गुरुवार, 8 अगस्त 2024

37. दुर्भावना रहित मन

 गांधी और गांधीवाद

मनुष्य तभी विजयी होगा जब वह जीवन-संघर्ष के बजाय परस्पर-सेवा हेतु संघर्ष करेगा। - महात्मा गांधी

जुलाई 1893

37. दुर्भावना रहित मन

प्रवेश

बोअर सरकार ने बहुत-से भारतीयों को औरेंज फ्री-स्टेट से बाहर कर दिया था। सारे दक्षिण अफ्रीका में किसी स्वाभिमानी भारतीय के लिए सर ऊँचा करके खडे रहने की भी जगह नहीं थी। गांधीजी ज्यादातर समय इसी सोच-विचार में रहते थे कि हालत को कैसे सुधारा जा सकता है।

समस्याओं के प्रति बेहतर समझ

प्रवासी भारतीयों की समस्या के निदान के लिए कुछ दिनों के बाद गांधी जी ने वहां के ब्रिटिश एजेण्ट मि. जेकोब्स डि-बेट से भी सम्पर्क साधा। उसे भारतीयों की कठिनाइयों के बारे में बतलाया। उसने बडी सहानुभूति से गांधीजी की बात सुनी। हालाकि उसे स्थानीय भारतीय समुदाय की समस्याओं के प्रति काफ़ी सहानुभूति थी, पर उन्हें दूर करना उसके बस के बाहर था। कुछ कर सकने में उसने अपनी असमर्थता प्रकट की। क्योंकि ट्रांसवाल बोअर राज्य होने के कारण ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत नहीं था। पर उस अधिकारी से सम्पर्क का गांधी जी को यह फ़ायदा हुआ कि भारतीय समस्याओं से सम्बधित कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ पढ़ने का मौक़ा उन्हें मिला जिससे इन समस्याओं के प्रति उनकी समझ बेहतर हुई। उन्होंने वहां की रंगभेद नीति का गहराई से अध्ययन किया। हालाकि वहां गोरों की संख्या कम थी, फिर भी वे शासक बने हुए थे। जो गोरे नहीं थे वे उन सबसे घृणा करते थे।

भारतीयों के अधिकार छीन लिए गए

गांधी जी को यह पता चला कि ऑरेन्ज फ़्री स्टेट से भारतीयों को किस निर्दयता के साथ निकाल बाहर किया गया था। शायद गांधी जी ने तब यह कल्पना भी नहीं की होगी कि इस अध्ययन का आगे चलकर उनके द्वारा पूरा उपयोग होने वाला है। वे तो अब भी यही जानते थे कि एक साल के बाद या मुकदमा समाप्त हो जाने के बाद स्वदेश लौट जाएंगे। पर विधाता ने कुछ और ही सोच रखा था। ऑरेन्ज फ़्री स्टेट में एक क़ानून बनाकर 1888 में भारतीयों के सारे अधिकार छीन लिए गए थे। वे सिर्फ़ होटल के वेटर के रूप में काम कर सकते थे या फिर कोई दूसरी मज़दूरी वाला काम। व्यापारियों को नाम-मात्र का मुआवजा देकर निकाल दिया गया था। उन्हें मताधिकार भी नहीं था। ट्रांसवाल में प्रवेश के लिए उन्हें तीन पाउंड का प्रवेश-कर देना पड़ता था।

रात में बाहर नहीं निकल सकते

इसके अलावा एक ऐसा क़ानून भी था जो सिर्फ़ काले रंग के लोगों पर लागू होता था। इस नियम के तहत रात में नौ बजे के बाद वे बाहर नहीं निकल सकते थे। यदि निकलना पड़ता तो उसके लिए विशेष अनुमति-पत्र ज़रूरी था। वे सार्वजनिक फुटपाथ से नहीं चल सकते थे। उन्हें पशुओं के साथ गलियों में ही चलना पड़ता था। अगर कोई भारतीय फ़ुटपाथ पर चलता हुआ पकड़ा गया तो उसकी ख़ूब पिटाई होती थी। पर यह रोक सिर्फ़ भारतीय लोगों पर लागू होता था। अरब के निवासियों को पुलिस नहीं रोकती थी। इस तरह की राहत देना पुलिस की मर्ज़ी पर रहता था।

पुलिस के हाथों दुर्व्यवहार

एक बार तो गांधी जी को राष्ट्रपति क्रूगर के घर के नज़दीक फुटपाथ पर चलने के लिए पुलिस के हाथों दुर्व्यवहार भी झेलना पड़ा। गांधी जी को पैदल घूमने का शौक था। वे अकसर माइकल कोट्स के साथ देर शाम को फुटपाथ पर टहला करते थे, और उन्हें कभी भी रोका-टोका नहीं गया। पर गांधी जी के मन में इस बात की चिंता बनी रहती थी कि उनके साथ जा रहे उनके किसी भारतीय मित्र को पुलिस अरेस्ट न कर ले। गांधी जी पब्लिक प्रोजिक्यूटर डॉ. क्राउज से मिले, उसे अपनी कठिनाई बताई। उसने उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक घूमने का पत्र दे दिया। गांधी जी हमेशा उस पत्र को साथ रख कर घूमने निकला करते थे।

राष्ट्रपति मार्ग (प्रेसिडेण्ट स्ट्रीट) से शाम को टहलना उन्हें बेहद ताज़गी प्रदान करता था। इस पर टहलते हुए वे राष्ट्रपति क्रूगर के आवास के पास से गुजरा करते थे। अन्य बंगलों की तुलना में यह बड़ा ही साधारण और आडंबरों से रहित आवास था। राष्ट्रपति की सादगी बहुत प्रसिद्ध थी। हां, कुछ संतरी अवश्य उस घर की सुरक्षा के लिए तैनात रहते थे। उस घर के सामने के संतरी समय-समय पर बदल जाया करते थे। हर रोज़ की तरह एक बार वे उसी फुटपाथ से घर लौट रहे थे कि एक सुरक्षा गार्ड, जो उस समय ड्यूटी पर था, बिना किसी चेतावनी या फुटपाथ छोड़ देने के निर्देश के, उन्हें धक्का मार कर नीचे गिरा दिया और ज़ोर से पैर की एक ठोकर भी मारी। गांधी जी अवाक रह गए।

संयोगवश माइकल कोट्स उसी समय घोड़े पर सवारी करता हुआ उधर से जा रहा था। उसने अपनी आंखों से यह दुष्कांड देखा। वह चिल्लाया, मि. गांधी! मैंने सब देखा है। अगर आप इस व्यक्ति के ख़िलाफ़ अदालती कार्रवाई करें, तो आपकी गवाही मैं दूंगा। मुझे खेद है कि आपके साथ इस तरह का व्यवहार हुआ है।

गांधी जी ने संयत स्वरों में कहा, आप नाहक दुखी मत होइए। इसमें इस ग़रीब का क्या दोष? सिपाही बेचारा क्या जाने? सभी काले इसके लिए एक ही समान हैं। यह तो सबके साथ वही करता है जो इसने मेरे साथ किया। मैंने तो यह नियम बना लिया है कि अपने प्रति व्यक्तिगत अन्याय या दुर्व्यवहार की शिकायत लेकर अदालत नहीं जाऊंगा। इसलिए इस व्यक्ति के ख़िलाफ़ भी मैं कोई अदालती कार्रवाई नहीं करूंगा। मैं इसे क्षमा करता हूं।

क्षमा और सद्भाव की मूर्ति गांधी जी को श्रद्धा भाव से देखते हुए माइकल कोट्स ने कहा, बिल्कुल अपने स्वभाव के अनुरूप ही आपने यह बात कही है! पर क्या आप सोचते हैं कि इस तरह की घटना दुबारा नहीं होगी। आप फिर सोचिए। हमें इस तरह के लोगों को सबक देना ही चाहिए।

परन्तु कोट्स का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था। उसने डच में उस संतरी को डांटना शुरु कर दिया। हालाकि यह भाषा गांधी जी के समझ से परे थी पर थोड़ी ही देर में उन्होंने पाया कि वह संतरी गांधी जी से माफ़ी मांगने लगा। लेकिन गांधी जी के लिए यह क्षमायाचना निरर्थक थी, क्योंकि उनके मन में इस व्यक्ति के खिलाफ़ कोई दुर्भावना थी ही नहीं। वे तो उसे पहले ही माफ़ कर चुके थे।

उपसंहार

इस घटना ने प्रवासी भारतीयों के प्रति गांधीजी की भावना को अधिक तीव्र बना दिया। इस तरह की घटनाओं से उन्हें रोज़ कुछ-न-कुछ ने अनुभव प्राप्त हो रहे थे। उन्हें हिन्दुस्तानियों की दुर्दशा का ज्ञान पढ़कर, सुनकर और अनुभव करके प्राप्त हो रहे थे। भारतीयों की स्थिति किस तरह बदली जा सकती है, इसके लिए उनके मन में विचार उठने लगा। लेकिन अभी उनका मुख्य धर्म तो दादा अब्दुल्ला के मुक़दमे को संभालने का था।  गांधीजी को लगा कि दादा अब्दुल्ला के मुकदमे का ध्यान रखना और दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों के दुःख दूर करने का प्रयत्न करना, ये दोनों काम एकसाथ नहीं हो सकते। दोनों काम साथ-साथ करने का मतलब था दोनों को बिगाड़ना। अगले बारह महीने गांधीजी उस दीवानी मुकदमे में व्यस्त रहे, जिसके लिए वे प्रिटोरिया आए थे।

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मनोज कुमार

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