सोमवार, 5 अगस्त 2024

33. अपमान का घूँट

 गांधी और गांधीवाद

अयोग्य व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे अयोग्य व्यक्ति के विषय में निर्णय दे -- महात्मा गांधी

 

33. अपमान का घूँट

जून 1893

प्रवेश

स्थानीय लोगों की मदद से गांधीजी शाम की ट्रेन से प्रिटोरिया के लिए रवाना हुए। मेरित्सबर्ग में शाम को ट्रेन आयी। जगह तो तैयार थी ही, बिस्तर का टिकट जो गांधी जी ने डरबन में कटाने से मना कर दिया था, वह ग़लती इस बार नहीं दुहराई गई। गांधी जी आरक्षित बर्थ पर ट्रेन से यात्रा करते हुए चार्ल्सटाउन के लिए रवाना हुए। इस बार कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। अंतिम स्टेशन चार्ल्सटाउन था। वहां से स्टैंडरटन जाना था।

बग्घी की यात्रा में बेइज्जती

गाड़ी सुबह चार्ल्सटाउन पहुंची। रेलवे के इस अंतिम स्टेशन से जोहानिस्बर्ग पहुंचने के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। चार्ल्सटाउन से जोहानिस्बर्ग जाने के लिए आगे की यात्रा घोड़े की सिकरम (बग्घी) से करनी थी। बीच में एक रात स्टैण्डरटन में रुकना पड़ता था। गांधीजी की दिक़्क़तें समाप्त नहीं हुई थीं। गांधीजी के पास सिकरम का टिकट था। पर अजनबी समझ कर और परेशान करने के लिए गोरे एजेण्ट, जो डच था, ने पहले तो उन्हें बैठने की अनुमति ही नहीं दी। कहा, “आप एक दिन लेट आए हैं। आपका टिकट रद्द हो चुका है। हालाकि देर से पहुंचने के कारण वह टिकट रद्द नहीं होता था, फिर भी ‘कुली’ गांधी को कैसे वे अन्य यात्रियों के साथ बग्घी के अन्दर बैठने देते। गांधी जी द्वारा काफी आग्रह करने पर गोरों ने अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें साथ चलने की अनुमति तो दी पर बग्घी में नहीं, बल्कि कोचवान के साथ बाहर बक्से पर बैठने को कहा। वह जगह उस गोरे एजेण्ट के बैठने की थी। गोरा कंडक्टर, जिसे लीडर कहा जाता था, अंदर गोरे मुसाफिरों के साथ बैठा। यह जानते हुए कि यह निरा अन्याय है-अपमान है, गांधी जी अपमान का घूंट पीकर बाहर कोचवान के बगल में बैठ गए।

तीन बजे जब बग्घी पारडीकोप पहुंची तो कम्पनी का गोरा मुखिया (लीडर) जो अन्दर बैठा था बाहर आया। उसे सिगरेट पीने की तलब लगी थी। उसे वह बक्सा चाहिए था, जिस पर गांधीजी बैठे हुए थे। उसने एक मैला सा बोरा पैर रखने वाली पटरी (पायदान) पर रखवा दिया और गांधीजी से बोला, “सामी, तू यहां बैठ। मुझे कोचवान के पास बैठना है।

अब गांधी जी के सब्र का बांध टूट गया। अपमान के आवेग से उनका शरीर कांपने लगा। यह असहनीय था। उन्होंने इसका विरोध किया। बोले, “तुमने मुझे यहां बैठाया और मैंने वह अपमान सह लिया। तुम भी जानते हो कि मेरी जगह गाड़ी के अन्दर थी। पर तुम अन्दर बैठ गए। मुझे यहां बैठाया। अब तुम्हें सिगरेट पीनी है, इसलिए तुम मुझे पैरों के पास बैठाना चाहते हो। यह नहीं हो सकता। हां, मैं सिकरम के अंदर बैठने को तैयार हूं, पर तुम्हारे पैरों के पास नहीं बैठूंगा।

कोच के कण्डक्टर को यह हजम नहीं हो रहा था कि एक कुली उससे इस तरीक़े से बात कर सकता है। अभी गांधी जी बोल ही रहे थे कि कोच के कंडक्टर ने गांधीजी को गालियां दी और उनकी कनपट्टी पर मुक्के मारने शुरु कर दिए। तमाचों-घूसों की उनपर वर्षा कर दी। उन्हें खींच कर बाहर फेंकने लगा। गांधी जी ने पीतल के सींखचे को ज़ोर से पकड़ कर अपना बचाव किया। उन पर खुल्लम-खुल्ला हमला था यह। अन्दर बैठे यात्री सब देख रहे थे। वह गोरा गांधी जी को गालियां दे रहा था। दूसरे यात्रियों के विरोध करने पर उसने गांधी जी को पीटना बंद कर दिया। उन गोरे यात्रियों में से कुछ बोल उठे,अरे भाई, उस बेचारे को वहां बैठा रहने दो। उसे नाहक मारो मत। उसकी बात सच है। वहां नहीं तो उसे हमारे पास अन्दर बैठने दो। गोरे ने कहा, हरगिज नहीं। कोचवान के बगल में बैठे दूसरे नौकर को नीचे पायदान पर बिठाया गया। गांधी जी को वहीं बैठने दिया गया जहां वह पहले थे। गांधीजी ने मार खाना स्वीकार किया लेकिन जहां बैठे थे, वहां से हटे नहीं। इस प्रकार गांधीजी ने जीवन के लिए खतरा मोल लेकर नहीं कहना सीखा। आगे की यात्रा में गोरा घूर-घूर कर गांधी जी को देखता और धमकी देती रहा, “याद रख, स्टैण्डरटन पहुंचने दे, फिर तुझे मज़ा चखाऊंगा। मेरे हाथ से बचकर तू जाएगा कहां। गांधी जी भगवान से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करते रहे।

शिकायत पत्र लिखा

रात तक बग्घी स्टैण्डरटन पहुंच गई। वाल नदी के तट पर बसा यह छोटा शहर है। नीचे उतरते ही कुछ भारतीय को देख गांधीजी को साहस हुआ। उन्हें अब्दुल्ला सेठ का सन्देश मिला था कि गांधीजी पहुँचने वाले हैं वे गांधीजी को स्थानीय व्यापारी सेठ ईसा की दुकान पर ले गए। रात भर के लिए उन्होंने उन्हें अपना अतिथि बना कर रखा। स्टैंडरटन के भारतीय व्यापारियों ने जब गांधीजी की आपबीती सुनी तो बोले, जैसा आपके साथ हुआ है, वह तो ट्रांसवाल के भारतीयों के साथ रोज़ ही होता है। गांधीजी की आपबीती सुन वे भी दुखी हुए। गांधीजी अपमान, अन्याय और आघात सहने के आदी हो चुके थे। उन्होंने कोच कम्पनी के मालिक को सविस्तार शिकायत पत्र लिख कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की जानकारी दी। उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि मारने वाले गोरे पर मुकदमा चलाने का उनका कोई इरादा नहीं है। साथ ही यह आश्वासन भी मांगा कि सुबह उन्हें दूसरे यात्रियों के साथ अंदर बैठने की जगह दी जाए। गांधीजी को बताया गया कि स्टैण्डरटन से दूसरी सिकरम जाएगी। उसमें कोचवान आदि सब बदल जाएंगे। दूसरी सुबह गांधीजी को बिना किसी हिलो-हुज्जत के मुनासिब जगह मिली। बग्घी भी नई थी और कंडक्टर भी नया। बिना किसी और परेशानी के वे जोहानिस्बर्ग पहुंच गए।

उपसंहार

इस घटना का विवरण देते हुए गांधीजी के जीवनीकार बी.आर. नंदा कहते हैं, गोरे की उद्दंडता और पाशविक शक्ति के खिलाफ शांति भरे साहस और मानवी गरिमा का वह दुर्लभ दृश्य किसी भी महान कलाकार को अमरकृति की रचना के लिए प्रेरित करता रहेगा। इस यात्रा ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय प्रवासियों की वास्तविक स्थिति का ज्वलंत चित्र भी उनके सामने प्रस्तुत कर दिया। यहाँ के भारतीय व्यापारी इन अपमानों को व्यवसाय से मिलने वाले धन की तरह चुपचाप स्वीकार करना सीख चुके थे। इस तरह के दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं थी। हां, इनको लेकर गांधीजी पर जो प्रतिक्रिया हुई वह अवश्य नई बात थी। आज तक वह अपनी राय और अपने हकों पर कभी अडे नहीं थे। यह बात उनके स्वभाव में थी ही नहीं। अब अपने हक, मान-सम्मान के लिए उन्होंने नहीं कहना सीख लिया था।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

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