गांधी और गांधीवाद
104. रेल
के तीसरे दर्ज़े में यात्रा
1902
प्रवेश
जब वे कलकत्ता लौटे तो उन्होंने राजकोट जाने से पहले दिल्ली, आगरा, जयपुर और पालनपुर होते हुए
भारत भर में आराम से घूमने का निर्णय लिया। कलकत्ते का खत्म हो चुका था। वापसी
की यात्रा को गांधीजी देश के विभिन्न रीति-रिवाजों को समझने के काम लाना चाहते थे।
इसके लिए फ़र्स्ट क्लास में यात्रा करने के अभ्यासी गांधीजी ने निश्चय किया कि वे
तीसरे दर्ज़े में यात्रा करेंगे। तीसरे दर्ज़े के यात्रियों के साथ परिचय करके वे
उनका कष्ट जानना चाहते थे।
गोखले ने हावड़ा स्टेशन पर विदा किया
तीसरे दर्जे में यात्रा करने वाले रेल यात्रियों के साथ किए जाने
वाले व्यवहार ने एक ‘राष्ट्रीय शिकायत’ का रूप ले लिया था और यह मुद्दा कांग्रेस
के प्रत्येक अधिवेशन में एक मुद्दे के रूप में सामने आता था। गांधीजी की इस योजना की जानकारी जब गोखले जी को मिली तो वे हंस पड़े। भारत भर में दुखी यात्रा
करके एक आदमी को क्या हासिल हो सकता है? गांधीजी के इस
प्रयास को त्यागने के लिए गोखले जी ने उन्हें मनाने का भरसक प्रयत्न किया। लेकिन
जब इस यात्रा का और गांधीजी के उद्देश्य को गोखले जी ने समझा, तो उन्हें गांधीजी का यह विचार पसन्द आया। यहां तक कि गोखले जी खुद गांधीजी
को विदा करने के लिए स्टेशन जाना चाहते थे। गांधीजी ने जब यह कष्ट लेने से मना
किया तो वे बोले, “अगर मेरा दोस्त प्रथम श्रेणी
में यात्रा कर रहा होता तो मैं जाने की जहमत नहीं उठाता, लेकिन जब कोई तीसरे दर्जे
में यात्रा करता है, तो उसे उचित विदाई मिलनी ही चाहिए।” 21 फरवरी, 1902 को गोखले जी ने डॉ. पी.सी. राय के
साथ उन्हें हावड़ा स्टेशन पर विदा किया। रेलवे स्टेशन पर गोखले, जो हमेशा की तरह लाल रेशमी
पगड़ी, जैकेट और धोती पहने हुए थे, को तुरंत पहचान लिया गया और
सार्वजनिक जीवन में उनकी स्थिति के कारण उन्हें पूरा सम्मान दिया गया, लेकिन उनके साथ आए आचार्य
पी.सी. राय अपनी हमेशा की बंगाली पोशाक में थे। उन्हें एक साधारण 'देशी' समझ लिया गया और जब वे
प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे, तो टिकट कलेक्टर ने उन्हें रोक दिया। जब गोखले ने
कहा कि आचार्य उनके मित्र हैं, तभी उन्हें अंदर जाने की अनुमति दी गई!
यात्रा के लिए तैयारी
इस यात्रा के लिए खुद को गांधीजी ने
एक तीर्थयात्री के रूप में तैयार किया। इस तीसरे दर्ज़े की यात्रा के अनुरूप उन्हें
नए पोशाक और अन्य सामान भी जुटाने पड़े। गोखले जी ने पीतल का एक डिब्बा दिया। उसमें
उन्होंने बेसन के लड्डू और पूरियां रखवा दी। मिरमिच का एक थैला और एक ओवरकोट लिया।
थैले में कुर्ता, तौलिया और धोती रखी। ओढ़ने को एक कम्बल था। एक लोटा भी रखा। अब वे एक
भारत की आम जनता की तरह थे, जब वे तृतीय श्रेणी के मुसाफ़िर के रूप में यात्रा कर रहे थे। तीसरे
दर्ज़े के मुसाफ़िर के रूप में उन्हें बहुत सारे ऐसे अनुभव हुए जो उच्च श्रेणी की
यात्रा में कभी न होते। इस यात्रा में वे वाराणसी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में रुके। हर जगह एक-एक दिन रुके। सभी जगह प्रायः
धर्मशाला में ही ठहरे। इस यात्रा में पहली बार उन्होंने सामान्य वेशभूषा –
धोती-कुर्ता धारण किया था।
तीसरे दर्ज़े की स्थिति
गांधीजी को भारत में कभी भी थर्ड क्लास में यात्रा करना पसंद नहीं था, हालाँकि उन्होंने शायद ही
कभी किसी अन्य तरीके से यात्रा की हो। दक्षिण अफ्रीका में थर्ड क्लास आम तौर पर
नीग्रो के लिए आरक्षित थी, लेकिन यह भारत की तुलना में
काफी अधिक आरामदायक थी, क्योंकि वहाँ गद्देदार सीटें, सोने की जगह और भीड़भाड़ के
खिलाफ नियम लागू थे। भारत में हमेशा भीड़भाड़ रहती थी, सोने की जगह नहीं थी और गद्देदार सीटें अनसुनी थीं। यात्रा में तीसरे दर्ज़े की स्थिति देख कर वे स्तब्ध रह गए। ये एक ऐसी
भीड़ थी जो भेड़-बकरियों के समान जैसे-तैसे रेल के डिब्बों में ठूंसे गए थे। बीड़ी
सिगरेट पीते लोग, कहीं भी थूकते हुए, ज़ोर से बात करते
हुए और कहीं भी टट्टी पेशाब करते हुए लोग। यह सब अनुभव गांधीजी के लिए आंखें खोलने
वाले थे। सफ़ाई या एक-दूसरे के आराम का उनको ज़रा-सा भी ध्यान नहीं था। डिब्बों में
अकल्पनीय रूप से गन्दगी थी। भीड़-भड़क्का असह्य और पाखाने अस्वच्छ थे। गांधीजी को शोर, चीखना-चिल्लाना, गाली-गलौज, अधिकारियों की मनमानी, भयावह असुविधा से नफरत थी। उन्होंने
लिखा, "थर्ड क्लास के यात्रियों के
साथ भेड़ों जैसा व्यवहार किया जाता है और उनकी सुविधाएँ भेड़ों की सुविधाएँ
हैं।" उन्होंने यह समझा कि भारत में तीसरे
दर्ज़े की घोर तकलीफ़ का बहुत कुछ कारण यह था कि यात्रियों की गंदी आदतों के प्रति
रेलवे के अधिकारी उदासीन थे। हालाकि 1902 की इस यात्रा के अनुभव हों, या 1915 से 1919 तक की उनकी विभिन्न रेल यात्राएं उनके अनुभव में
कोई अन्तर नहीं आया। वे लिखते हैं, “शिक्षित लोग खुद भी स्वेच्छा से तीसरे दर्ज़े में सफ़र करें ताकि वे
लोगों की आदतें सुधार सकें और इसके अलावा, रेलवे-विभाग के अधिकारियों को शिकायत कर-करके परेशान कर डालें, अपने लिए कोई सुविधा प्राप्त करने या प्राप्त सुविधाओं की रक्षा करने
के लिए घूस-रिश्वत नहीं दें और उनके एक भी ग़ैरक़ानूनी व्यवहार को बरदाश्त नहीं
करें।”
यह भावुकता रहित निदान और यह कड़वा
उपचार सभी सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के प्रति गांधीजी के दृष्टिकोण का विशेष
लक्षण था – ख़ुद इसे करो और हीन से हीन के लिए अधिक से अधिक प्रयास करो। इस
यात्रा के बाद से, अपनी गंभीर बीमारी के कारण 1918-19 के काल के व्यवधान को छोड़कर, उन्होंने तीसरे
दर्ज़े में ही यात्रा करने का प्रयास किया – कुछ तो स्थितियों का विरोध करने के लिए और कुछ उनको जानने के लिए।
दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा से तुलना
कुछ वर्ष पूर्व की गई दक्षिण अफ़्रीका
की उस ऐतिहासिक यात्रा (32. प्रतीक्षालय में
ठिठुरते हुए
सक्रिय अहिंसा
का स...) से इस यात्रा की तुलना करना यहां, प्रासंगिक होगा। उस यात्रा में पीटरमारित्ज़बर्ग का स्टेशन की घटना की
आपको याद दिलाता चलूं। वे प्रथम श्रेणी में यात्रा करना चाह रहे थे, जबकि गोरा कंडक्टर उन्हें वैगन में सामान्य यात्रियों के साथ बैठकर
जाने को कह रहा था। गांधीजी ने मना कर दिया। उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया था, यात्रा करेंगे तो फ़र्स्ट क्लास में ही। उन्हें धक्के दे कर उतार दिया
गया। पूरी रात वे प्लेटफ़ार्म पर ठिठुरते रहे। इस बार वे अपनी मर्ज़ी से तीसरे दर्ज़े
में सफ़र कर रहे थे। बैरिस्टर वे तब भी थे, अब भी। किन्तु
दक्षिण अफ़्रीका की उस यात्रा में उनका विरोध था, इस बार सहमति थी। इस बार अपने लोगों को जानने की इच्छा प्रमुख थी।
वहां फ़र्स्ट क्लास में यात्रा करना अधिकार की लड़ाई थी। यहां देश-समाज को
जानने-समझने की ज़रिया था। वहां की स्थिति ने उनकी विचारधारा को प्रभावित किया, यहां की यात्रा उन्हें रास आ रही थी।
उनके भस्म को पवित्र नदियों के संगम
में प्रवाहित करने ले जाने के लिए जो विशेष रेलगाड़ी बनाई गई थी, उसमें तीसरे दर्ज़े के डिब्बे ही लगाए गए थे।
उपसंहार
जैसा कि गोखले ने भविष्यवाणी की थी, यह केवल पहली छलांग थी जो मुश्किल थी। पीछे मुड़कर देखने पर गांधीजी
ने भी इसका आनंद लिया। वह अन्य यात्रियों से खुलकर बात करने में सक्षम थे। कई बार
वे मित्रवत भी हो जाते थे। कुल मिलाकर वह खुद को पहले से अधिक समृद्ध और आत्मा से
मजबूत महसूस करते थे। गरीब रेलवे और स्टीमर यात्रियों की कठिनाइयों का सवाल, "उनकी बुरी आदतों, सरकार द्वारा
विदेशी व्यापार को दी जाने वाली अनुचित सुविधाओं और ऐसी अन्य चीजों के कारण और भी
बढ़ गया" उनके दिमाग में लगातार घूमता रहा।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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