सोमवार, 5 अगस्त 2024

34. विनम्र हठीले गांधी

 गांधी और गांधीवाद

पराजय के क्षणों में ही नायकों का निर्माण होता है। अतः सफलता का सही अर्थ महान असफलताओं की श्रृंखला है। -- महात्मा गांधी

 

34. विनम्र हठीले गांधी

जून 1893

प्रवेश

जीवन के विभिन्न अनुभवों से गांधीजी ने ‘नहीं कहना सीखा। यह ‘नहीं कहीं अधिक गतिशील थी। यही उनकी निर्भीकता की ठोस बुनियाद बनी। इसी निर्भीकता पर उनके शेष सभी सद्गुण आधारित थे। डरबन से जोहानिस्बर्ग की यात्रा के कटु अनुभव के बाद गांधीजी ने अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के साथ होने वाले तमाम भेदभावों  का लेखा-जोखा बनाना शुरू कर दिया था ताकि उसे पूरी दुनिया के सामने ला सकें।

होटल में जगह नहीं

सिकरम से 3 जून, 1893 की रात तक गांधी जी जोहानिस्बर्ग पहुंच गए। अब्दुल्ला सेठ के परिचित मुहम्मद क़ासिम कमरुद्दीन का आदमी सिकरम के पड़ाव पर गांधी जी को लेने गया तो था, पर गांधीजी न उसे देख सके न वही गांधी जी को पहचान सका। उन्होंने होटल में ठहरने का मन बनाया। एक गाड़ी ठीक की और वे ग्रैण्ड नेशनल होटल पहुंचे। रात बिताने के लिए गांधीजी ने मैनेजर से होटल में कमरा लेना चाहा। मैनेजर ने उन्हें ग़ौर से देखा और टका सा जवाब दे दिया, ‘‘मुझे खेद है, सब कमरे भरे पड़े हैं, होटल में जगह नहीं है। गोरों ने तय कर लिया था कि उन्हें जगह नहीं देनी है, अतः जहां भी वे गए उन्हें जवाब मिला कि कोई भी कमरा खाली नहीं है।

देश गांधी जैसे लोगों के लिए नहीं

लाचार होकर गांधी जी मुहम्मद क़ासिम कमरुद्दीन की दुकान पर आ गए। वहां स्थानीय व्यापारी अब्दुलग़नी सेठ ने गांधी जी का स्वागत किया। रात को बातचीत के दौरान जब गांधी जी ने होटल वाला वाकया सुनाया तो अब्दुल ग़नी सेठ ने हंसते हुए बताया कि इस देश में कोई भी भारतीय किसी होटल में नहीं ठहर सकता। वहां सिर्फ़ वही रह सकते हैं जो गोरों के तरह-तरह के अपमान सह सकें। उन्होंने ट्रांसवाल में भारतीयों के ऊपर होने वाले कष्टों के बारे में बिस्तार से बताया। उन्होंने यह भी कहा कि यह देश गांधीजी जैसे लोगों के लिए नहीं है। दूसरे रोज़ गांधी जी को प्रिटोरिया जाना था। सेठ ने बताया कि उसमें गांधी जी को तीसरे दर्ज़े में ही यात्रा करनी होगी। उसने चेताया कि डच-शासित ट्रांसवाल में तो अंग्रेज़ों के नेटाल से भी अधिक ख़राब हालात हैं। यह सुनकर गांधी जी की टिप्पणी थी आप लोगों ने अपने जायज़ अधिकार के लिए पूरी कोशिश नहीं की होगी।

विनम्र तरीक़े से हठीले

गांधी जी अपने विनम्र तरीक़े से हठीले थे। प्रश्न सिद्धांतों का था। और जब प्रश्न सिद्धांतों का हो तो गांधी जी झुकने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने सेठ से कहा, “मैं तो फ़र्स्ट क्लास में ही जाऊंगा। और वैसे न जा सका तो प्रिटोरिया यहां से 37 मील ही तो है। मैं वहां घोड़ा गाड़ी करके चला जाऊँगा। उन्होंने स्टेशन मास्टर को पत्र लिखकर अपने इरादे के बारे में सूचित किया। अपने बैरिस्टर होने की बात लिखी और कहा कि वे हमेशा फ़र्स्ट क्लास में ही सफ़र करते हैं। इसलिए फ़र्स्ट क्लास में उनका स्थान आरक्षित कर दिया जाए। पत्र का जवाब पाने की प्रतीक्षा किए बगैर वे ओल्ड पार्क स्टेशन पहुंचे। उन्होंने पूरे अग्रेज़ी वेशभूषा धारण कर रखा था। स्टेशन मास्टर हालैंड का डच था, ट्रांसवाल का नहीं। उससे मिलकर उन्होंने उसे अपना मन्तव्य बताया तो वह बोल पड़ा, “क्या पत्र आपने ही भेजा था?” गांधी जी ने हामी भरी तो स्टेशन मास्टर ने कहा, “मैं हालैंड निवासी हूं, यहां का नहीं। आप सज्जन दिखते हैं। टिकट तो मैं बना देता हूं पर अगर रास्ते में गार्ड आपको उतार दे तो मुझे दोष मत दीजिएगा और उस झंझट में मुझे मत लपेटिएगा। उसने टिकट काट दिया। आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता अब्दुल ग़नी के चेहरे पर तैर रही थी। उसने गांधी जी को विदा किया। मन ही मन गांधी जी की प्रिटोरिया तक की सकुशल यात्रा की प्रार्थना वह ऊपर वाले से कर रहा था। गांधी जी पहले दर्ज़े में बैठे। गाड़ी चल पड़ी।

अन्याय के प्रति यूरोपियन का विरोध

शायद वह दिन शुभ रहा हो। क्योंकि उस छोटी (37 मील की) यात्रा में जब गाड़ी जर्मिस्टन पहुंची तो गार्ड टिकट जांचने आया। एक भारतीय को देख कर उसे गुस्सा आया। उसने गांधी जी को उंगली से इशारा करके बोला, “तीसरे दर्ज़े में जाओ।गांधी जी ने पहले दर्ज़े का टिकट दिखाया तो भी वह नहीं माना। फिर उन्हें डब्बे से धक्का मार कर बाहर किया जाने लगा। परन्तु उस साहसी व्यक्ति का साथ देने के लिए वहां एक समझदार यूरोपियन बैठा था। यह अन्याय उस गोरे व्यक्ति से देखा न गया और उसने विरोध किया, “तुम इस भले आदमी को नाहक क्यों परेशान कर रहे हो? इनके पास पहले दर्ज़े का टिकट है। इन्हें यहीं बैठने दो। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। उसने गांधी जी की तरफ़ मुड़कर कहा, “आप इत्मीनान से यहीं बैठिए।गार्ड ने भुनभुनाते हुए कहा, “तुम्हारी मर्ज़ी! तुझे कुली के साथ बैठना ही है तो बैठ, मेरा क्या जाता है?” इस प्रकार किसी तरह उन्हें पहले दर्जे में यात्रा करने दिया गया। रविवार 4 जून रात के क़रीब आठ बजे गाड़ी सकुशल प्रिटोरिया पहुंच गई।

उपसंहार

अब तक के 12 दिनों के दक्षिण अफ्रीकी प्रवास में उन्हें शारीरिक रूप से तो कई आघात सहने पड़े, लेकिन वह मानसिक और नैतिक रूप से अधिक से अधिक दृढ़ और मज़बूत होते गए। तरह-तरह के कटु अनुभव उन्हें रंगभेद के ख़िलाफ़ विद्रोह एवं विरोध की प्रेरणा देते रहे। इनकी आत्म संयम की शिक्षा चलती रही। निर्भीकता उनकी सबसे बड़ी विशेषता बन गई। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के शासकीय और रंगभेदी सामाजिक अन्याय के खिलाफ कमर कस ली। इसके बाद कभी उन्होंने अन्याय को स्वीकार नहीं किया।

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मनोज कुमार

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