गांधी और गांधीवाद
स्वतंत्रता एक जन्म की भांति है। जब तक हम पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो जाते तब तक हम परतंत्र ही रहेंगे । -- महात्मा गांधी
31. प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास
प्रवेश
गांधीजी के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की
लड़ाई लड़ी गई। सत्याग्रह की लड़ाई का स्वरुप और रहस्य
समझने के लिए प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास समझना ज़रूरी है। नेटाल में ऐसे कदम उठाने के बारे में सोचा जा रहा था, जिनके परिणाम-स्वरुप केवल गिरमिटिया
मजदूर ही उपनिवेश में रह सकते थे और बाकी के हिन्दुस्तानियों
को निकाला जा सके। नेटाल में हिन्दुस्तानियों को जो कष्ट भोगने पड़ते थे, उनकी कोई कल्पना भी गांधीजी ने नहीं की थी। भारतीयों के प्रति गोरों का जो व्यवहार
था वह अशिष्ट और तीव्र अपमानों से भरा था।
‘गिरिमिटिया प्रथा’
नेटाल में
गन्ने, चारा और कॉफी का उत्पादन
होता था। यहाँ के गोरे वाशिंदों के पास चाय, कॉफी और गन्ने की बड़ी-बड़ी ज़मिंदारियां
थीं। बड़े पैमाने पर इन फसलों को
पैदा करने के लिए हजारों मजदूरों की ज़रूरत थी। खेतों पर काम करने के लिए मज़दूरों की भारी कमी थी। ग़ुलामी प्रथा का अंत हो जाने के कारण नीग्रों
लोगों को काम करने के लिए मज़बूर नहीं किया
जा सकता था। इसलिए नेटाल के यूरोपियन वाशिंदों ने उस समय की भारतीय सरकार, जो अँग्रेज़ थे, के साथ लिखा-पढ़ी की। भारत की सरकार ने भारतीय मज़दूरों को दक्षिण अफ्रीका
जाने और बसने की अनुमति दे दी।
गोरे ज़मींदारों के भर्ती एजेंट मद्रास और बंगाल के सबसे धनी और ग़रीब आबादी वाले
इलाकों में गए। वे वहां के लोगों
को नेटाल के सब्ज़ बाग दिखाने लगे। उन्हें वहां रहने का किराया, खाना और मकान मुफ़्त
मिलेगा ऐसा सब्ज़बाग भर्ती एजेंट ने दिखाया। उसके ऊपर पहले साल दस शिलिंग प्रतिमास तनख़्वाह और हर साल एक शिलिंग तरक्क़ी। पांच साल काम करने का
इकरारनामा और इकरार ख़त्म होने पर भारत
लौट आने का हक़ ... और अगर चाहें तो बसने की छूट। हज़ारों भारतीय इस दिलासे में आ गए और घर-बार छोड़कर दूर देश नेटाल के लिए चल पड़े। इस प्रथा को ‘गिरमिटिया प्रथा’ और
इसके अंतर्गत मज़दूरों को ‘गिरमिटिया’ कहा जाता था। गिरमिटिया मजदूरों को गोरे लोग ‘कुलीʼ के नाम से ही पुकारते थे। गोरे भारतीयों के प्रति अपना तिरस्कार प्रकट
करने के लिए ही ‘कुलीʼ शब्द का प्रयोग करते थे।
‘फ्री इन्डियनʼ
पहले गिरमिटिया मज़दूर डरबन पहुंचा, फिर उसके पीछे-पीछे वणिक
और व्यापारी भी वहां पहुंच गए, ज़्यादातर मेमन मुसलमान। गिरमिटया मजदूर पाँच वर्ष के
इकरार पर नेटाल जाते थे। पाँच वर्ष बीत जाने के बाद वहाँ
मजदूरी करने को वे बंधे नहीं थे। इकरार पूरा
होने के बाद स्वतंत्र मजदूरी या व्यापार करना हो, तो वैसा करने का और नेटाल में स्थायी
रूप से बसना हो तो वहाँ बसने का उन्हें अधिकार
था। इस तरह दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों का
तीसरा वर्ग था, जो इकरारनामे की अवधि समाप्त होने के बाद वहीं बस गए थे। जो भारतीय
नेटाल में ही रहे वे ‘फ्री इन्डियनʼ के नाम से पुकारे जाने
लगे। उन्हें गिरमिट-मुक्त या मुक्त हिन्दुस्तानी भी कहा जाता था। गिरमिटिया मजदूरों और गिरमिट-मुक्त मजदूरों का वर्ग मुख्यतः उत्तर प्रदेश और मद्रास राज्य से वहाँ आया था। गिरमिट-मुक्त मजदूर एक जगह से दूसरी जगह जाना चाहे तो इसके लिए
उन्हें परवाना लेने की ज़रूरत नहीं थी। फिरभी दूसरे कड़े अंकुश उन लोगों पर लगे
हुए थे। उस समय वहाँ पूर्ण स्वतंत्र
हिन्दुस्तानियों की संख्या 40 से 50 हजार के बीच और गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानियों की संख्या लगभग एक लाख थी। बसे हुए भारतीयों में से अधिकतर अशिक्षित थे, कुछ व्यापारी
वर्ग के लोग कामचलाऊ अंग्रेज़ी बोल लेते थे। गोरे लोग इनसे भेद-भाव करते थे। लोगों
ने गोरों के द्वारा किए जा रहे अत्याचार को अपना नियति मान लिया था। दक्षिण अफ़्रीका
में भारतीयों का पहला जत्था 1860 में पहुंचा था। 1860
के बाद भारतीय प्रवासियों का वहां के गोरे अधिवासियों के आग्रह और
निमंत्रण पर दक्षिण अफ़्रीका जाने का और वहां बसने का सिलसिला ही शुरू हो गया
था।
‘गिरमिटिया मज़दूरों’ की हालत अर्द्ध-ग़ुलामों जैसी
भारत
से ‘गिरमिटिया मज़दूरों’ का पहला जहाज 16 नवंबर, 1860
को
डरबन पहुंचा। 1890 तक वहां पर चालीस हज़ार
गिरमिटिया मज़दूर भारत से बुलाए जा चुके थे। अंग्रेजों ने
इन
मज़दूरों
की
सहायता
से
काफी
धन
कमाया,
लेकिन
फिर
भी
गोरे उन सबको अछूत समझकर अपमान भाव से देखते थे। अपमान के साथ उन्हें कुली या सामी
कहते थे। उनकी हालत अर्द्ध-ग़ुलामों जैसी थी। कोई भी गिरमिटिया नौकरी नहीं छोड सकता
था और न ही उसे कोई दूसरी नौकरी मिल सकती थी। पांच साल की अवधि पूरा हो जाने पर जो
भारतीय नया इकरारनामा नहीं करते उनके लिए तरह-तरह की मुसीबतें पैदा की जातीं। इन
सारी कठिनाइयों
और मुसीबतों के बावजूद अवधि पूरा हो जाने पर बहुत से भारतीय मज़दूर दक्षिण अफ़्रीका
में ही बस गए। क्योंकि भारत से उनके सारे रिश्ते ख़त्म हो चुके थे। वे ज़मीन का
छोटा-सा टुकड़ा ख़रीद लेते। उस पर साग-सब्ज़ी पैदा करते। किसी तरह गुज़र-बसर हो जाती।
वहीं अपने बाल-बच्चों को पढ़ाने भी लगे। गोरे उनसे देसी काले से भी अधिक
नफ़रत करते थे। भारतीय मेहनती और मितव्ययी होते थे। खेती हो या
व्यापार, गोरे उनकी प्रतियोगिता को अपने लिए भारी खतरा समझते थे। लियोनेल
कर्टिस के अनुसार, ‘गोरे उनके गुणों से डरते थे’। गोरे व्यापारी आंदोलन
करने लगे कि जो भी भारतीय मज़दूर अवधि पूरी हो जाने पर गिरमिट का नया इकरारनामा न
करें, उन सभी को भारत भेज देना चाहिए। समय के साथ नेटाल के हिन्दुस्तानी मजदूरों की स्थिति लगभग गुलामी की हद तक
पहुँच गई थी। मतलब साफ था कि
नेटाल में भारतीय ग़ुलाम बन कर ही रह सकता था। आज़ाद भारतवासी के लिए वहां कोई जगह
नहीं थी।
गिरमिट से मुक्त भारतीय मज़दूर पर वार्षिक
कर
नेटाल के
गोरे
मालिकों
को
सिर्फ
गुलामों
की
ज़रूरत
थी।
इकरार
की
अवधी
समाप्त
होने
के
बाद
बहुत
से
गिरमिटिया
मज़दूर
नेटाल
में
कोई
न
कोई
छोटा-मोटा
धंधा
करने
लगे।
उनका
दाम
कम
होता
था, इससे
स्थानीय
लोगों
को
तो
लाभ
ही
हुआ
लेकिन
यह
बात
गोरों
को
नहीं
भाती
थी।
उनके
एकाधिकार
वाले
क्षेत्र
में भारतीयों
का
घुसपैठ
हो
रहा
था।
उन
पर
अनेक
तरह
के
प्रतिबन्ध
लगाने
शुरू
हो
गए।
नेटाल
की
सरकार
गोरे
धनी
वर्ग
की
हिमायती
थी। 1893 में रंगभेद नीति के तहत नेटाल के गोरे वाशिंदों का एक प्रतिनिधि मंडल
भारत सरकार के सामने एक प्रस्ताव लेकर पहुंचा। प्रस्ताव यह था कि या तो सभी
भारतीयों के लिए गिरमिट प्रथा लाजिमी कर दी जाए या सभी को वहां से भारत बुला लिया
जाए। और नहीं तो प्रति व्यक्ति पच्चीस पौंड (375 रु.) का वर्षिक कर लगाने
की अनुमति दी जाए। बिना सोचे-समझे भारतीय सरकार ने गिरमिट से मुक्त भारतीय मज़दूर
के परिवार के हरेक सदस्य पर वार्षिक तीन पौंड का कर लगाने की मंजूरी दे दी। 3 पौंड
का
कर
उसकी
6 मास
की
कमाई
के
बराबर
होता
था!
यह तो सरासर अन्याय था। चार
सदस्य
के
एक
परिवार वाले मजदूर को 12 पौंड का वार्षिक
कर भरना था। जिस इकरारनामे पर भारतीय मज़दूर दक्षिण अफ़्रीका जाता था उसी के तहत उसे दक्षिण अफ़्रीका में रहने का अधिकार था। वह अपने उसी अधिकार का उपयोग कर रहा था। फिर कैसा कर? फिर दस से बारह शिलिंग मासिक आय वाले मज़दूरों
के लिए तो यह कमर-तोड़ बोझ थी।
भारतीयों को मताधिकार से वंचित करने वाला
विधेयक
जो व्यवहार गिरमिटिया मजदूरों के साथ किया गया वही हाल
व्यापारियों के साथ भी किया गया। भारतीय व्यापारी, मज़दूरों के पीछे-पीछे दक्षिण अफ़्रीका पहुंच गया था। भारतीय
व्यापारी नेटाल में जम गए। वहां भारतीय मज़दूरों और नीग्रों के बीच उनका व्यापार
फलने-फूलने लगा। नीग्रों उनसे इसलिए ख़ुश थे कि वे गोरों की तुलना में अधिक विनम्र
और कम मुनाफ़ा कमाने वाले थे।
लेकिन भारतीय व्यापारियों की यह उन्नति गोरों की आंख में चुभने लगी। भारतीय व्यापारियों
ने अपने नाम मतदाता सूची में दर्ज कराए। इस स्थिति को नेटाल के गोरे बर्दाश्त नहीं
कर सके; क्योंकि
उन्हें यह चिंता होने लगी कि यदि इस प्रकार भारतीयों
की स्थिति नेटाल में मजबूत हो
जाय और उनकी प्रतिष्ठा बढ़े, तो
उनकी स्पर्धा में गोरे
यहाँ टिक नहीं सकेंगे। 1894 में भारतीयों को मताधिकार से वंचित करने वाला विधेयक
भारतीय व्यापारियों की कमर-तोड़ने के लिए ही पेश किया गया था। नेटाल में केवल वही
वोट दे सकता था जिसके पास कम-से-कम पच्चास पौंड की स्थायी संपत्ति हो। या जो दस
पौंड वार्षिक किराया देता हो। इस शर्त के अनुसार वहां दस हज़ार गोरे मतदाताओं के
मुक़ाबले सिर्फ़ ढ़ाई सौ भारतीयों को ही मत देने का अधिकार था। लेकिन इतने कम मतदाता
भी गोरे की आंख की किरकिरी बने हुए थे। गोरे बिल्कुल ही नहीं चाहते थे कि कोई काला
वहां की सम्पत्ति और शासन में हिस्सा बंटाए। गोरे यहां तक कह रहे थे कि इस विधेयक
का मकसद भारतीयों को ग़ुलाम के दर्ज़े तक पहुंचा देना है। उस समय पूर्ण स्वतंत्र भारतीयों
की संख्या 40 से 50 हजार के बीच और गिरमिट-मुक्त भारतीयों की संख्या लगभग एक लाख थी।
दो और कानून
नेटाल के
गोरों
को
इतने
से भी संतोष नहीं हुआ। दो और कानून लाए गए, एक
से भारतीयों के व्यापार पर कडा अंकुश
लगा
और
दूसरे
से
भारतीयों
के
नेटाल
में
प्रवेश
पर।
किसी
ख़ास
नियुक्त
अधिकारी
की
इजाजत
के
बिना
व्यापार
करने
के
लिए
परवाना
नहीं
मिलेगा।
और
यह
इजाजत
बड़ी
मुश्किल
से
मिलती
थी।
दूसरी
कानून
की
शर्तों
में
से
एक
शर्त
थी
कि
जो
व्यक्ति
नेटाल
में
प्रवेश
करना
चाहता
था, उसे
यूरोप
की
किसी एक भाषा में अर्जी देनी होगी। अब
अगर वर्षों से नेटाल में रह रहा कोई
भारतीय भारत जाता और वहाँ से लौटता तो उसे यूरोप की भाषा जाने बिना नेटाल में घुसने नहीं दिया जाता।
ट्रांसवाल में भारतीयों की हालत
ट्रांसवाल में भारतीयों की हालत नेटाल से भी बुरी थी।
ट्रांसवाल में भारतीय सबसे पहले 1881 में आए थे। सबसे पहले सेठ अबू बकर ने राजधानी प्रिटोरिया में एक दूकान खोली। उसके
बाद दूसरे व्यापारी भी वहाँ पहुंचे। उनके
व्यापार बढ़ने से गोर व्यापारियों को उनसे इर्ष्या होने लगी। 1885 में एक कानून पास
हुआ। इस कानून के पास होते ही भारतीयों को
तीन पाउंड का व्यक्ति कर (पोल टैक्स) देना पड़ता था। घेटो समान एक खास इलाके को
छोड़कर वे कहीं भी ज़मीन ख़रीद नहीं सकते थे। उनको मत देने का अधिकार नहीं था। उनको
मुख्य मार्ग पर चलने की इज़ाज़त नहीं थी। उन्हें एक विषेष आज्ञापत्र के बिना नौ बजे
रात के बाद बाहर निकलने की इज़ाज़त नहीं थी। इस आज्ञापत्र को हमेशा साथ रखना पड़ता
था। गांधीजी को स्टेट एटर्नी से एक पत्र प्राप्त हुआ था जिसके अनुसार वे कहीं भी
किसी समय जा सकते थे। एक रोज़ गांधीजी रोज़ाना की तरह शाम को टहलने के लिए निकले थे
कि राष्ट्रपति क्रूगर के आवास के बाहर खड़े संतरी ने एकाएक, बिना किसी चेतावनी के
उनको फुटपाथ से धक्का दिया और सड़क पर उन्हें लात मारे। संयोग से उधर से एक अंग्रेज़
क्वैकर कोट्स जा रहा था। वह गांधीजी को जानता था। उसने गांधीजी को उस आदमी के
ख़िलाफ़
मुकदमा
दायर
करने
की
सलाह
दी
और
यह
भी
कहा
कि
वह
गवाह
बनेगा।
गांधीजी
ने
इस
प्रस्ताव
को
मानने
से
इंकार
कर
दिया।
बोले,
“मैंने
किसी
निजी
शिकायत
को
लेकर
अदालत
में
न
जाने
का
सिद्धांत
अपना
रखा
है।”
कमोबेश यही स्थिति फ्री स्टेट में भी थी।
उपसंहार
नेटाल के गोरे मालिकों को सिर्फ गुलामों की ज़रूरत थी। ऐसे मजदूर उन्हें पसंद नहीं थे, जो गिरमिट की अवधि पूरी करने के बाद स्वतंत्र हो सके और
कुछ अंश में ही सही, उनके साथ स्पर्धा कर सके। इन गरीब गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानियों के विरुद्ध एक आन्दोलन नेटाल में शुरू हो गया। यही था हिन्दुस्तानियों की होशियारी और जी-तोड़ मेहनत का बदला। ये हिन्दुस्तानी मजदूर नेटाल में ‘एग्रीमेंटʼ पर गये मजदूरों के नाम से पहचाने जाते
थे। शायद ये अनपढ़ मज़दूर ‘एग्रीमेंट’ को ‘गिरमिट’ कहते रहे होंगे। उसके आधार पर गए मज़दूर समय के साथ ‘गिरमिटियाʼ कहलाने लगे होंगे। लेकिन अब स्थिति में थोड़ा परिवर्तन आ
चुका था। जो जहाज इन मजदूरों को हिन्दुस्तान से
नेटाल ले गया, वही जहाज मजदूरों के साथ सत्याग्रह के महान
वृक्ष का बीज भी नेटाल
ले गया था। मोहनदास करमचंद गांधी नाम का एक भारतीय
बैरिस्टर दक्षिण अफ्रीका में मौजूद था। वह गोरों के अत्याचारी कानून के
विरुद्ध सत्याग्रह करने वाला था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद,
29. दक्षिण
अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम
विज़िटर – सम्मान पगड़ी का
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