गांधी और गांधीवाद
सत्य एक विशाल वृक्ष की तरह है। आप जितना उसका पोषण करेंगे, उतने ही ज्यादा फल यह देगा। सत्य की खान को जितना ही गहरा खोदेंगे, सेवा के नये-से-नये मार्गों के रूप में, यह उतने ही अधिक हीरे-जवाहरात देगा। - महात्मा गांधी
अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर 1895
48. सांच को आंच कहां
प्रवेश
गांधीजी के नैतिक सिद्धान्त नए नहीं हैं। वे तो हमारे दर्शन और धर्म के
जाने-माने सिद्धान्त हैं। गांधीजी उन्हें नया रूप देते हैं। इसलिए हमें लगता है कि
वे न तो प्राचीन सिद्धांतों की पुनरावृत्ति करते हैं और न बिल्कुल नए सिद्धान्त का
प्रतिपादन ही। वे प्राचीन मत को आधुनिक रूप देते हैं। उनके सिद्धान्त में परम्परा और
आधुनिकता का समुचित समावेश है। न तो वे परम्परा का त्याग करते हैं न ही उसका अंधानुकरण।
वे नई परिस्थिति और परिवेश में ही प्राचीन मतों का प्रतिपादन करते हैं। परिवेश की नवीनता
के कारण मत भी नया प्रतीत होता है। गांधीजी मानते हैं कि केवल सत्य और प्रेम-अहिंसा-ही महत्वपूर्ण है। जहां ये हैं,
वहां अंततः सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस नियम का कोई अपवाद नहीं है।
भारतीय के बीच एकता का पुल
हालाकि गांधीजी के सर्वोच्च
न्यायालय में प्रवेश पर वहां की लॉ सोसायटी ने विरोध किया, (43. न्यायालय में प्रवेश का विरोध) पर उस लड़ाई में विजय गांधीजी की ही हुई और वकीलों की लॉ सोसायटी की
काफ़ी किरकिरी भी हुई। जबकि दूसरी तरफ़ इस प्रकरण से गांधीजी का काफ़ी नाम हुआ। एक
समाचार पत्र ने तो यहां तक लिख डाला कि वे एक दिन यहां का जज भी बन सकते हैं, और स्थानीय लोगों के सहयोग से उन्हें
विधान सभा के लिए चुना जाना चाहिए। गांधीजी तो भारत और भारतीय के बीच भावनात्मक
एकता का पुल बना रहे थे। उनके हितों की रक्षा के लिए जो संगठन भी उन्होंने बनाया
तो उसका नाम नेटाल इंडियन कांग्रेस चुना। इस संगठन से प्रवासी भारतीयों को काफ़ी
लाभ भी हुआ। उनके और कांग्रेस के दिन पर दिन बढ़ती लोकप्रियता से उनके विरोधी गोरे
काफ़ी बेचैन हो गए। गांधीजी और कांग्रेस को नीचा दिखाने का वे कोई मौक़ा नहीं चूकना
चाहते थे।
विपत्ति कहीं से भी किसी तरह
आ सकती है। … आई!
भारतीयों के विरुद्ध मामला
अगस्त 1895 के पहले सप्ताह की बात है। कैप्टन
लुकास, डरबन का रेजिडेंट मजिस्ट्रेट था। पूनूसामी पाथेर और तीन अन्य भारतीयों
के विरुद्ध उसने एक मामले की सुनवाई की। उन चारों पर इल्जाम था कि उन्होंने एक
अन्य भारतीय मूरूगस्वामी पिल्लई के साथ मार-पीट की थी। मामले की कार्रवाई से
स्पष्ट था कि अभियुक्तों के ख़िलाफ़ शायद ही कोई सबूत था। मुकदमे के दौरान कहा गया
कि हमला सार्वजनिक सड़क पर हुआ था, जहां से लोग
गुजर रहे थे। लेकिन मुकदमे के दौरान गवाह के तौर पर बुलाए गए एकमात्र व्यक्ति ने
कहा कि उसने कोई हमला नहीं देखा, लेकिन "उन्हें
अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए सुना"। मार-पीट हुई, वह इसका साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका। उसने कहा कि उसने सिर्फ़ दोनों
पक्षों को एक दूसरे के ऊपर चिल्लाते हुए सुना था। अंतिम सुनवाई के ठीक एक दिन पहले
भारतीय नेटाल कांग्रेस का एक पूर्व सदस्य मोहम्मद इब्राहिम असगर को सरकारी गवाह के
रूप में बुलाया गया था। 12 अगस्त को उसने मजिस्ट्रेट
के समक्ष दिए अपने बयान में कहा कि उसे कांग्रेस के तीन सदस्यों सहित कुछ लोगों ने
मूसा
के कार्यालय में बुलाया था। वहां
रंगास्वामी पदयाची, एक दुकानदार जो कांग्रेस के उपाध्यक्षों में से एक था, ने उससे पूछा कि क्या वह मूरूगस्वामी पिल्लई के पक्ष में गवाही देने
जा रहा है। उन सबसे के साथ जो बातचीत हुई उससे उसने यह निष्कर्ष निकाला कि वे उसे
अभियोगकर्ता के गवाह के तौर पर जाने देने के पक्ष में नहीं हैं। उसने यह भी बताया
कि ऐसा करने से रोकने के लिए पदयाची ने उसे धमकी भी दी। उसका बयान समाप्त होते ही कैप्टन लुकास ने, जो एक पूर्व सैन्य अधिकारी था, कानून की प्रक्रियाओं के प्रति एक सैनिक की उदासीनता के साथ, तुरत अपना आदेश ज़ारी कर दिया। 13 अगस्त को, उसने सभी को दोषी करार देते हुए सज़ा का ऐलान किया। असगर के बिना समर्थन वाले बयान के आधार पर उसने यह भी निष्कर्ष निकाला कि भारतीय नेटाल
कांग्रेस भी इस मामले में शामिल थी और वह अभियुक्तों को बचाना चाह रही थी।
सर्वोच्च न्यायालय में अपील
अभियुक्तों ने सर्वोच्च न्यायालय
में अपील की। उन्होंने आग्रह किया कि मजिस्ट्रेट ने स्वयं को ऐसे बयानों से
प्रभावित होने दिया जो साक्ष्यों द्वारा समर्थित नहीं थे या जिनका उल्लेख भी
साक्ष्यों में नहीं था, तथा यह निर्णय पूरी तरह
से साक्ष्यों के विरुद्ध था। इस बीच
रंगास्वामी पदयाची के विरुद्ध अदालत की कार्रवाई में हस्तक्षेप करने के आरोप में
मामला शुरु हो गया। पुलिस मजिस्ट्रेट वालर ने रंगासामी पदयाची को सम्मन जारी
किया। पहले सुनवाई 15 अगस्त के
लिए तय की गई थी लेकिन आरोपी के वकील के अनुरोध पर इसे 19 अगस्त तक के लिए स्थगित
कर दिया गया तथा आरोपी को 25 पाउंड की जमानत पर छोड़ दिया गया। कैप्टन लुकास ने यह सुनिश्चित कर लिया कि यह मामला भी उसे ही मिले।
इससे पदयाची बहुत घबड़ाया हुआ था। उसने गांधीजी से मदद की गुहार की। गांधीजी ने उसे
वचन दिया कि वे उसके वकील मि. मीलर की एक अधिवक्ता के रूप में मदद करेंगे। जब 4 सितंबर को
मामला सुनवाई के लिए आया, तो मि. मिलर प्रतिवादी
की ओर से और मि. काल्डर क्राउन की ओर से उपस्थित हुए, गांधीजी भी अदालत में उपस्थित हुए। जैसे ही लुकास ने देखा कि गांधीजी कुछ नोट्स ले रहे हैं उसने पूछा, ‘‘क्या यह आपका मामला है?” गांधीजी ने कहा, “नहीं।” दूसरे दिन भी सुनवाई के वक़्त लुकास ने देखा कि गांधीजी कुछ लिख रहे
हैं और मि. मीलर की सहायता कर रहे हैं, वह क्रोध से आग बबूला हो गया। उसने पूछा, “मि. गांधी आप बिना गाउन के क्यों हैं? क्या आप मि. मीलर के क्लर्क हैं? या कोई और कारण है आपके इन सब
व्यवहार का?” मि. मीलर ने बीच में कहा, “मि. गांधी का मेरे लिए क्लर्क का काम करने में कोई हानि है क्या? मजिस्ट्रेट ने कहा, “कोई बात नहीं, मैं सब अच्छी तरह देख लूंगा।”
समाचार पत्रों के माध्यम से आक्रमण
संयोगवश यह वही मजिस्ट्रेट था
जिसके ऐतराज़ करने पर गांधीजी ने अपनी पगड़ी नहीं उतारी थी, जब वह दक्षिण अफ़्रीका आए थे। (30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का) इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही गर्म हो रहा था। सबसे पहला आक्रमण
समाचार पत्रों के माध्यम से हुआ। प्रेस तो कांग्रेस की चमड़ी उधेड़ लेने पर आमादा
था। द नेटाल विटनेस ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि इसने एक भारतीय को डरा-धमका कर
गवाही देने से रोका था। इस पर झूठी गवाही देने का आरोप भी लगाया। गांधीजी तब तक इस
पर कोई भी प्रतिउत्तर देने के पक्ष में नहीं थे,
क्योंकि मामला न्यायालय में विचाराधीन था। पर एक बात को
वे नज़रअंदाज़ नहीं कर सके कि नेटाल एडवर्टाइजर उकसाने की भूमिका अदा कर रहा है। उसने लिखा था कि कांग्रेस एक गुप्त
संस्था के रूप में काम कर रही है। इस बारे में गांधीजी ने ध्यान दिलाया कि
कांग्रेस के संगठनकर्ताओं ने कुछ यूरोपीय लोगों को इसकी बैठकों में शामिल होने के
लिए आमंत्रित किया है, तो यह गुप्त रूप से कैसे काम कर रही है। फिर भी शब्दों का प्रहार
होता रहा, ताकि गांधीजी के कद को छोटा किया जा सके। जैसे ही गांधीजी ने ये
टिप्पणियां पढ़ीं, उन्होंने एडवर्टाइजर को
पत्र लिखकर इसकी आलोचनाओं पर कड़ी आपत्ति जताई, कि कांग्रेस के
खिलाफ मामला न्यायालय में विचाराधीन था। पत्रिका की टिप्पणियों से उत्पन्न होने
वाली किसी भी गलत धारणा को दूर करने के लिए, उन्होंने कांग्रेस के
उद्देश्यों को पुनः दोहराया और नियमों की प्रतियां, पहले वर्ष के दौरान
सदस्यों की सूची और 22 अगस्त, 1895 को समाप्त होने वाली कांग्रेस की पहली वार्षिक रिपोर्ट
भेजी।
लुकास का फैसला
पदयाची के मामले की सुनवाई के
दौरान इस तरह की घटना ने भारतीयों के हौसले परास्त करने के बजाए और भी शक्तिशाली
ही बनाया ताकि वे अपनी रक्षा की लड़ाई लड़ सकें। उन्हें मालूम था कि एक लंबी और कठिन
लड़ाई सामने है। बढ़ती हुई लहर को नियंत्रित करने के लिए गांधीजी ने नेटाल इंडियन
कांग्रेस के तत्वावधान में बैठकों की एक श्रृंखला आयोजित की। ग्यारह दिन की सुनवाई
के बाद, ठीक 2 अक्तूबर को लुकास ने अपना फैसला सुनाया। उसने अभियुक्त को मुज़रिम
ठहराते हुए छह मास की सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई। साथ ही उसने भारतीय नेटाल
कांग्रेस के खिलाफ़ भी अपमानजनक टिप्पणी की। उसने कहा कि इसने अपना दायरा राजनीतिक
गतिविधियों से बाहर कर लिया है और अपने प्रभाव और शक्ति का दुरुपयोग कर रही है।
उसने तो यहां तक कहा कि नेटाल सरकार से टक्कर लेने के लिए कांग्रेस गांधी के
नेतृत्व में षड्यंत्र रच रही है। भारतीय मज़दूरों को आन्दोलन करने के लिए उभारा जा
रहा है। यह बहुत ही खतरनाक और हानिकारक संगठन है जो इस उपनिवेश में पूरे समुदाय के
लिए समस्या पैदा कर सकती है।
गांधीजी के विरुद्ध दुष्प्रचार
धमकाने के आरोप में दोषी ठहराए जाने और कठोर श्रम के साथ छह
महीने के कारावास की सजा सुनाए जाने पर, रंगास्वामी पदयाची ने तुरंत सर्वोच्च
न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण पेटिशन दायर किया। अदालत
का आदेश कांग्रेस के अस्तित्व लिए बहुत ही बड़ा खतरा बन गया था। कांग्रेस विरोधी
प्रचार ज़ारी रहा। कानाफूसी, अफ़वाहबाज़ी और अखबारनवीसी के माध्यम से गोरे लोग कांग्रेस और गांधीजी
के विरुद्ध दुष्प्रचार करते रहे। प्रेस के लिए तो भरपूर मसाला मिल गया था, और उसने इसका भरपूर लाभ उठाया। नेटाल
मर्करी ने गांधीजी पर आरोप लगाया कि वे कांग्रेस के बहाने रुपए ऐंठते थे और
व्यापारियों से आर्थिक सहायता लेते थे। द नेटाल विटनेस ने सख्त जांच की मांग की, और कहा कि यदि कांग्रेस के ख़िलाफ़ लगे
आरोप साबित होते हैं तो इस संगठन का विघटन कर दिया जाना चाहिए और आरोपियों को
क़ानून के दायरे में सख़्त-से-सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए। इस पत्र ने यह भी मांग की कि लॉ
सोसायटी को गांधीजी से उनके कांग्रेस के साथ संबंधों के कारण बताए जाने की मांग
करनी चाहिए और यह पूरा मामला इंग्लैंड में बैठे हुक्मरानों को सूचित किया जाना
चाहिए ताकि पूरी जांच हो सके। साउथ अफ़्रीकन टेलीग्राफ ने भी भारतीयों के गुप्त
संगठन और उनके षड्यंत्रकारी योजनाओं को बेनकाब करने की बाबत खबर छापी। सारे प्रेस
के समाचारों में अंतिम और मुख्य लक्ष्य गांधीजी होते थे। कुछ समाचार पत्रों ने तो
यहां तक कह दिया कि वे छली हैं, भाड़े के टट्टू हैं, और यह भी कि उन्होंने स्थानीय भारतीयों को यह आश्वासन दिया है कि वे
भारत से तीन और वकीलों को बुला रहे हैं ताकि उनकी मदद की जा सके।
गांधीजी का जवाब
इन सारे उकसाऊ बयानबाज़ियों का
गांधीजी कोई जवाब देना नहीं चाहते थे क्योंकि निर्णय के विरुद्ध अपील विचाराधीन
था। उन्हें इस बात का भी अहसास था कि पूरी तरह से चुप्पी साध लेना भी उचित नहीं
होगा। उन्हें इस बात की चिन्ता थी कि यदि जज ने पूरी बात न सुनी, खासकर कांग्रेस के ख़िलाफ़ निर्णय में
दिए गए अपमानजनक टिप्पणियों के बारे में, और सरसरी तौर अपना फैसला सुना दिया तो क्या होगा? काफ़ी सोच-विचार करने के बाद 21 अक्तूबर को गांधीजी ने नेटाल कांग्रेस के अवैतनिक सचिव की हैसियत से नेटाल के
उपनिवेश सचिव को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने पूरे मामले की अच्छी तरह से व्याख्या
की थी। अपने पक्ष को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अखबारों में छपे समाचारों का ही
साक्ष्य के तौर पर हवाला दिया। मूल बात जो उन्होंने उजागर की थी, वह यह कि कांग्रेस ने असगर या किसी
अन्य को ही मजिस्ट्रेट के सामने गवाही देने से नहीं रोका था। अदालत के निर्णय में
जो इस बाबत टिप्पणी की गई है वह आधारहीन है। उन्होंने यह मांग की कि यदि सरकार इस
बात से इत्तेफ़ाक रखती है कि मामले में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं है तो सरकार
तथ्यों को लोगों के सामने लाने के लिए एक सार्वजनिक ज्ञापन ज़ारी करे। अगर उसकी नज़र
में कोई सुबहा रह गई हो तो चाहे औपनिवेशिक शासन की ओर से कांग्रेस के बारे में
जांच गठित कर सकती है, सांच को आंच कहां?
सर्वोच्च न्यायालय का अपील पर फैसला
उनके पत्र भेजे जाने के फ़ौरन
बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपील पर अपना फैसला सुनाया और पूनूसामी पाथेर एवं अन्य
बनाम रेजिना मामले में दोष सिद्धि को रद्द कर दिया। न सिर्फ़ मूरूगस्वामी पिल्लई के ऊपर कथित हमले के अभियुक्तों को बरी
किया गया बल्कि इसने मजिस्ट्रेट के खिलाफ़ सख़्त टिप्पणी भी की। कार्यवाहक मुख्य
न्यायाधीश श्री ब्यूमोंट ने घोषणा की कि आरोप का समर्थन करने के लिए कोई भी सबूत
नहीं था, "वादी के साक्ष्य निराधार
थे" और इसलिए, "यह असाधारण
प्रतीत हुआ कि मजिस्ट्रेट उस तरह के सबूतों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि
हमला इन चार व्यक्तियों द्वारा किया गया था। एक महीने के बाद 27 नवम्बर, 1895 को, रंगास्वामी पदयाची के ख़िलाफ़ जो मामला चल रहा था उसे भी निरस्त कर
दिया गया। मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि ऐसा कोई सबूत नहीं है जो मुझे जूरी
से दोषी ठहराने के लिए कहने का अधिकार दे। इस प्रकार
कांग्रेस को इस झमेले से निजात मिली। मामले के निर्णय को अच्छा-खासा प्रचार मिला। यूरोप के कुछ
लोग इन घटनाओं के महत्व को समझने में सक्षम थे। उन्हें लगा कि भारतीय अब उन पर दासता
पूर्ण निर्भरता की स्थिति में रहने से संतुष्ट नहीं होंगे। हालाँकि, एक वर्ग के रूप में श्वेत उपनिवेशवादी इस बदलाव को स्वीकार करने के
लिए तैयार नहीं थे।
उपसंहार
इस प्रकार नेटाल इंडियन कांग्रेस इस संकट से अछूती निकल आयी
और जो लोग इसे नष्ट करना चाहते थे, उनके षड्यंत्र
विफल हो गये। इस मामले से न सिर्फ़ कांग्रेस की
पहचान का दायरा बढ़ा बल्कि इसके प्रभाव क्षेत्र में भी वृद्धि हुई। गांधीजी का कद
नेटाल में स्थित देशवासियों के बीच और ऊंचा हुआ। यूरोपवासियों में यह भावना बलवती
होने लगी कि भारतीय अब चुप होकर बैठे रहने वाले नहीं हैं। पर क्या गोरे जो हुआ
उससे संतुष्ट होकर चुप बैठे रहने वाले थे? उन्हें तो अब लगने लगा कि उनके सत्ता और प्रभुत्व पर गंभीर खतरा
मंडराने लगा है। गांधीजी का मानना था कि सत्य
को जिस रूप में, जैसा सुना गया, देखा गया, अनुभव किया गया, उसका उसी रूप में वर्णन करना ही सत्य है। मनुष्य को सत्य पर अचल रहना
चाहिए। वाणी, विचार और कर्म तीनों में सत्य का पालन करना आवश्यक है। गांधीजी ने असत्य का सत्य से, अशिष्टता का शिष्टता
से और अमर्यादित शैली की संयत स्पष्टोक्ति से जवाब दिया। फलस्वरूप नेटाल भारतीय
कांग्रेस का दक्षिण अफ़्रीका में सिक्का जम गया।
***
संदर्भ :
1 |
सत्य के प्रयोग – मो.क. गाँधी |
2 |
बापू के साथ – कनु गांधी और आभा
गांधी |
3 |
Gandhi Ordained in South
Afrika – J.N. Uppal |
4 |
गांधीजी एक महात्मा की संक्षिप्त जीवनी – विंसेंट शीन |
5 |
महात्मा गांधीजीवन और दर्शन – रोमां रोलां |
6 |
M. K. GANDHI AN INDIAN
PATRIOT IN SOUTH AFRICA by JOSEPH J. DOKE |
7 |
गांधी एक जीवनी, कृष्ण कृपलानी |
8 |
गाांधी जीवन और विचार - आर.के . पालीवाल |
9 |
दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास,
मो.क. गाँधी |
10 |
The Life and Death
of MAHATMA GANDHI by Robert
Payne |
11 |
गांधी की कहानी - लुई फिशर |
12 |
महात्मा गाांधी: एक जीवनी - बी. आर. नंदा |
13 |
Mahatma
Gandhi – His Life & Times by:
Louis Fischer |
14 |
MAHATMA Life of
Mohandas Karamchand Gandhi By:
D. G. Tendulkar |
15 |
MAHATMA GANDHI
By PYARELAL |
16 |
Mohandas A True
Story of a Man, his People and an Empire – Rajmohan Gandhi |
17 |
Catching
up with Gandhi – Graham Turner |
18 |
Satyagraha – Savita Singh |
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों
का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का,
31. प्रवासी
भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय
में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स...,
33. अपमान
का घूँट, 34. विनम्र
हठीले गांधी, 35. धार्मिक
विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी
का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना
रहित मन, 38. दो
पत्र, 39. मुक़दमे
का पंच-फैसला, 40. स्वदेश
लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़
बिल का विरोध, 42. नेटाल
में कुछ दिन और, 43. न्यायालय
में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा
अनुभव, 45. धर्म
संबंधी धारणाएं, 46. नेटाल
इन्डियन कांग्रेस, 47. बालासुन्दरम का मामला
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