बुधवार, 7 अगस्त 2024

36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण

 गांधी और गांधीवाद

मनुष्य तभी विजयी होगा जब वह जीवन-संघर्ष के बजाय परस्पर-सेवा हेतु संघर्ष करेगा। - महात्मा गांधी

जून 1893

36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण

आध्यात्मिक चर्चाओं के बीच गांधीजी ने जन कल्याण की अपनी भावी योजनाओं को अमली जामा पहनाने के क्रिया-कलापों को भी आकार देने की दिशा में पहला क़दम उठाया। भारतीय मूल के व्यापारी सेठ तैयब हाजी खान महम्मद की प्रिटोरिया के भारतीय समुदाय के लोगों में काफ़ी महत्वपूर्ण जगह थी। गांधीजी तैयब सेठ के पास गए। मुकदमा उसके ख़िलाफ़ ही चल रहा था। उन्होंने पहले हफ़्ते में ही उनसे जान-पहचान कर ली, यह एक विशिष्ट प्रयास था। गांधीजी ने उन्हें बताया कि वह प्रिटोरिया के हरेक भारतवासी के सम्पर्क में आना चाहते हैं। यह उनकी स्थिति के अध्ययन में सहायक होता। गांधीजी ने बताया कि वह सारे हिन्दुस्तानियों की एक सभा करके उनके सामने सारी स्थिति का चित्र खड़ा कर देना चाहते हैं। सेठ तैयब हाजी खान महम्मद ने सबसे पहला काम यह किया कि शहर के भारतीय लोगों के साथ एक सभा का आयोजन किया।

गोरों के हाथों अपमान सहते भारतीय

दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीय गोरों के बुलावे पर ही गए थे। ईख की खेती तथा खान में काम करने के लिए उन्होंने भारतीय सरकार से किसान और मज़दूर भेजने का अनुरोध किया था। 1860 में भारतीय लोगों को दक्षिण अफ़्रीका ले जाने की स्वीकृति दे दी गई। कुछ ही दिनों के बाद पता चला कि वहां भारतीयों की स्थिति संतोषजनक नहीं है। भारत सरकार ने 1869 में भारतीयों की भरती पर रोक लगा दी। इसका नतीजा यह हुआ कि नटाल की सरकार का आर्थिक विकास रुक गया। बाध्य होकर वहां की सरकार ने भारत की सरकार से फिर अनुरोध किया। उन्होंने आश्वासन दिया की पांच साल की करार की अवधि पूरा हो जाने पर जो भारतीय भारत वापस जाना चाहेगा उसे किराया दिया जाएगा, जो वहीं रहना चाहेगा उसे रहने के लिए जमीन दी जाएगी। प्रवासी भारतीय को बराबरी का दर्ज़ा दिया जाएगा। क़ानून और शासन की दृष्टि से कोई भेद-भाव नहीं बरता जाएगा। इस करार पर भारतीय लोग जाने लगे। व्यापारी, मुनीम, कारकुन (क्लर्क), मज़दूर और किसान नेटाल के रास्ते धीरे-धीरे पूरे दक्षिण अफ़्रीका में फैलते गए। गए हुए मज़दूर ‘गिरमिटिया’ कहे जाते थे। पांच साल बाद अधिकांश श्रमिक वहीं बस गए। धीरे-धीरे गोरे लोग अपना काम निकाल कर अब भारतीय व्यापारियों को निकाल बाहर करना चाहते थे। यूरोपीय बागान-मालिक और सौदागर इस बात को बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे कि भारतीय मजदूर इकरारनामे के पांच साल खत्म हो जाने के बाद, स्वतंत्र नागरिक होकर वहां बस जाएं। हालाकि नेटाल में बसने के अधिकार का उपयोग इकरारनामे की शर्तों के अनुसार ही था, फिर भी इस अधिकार का उपयोग करने वाले मजदूर के परिवार के प्रत्येक सदस्य पर तीन पौण्ड का कर लगा दिया गया। जिन गरीब लोगों को महीने में केवल दस से बारह शिलिंग के बीच मिलता था, उनके लिए इस कर को अदा करना भारी मुसीबत का कारण बना। व्यापारी वर्ग बिना लाइसेंस के व्यापार नहीं कर सकते थे। यूरोपियों को तो लाइसेंस बड़ी आसानी से मिल जाता था लेकिन भारतीयों को या तो मिलता ही नहीं था या बहुत कोशिश और खर्च के बाद। उन्हें रोज-रोज गोरों के हाथों जो अपमान सहने पड़ते थे। उन्हें राजमार्गों पर चलने की मनाही थी। पहले और दूसरे दर्जे के यात्रा टिकट उन्हें नहीं दिये जाते थे। गोरे यात्री के आपत्ति करने पर उन्हें बिना कहे-सुने रेलगाड़ी के डिब्बे से बाहर धकेल दिया जाता था। यूरोपीय होटलों में वे प्रवेश नहीं कर सकते थे। ऑरेन्ज फ़्री स्टेट से तो भारतीयों को निकाल ही दिया गया, अब ट्रांसवाल की बारी थी, फिर नेटाल का नम्बर आने वाला था। गांधीजी ने अब निर्णय लिया कि नैतिकता की रक्षा का समय आ गया है। गांधीजी ने अनुभव किया कि सबसे पहली आवश्यकता तो इस बात की है कि दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के हितों की रक्षा करने वाला एक स्थायी संगठन तुरन्त बनाया जाना चाहिए। गांधीजी भारतीयों की सहायता करना चाहते थे।

गांधीजी का भाषण

सेठ हाजी महम्मद हाजी जूसब के यहां यह सभा हुई। इस सभा में अधिकतर श्रोता मुसलमान या मेमन व्यापारी थे। बीच-बीच में एक-दो हिन्दू भी बैठे थे। इस सभा में गांधीजी का भाषण उनके जीवन का पहला सार्वजनिक भाषण था। कहां तो बंबई की अदालत में जिरह के समय उनके मुंह से बोल भी नहीं फूटा था और यहां प्रिटोरिया में आते ही सबसे पहला जो काम किया वह था वहां के भारतीय निवासियों को ट्रांसवाल में उनकी सही हालत बतलाने के लिए सभा करना। उस पर से ऐसे लोगों को संबोधित करने जा रहे थे, जिन्हें वे नहीं जानते थे, जो दूसरे धर्म के थे, जो न तो उनके नैतिक विश्वासों को साझा करते थे और न ही उनके धर्मांतरण के उत्साह को।

उन्होंने इसकी खूब तैयारी कर रखी थी। उन्होंने उनके क़ानूनों का अध्ययन कर रखा था। प्रवासी भारतीयों की सभा में, दब्बू स्वभाव वाले गांधी जी जिन्हें भाषण करने में हिचक होती थी, न सिर्फ़ आत्मविश्वास से बोले बल्कि जोरदार ढ़ंग से अपनी बात रखी। इस बार वह हकलाए नहीं, न लड़खड़ाए और न ही शर्म से बैठ गए। यह भी एक विशिष्ट बात थी कि स्वभाव से झेंपू और एकांत प्रिय गांधीजी ने भाषण की शुरुआत इस बात से की कि भारतीयों को स्वयं क्या करना चाहिए। भारतीयों से उन्होंने व्यापार में ईमानदारी बरतने को कहा। उन्होंने व्यापार में उच्च-स्तरीय निष्ठा पर बल दिया। गांधीजी ने इस मान्यता का विरोध किया कि व्यापार में सत्य नहीं चल सकता। व्यापारियों का मानना था कि व्यापार व्यवहार है और सत्य धर्म। व्यवहार एक चीज़ है और धर्म दूसरी। व्यवहार में शुद्ध सत्य नहीं चल सकता। गांधीजी उन्हें यह समझाने का प्रयास कर रहे थे कि व्यापार में सच्चाई अनिवार्य है। अगर सच्चाई से व्यापारियों ने ज़रा भी मुंह मोड़ा तो समूचे भारतीय समुदाय को नुकसान उठाना पड़ सकता है। गांधीजी के अनुसार भारतीय व्यापारियों को ईमानदारी बरतना विशेष जिम्मेदारी बनती है क्योंकि परदेश में आने से उनकी जिम्मेदारी देश की अपेक्षा अधिक हो गई है और उनका आचरण ही दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों की अच्छी या बुरी पहचान निर्धारित करेगा।

इसके अलावा उन्होंने साफ़-सफ़ाई और रहन-सहन के महत्व पर भी बल दिया। साथ ही उन्होंने क्षेत्रीय और जातीय भावनाओं से ऊपर उठकर एकजुट होकर रहने की सलाह दी। उन्हें सुझाया कि जब तक वे वर्ग, धर्म और प्रांत को भुला कर एक जुट न हो जाएंगे तब तक विपत्ति का अंत नहीं होगा। उन्होंने यह भी प्रस्ताव रखा कि एक मण्डल की स्थापना किया जाना चाहिए जिसके द्वारा भारतीयों के कष्टों और कठिनाइयों का इलाज अधिकारियों से मिलकर और प्रार्थना-पत्र भेज कर किया जा सके। उन्होंने इस काम में अपना पूरा निःशुल्क सहयोग देने का वचन दिया। उन्होंने यह भी कहा कि यहां की लड़ाई लड़ने के लिए थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी की जानकारी भी ज़रूरी है। उन्होंने अपनी तरफ़ से यह प्रस्ताव भी दिया कि यदि लोग चाहें तो वे लोगों को अंग्रेज़ी सिखाने के लिए तैयार हैं। एक क्लर्क, एक दुकानदार और एक नाई, सिर्फ़ तीन लोगों ने ही इस प्रस्ताव का लाभ उठाने की हामी भरी। गांधीजी ने इन लोगों के कार्य स्थल पर जाकर उन्हें अंग्रेज़ी सिखाने का कष्ट उठाया।

यह साबित करता है कि गांधीजी लोगों में जागरूकता लाने के लिए किसी हद तक कष्ट सहने को तैयार थे। हालाकि एक युवा द्वारा इस तरह के उपदेशात्मक आख्यान पर लोग हंसते ही पर जो प्रमुख बात थी वह यह कि उनकी सच्चरित्रता, भद्रता और नेकनीयती पर किसी को संदेह न था। यह एक आदर्श गांधी-भाषण था। अचानक ही वे एक नैतिकतावादी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। गांधीजी की बातों ने लोगों पर अच्छा प्रभाव उत्पन्न किया। प्रवासी भारतीयों में गांधीजी की साख बढ़ गई। मुसलमानों ने उसके लिए अपने दरवाजे खोल दिये और हर कोई उनके बारे में बात कर रहा था। इस सभा की सफलता से उत्साहित हो लोगों ने थोड़े-थोड़े अन्तराल पर मिलने का निश्चय किया। इस तरह से इस तरह की बैठक उस शहर के भारतीय समुदाय में एक आम बात हो गई। इससे आपसी मेल-मिलाप, विचारों का आदान-प्रदान तो होता ही था, साथ ही जनसाधारण के महत्व के विषयों पर चर्चा भी हो जाया करती थी। गांधीजी इन बैठकों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। इस तरह से प्रिटोरिया में रहने वाले अधिकांश लोगों से उनका परिचय होता गया।

भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए संस्था

भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए संस्था भी बना ली गई। यह व्यावहारिक नेतृत्व की दिशा में गांधीजी का पहला कदम था। रेल यात्राओं में किए गए दुर्व्यवहार की स्मृति अभी भी ताज़ी थी। गांधी जी ने संबंधित रेल अधिकारी के साथ संस्था की ओर से पत्र-व्यवहार किया और कहा कि भारतीयों के साथ ऐसा व्यवहार नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है। नियमों के अनुसार भारतीयों को ऊंचे दर्ज़े में यात्रा करने से रोका नहीं जा सकता। इसके परिणामस्वरूप गांधी जी को जवाब मिला कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी में भारतीयों को यात्रा करने की अनुमति दी जाएगी, बशर्ते कि वे उचित और अच्छी पोशाक धारण किए हों। यह शर्त ऐसी थी जिसका निर्णय रेल अधिकारी अपने मन माफ़िक कर सकता था।

समाज सेवा

यह एक साधारण सी शुरुआत थी। अपनी शांतिपूर्ण संघर्ष की इस पहली जीत से गांधी जी बड़े प्रसन्न हुए। जल्द ही वे इसे ‘समाज सेवा’ का नाम देने वाले थे। इसके पहले उन्होंने समाज सेवा नहीं की थी। अब वे करने जा रहे थे, जिसके एवज़ में कोई भी पारिश्रमिक उन्हें स्वीकार्य नहीं था।

उपसंहार

नियति उन्हें किस ओर ले जा रहा था, वे भी नहीं जानते थे। लेकिन इस बैठक में दिए गए भाषण में उनके जीवन भर की जन सेवा के अंकुर छिपे थे। इस भाषण में गोरों के नस्लवादी दंभ की निंदा करने के बजाय उन्होंने भारतीय प्रवासियों के कर्तव्यों, दायित्वों पर अपने विचार रखे। गांधीजी के सार्वजनिक जीवन की शुरुआत इसी सभा से हुई। इस भाषण के साथ ही गांधी जी का चिरपरिचित रूप सामने आता है, जो हमेशा सत्य पर जोर देते हैं। गांधीजी को लगा कि स्वाभिमान की रक्षा चाहने वाले भारतीयों के लिए दक्षिण अफ़्रीका उपयुक्त देश नहीं है। प्रवासी भारतीय मूक और निस्सहाय होकर कष्ट और अपमान सह रहे थे। वे निरक्षर थे। उनके पास नहीं के बराबर अधिकार था। जो भी थोड़ा-बहुत अधिकार उन्हें प्राप्त था उसके विषय में भी पूरी अनभिज्ञता थी। उन्होंने भारतीय समुदाय के लोगों को सिर्फ़ इतना ही तो कहा था कि उन्हें अनुशासित रहना था, स्वच्छ रहना था, सत्य के मार्ग पर चलना था, अपने घरों को साफ़-सुथरा रखना था, अंग्रेज़ी सीखनी थी, अपने आपसी भेद-भाव को ताक पर रख कर एक जुट रहना था। यह सब इसलिए करना था, ताकि वे आत्मसम्मान के साथ जी सकें। अपने आपको बंधनों से आज़ाद कर सकें। यह प्रवासी भारतीयों के सामान्य कल्याण की दिशा में एक प्रयास था। और इस प्रयास को भारतीय खुद कर रहे थे। यह गांधीजी का तरीक़ा था। इस तरह की घटनाओं से, उस व्यक्ति का जिसे कुली समझा जाता था, से एक टिपिकल गांधी का निर्माण हो रहा था, जो बाद में महात्मा कहलाने वाला था।

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मनोज कुमार

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