रविवार, 11 अगस्त 2024

40. स्वदेश लौटने की तैयारी

 गांधी और गांधीवाद

उफनते तूफान को मात देना है तो अधिक जोखिम उठाते हुए हमें पूरी शक्ति के साथ आगे बढना होगा।

- महात्मा गांधी

जून 1894

40. स्वदेश लौटने की तैयारी

प्रवेश

जब गांधीजी का प्रिटोरिया का काम अपने अंतिम चरण पर था तब उनके लिए यह निर्णय लेना बहुत महत्वपूर्ण हो गया कि उन्हें दक्षिण अफ्रीका में रहकर अपने को स्थापित करना चाहिए या भारत वापस लौट जाना चाहिए। अगर वे वहीं रहते हैं, तो गोरों का प्रवासी भारतीयों के प्रति किए जा रहे दुर्व्यवहार का विरोध करने के लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार रहना था। उनके मन में दृढ़ विश्वास था कि यदि इस तरह के व्यवहार का डटकर मुक़ाबला किया जाए तो उसके परिणाम अच्छे ही होंगे। इससे बचकर भागने का कोई मतलब नहीं है। सामाजिक कार्य को अंजाम देने के लिए वे ट्रांसवाल या नेटाल में क़ानून की प्रैक्टिस करना सोच सकते थे। इस बाबत यदि वे किसी से बात करते तो लोग उनकी मदद को आगे भी आ जाते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। हालाकि एशिया और यूरोप के सैकड़ों जानने वाले थे, पर ऐसा करना उनके आत्म सम्मान के ख़िलाफ़ था। फिरभी ऐसा लगता है कि उन्होंने मन ही मन अपने को तैयार कर लिया था कि यदि कोई ऐसा प्रस्ताव आता है तो वे दक्षिण अफ़्रीका में रुक कर उनके लिए संघर्ष का नेतृत्व करेंगे।

स्वदेश लौटने की तैयारी

मुकदमे के ख़त्म हो जाने पर गांधीजी के लिए प्रिटोरिया में रहने का कोई कारण नहीं रहा। वे स्वदेश लौटने की तैयारी करने लगे। जून 1894 में गांधीजी ने प्रिटोरिया छोड़ दिया और भारत लौटने के लिये डरबन पहुंचे। गांधी जी ने स्वदेश लौटने के लिए जहाज का टिकट भी खरीद लिया। अब्दुल्ला सेठ गांधीजी को बिना मान-सम्मान के जाने दें, यह संभव नहीं था। अब्दुल्ला सेठ की मेहमाननवाजी में वहां उनका भव्य स्वागत सत्कार हुआ।

विदाई-भोज

गांधीजी के कृतज्ञ मुवक्किल दादा अब्दुल्ला, जो अब तक उनके महत्व से भलीभाँति परिचित हो चुके थे, ने डरबन की समुद्र तट पर बसे सुहावनी उपनगरी सिडेनहैम के एक रिज़ॉर्ट में उनके मान-सम्मान में विदाई-भोज का आयोजन किया। रिज़ॉर्ट पूरे दिन के लिए सुरक्षित कर लिया गया था। दिन भर चलने वाले इस समारोह में डरबन के सभी नामी-गरामी लोगों को दावत का निमंत्रण दिया गया था। दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों के मन में गांधीजी के प्रति स्नेह और गहरा सम्मान था इसलिए उनकी विदाई समारोह में बहुत से भारतीय आए थे।

मताधिकार छीनने वाला विधेयक

पार्टी में जब गांधी जी शिरकत कर रहे थे तो उनके पास कुछ अख़बार पड़े थे। वे उन्हें उलट-पलट कर देखने लगे। संयोगवश गांधीजी की नज़र नेटाल मर्करी अखबार के किसी कोने में छपी एक सूचना पर गई। शीर्षक थाइंडियन फ़्रेंचाइज़ यानी भारतीय मताधिकार। इससे उन्हें पता चला कि स्थानीय सरकार भारतीयों को धारासभा के सदस्य को चुनने के लिए दिए जाने वाले मताधिकार से वंचित करने वाला बिल नेटाल की विधानसभा में तुरंत पेश करने जा रही है। उस समय मौजूद क़ानून के मुताबिक़ केवल 250 हिन्दुस्तानियों को मताधिकार प्राप्त था। जबकि ऐसे अधिकार 10,000 यूरोपीय के पास था। प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य इन मुट्ठीभर हिन्दुस्तानियों को भी उनके चुनावी अधिकारों से वंचित करना था। वे इसलिए अपात्र ठहराए जाने वाले थे, क्योंकि वे हिन्दुस्तानी थे। यह क़दम तो भारतीयों की आज़ादी छीनने और उनके स्वाभिमान को नष्ट करने का षड्यन्त्र था। इस विधेयक पर नेटाल विधान मंडल में बहस चल रही थी। गांधीजी इस क़ानून से अपरिचित थे। उन्होंने अखबार में प्रकाशित विभिन्न टिप्पणियों से यह भी पाया कि यह अन्य अक्षमकारी विधेयकों का अग्रदूत था।  बड़ी हैरानी से गांधीजी ने मेजबान अब्दुल्ला और भोज में सम्मिलित अन्य भारतीय व्यापारी से पूछा कि वे इस विधेयक के बारे में कुछ जानते हैं।

यह सुनते ही अब्दुल्ला सेठ के मन में ऑरेंज फ़्री स्टेट में हुए वाकए का ख्याल आया कि किस तरह उनका व्यापार वहां उखड़ गया। उन्होंने इस विधेयक के बारे में अपनी अनभिज्ञता जताई और बताया, “मैं और मेरे प्रवासी भारतीय मित्रों ने इस मुद्दे को ज़्यादा महत्व नहीं दिया था। हमें बस इतनी ही अंग्रेज़ी आती है कि अपने गोरे ग्राहकों से बातचीत कर सकें। हममें से शायद ही कोई अंग्रेज़ी अख़बार पढ़ पाता हो। नेटाल विधान सभा की कार्यवाही समझने योग्य अंग्रेज़ी का ज्ञान तो हममें से किसी को भी नहीं है। हम नेटाल में व्यापार करने आए थे। राजनीति में हमारी कोई रुचि नहीं थी। हम अपनी ग़लती महसूस करते हैं। अब आप ही बताइए हमें क्या करना चाहिए?”

विधेयक के घातक परिणाम

हालाकि गांधीजी वापसी के लिए अपना बोरिया-बिस्तर बांध चुके थे फिर भी उनके मन में यह हलचल चल रही थी कि क्या भारतवासियों का मताधिकार छीनने पर तुले हुए गोरों की यह दलील ठीक है कि जिन्हें अपने मताधिकार की चेतना ही नहीं, उन्हें यह अधिकार दिए रखना ही निरर्थक है। विधेयक के पास हो जाने के घातक परिणाम को व्यक्त करते हुए उन्होंने भोज में सम्मिलित व्यापारियों को बताया कि अगर यह क़ानून इसी तरह पास हो गया, तो इसके दूरगामी और भयंकर परिणाम होंगे। आप सबों की मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी। यह हमारे ताबूत में लगाया जाने वाला पहला कील साबित होगा। यह तो भारतीयों की हस्ती मिटा देने की ओर पहला कदम है। यह हमारे आत्म सम्मान पर सबसे बड़ा प्रहार है। आप सबों को साहस और संगठन से इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। आप सब एकजुट कार्यवाही के द्वारा इसके पारित होने का विरोध करें थोड़ी ही देर में अन्य लोगों की जानकारी में यह बात आ गई और वह विदाई भोज का कार्यक्रम संघर्ष-समिति में बदल गया।

भारतीयों को मत देने से वंचित रखने की साजिश

गांधीजी की इस चेतावनी से सेठ अब्दुल्ला को कुछ साल पहले घटी एक घटना की याद हो आयी। इस समस्या की शुरुआत शक्तिशाली यूरोपीय समुदाय की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता की वजह से हुई थी। हैरी एस्कम्ब, जो अब्दुल्ला की फर्म के कानूनी सलाहकार थे, नेटाल बार का सदस्य थे। वे जबरदस्त लड़बैया थे। उनके और नेटाल के जेटी-इंजीनियर के बीच खासी लड़ाई चलती थी। एस्कम्ब के धारासभा में जाने में यह लड़ाई बाधक होती थी। धनी भारतीय व्यापारी उनके मुवक्किल थे। एस्कम्ब ने अपने मुवक्किलों को उनके मताधिकार के बारे में बताया। फलस्वरूप कई भारतीय जो अब तक मताधिकार का प्रयोग करने के प्रति उदासीन थे, ने मतदाता-सूची में अपना नाम लिखवाया और अपने सारे मत एस्कम्ब को दिए। प्रवासी भारतीयों को एस्कम्ब के पक्ष में जाते देख उसके प्रतिपक्षी सचेत हुए। इस तरह व्यापारिक द्वेष और राजनीतिक द्वेष ने एक साथ मिलकर भारतीयों को मत देने से वंचित रखे जाने वाली साजिश को जन्म दिया। किन्तु स्थानीय गोरों को अब तक कोई बड़ी सफलता इसलिए हासिल न हो पाई थी, क्योंकि नेटाल का ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश होने के कारण वे अपनी मनमानी नहीं कर सकते थे। प्रवासी भारतीय मताधिकार के मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले गए और निर्णय भी उनके पक्ष में गया। इस पराजय ने गोरों में भारतीयों के प्रति द्वेष और नफ़रत की भावना को भड़का दिया।

1893 में जब नई सरकार का गठन हुआ तो भारतीय विरोधी लॉबी काफ़ी मज़बूत हो गई। चुनाव के अंतिम सप्ताह में तो वातावरण काफ़ी गर्म हो गया था। जहां तक दक्षिण अफ़्रीका में स्थायी रूप से रहने का प्रश्न था, अधिकांश यूरोपीय भारत से श्रमिक बुलाने के पक्ष में नहीं थे। इन सब बातों से भारत से आए लोगों को स्थानीय नागरिकता देने के प्रति विरोध प्रबल होता जा रहा था।

भारतीय श्रमिकों के इकरारनामे को बदलने का प्रयास

फ़ॉरवार्ड पार्टी ने इस चुनाव में अपने मतदाता से किए वादे को पूरा करने के लिए और यह पता लगाने के लिए कि भारत से गए श्रमिकों के इकरारनामे को कैसे बदला जाए सर जॉन रॉबिन्सन को भारत भेजा। उनका मुख्य ध्येय यह था कि उन प्रवासी भारतीय, जिनका वहां पर रहने की अवधि पूरी हो गई है, का इकरारनामे से कम से कम स्थायी निवासी बनने की शर्त को तो हटा ही दिया जाए। इसमें उन्हें सफलता मिली और उसके फलस्वरूप प्रवास कर लगाया गया।

दूसरा मामला था मताधिकार का। नेटाल विधान सभा की पहली ही बैठक में भारतीय मूल के प्रवासी के मताधिकार वापस लेने का बिल लाया गया। पर समय की कमी से इस पर चर्चा न हो सकी। अगले ही सत्र में सरकार ने मताधिकार संशोधन बिल प्रस्तुत कर दिया। इस बिल का ध्येय था कि जो भारतीय वोटर लिस्ट में शामिल हैं, उनको छोड़कर अन्य प्रवासी भारतीय को मताधिकार न दिया जाए।

विधेयक के ख़िलाफ़ विरोध आंदोलन के नेतृत्व का निवेदन

यही वह समाचार था जिसे गांधीजी ने पढ़ा और विचार का मुद्दा बनाया। वे उन लोगों को मताधिकार के महत्व को समझाने का प्रयत्न कर रहे थे। गांधीजी की इस विधेयक के प्रति प्रतिक्रिया बड़ी ही हृदयस्पर्शी थी। वहां मौज़ूद एक भारतीय व्यापारी, जो बड़ी तन्मयता से सारी बात सुन रहा था, ने उनसे आग्रह किया, “मैं बताऊं क्या किया जाना चाहिए? आप अपनी यात्रा स्थगित करें और नेटाल में एक महीने और रुक जाएं। आप विधेयक के ख़िलाफ़ हमारी ओर से विरोध आंदोलन का नेतृत्व करें। आप जो कहेंगे हम मानेंगे। स्थानीय भारतीय तो विरोध पत्र तैयार करना भी नहीं जानते हैं।

सभी उपस्थित लोगों ने भाव विह्वल स्वर में कहना शुरु किया, ‘हां, ऐसा ही होना चाहिए। … गांधीजी आप हमें छोड़कर मत जाइए। … आपके बिना हम अनाथ हो जाएंगे। … हम अनपढ़ हैं। … अपनी भलाई के लिए लड़ भी तो नहीं सकते। … अब्दुल्ला सेठ आप गांधी भाई को रोक लीजिए।’

सेठ अब्दुल्ला काफ़ी तेज़ दिमाग का था। उसने कहा, “अब मैं इन्हें नहीं रोक सकता। इसका मुझे कोई अधिकार नहीं है। या यूं कहा जाए कि अब इनपर आपका भी उतना ही अधिकार है जितना मेरा है। परन्तु मैं आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूं। आइए हम सब मिलकर इन्हें रुकने के लिए मनाएं। पर आपको यह भी सोचना चाहिए कि वे वकील हैं, और उनकी फ़ीस के बारे में आपने क्या सोचा है?”

अपने भाइयों के हक़ के लिए रुक गए

गांधीजी विचारों में मग्न थे। यहां पर उन्हें रुकने के लिए आग्रह किया जा रहा था। जैसे ही फ़ीस की बात की गई वे झटके से उठे और बोले, “अब्दुल्ला सेठ, इसमें मेरी फ़ीस की कोई बात ही नहीं उठती। सार्वजनिक सेवा के लिए कोई फ़ीस नहीं हो सकती। अपने भाइयों के लिए मैं रुक सकता हूं। यदि सारे लोग मेरी सहायता करने का वचन देते हैं तो सेवक के रूप में मैं एक महीने के लिए रुकने और जन-सेवा के लिए तैयार हूं। गांधीजी ने फिर कहा आपको कुछ नहीं देना होगा, फिर भी ऐसे काम बिना पैसे के तो हो नहीं सकते। हमें तार करने होगे, कुछ साहित्य छपाना पड़ेगा, जहां-तहां जाना होगा उसका गाड़ी-किराया लगेगा सम्भव है, हमें स्थानीय वकीलों की भी सलाह लेनी पड़े। मैं यहां के क़ानूनों से परिचित नहीं हूं। मुझे क़ानून की पुस्तकें देखनी होगी । इसके सिवा, ऐसे काम एक हाथ से नहीं होते, बहुतों को उनमें जुटना चाहिए।' लोगों ने कहा, 'पैसे इकट्ठा हो जायेंगे, लोग भी बहुत हैं। आप रहना क़बूल कर ले तो बस है।' सभा सभा न रहीं, उसने कार्यकारिणी समिति का रुप ले लिया। गांधीजी ने मन में लड़ाई की रुप रेखा तैयार कर ली। उन्होंने एक महीना रुक जाने का निश्चय किया। इस प्रकार ईश्वर ने दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के स्थायी निवास की नींव डाली और स्वाभिमान की लड़ाई का बीज रोपा गया।

उपसंहार

गांधी जी महीने भर रुकने के लिए तैयार हो गए, मगर रुक गए 20 वर्ष तक। उस समय वे 25 वर्ष के थे, लेकिन भारत लौटे तो 45 वर्ष के हो चुके थे। 1893 में जिस प्रिटोरिया वाला दीवानी मुकदमे के सिलसिले में वे दक्षिण अफ़्रीका गए वह मुकदमा खुशी-ख़ुशी समाप्त होने के बाद भी वे भारत नहीं लौटे। उन्होंने वहां प्रवासी भारतीयों पर हो रहे भेदभाव, ग़ुलामों जैसा व्यवहार और शोषण देखा। उन्होंने पाया कि वे वर्ण भेद के शिकार हैं। दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले भारतीयों के संघर्ष का उन्होंने नेतृत्व किया। वहां के लोगों को उन्होंने अत्याचार के ख़िलाफ़ ‘सत्याग्रह’ करना सिखाया। दक्षिण अफ़्रीका में एक महीने के लिए रुक जाना जाति-भेद और अन्याय के विरुद्ध उस लम्बी लड़ाई की शुरुआत थी, जो अभी भी अधूरी है और जिसके लिए गांधीजी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया।

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मनोज कुमार

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