गांधी और गांधीवाद
108. वकालत रोज़ी-रोटी के लिए पर्याप्त
प्रवेश
गांधीजी आसानी से हार मानने वालों में
से नहीं थे। बाधा और संकट की घड़ी में वे दुगने उत्साह से काम करने में जुट जाते
थे। गिरगांव वाला मकान काफ़ी सीलन भरा था। पर्याप्त उजाला भी नहीं था, धूप बिलकुल नहीं आती थी। इस वातावरण
में रहना बड़ा कठिन था। बच्चे की तबीयत इसी अस्वस्थकर वातावरण के कारण बिगड़ी थी। गांधीजी ने
फैसला किया कि उन्हें एक बेहतर घर ढूंढना चाहिए। मणिलाल के ठीक होने के बाद गांधीजी ने इस मकान को छोड़ने का निर्णय
लिया।
सांताक्रूज़ में बंगला लिया
मकान की खोज में रोज़ चक्कर
लगाने लगे। वे चाहते थे बांद्रा या सांताक्रूज में मकान मिल जाए। बांद्रा में जो
मकान मिल रहा था वह एक कसाईख़ाने के बगल में था। घर जाते-निकलते वक़्त टंगे बकरों पर
नज़र पड़ती। हिंसा के इस प्रदर्शन को वे देख नहीं सकते थे। घाटकोपर समुद्र से दूर था। समुद्र
से दूर रहना उन्हें पसंद नहीं था। आखिर प्राणजीवन मेहता के भाई रेवा शंकर
झावेरी की मदद से सांताक्रूज़ में समुद्र के
पास बड़ा-सा बंगला किराए पर लिया गया। यह एक अच्छा मकान था। भरपूर हवा-पानी इस घर
में आता था। तुरंत सपरिवार इस बंगले में आ गए। मुंबई में जमने के पीछे मूल भावना यही थी कि यहां
रहकर परिवार का गुजारा भी हो सकता है और देश वासियों की भी सेवा की जा सकती है। पिछली
बार बम्बई में उनके पैर नहीं जम सके थे, लेकिन इस बार उनका काम ठीक से चल निकला। हालाकि वे अपने कानूनी
करियर में न तो सफल रहे और न ही असफल, पर गांधीजी
अब एक स्थान पर स्थिर होना चाहते थे।
वकालत चल निकली
यहीं से रोज़ लोकल ट्रेन से
हाईकोर्ट जाने लगे। हालाँकि उन्हें हाई कोर्ट में कोई केस नहीं मिला, लेकिन उन्हें कुछ छोटे-मोटे केस दिए गए। उन्होंने सांताक्रूज से
चर्चगेट तक का प्रथम श्रेणी का सीजन टिकट खरीद लिया था। इसमें भीड़ कम होती थी। इस बात पर एक तरह का
गर्व महसूस करते थे कि वह अक्सर अकेले प्रथम श्रेणी के यात्री होते थे। कई बार बांद्रा से
चर्चगेट जाने वाली खास ट्रेन पकड़ने के लिए वह सांताक्रूज से बांद्रा तक पैदल जाते थे। क़ानून की किताब उनके पास तो पहले से थी ही, फिर भी वे विधि पुस्तकालय के सदस्य
बने। वे रोज़ लाइब्रेरी में बैठते और क़ानून की किताबों का अध्ययन करते। जब अपना कोई
केस नहीं होता तो अन्य वकीलों की बहस सुनते। वकालत भी अपेक्षा से अधिक बढ़िया चल
निकली थी। उनके चचेरे भाई का लड़का, जिसे वे बेटे की तरह मानते थे, छगनलाल उनके साथ आकर रहने लगा। उससे गांधीजी को काफ़ी मदद मिल जाती
थी। उन्हें और परिवार के सदस्यों को लगने लगा कि अब कुछ शांत और व्यवस्थित
जीवनयापन होगा। हर रविवार को स्वादिष्ट व्यंजन बनते और सारे लोग मिलजुल कर उस
सुस्वादु भोजन का आनंद लेते।
फिरोज शाह मेहता का आशीर्वाद
एक दिन वे सर फिरोज शाह मेहता
के
पास उनकी सलाह और आशीर्वाद लेने गए। उनसे उन्हें एक चेतावनी मिली। “तुम नेटाल से
कमाए अपने पैसे यहां मत बर्बाद करो।” गांधीजी ने बिना हतोत्साहित
हुए उनकी बातों को सकारात्मक ढंग से लिया। गांधीजी के शब्दों में, "उन्होंने सोचा, मेरी उम्मीदों
के विपरीत, कि मैं नेटाल से मिली
अपनी छोटी-सी बचत को बॉम्बे में बेवकूफी में बर्बाद कर रहा हूँ।" गांधीजी के दक्षिण अफ़्रीकी क्लायंटों ने अपने बम्बई के मुकदमे गांधीजी
को लड़ने को कहा। यह उनकी रोज़ी-रोटी के लिए पर्याप्त था। इस बीच वे उच्च न्यायालय
में भी अपने कदम जमाने का प्रयास कर रहे थे। कमाई चल निकली थी। घर-परिवार का खर्च
आराम से चल रहा था। उन्होंने परिवार-बच्चों के भविष्य की सुरक्षा के लिए दस हजार रुपए
का एक जीवन बीमा भी करवाया।
गोखले जी से सम्पर्क बना रहा
गोखले जी से उनका सम्पर्क बना
हुआ था। गोखले जी गांधीजी के मुम्बई आ जाने से काफ़ी ख़ुश थे। वे उनके चैम्बर में भी
आ जाया करते थे। गोखलेजी आमतौर पर कुछ प्रतिष्ठित लोगों को साथ लेकर आते थे जो उनके
पेशेवर करियर के लिए उपयोगी हो सकते थे। उस समय के
देश के शीर्ष लोगों में शुमार गोखले जी का उनके चैम्बर में आना गांधीजी के लिए
बहुत ही गर्व की बात थी। गोखले जी खास लोगों से भी गांधीजी का परिचय कराया करते
थे। समय-समय पर देश की राजनीति और विभिन्न समस्याओं से भी गांधीजी को अवगत कराते
रहते थे। गांधीजी को भारतीय राजनीति में लाने का यह उनका अपना तरीक़ा था। गोखलेजी
बडे खुश हुए थे। उस समय प्रतिभा के धनी और निष्ठावान देश सेवकों की बड़ी कमी थी। गांधीजी जैसे सुयोग्य, उत्साही और लगनशील कार्यकर्ता को
पाकर कौन खुश न होता!
लेकिन गांधीजी के नसीब में स्थिर और शांत
जीवन बिताना लिखा ही नहीं था। जैसा कि पहले भी कई बार हुआ था, परमेश्वर ने
उसकी सारी योजनाओं को नकार दिया और उन्हें अपने तरीके से निपटाया।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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