में हो रही थी। हर प्रस्ताव के साथ किसी बड़े व्यक्ति का
नाम जुड़ा होता था। इस कारण बहुत समय बरबाद हो गया और अंत में एजेंडे के बाकी बचे
विषयों का संक्षिप्त निपटारा अपरिहार्य हो गया। गांधीजी के मन में आया, “इस नक्कारखाने में मेरी तूती की आवाज़ कौन सुनेगा?” रात ज्यों- ज्यों गहराती जा रही थी, उनके दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। जब
काफ़ी रात होने लगी तो प्रस्ताव पेश करने की गति भी बढ़ा दी गई। ऐसा लग रहा था, सब भागने की तैयारी में हों। रात के
ग्यारह बज गए। गांधीजी में तो बोलने की हिम्मत थी नहीं। गांधीजी को चिन्ता सताने
लगी कि उनका प्रस्ताव शायद शामिल ही न किया जाए। वे चुपके से उठे और गोखले जी के
पास पहुंचे। उनसे सकुचाते हुए धीमे स्वर में बोले,
“मेरे लिए कुछ कीजिएगा।”
गोखले जी ने कहा, “आपके प्रस्ताव को मैं भूला नहीं हूं।
आप
देख रहे हैं कि वे किस तरह से प्रस्तावों को जल्दी-जल्दी पारित कर रहे हैं। लेकिन
मैं आपके प्रस्ताव को अनदेखा नहीं होने दूंगा।”
तभी उन्हें सर फिरोज शाह
मेहता की आवाज़ सुनाई दी, “अब तो सारे काम निबट गए। प्रस्तावों का चयन भी हो गया। अब चला जाए।”
गांधीजी कुछ बोलते उसके पहले
ही गोखले जी बोल उठे, “नहीं-नहीं, दक्षिण अफ़्रीका का प्रस्ताव तो बाक़ी ही है। गांधी कब से बैठे राह देख
रहे हैं।”
सर फिरोज शाह मेहता ने पूछा, “आप उस प्रस्ताव को देख चुके हैं?”
“हां”
“आपको वह प्रस्ताव पसंद आया?”
“काफ़ी अच्छा है।”
“तो गांधी, पढ़ो।”
गांधीजी थोड़ा घबड़ाते हुए पढ़ने
लगे। गोखले जी ने उसका समर्थन किया। प्रस्ताव को अन्य सदस्यों ने सर्व-सम्मति से
पास कर दिया।
दिनशा वाचा जी ने हिदायत दी, “गांधी,
तुम पांच मिनट लेना।”
हालाकि किसी ने प्रस्ताव को
समझने की कोशिश भी नहीं की, फिर भी गांधीजी काफ़ी प्रसन्न थे। चूंकि गोखले जी ने प्रस्ताव को देख
लिया था, इसलिए दूसरों के देखने न देखने से गांधीजी के लिए कोई विशेष फ़र्क़
नहीं पड़ता था। यह वह अवसर था जिसकी प्रतीक्षा वे काफ़ी दिनों से कर रहे थे।
सुबह से ही गांधीजी को अपने भाषण की
चिन्ता सता रही थी। पांच मिनट में वे क्या बोलेंगे?
उपयुक्त शब्द भी नहीं सूझ रहे थे। उस पर से उन्होंने
लिखित भाषण न पढ़ने का निश्चय किया था। दक्षिण अफ़्रीका में तो वे खूब भाषण दिया
करते थे। पर यहां वह आत्मबल उन्हें खोता हुआ-सा महसूस हो रहा था।
आम सभा में जब गांधीजी के
प्रस्ताव का समय हुआ, दिनशा वाचा ने उनका नाम पुकारा। यह एक ऐसा अवसर था जिसका
वे लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। गांधीजी खड़े हुए।
अब जब प्रस्ताव पढ़ने की बारी आई तो घबड़ाहट होने लगीं। प्रतिनिधियों के सामने खड़ा
होते ही उनका सर चकराने लगा। किसी तरह से उन्होंने ख़ुद को व्यवस्थित किया और
जैसे-तैसे प्रस्ताव पढ़ डाला। वे रुक-रुक कर और अप्रभावी ढंग से बोले। उन्होंने किसी कवि की लिखी एक कविता भी सुनाई, जिसमें परदेश जाने के दुखों का वर्णन
था। उसके पर्चे भी बंटवाए गए। दक्षिण अफ़्रीका के दुखों की अभी वे चर्चा कर ही रहे
थे कि वाचा जी ने घंटी बजा दी। अभी तो तीन मिनट ही हुए थे कि सभा के अध्यक्ष दिनशा
वाच्छा ने उनको चेताने के लिए घंटी दो मिनट पहले ही बजा दी गई थी। उनके पहले कई
लोग तो आध-पौन घंटे तक बोल कर गए थे। गांधीजी को नहीं पता था कि घंटी हर भाषण के खत्म
होने से दो मिनट पहले चेतावनी के तौर पर बजाई जाती है। गांधीजी को दुख हुआ। उन्हें लगा कि वक्तव्य समाप्त करने की घंटी है।
वे बैठ गए। घबराहट, बेचनी और दुखी मन से गांधीजी इधर-उधर देखते रहे।
प्रस्ताव पर बोलते हुए गांधीजी
ने कहा
था: कांग्रेस दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश भारतीय बसने वालों के अस्तित्व के संघर्ष
के प्रति सहानुभूति रखती है और आदरपूर्वक महामहिम वायसराय का ध्यान वहां के भारतीय
विरोधी कानून की ओर आकर्षित करती है, और विश्वास करती
है कि जबकि ट्रांसवाल और ऑरेंज रिवर कॉलोनियों में ब्रिटिश भारतीयों की स्थिति का
प्रश्न अभी भी उपनिवेशों के माननीय राज्य सचिव के विचाराधीन है, महामहिम बसने वालों के लिए एक न्यायोचित और न्यायसंगत समायोजन
सुनिश्चित करने की कृपा करेंगे।
एक प्रतिनिधि के रूप में नहीं,
बल्कि
दक्षिण अफ्रीका में एक लाख ब्रिटिश भारतीयों की ओर से एक याचिकाकर्ता के रूप में, उन्होंने भारतीयों की शिकायतों को दो श्रेणियों में विभाजित किया –
वे जो दक्षिण अफ्रीकी गोरों के ‘भारत विरोधी रवैये’ से उत्पन्न हुई थीं और वे जो “दक्षिण अफ्रीका के
चारों उपनिवेशों में भारतीय विरोधी भावना को भारतीय विरोधी कानून में बदलने” से उत्पन्न हुई
थीं। पहली श्रेणी की शिकायतों के एक उदाहरण के रूप में सभी भारतीयों को, चाहे उनकी स्थिति कुछ भी हो, 'कुली' के रूप में वर्गीकृत करने का उल्लेख करते हुए, उन्होंने सभा को बताया कि यदि उनके योग्य अध्यक्ष दक्षिण अफ्रीका
जाते हैं, तो "उन्हें भी भारत
की अर्ध-सभ्य जातियों के सदस्य के रूप में कुली के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा
..."। कुछ समय पहले, बंबई के महान आदमजी
पीरभाई के पुत्र, जो स्वयं कॉर्पोरेशन के
सदस्य थे, नेटाल गए थे। वहां उनका
कोई दोस्त नहीं था, वह किसी को नहीं जानते
थे। उन्होंने कई होटलों में प्रवेश के लिए आवेदन किया। कुछ मालिकों ने, जो बेहतर शिष्टाचार रखते थे, उनसे कहा कि
उनके पास कोई कमरा नहीं है, जबकि अन्य मालिकों ने
जवाब दिया: "हम अपने होटलों में कुलियों को जगह नहीं देते हैं। सभा में ‘शर्म, शर्म’ का नारा गूँज उठा।
जहाँ तक शिकायतों के दूसरे वर्ग का सवाल है, नेटाल में आव्रजन प्रतिबंध अधिनियम,
डीलर्स
लाइसेंसिंग अधिनियम और फ्रैंचाइज़ संशोधन अधिनियम के कारण मामला बंद हो चुका था और
शायद इस बारे में फिलहाल कुछ और नहीं किया जा सकता था। लेकिन ट्रांसवाल और ऑरेंज
रिवर कॉलोनी का मामला, जहाँ पुराना कानून अभी
भी लागू था, एक अलग स्तर पर था।
चैंबरलेन ने अतीत में भारतीयों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की थी। लेकिन तब
उन्होंने खुद को असहाय महसूस किया था। 'अब ऐसी स्थिति
नहीं है। वे सर्वशक्तिमान हैं। उन्होंने लॉर्ड मिलनर से इस बारे में सलाह-मशविरा
करने का वादा किया है कि पुराने कानून को कैसे बदला जाए। इसलिए, अब दक्षिण अफ्रीका में हमारे लिए ‘अभी समय है, या कभी नहीं।'
तीन मिनट के भाषण के दौरान तीन बार तालियाँ बटोरना और एक बार
श्रोताओं को धार्मिक आक्रोश में डालना, कोई छोटी
उपलब्धि नहीं थी और यह ‘घबराहट’ के सिद्धांत को कतई पुष्ट नहीं करता। इसलिए, यदि कोई ‘घबराहट’ हुई भी थी, तो वह केवल
क्षणिक रही होगी। प्रस्ताव के विरोध का तो कोई प्रश्न
ही नहीं था। सब हाथ उठा दिए। कुछ ही लोगों ने उनकी बातों पर कान दिए या जानने की
कोशिश की कि प्रस्ताव में क्या था। फिर भी कांग्रेस में प्रस्ताव सर्वसम्मति से
पास हो गया। गांधीजी के लिए यही आनन्द की बात थी। जिस प्रस्ताव पर कांग्रेस की
मुहर लग गई उसका मतलब हुआ सारे भारत की मुहर लग गई।
उपसंहार
कांग्रेस के तीन दिवसीय अधिवेशन के दौरान गांधीजी गोखले, तिलक, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और
अन्य नेताओं के साथ निकट संपर्क में आए। अध्यक्ष श्री वाचा ने पाया कि गांधी
"बहुत अच्छे, बहुत सक्रिय और उत्साह
से भरे हुए हैं।" हालांकि, गांधीजी कांग्रेस से
निराश थे। उन्होंने देखा कि ऊर्जा की बचत के लिए बहुत कम सम्मान था; कांग्रेस के मामलों में भी अंग्रेजी का प्रमुख स्थान था और इससे
उन्हें दुख हुआ। उन्होंने पाया कि कांग्रेस की व्यवस्था अव्यवस्थित थी और
स्वयंसेवकों को किसी भी तरह के प्रशिक्षण की कमी थी। कांग्रेस हर साल तीन दिन
मिलती थी और फिर सो जाती थी।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
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