शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

52. गिरमिटियों पर कर

 गांधी और गांधीवाद

तुम्हें भौतिक वस्तुओं के स्वामित्व अथवा भोग का अवसर मिल सकता है, पर जीवन का रहस्य इसमें है कि तुम्हें उनका अभाव कभी खले नहीं। - महात्मा गांधी

52. गिरमिटियों पर कर

मई 1895

प्रवेश

दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी का संघर्ष ज़ारी रहा। उनके संघर्ष का यह उद्देश्य नहीं था कि वहां के भारतीयों के साथ गोरों के समान व्यवहार किया जाए। वह तो यह जताना चाहते थे कि ये प्रवासी भारतीय भी ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक हैं। इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य के क़ानून के तहत उन्हें भी उसी समानता का अधिकार है। बीतते दिनों के साथ उन्होंने खुद को एक प्रभावशाली नेता के रूप में स्थापित कर लिया था। वे गिरमिटिया मज़दूरों के हिमायती के रूप में काफ़ी प्रसिद्ध हो गए थे।

एक नए क़ानून का मसविदा

दिनोदिन नेटाल में प्रवासी भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इसके कारण वहां के गोरों को काफ़ी चिंता हो रही थी। सरकार पर यह दवाब बढ़ने लगा कि भारत से आने वाले मज़दूरों के लिए एक नया क़ानून बनाया जाए। क़ानून ऐसा हो कि वे वहां पर स्वतंत्र रूप से बस नहीं पाएं। कॉलोनी में भारतीयों की लगातार बढ़ती आबादी के प्रति नेटाल के गोरों की प्रतिक्रिया लगभग दहशत भरी थी। अक्तूबर 1893 में जो सरकार सत्ता में आई थी, यह साबित करने के लिए कि वह एक जिम्मेदार सरकार है,  ने भारत से गिरमिटिया मजदूरों के आव्रजन से संबंधित नए कानून के लिए जमीन तैयार करने में अनुचित जल्दबाजी की थी। 1894 में नेटाल की सरकार ने एक ऐसा मसविदा तैयार किया जिसमें यह प्रावधान था कि यदि कोई भारतीय मज़दूर करार की अवधि के बाद रुकता है, तो उसे प्रवास कर देना होगा। यह कर पच्चीस पौंड प्रति वर्ष अर्थात 365 रुपये के हिसाब से था। नेटाल सरकार अच्छी तरह जानती थी कि यह राशि गिरमिटिया मज़दूर की कुल वार्षिक आय से कहीं अधिक थी। नेटाल की सरकार चाहती थी कि इतना कर लगा दो कि गिरमिटिया मज़दूर के लिए एकमात्र चारा वहां पर अपने करार की अवधि पूरा हो जाने के बाद भारत वापस लौटना होगा। सरकार को लगता था कि एक समय ऐसा आएगा जब भारतीयों की संख्या श्वेतों से अधिक हो जाएगी; सरकार इसे हर संभव तरीके से रोकने के लिए कृतसंकल्प थी। नेटाल सरकार ने भारतीय आप्रवासन कानून, 1891 में संशोधन करने के लिए एक विधेयक तैयार किया। इसे 2 अप्रैल, 1895 को उनके राजपत्र में प्रकाशित किया गया और तीन दिन बाद नेटाल के गवर्नर द्वारा उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव को भेज दिया गया। नेटाल सरकार का लक्ष्य था कि अनुबंधित मजदूरों की सेवा को अधिकतम सीमा तक बढ़ाया जाए तथा विस्तारित अनुबंध अवधि की समाप्ति पर उन्हें अनिवार्य रूप से वापस भेज दिया जाए, जिससे उनके लिए स्वतंत्र व्यक्तियों के रूप में कॉलोनी में बसने की सारी संभावना समाप्त हो जाए।

नेटाल इंडियन कांग्रेस का विरोध

यह मसविदा स्थानीय कांग्रेस के सामने गांधी जी ने रखा। कांग्रेस ने इसके ख़िलाफ़ उचित आन्दोलन करने का प्रस्ताव पास किया। नेटाल इंडियन कांग्रेस ने गांधी जी के नेतृत्व में इसका विरोध किया। कांग्रेस उन भारतीयों के जीवन के लिए लड़ रही थी, जो मूल रूप से गन्ना बागानों में कुली मजदूर के रूप में नेटाल आये थे और अब व्यापार में अपने कौशल से श्वेत वर्चस्व के लिए खतरा बन रहे थे।

नेटाल में भारतीय मज़दूर

बात 1860 के आस पास की है जब वहां की सरकार ने ईख की खेती के लिए मज़दूरों की ज़रूरत को महसूस किया। नेटाल के हब्शी यह काम कर नहीं सकते थे। इसलिए वहां के गोरों ने भारत की सरकार से बात की और भारत के मज़दूरों को नेटाल जाने की अनुमति दी गई। उन्हें यह बताया गया कि पांच साल तक मज़दूरी करने का बंधन रहेगा। पांच साल के बाद उन्हें स्वतंत्र रूप से नेटाल में बसने की छूट रहेगी। जमीन का मालिक बनने का अधिकार भी उन्हें दिया गया था। उस समय तो गोरे यही चाहते थे कि करार की अवधि पूरी हो जाने के बाद भी भारतीय मज़दूर उनकी जमीन जोतें और उसका लाभ नेटाल सरकार को मिले। मज़दूरों ने जी-जान से मन लगा कर मेहनत की। फल-सब्जियां उगाए। भारत से आम का पेड़ लाकर लगाया। कृषि के साथ उन्होंने व्यापार भी शुरु कर दिया। घर बनाने के लिए जमीन खरीदी और इस प्रकार मजदूर से मकान मालिक बन गए। बाद में स्वतंत्र व्यापारी भी नेटाल आए। उनकी इस प्रगति से गोरे व्यापारियों की आंखें खुली। जब उन्होंने भारतीय मज़दूरों का स्वागत किया था तब उन्हें उनके व्यापार करने की क्षमता का अंदाज़ा नहीं रहा होगा। अब तो वे उनके प्रतिद्वन्द्वी हो गए थे, और यह उन्हें रास नहीं आ रहा था। विरोध शुरु हो गया।

कमाई के हिसाब से भारी कर

पहले तो उनका मताधिकार छीनने के लिए बिल पारित किया गया। अब गिरमिटियों पर कर लगाने की बात हो रही थी। यह सुझाव दिया गया कि गिरमिट पूरा होने के कुछ दिन पहले ही भारतीयों को जबरदस्ती भारत वापस भेज दिया जाए ताकि उनकी इकरारनामे की अवधि भारत में पूरी हो। पर यह प्रस्ताव भारत सरकार मानने से रहती। इसलिए यह सुझाया गया कि मज़दूरी का इकरार पूरा हो जाने के बाद गिरमिटिया वापस भारत लौट जाए। हर दूसरे साल नया गिरमिट लिखवाया जाए और हर बार उसके वेतन में कुछ बढोत्तरी की जाए। अगर वे वापस न जाएं और नया इकरारनामा न लिखें तो हर साल 25 पौंड का कर दें। कमाई के हिसाब से मज़दूरों के लिए यह कर बहुत ही भारी था। वे इसे चुका पाने की स्थिति में नहीं थे। चूंकि नेटाल सरकार को अनुबंध की शर्तों के अनुसार इस उद्देश्य के लिए भारत सरकार की अनुमति प्राप्त करनी थी, इसलिए उपनिवेशवादियों ने वायसराय लॉर्ड एल्गिन पर इस पर सहमति के लिए दबाव डालने हेतु अक्तूबर, 1893 में, अपने प्रतिनिधि भारत भेजे। सर हेनरी बिन्स, नेटाल विधान सभा के सदस्य, और एच.एल. मैसन, रक्षक, का दस्ता भारत में उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड एल्गिन से जनवरी, 1894 में मिला। लॉर्ड एल्गिन ने प्रतिनिधिमंडल के इस प्रस्ताव को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लिया कि नेटाल सरकार उन लोगों पर "निवास कर" लगा सकती है जो अपने अनुबंध की अवधि समाप्त होने के बाद भी अपने अनुबंध को नवीनीकृत किए बिना नेटाल में रहने का निर्णय लेते हैं। गवर्नर-जनरल लॉर्ड एल्गिन ने, जो कथित रूप से भारत के आर्थिक हित में कार्य कर रहे थे, इस बुनियादी दायित्व की अनदेखी कर दी थी कि मजदूर अपनी बंधुआ मजदूरी पूरी करने के बाद सभी प्रकार से स्वतंत्र व्यक्ति होंगे तथा उनके अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य देशों से आए अप्रवासियों के अधिकारों से किसी भी प्रकार कम नहीं होंगे। एल्गिन ने इस प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी पर पच्चीस नहीं तीन पौंड सालाना की राशि पर। उन्होंने £25 को बहुत अधिक समझा। पति-पत्नी और दो बच्चों वाले परिवार से जिसमें पति को 14 शिलिंग प्रतिमास मिलते हो, 12 पौंड अर्थात 180 रुपये का कर लेना भारी जुल्म था। दुनिया में कही भी इस स्थिति के गरीब लोगों से ऐसा भारी कर नहीं लिया जाता था। नेटाल सरकार ने लगभग अनिवार्य प्रत्यावर्तन लागू करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका खोज लिया था, जब तक कि मजदूर अनिश्चित समय के लिए अनुबंधित सेवा पर बने रहने का विकल्प नहीं चुनता। जैसा कि गोखलेजी ने बताया, इस क्रूर कर के कारण भारी पीड़ा हुई, "परिणामस्वरूप परिवार टूट गए, तथा पुरुष अपराध की ओर तथा महिलाएं शर्मनाक जीवन जीने को मजबूर हो गईं।"

इंडियन इमिग्रेशन अमेंडमेंट बिल प्रस्तुत

इस प्रस्तावित क़ानून के द्वारा नेटाल सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से मज़दूरों को भारत वापस भेजने का प्रबंध कर लिया था। मई 1895 के पहले सप्ताह में नेटाल एसेम्बली में नया क़ानून इंडियन इमिग्रेशन अमेंडमेंट बिल प्रस्तुत किया गया। साथ-ही साथ प्रवासी भारतीयों की तरफ़ से 5 मई 1895 को अब्दुल्ला हाजी आदम और अन्य के हस्ताक्षर के साथ, एसेम्बली के स्पीकर को एक प्रतिवेदन दिया गया। इस प्रतिवेदन का मसौदा गांधी जी ने तैयार किया था। इसमें प्रस्तावित बिल की आलोचना की गई थी और यह भी कहा गया था कि यह भारतीय मज़दूरों को दक्षिण अफ़्रीका से भगाने का प्रयास है। गिरमिटिया भारतीय, जो उपनिवेश की समृद्धि में भौतिक रूप से योगदान देते हैं, बेहतर सुविधा पाने के हकदार हैं। निचले सदन से पारित होकर जब बिल काउंसिल में पहुंचा तो भारतीयों ने दूसरा प्रतिवेदन प्रेसिडेंट को दिया। इसमें कुछ नए तर्कों का समावेश किया गया था। यह कहा गया था कि इस बिल के प्रस्ताव अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों से बिल्कुल हटकर है। इस तरह के नियमों से तो मज़दूरों को बंधुआ मज़दूर की तरह जीवन जीना पड़ेगा। तीन पौंड के कर के बारे में भी यह प्रश्न उठाया गया था कि केवल एक खास वर्ग को ही इस कर के लिए निशान क्यों बनाया गया है? जब यह बिल पास होकर क़ानून बन जाएगा तो यह उन ग़रीबों के ऊपर दोहरी मार होगी जो पहले से ही सताए लोग हैं। प्रस्तावित विधेयक के मूल में यह मान्यता थी कि ऐसे देश में जहां स्थानीय जनसंख्या यूरोपीय लोगों से कहीं अधिक है, बड़ी संख्या में भारतीयों का बसना वांछनीय नहीं है। इस संबंध में चिंता निराधार थी क्योंकि कॉलोनी में किसी भी प्रकार की भीड़भाड़ नहीं थी। इस नये खुले देश में अभी भी बहुत बड़ा भूभाग पूरी तरह निर्जन और बंजर था। यहां तक ​​कि औपनिवेशिक प्रशासन को भी यह एहसास हो गया था कि वह उन भारतीय व्यापारियों के बसने में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जो किसी भी प्रकार के समझौते के तहत नेटाल नहीं आये थे। तो फिर, उन गिरमिटिया भारतीयों के साथ अलग व्यवहार क्यों किया जाना चाहिए, जिन्हें ब्रिटिश नागरिक के रूप में उपनिवेश में आने के लिए आमंत्रित किया गया था और जिनके बसने से उपनिवेश को बहुत लाभ हुआ था? गांधीजी ने तर्क दिया था कि कुछ वर्षों से गिरमिटिया बने लोगों को भारत वापस भेजकर भारत के अति जनसंख्या वाले भागों को राहत नहीं दी जा सकती। यदि यह बात किसी भी तरह से तर्कसंगत थी, तो भारत लौटने वाले मजदूरों के पास अपने भरण-पोषण के लिए पर्याप्त बचत होनी चाहिए, जो नेटाल में उनके वेतन के स्तर के कारण संभव नहीं थी। यदि उपनिवेश भारतीयों को वहां बसने की इच्छा के साथ बर्दाश्त नहीं कर सकता था, तो उसे नेटाल में सभी गिरमिटिया आप्रवासन को रोक देना चाहिए था।

बिल बिना किसी विरोध के पास

जैसी की उम्मीद थी बिल बिना किसी विरोध के पास हो गया। नेटाल मर्करी ने कहा था कि 3 पाउंड का कर लगाया जाना न तो कठिन और न ही अपरिहार्य था। अब तो एक ही उपाय बचा था कि व्हाइटहॉल से सम्पर्क साधा जाए और हस्तक्षेप करने को कहा जाए।  11 अगस्त 1895 को उपनिवेश सचिव लॉर्ड जोसेफ चैम्बरलीन को गांधी जी द्वारा तैयार एक लम्बा ज्ञापन भेजा गया। भारत के वाइसराय लॉर्ड एल्गिन से भी निवेदन किया कि वे इस विषय पर ध्यान दें और भारतीय मज़दूरों को दक्षिण अफ़्रीका आने से रोकें। भारतीय राष्ट्रीय कान्ग्रेस की तरफ़ से दवाब डलवाने के लिए गांधी जी ने सर फिरोज़ शाह मेहता को भी मदद के लिए लिखा।

विधेयक पर राजशाही मुहर लगी

इन सब दवाबों के कारण बिल का मसौदा भारत की सरकार को भेजा गया। बिना किसी खास जांच-पड़ताल के कलकत्ते से उत्तर आ गया। बिल महारानी के अनुमोदन के लिए भेजा गया। उपनिवेश सचिव ने लॉर्ड एल्गिन को लिखा कि प्रवासी भारतीयों द्वारा दिए गए प्रतिवेदन के आधार पर वह इसका पुनरीक्षण करें। इसके बावज़ूद भी भारत की सरकार ने अपने विचार नहीं बदले। अब तो सचिव के पास भी कोई आधार नहीं था कि वह इस बिल को खारिज़ कर सकते थे। इसलिए इस विधेयक पर राजशाही मुहर लग गई।

उपसंहार

यदि ब्रिटिश उपनिवेशों के इतिहास में सबसे दमनकारी कानूनों की गणना की जाए, तो नेटाल में 1895 का भारतीय आव्रजन संशोधन कानून काली सूची में सबसे ऊपर स्थान पर होना चाहिए। विडंबना यह है कि गांधीजी को अपने सार्वजनिक जीवन के पहले ही वर्ष में इतने घृणित कानून का सामना करना पड़ा, जब उनकी उम्र मात्र पच्चीस वर्ष थी। नेटाल कांग्रेस ने विधेयक के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद प्रस्तावित कानून के खिलाफ याचिका अभियान की योजना बनाई। आंदोलन के ज़रिए, भारतीय समुदाय को संगठित करके, नेटाल सरकार के प्रमुख से ऊपर वायसराय और उपनिवेशों के राज्य सचिव से अपील करके, और अपने स्वयं के विशाल लेखों के ज़रिए, गांधीजी श्वेत वर्चस्ववादियों की ज्यादतियों को रोकने में सक्षम थे। 25 पाउंड का कर घटाकर 3 पाउंड कर दिया गया। इस कर के ख़िलाफ़ ज़ोरों की लड़ाई छिड़ी। नेटाल कांग्रेस ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। कांग्रेस ने निश्चय किया कि इस कर को हटना चाहिए। अगर नेटाल इंडियन कांग्रेस इस विषय पर चुप रहती, तो वायसराय (लॉर्ड एल्गिन) 25 पाउंड के कर को भी मंजूरी दे सकते थे। 25 पाउंड से 3 पाउंड तक की कटौती संभवतः पूरी तरह कांग्रेस के आंदोलन के कारण ही हुई थी। इस लड़ाई में नेटाल के ही नहीं, ल्कि पूरे दक्षिण अफ्रीका के सारे भारतीय एक जुट होकर लड़े। फिर भी इस निश्चय को पूरा होने में बीस साल लग गए। इस लड़ाई में कुछ लोगों को गोली खाकर जान से हाथ धोना पड़ा। दस हजार से अधिक भारतीयों को जेल भुगतनी पड़ी। पर अंत में जीत सत्य की हुई। अटल श्रद्धा, अटूट धैर्य और सतत कार्य करने का बल लोग जुटा पाए। गांधी जी की प्रेरणा और नेतृत्व से ही यह संभव हुआ।

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मनोज कुमार

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