शनिवार, 3 अगस्त 2024

32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का संकल्प

 गांधी और गांधीवाद

जब-जब मैंने अहिंसा का आश्रय लिया हैकिसी अदृष्ट शक्ति ने मेरा मार्गदर्शन किया है और मुझे उस पर आरूढ़ रखा है। -- महात्मा गांधी

32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का संकल्प

जून 1893

प्रवेश

डरबन में हुई पगड़ी वाली घटना को लेकर न सिर्फ़ गांधी जी को प्रसिद्धि मिली बल्कि कई महत्त्वपूर्ण भारतीय जैसे पारसी रुस्तमजी और आदमजी मियाखान तथा क्रिश्चियन सुभन गौडफ़्रे आदि से परिचय हुआ। दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के प्रति गोरी जाति, जातीय भेदभाव बरतती थी। भारतीयों ने इस अत्याचार को अपनी नियति मान लिया था। यदि उनके दिल में कभी विरोध की भावना उठती भी, तो वे उसे दबा देते। क्योंकि उन्हें मालूम ही न था कि कैसे इसका विरोध किया जाये। लेकिन ब्रिटेन से बैरिस्टर बन कर लौटे नौजवान मोहनदास करमचंद गांधी इन अत्याचारों के आदि नहीं थे। वे गुजरात के एक सम्मानित परिवार के सदस्य थे, दीवान के बेटे थे। ब्रिटेन में तीन साल रह चुके थे। लेकिन डरबन से प्रिटोरिया जाने के रास्ते में हुई घटना से दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेदी अत्याचार से पहली बार उनका साबका पड़ा।

समझौते की नीति मुक़दमेबाज़ी से अच्छी

डरबन में मेल-मिलाप, जान-पहचान का सिलसिला चल ही रहा था कि फ़र्म के वकील ने पत्र लिख कर सूचित किया कि मुकदमे की तैयारी के लिए खुद अब्दुल्ला सेठ को या उसके किसी प्रतिनिधि को प्रिटोरिया जाना चाहिए। प्रिटोरिया ट्रांसवाल के पड़ोसी बोअर गणराज्य की राजधानी थी। मुकदमे की सुनवाई वहीं पर होनी थी। अब्दुल्ला सेठ ने गांधी जी से पूछा कि क्या वे प्रिटोरिया जाएंगे। गांधी जी ने हामी भर दी। डरबन में एक सप्ताह के निवास के बाद गांधीजी के मुवक्किल ने उनके प्रिटोरिया जाने का इंतजाम कर दिया। वहां जाने के लिए गांधी जी द्वारा हामी भरने के बाद अब्दुला चिंतित था। भारतीयों के लिए ट्रांसवाल में नेटाल की अपेक्षा हालात और भी खराब थे। समस्या यह थी कि गांधी जी को प्रिटोरिया में कहां ठहराया जाए। सेठ अब्दुल्ला यह नहीं चाहते थे कि सेठ के मेमन दोस्त के यहां ठहरें। सेठ को आशंका थी कि प्रतिपक्षी का मेमन मित्र के यहां आना-जाना था, इसलिए इस बात की संभावना थी कि गांधी जी को सौंपे गए निजी काग़ज़ पत्रों में से कोई उसे पढ कर सूचना प्रतिपक्षी को दे सकता था, जिससे मुकदमें को नुकसान हो सकता था। ऐसे लोगों से मुकदमे के दौरान संबंध नहीं रखना ही अच्छा रहेगा।

दरअसल गांधी जी प्रतिपक्ष से मित्रता करना चाहते थे। वे मुकदमे को आपस में निबटाने की कोशिश करना चाहते थे। प्रतिपक्षी तैयब हाजी खान मोहम्म्द, अब्दुल्ला सेठ के निकट सम्बन्धी थे। गांधी जी ने अब्दुल्ला को समझाया, “समझौते की नीति मुक़दमेबाज़ी से अच्छी रहेगी। यह सुनकर अब्दुल्ला सेठ ने कहा, “लेकिन आप तैयब सेठ को नहीं जानते। वे हमारे प्रतिपक्षी हैं, रिश्तेदार भी। समझौते की बातचीत में वह आपके पेट से हमारे सारे भेद निकाल लेंगे। फिर वे इस सूचना का हमारे ख़िलाफ़ उपयोग करेंगे। वे बहुत ही होशियार आदमी हैं।

गांधी जी ने अब्दुल्ला सेठ को आश्वस्त किया, “आप की कोई बात मेरे मुंह से न निकलेगी। आपके हित और विश्वास को भी मुझसे कोई क्षति नहीं पहुंचेगी। आप निश्चिंत रहें। आपको यह भी समझना चाहिए कि मुक़दमेबाज़ी में समय और पैसे की बर्बादी होती है। समझौता कर लेना कहीं अच्छा है।

फिर भी अब्दुल्ला सेठ ने अपनी तरफ़ से गांधी जी को सचेत करना बेहतर समझा। बोले, “प्रिटोरिया में प्रतिपक्षी तैयब सेठ का बहुत प्रभाव है। स्थानीय व्यापारियों में उनके भेदिये भी हो सकते हैं। उनसे बचकर रहना ही बेहतर होगा। उनसे मेल-जोल बढाना फ़ायदे कारक नहीं भी हो सकता है। दस्तावेज़ और अन्य कानूनी काग़ज़ात को सावधानी से संभालकर रखना होगा। ये किसी के हाथ न लग जाएं।

गांधी जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ न होगा।

प्रिटोरिया जाने के रास्ते में हुई घटना

प्रिटोरिया जाने के रास्ते में जो घटना हुई उसके मुकाबले में डरबन वाली घटना कुछ भी नहीं थी। गांधीजी के लिए पहले दर्ज़े का एक टिकट ख़रीदा गया। युवा बैरिस्टर गांधीजी उन कठिनाइयों पर ध्यान नहीं देते हुए जो उस लंबी और कठिन यात्रा में हो सकती थी, ट्रेन से प्रिटोरिया के लिए रवाना हुए। अब्दुल्ला सेठ ने सलाह दी कि खर्च की परवाह न करके वे अपने लिए बिस्तर भी सुरक्षित करा लें। बिस्तर प्राप्त करने के लिए पांच शिलिंग अतिरिक्त देना पड़ता। मितव्ययी मोहनदास ने उनका अधिक ख़र्च न कराना ही उचित समझा। इसका नतीजा यह हुआ कि रास्ते में उन्हें तरह-तरह का अपमान झेलना पड़ा।

रात के नौ बजे गाड़ी डरबन से 73 मील दूरी पर नेटाल नेटाल की राजधानी मैरित्सबर्ग पहुंची। एक रेलवे कर्मचारी ने बिस्तर के बारे में पूछा कि क्या वह उन्हें चाहिए? गांधी जी ने कहा, उनके पास बिस्तर है। तभी कोच में एक गोरे यात्री ने प्रवेश किया। एक भारतीय को सहयात्री के रूप में देख कर उसकी त्योरियां चढ गईं। उसने डब्बे में एक ‘रंगदार’ आदमी की मौजूदगी पर एतराज़ किया। तीसरे दर्ज़े की ओर संकेत करते हुए उसने गांधी जी से कहा, “वहां जाओ! बैरिस्टर गांधी ने विनम्रता पूर्वक कहा, “मेरे पास पहले दर्ज़े का टिकट है।

यह जवाब सुनकर गोरा क्रोध से आग-बबूला हो गया। चिल्लाया, “फर्स्ट क्लास का टिकट है तो क्या हुआ?” गांधी जी के भिन्न वर्ण का होने के कारण परेशान होकर उसने रेलवे के दो अधिकारियों को बुला लिया। अधिकारी ने गांधी जी से कहा, “तुम इस डिब्बे से उतर जाओ। तुम्हें आख़िरी डिब्बे में जाना होगा।

पहले दर्ज़े का डिब्बा छोड़कर निचले दर्ज़े के आख़िरी डिब्बे में जाने के लिए कहे जाने पर गांधीजी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। गांधी जी ने संयत स्वर में कहा, “मेरे पास पहले दर्ज़े का टिकट है। अधिकारी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। वह अड़ा रहा। बोला, “तुम्हें आख़िरी डिब्बे में ही यात्रा करनी होगी। गांधी जी ने स्पष्ट स्वरों में कहा, “इस दर्ज़े में मुझे डरबन में बैठाया गया है। यहां तक मैं इसी डिब्बे में आया हूं। आगे भी इसी में जाने का इरादा रखता हूं। अधिकारी ने धमकी दी, “यह नहीं हो सकता। इस डिब्बे से तुम्हें उतरना पड़ेगा। अगर न उतरे तो सिपाही तुम्हें उतारेगा। उठते हो या सिपाही को बुलाऊं?” गांधी जी ने पक्के इरादे के साथ कहा, “तो फिर सिपाही भले उतारे, मैं ख़ुद नहीं उतरूंगा।

सिपाही बुलाया गया। उसने गांधी जी का सामान उठाकर बाहर फेंक दिया। फिर उसने उन्हें भी धक्के मारकर उतार दिया। गांधी जी प्लेटफॉर्म पर गिर पड़े। उन्हें गोरे लोगों की व्यंग्य भरी हंसी सुनाई दे रही थी। कोई गोरा कह रहा था, “वाह रे वाह! एक कुली प्रथम श्रेणी में यात्रा करने के कोशिश कर रहा था! गांधी जी ने दूसरे डिब्बे में जाने से इंकार कर दिया। ट्रेन चली गई। वे मुसाफ़िरख़ाने में जाकर बैठ गए। उन्होंने सिर्फ़ हैण्ड बैग अपने साथ रखा। बाक़ी के सामान उन्होंने नहीं उठाया। उनका सामान रेलवे अधिकारियों ने ज़ब्त कर लिया। रेलवे वालों ने उसे कहीं रख दिया।

यह जून का महीना था। मैरित्सबर्ग ट्रॉपिक ऑफ कैप्रिकॉर्न से 60 अंश दक्षिण में पड़ता है। यह समुद्र तल से 2000 फीट ऊपर है। यह वहां पर सर्दी का मौसम था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। उन्हें ख़ूब ठंड लग रही थी। उनका ओवर कोट उनके बाक़ी के सामान में था। अपमान के भय से सामान मांगने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। चूंकि उन्होंने सिद्धान्त के आधार पर अन्य किसी प्रकार से यात्रा करना स्वीकार नहीं किया था, ठंड से ठिठुरती हुई रात में वह मैरित्सबर्ग के स्टेशन के अंधेरे वेटिंग रूम में सारी रात जाग कर बिताई। कमरे में रोशनी की व्यवस्था भी नहीं थी। आधी रात में कुछ सहयात्री कमरे में आए। उसने गांधी जी से बात करनी चाही। पर विचारों में मग्न गांधी जी उससे बात करने की मनःस्थिति में नहीं थे। वे दुखी थे। इस घटना ने उन्हें झकझोड़ कर रख दिया था। उनको यह सोच कर बहुत बुरा लग रहा था कि गोरों ने उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया, सिर्फ़ इसलिए कि उनकी त्वचा का रंग गोरा नहीं था। उस समय भावी सत्याग्रही नेता का ध्यान रंग-भेद की दुर्नीति और मानवता पर उसके भीषण प्रभाव और परिणामों पर केन्द्रीत था। मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन में यह क्रांति की रात थी।

 दक्षिण अफ़्रीका में भारतीय किन अपमानजनक स्थिति में रह रहे हैं इसके बारे  में सेठ अब्दुल्ला ने उन्हें कुछ नहीं बताया था। उस रात मारिट्ज़बर्ग के ठंडे अंधियारे प्रतीक्षालय में अपमान की टीस उनके अंदर उठती रही। लेकिन वे जल्द ही संभल गए। सारी घटना पर वे काफ़ी देर तक विचार करते रहे। गांधीजी के मन में द्वन्द्व चलने लगा, वे सोचने लगे, क्या ऐसी दशा में इकरारनामे को रद्द कर भारत लौट जाना उचित होगा? या फिर जो भी अपमान सिर पड़े, पीकर रह जायें और काम पूरा करके लौटें? भारत उन्होंने इसलिए छोड़ा था कि राजकोट के पोलिटिकल एजेंट से झगड़ा हो गया था और राजकोट में रहना मुहाल हो गया था। अब दक्षिण अफ़्रीका में मुसीबतों से सामना हुआ तो क्या यहां से भी भाग जाना चाहिए? कब तक भागते रहेंगे? कहीं-न-कहीं तो इसे रोकना होगा। उन्होंने तय किया कि उन्हें अधिकारों के लिए यहीं रहकर संघर्ष करना होगा। उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में ठहरने का फैसला किया। साथ ही चाहे जो हो, प्रिटोरिया पहुंचकर मुक़दमा तो लड़ना ही होगा। मुक़दमा आधा छोड़कर भागने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जो कष्ट सहना पड़ेगा, सहेंगे। ये तो बाहरी कष्ट हैं, जो वे झेल रहे हैं। ऊपरी हैं। गहराई तक पैठा हुआ रोग तो रंग-द्वेष का है। इस बीमारी को मिटाने का संकल्प उन्होंने उसी प्रतीक्षालय में लिया। आततायी के प्रति आक्रोश या गोरी जाति के प्रति विद्वेष उनके मन में नहीं था, बल्कि कर्तव्य के प्रति निष्ठा, स्वाभिमानी नागरिक की तरह निर्भीक जीने की आस्था और पशु पर हाथ उठाए बिना पशुता का प्रतिकार करने की अदम्य आकांक्षा थी।

अब वे एक बदले हुए व्यक्ति थे। स्वभाव से झेंपू और एकान्तप्रिय गांधी जी का काया पलट हो गया। उनमें फौलादी दृढ़ता और निश्चय का जन्म हुआ। यह उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी। उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में व्याप्त असभ्यता और अन्याय के विरुद्ध कमर कस ली। उन्होंने रंग-भेद और जातीय हेकड़ी के आगे न झुकने का प्रण लिया। यह प्रश्न अकेले उनके अपने आत्मसम्मान और न्यायोचित निजी अधिकार की रक्षा का नहीं था, बल्कि सभी भारतीयों और पूरे भारत देश ही नहीं सम्पूर्ण मानव जाति के गौरव की स्थापना का था, मानवता की मर्यादा की रक्षा का था। मोहनदास ने निश्चय किया कि वे अब “नहीं” कहेंगे। उन्होंने प्रण किया कि चाहे जो भी क़ीमत चुकानी पड़े, वे इस तरह के अन्यायों के ख़िलाफ़ लड़ेंगे। गांधी जी की जीवनी लिखने वाले लुई फीशर (Louis Fischer) ने उल्लेख किया है कि मोहनदास को महात्मा में बदलने में जिन दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं का हाथ है, उनमें से यह दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना है। (पहली घटना राजकोट के पोलीटिकल एजेण्ट के आदेश पर चपरासी द्वारा गांधी जी को धक्के देकर दरवाज़े के बाहर कर देने की घटना थी, जिसके बारे में हम चर्चा कर चुके हैं।)

उनकी सक्रिय अहिंसा उसी दिन से शुरू हुई।

एक निश्चय के साथ उन्होंने दूसरी ट्रेन से, जैसे भी हो, आगे जाने का फैसला लिया। सुबह होते ही उन्होंने रेलवे के जनरल मैनेजर और दादा अब्दुला को तार द्वारा लंबी शिकायत भेजी। दादा अब्दुल्ला ने उचित कदम उठाए। उन्होंने मेरित्सबर्ग के भारतीय व्यापारियों को गांधीजी की मदद के लिए भेजा। मैरित्सबर्ग के भारतीय व्यापारी गांधी जी से मिलने आए। उन्होंने भी इस भेद-भाव की व्यथा-कथा गांधी जी को सुनाई। बताया कि उन्हें हीनतम लांछनाएं सहनी पड़ती है। बिना कारण अपमानित किया जाता है। शाम तक एक बार फिर गांधी जी चार्ल्स टाउन जाने के लिए ट्रेन का टिकट लेकर तैयार थे।

उपसंहार

इस यात्रा ने प्रवासी भारतीयों की स्थिति का चित्र उनके सामने प्रस्तुत कर दिया। यहां के व्यापारी इन अपमानों को चुपचाप सहन करना सीख गए थे। हां शर्मीले और संकोची गांधीजी का मैरित्सबर्ग की ठंड भरी रात और उस अंधेरे वाले वेटिंगरूम ने कायाकल्प कर दिया था। उस घटना को गांधीजी सबसे सृजनात्मक और नियामक अनुभव मानते हैं। उसी समय उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के शासकीय और सामाजिक अन्याय के ख़िलाफ़ कमर कस ली और उसे वहां की शासकीय एवं सामाजिक व्यवस्था का अंग मानने से इनकार करने का संकल्प लिया। उन्होंने तय किया तर्क से, अनुरोध से, अनुनय-विनय से, वह शासक जाति की न्यायबुद्धि और सोई हुई मानवता को जगाने का बराबर प्रयत्न करते रहेंगे। उन्होंने रंग-भेद और जातीय हेकड़ी के आगे क्षण-भर को भी झुकने से इनकार कर प्राण किया, क्योंकि यह प्रश्न अकेले अपने आत्मसम्मान की रक्षा और उद्धार का नहीं था, समस्त भारतीयों, भारत देश, बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति के गौरव की स्थापना का था।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का

 

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