बुधवार, 14 अगस्त 2024

43. न्यायालय में प्रवेश का विरोध

 गांधी और गांधीवाद

यदि आपको अपने उद्देश्य और साधन तथा ईश्वर में आस्था है तो सूर्य की तपिश भी शीतलता प्रदान करेगी।

- महात्मा गांधी

जुलाई 1894

43. न्यायालय में प्रवेश का विरोध

 

नेटाल के सर्वोच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में प्रवेश पाने के लिए गांधीजी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लॉ सोसायटी ने गांधीजी के आवेदन का विरोध किया। कई तर्क दिए गए। गांधीजी के पास बम्बई हाईकोर्ट का प्रमाण-पत्र था। प्रार्थना-पत्र के साथ सदाचरण के दो प्रमाण-पत्र लगाने थे, जो गांधीजी ने अब्दुल्ला सेठ के जानने वाले दो गोरों से प्राप्त कर लगा दिए थे। नियमानुसार प्रार्थना-पत्र किसी वकील द्वारा ही जमा करवाने थे, जिसे नेटाल के प्रसिद्द वकील एस्कंब ने जमा कर दिए। एस्कंब एटार्नी-जनरल थे और बाद में नेटाल के प्रधानमंत्री बने वे दादा अब्दुल्ला के वरिष्ठ वकील भी थे।

न्यायालय में प्रवेश का विरोध

गांधीजी ने नेटाल के सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने के लिए अर्ज़ी दे दी थी हालाँकि, उनके लिए सुप्रीम कोर्ट में प्रवेश पाना कठिन था। गांधीजी को अचानक वकील सभा (लॉ सोसायटी) की ओर से नोटिस मिला। इसमें एक काले वकील का न्यायालय में प्रवेश का विरोध किया गया था। एक कुली वकील की ऐसी धृष्टता को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। जो विरोध किया गया था, उसमें पहला कारण तो यही था कि आवेदन के साथ ओरिजिनल प्रमाणपत्र (विलायत का प्रमाण-पत्र) संलग्न नहीं किया गया है। कारण यह था कि मूल प्रमाण पत्र तो गांधीजी ने बम्बई उच्च न्यायालय में जमा कर रखा था, जब वे वहां के लिए नाम दर्ज़ कराए थे। दूसरी आपत्ति यह जताई गई कि जिन लोगों ने गांधीजी के आवेदन के साथ परिचय दाता के रूप में हस्ताक्षर किया था वे गांधीजी को अच्छी तरह नहीं जानते थे। यह सही था कि गांधीजी डरबन में इतने लंबे समय तक नहीं रहे थे कि वे उनसे अच्छी तरह परिचित हो सकें।

विरोध का प्रमुख कारण तो यह था कि यदि काले वकील प्रवेश पाने लगेंगे, तो धीरे-धीरे गोरों की प्रधानता जाती रहेगी और उनकी रक्षा की दीवार नष्ट हो जाएगी। वकील सभा ने विरोध के समर्थन के लिए एक प्रसिद्ध वकील ठीक कर रखा था। यह वकील अब्दुल्ला सेठ के जान-पहचान का था। उस वकील ने अब्दुल्ला के मार्फ़त गांधीजी को बुलाया और बड़ी अच्छी तरह उनसे बात की। उसने कहा, आपने गोरों के प्रमाण-पत्र पेश किए हैं, वे आपको क्या जानें? आपके साथ उनकी पहचान ही कितनी है?” गांधीजी ने इसका संक्षिप्त जवाब दिया, यहां तो मेरे लिए हर एक व्यक्ति नया ही है। यहां तक कि सेठ अब्दुल्ला भी तो मुझे सिर्फ़ एक साल से जानते हैं।

पर वकील, जो इसकी जांच कर रहा था ने कहा, ठीक है। लेकिन आप दोनों एक ही जगह के हैं। आपके पिता वहां के दीवान थे। एक दीवान के बेटे की तो सेठ अब्दुल्ला को निश्चित तौर पर जानकारी होगी ही। यदि आप उनका हलफ़नामा प्रस्तुत कर दें तो मैं खुशी-खुशी लॉ-सोसायटी को बता दूंगा कि इस आवेदन का मैं विरोध नहीं कर सकता।

गांधीजी को इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था कि उनके आवेदन को स्वीकार करने के लिए किस प्रकार उनका परिवार उत्तरदायी है। उन्हें गुस्सा तो आ रहा था पर अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाकर उन्होंने सेठ अब्दुल्ला के द्वारा दिया गया शपथ-पत्र जमा करा दिया।

क़ानून की निगाह में गोरे और काले बराबर

वकील तो संतुष्ट हो गया पर लॉ-सोसायटी अब भी झुकने को तैयार नहीं था। बात दूसरी थी। क़ानून सभा के सभी सदस्य यूरोपीय थे। वे श्यामवर्णी को कैसे सर्वोच्च न्यायालय में घुसने देते। इसलिए सभा अंत तक उनके प्रवेश का विरोध करती रही। जब इसके नियम बन रहे होंगे तब उन्होंने (गोरों) सोचा भी नहीं होगा कि एक श्यामवर्णी भी यहां तक पहुंच सकता है। नेटाल के विकास में गोरों का आधिपत्य था, वे किसी काले को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। वकील-सभा ने गांधीजी के प्रवेश के विरुद्ध अपना विरोध न्यायालय के सामने प्रस्तुत कर दिया। उठाए गए मुद्दों में से एक यह था कि जब वकीलों के प्रवेश के लिए नियम बनाए गए थे, तो किसी अश्वेत व्यक्ति के नामांकन की संभावना पर विचार नहीं किया जा सकता था। चूंकि नेटाल का विकास यूरोपीय लोगों के प्रयासों का परिणाम था, इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे अश्वेत लोगों के बार में धीरे-धीरे हावी होने की संभावना खुल जाए। मुख्य न्यायाधीश ने इन लोगों की आपत्तियों पर ग़ौर किया। अंत में निर्णय दिया कि अदालत और क़ानून की निगाह में गोरे और काले सभी बराबर हैं। अदालत रंगों के आधार पर भेद-भाव नहीं करती। अदालत को कोई अधिकार नहीं है याचिकाकर्ता के आवेदन को निरस्त करने का। ब्रिटिश क़ानून की परंपरा का सम्मान करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने आपत्ति को रद्द कर दिया और गांधीजी का वकालत के लिए पंजीकरण कर लिया गया। इस प्रकार गांधीजी को वहां के बार में प्रवेश मिला।

पगड़ी उतार दी

जैसे ही बार काउंसिल की शपथ गांधीजी ने रजिस्ट्रार के सम्मुख ली, मुख्य न्यायाधीश ने उनसे पगड़ी उतारने को कहा। मुख्य न्यायाधीश ने उनसे कहा एक वकील के नाते वकीलों से सम्बन्ध रखने वाले न्यायालय के पोशाक-विषयक नियम का पालन आपके लिए भी आवश्यक है! बिना कुछ विचारे गांधीजी ने पगड़ी उतार दी। गांधीजी ने अपनी सीमाओं को पहचाना। यह सही था कि जिला मजिस्ट्रेट की अदालत में उन्होंने पगड़ी उतारने का विरोध किया था, इस बार अपने ही फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानते हुए उतार दिया था। वे इसके खिलाफ़ तगड़ी दलील भी दे सकते थे, पर उन्होंने एक बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपनी भावनाएं दबाए ही रखना उचित समझा। उनकी पगड़ी भारतीयों के दमन के उनके प्रतिकार के एक चिन्ह के रूप में स्थापित हो चुकी थी, पर इस समय उन्हें वे इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं लगी कि उसके लिए न्यायालय में अपने स्थान को दांव पर लगाया जा सके। उन्हें यह एहसास हो गया था कि दांव उससे कहीं ज़्यादा ऊंचे थे जितना उन्होंने शुरू में सोचा था। मुद्दा दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के अस्तित्व को बनाए रखना था।

न्यायालय के नियमों को मानना

गांधीजी के भारतीय मित्रों को उनका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। पर गांधीजी ने उन्हें बताया कि एक बार जब वे शपथ ले चुके थे तो उनका नैतिक अधिकार बनता था उस न्यायालय के नियमों को मानना। फिर भी वे संतुष्ट नहीं हुए, पर गांधीजी अपने मन में बिल्कुल स्पष्ट थे कि अपने सिद्धांतों से यह समझौता तर्कसंगत और ज़रूरी था। न्यायाधीश के आदेश और जैसा देश वैसा वेश के सिद्धांत के अनुसार बैरिस्टर गांधी ने पगड़ी के परित्याग में अधिक हानि नहीं देखी। छोटी बातों पर झगड़ा उठाकर, संघर्ष में शक्ति का अपव्यय करने की अपेक्षा बुनियादी समस्याओं को हल करने में उसका उपयोग करना ही गांधीजी को ठीक लगा। अपनी आत्मकथा में गांधीजी कहते हैं, मेरे जीवन में आग्रह और अनाग्रह हमेशा साथ-साथ ही चलते रहे हैं। सत्याग्रह में यह अनिवार्य है। इसका अनुभव मैंने बाद में कई बार किया है। इस समझौता-वृत्ति के कारण मुझे कितनी ही बार अपने प्राणों को संकट में डालना पड़ा है। अपने मित्रों का असंतोष सहना पड़ा है। पर सत्य वज्र के समान कठोर है और कमल के समान कोमल है।

कई वर्षों बाद जब उन्हें यह घटना याद आई तो उन्हें उस क्षणिक आवेश में लिए गए निर्णय पर पछताने की कोई आवश्यकता नहीं थी। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी थी कि गांधीजी को वकालत शुरू करने की सख्त जरूरत थी और वे इस मामले में कोई जोखिम नहीं उठा सकते थे।

दीवानी मुकदमे में पहली उपस्थिति

जोहानिस्बर्ग के एक प्रमुख अखबार ने टिप्पणी की कि लॉ सोसायटी ने गांधीजी को कानूनी प्रैक्टिस से बाहर करने के अपने दिखावटी प्रयास से 'अपनी कुछ संदिग्ध प्रतिष्ठा में चमक नहीं डाली है', जो इनर टेम्पल के सदस्य के रूप में 'संभावना यह है कि वे अपने स्थानीय सहयोगियों के विशाल बहुमत की तुलना में प्रैक्टिस करने के लिए बहुत अधिक योग्य थे।' कुछ दिनों बाद गांधीजी ने सहायक रेजिडेंट मजिस्ट्रेट श्री डिलन के समक्ष एक दीवानी मुकदमे में वादी की ओर से पेश होकर अपनी पहली उपस्थिति दर्ज कराई। वादी, दादा अब्दुल्ला ने गोपी महाराज से बेचे गए माल और अग्रिम नकद के लिए £263 का दावा किया। उनका विरोध मैसर्स फरमान एंड रॉबिन्सन के श्री रॉबिन्सन ने किया। न्यायालय ने लागत के साथ दावा स्वीकार कर लिया। नेटाल एडवरटाइजर ने गांधीजी को अपना पहला केस जीतने पर बधाई दी।

उपसंहार

वकील के रूप में प्रैक्टिस करना उनके लिए गौण व्यवसाय था; उनका मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक कार्य करना था। फिरभी जिन कठिनाइयों को पार कर गांधीजी बार काउंसिल के सदस्य बने थे, वह उनके लिए विज्ञापन का काम कर गयी। बात चारों ओर फैल गई। इसने गांधीजी की प्रसिद्धि रातों रात फैला दी। वकील संघ की आपत्ति, न्यायालय के न्यायपूर्ण निर्णय और गांधीजी के भद्र व्यवहार को लेकर स्थानीय समाचार पत्रों में चर्चा हुई। अधिकांश अखबारों ने उनके प्रवेश के विरोध की निन्दा की। वकीलों की ईर्ष्या पर दोष लगाया गया। उनके व्यवसाय के लिए यह ज़रूरी भी था। इसका नतीज़ा यह निकला कि गांधीजी की वकालत चल निकली। इसके बाद दो साल तक उन्होंने कठोर परिश्रम किया, वकालत की प्रैक्टिस की, भारतीयों को संगठित किया, उन्हें शिक्षा दी, अपने उत्साही स्वभाव की पूरी शक्ति और ऊर्जा के साथ काम किया; और 1896 में वे अपनी पत्नी और बच्चों को वापस लाने के उद्देश्य से एक बार फिर भारत आए।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का, 31. प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स..., 33. अपमान का घूँट, 34. विनम्र हठीले गांधी, 35. धार्मिक विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना रहित मन, 38. दो पत्र, 39. मुक़दमे का पंच-फैसला, 40. स्वदेश लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़ बिल का विरोध, 42. नेटाल में कुछ दिन और

 

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