गांधी और गांधीवाद
हमारा जीवन सत्य का एक लंबा अनुसंधान है और इसकी पूर्णता के लिए आत्मा की शांति आवश्यक है। - महात्मा गांधी
45. धर्म संबंधी धारणाएं
प्रवेश
आत्म-दर्शन की अभिलाषा में गांधीजी हिन्दुस्तानी समाज की सेवा में रत
हो गए। ईश्वर की पहचान सेवा से ही होगी, यह मानकर उन्होंने सेवा-धर्म स्वीकार किया था। दक्षिण अफ़्रीका में कदम रखने के साथ ही विभिन्न
धार्मिक विचारधाराओं से गांधीजी रू-ब-रू हुए। जिन विदेशियों से गांधीजी की वहां
मित्रता हुई, वे प्यूरिटन धर्म-सुधारक
थे। वे गांधीजी को ईसाई धर्म की दीक्षा देने पर आमादा हो गए। लेकिन अपने धर्म का
गहन अध्ययन किए बिना उसे छोड़ कर किसी दूसरे धर्म में दीक्षित होना उन्हें रास नहीं
आया। निरंतर सत्य की खोज में रत गांधीजी को अंतःकरण की आवाज़ सुनाई देती रहती थी।
आत्मानुभूति, प्रभु-दर्शन, सत्य की खोज को उन्होंने अपना अंतिम लक्ष्य बनाया।
राजनीति को वे अपनी अध्यात्म-साधना और सत्य के परीक्षण का एक अंग मानते थे।
क्रिश्चियन
मित्रों से मिलकर धर्म की जिज्ञासा दूर की
इस अवधि के दौरान, गांधीजी ने प्रिटोरिया में एक प्रमुख वकील द्वारा आयोजित बाइबिल कक्षाओं में
भाग लिया और ईसाई लोगों के चरित्र का अध्ययन किया, जिसकी दूरदर्शिता पर उन्हें शायद ही संदेह था। पर्याप्त समय
होने के कारण उन्होंने इस वर्ष में बहुत अधिक मात्रा में “लगभग अस्सी” पुस्तकें पढ़ीं; उनमें से, बुल्टर की
एनालॉजी,
टॉल्स्टॉय की रचना, जैन दार्शनिक द्वारा रचित द सिक्स सिस्टम्स, तथा डॉ. पार्कर की अनेक टिप्पणियां शामिल थीं। अपने
क्रिश्चियन मित्रों से मिलकर उनके धर्म के ज्ञान की उनकी जिज्ञासा भी मिटती जा रही
थी। स्पेंसर वाल्टन से डरबन में मुलाक़ात सार्थक सिद्ध हुआ। वह दक्षिण अफ्रीका के मिशन
के मुखिया थे। वाल्टन दम्पत्ति बड़े ही सज्जन व्यक्ति थे। उनकी सदाशयता, सहिष्णुता और व्यवहार कुशलता के कारण गांधीजी उनके
परिवार के सदस्य की तरह हो गए। गांधीजी ने महसूस किया कि वे ऐसा कोई प्रयत्न नहीं
कर रहे थे जिससे यह प्रतीत होता कि वे गांधीजी को उनके धर्म में शामिल करने के
इच्छुक हों। जब भी धर्म विषय पर चर्चा होती दोनों के दृष्टिकोण में मतभेद हुआ करते
थे। पर इससे उनकी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा। गांधीजी कहते हैं, जहां उदारता, सहिष्णुता और सत्य होता है, वहां मतभेद भी लाभदायक सिद्ध होते हैं।
डरबन में एक और क्रिश्चियन परिवार के सम्पर्क में गांधीजी आए। ये थे एक स्थानीय वकील, ओ.जे. ऐस्क्यू। यदा कदा ऐस्क्यू के साथ वे रात्रि भोज
पर मिला करते थे। उनका पुत्र गांधीजी के साथ रहते-रहते शाकाहारी व्यंजन में रुचि
दिखाने लगा। जबकि श्रीमती ऐस्क्यू हालाकि बहुत ही खुशमिजाज महिला थीं पर थोड़ा सा असहिष्णु
भी। एक बार दोनों में बहस हो गई तब से गांधीजी ने ऐस्क्यू के यहां जाना बन्द कर
दिया पर इससे उनकी मि. ऐस्क्यू के साथ दोस्ती में फ़र्क़ नहीं पड़ा।
विभिन्न
धर्मों का अध्ययन
उन वर्षों में गांधीजी में अक्षय ऊर्जा दिखाई देती थी। वकीली पेशा और सार्वजनिक
काम की व्यस्तता के बावज़ूद भी गांधीजी का धार्मिक समस्याओं को सुलझाने की दृष्टि
से विभिन्न धर्मों का अध्ययन ज़ारी रहता था। उन्होंने, इस बीच मैक्स मूलर की पुस्तक ’‘India – What Can It Teach Us’ ('हिन्दुस्तान क्या सिखाता हैं?') पढी। उन्होंने ‘उपनिषदों’ के अंग्रेज़ी अनुवाद भी पढ़े।
नर्मदाशंकर के ‘धर्मविचार’ का भी उन्होंने गहरी रुचि के साथ अध्ययन किया। इन
पुस्तकों के अध्ययन से अन्य धर्मों के प्रति बिना किसी पक्षपात के उनका हिन्दू
धर्म के प्रति सम्मान और भी बढ़ा। बल्कि वे अन्य धर्मों के बारे में भी अधिक से
अधिक जानना चाहते थे। इस्लाम धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने के ध्येय से
उन्होंने प्रोफेट मोहम्मद के ऊपर वाशिंगटन ईरविंग कृत मुहम्मद का चरित्र और
कार्लाइल की मुहम्मद स्तुति पढ़ी। इससे उनका पैगम्बर मुहम्मद के प्रति सम्मान बढ़ा।
ज़ुरुस्त के अध्ययन हेतु 'ज़रथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी उन्होंने पढ़ी। इससे उन्हें खुद को समझने में बहुत मदद
मिली।
सभी
धर्म विश्व धर्म के ही विभिन्न रूप
गांधीजी चाहते थे कि धर्म-शास्त्रों की मान-मर्यादा
को बरकरार रखने के लिए आधुनिक इंसान की तर्क बुद्धि और नीति निष्ठा को सन्तोषजनक
ढ़ंग से परिभाषित किया जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने भगवत् गीता, सरमन ऑफ द माउंट और बुद्ध के उपदेशों का एकीकरण किया।
इन सब के लिए गांधीजी को एडवर्ड मेटलैण्ड के विचारों ने काफ़ी सहायता पहुंचाई। अन्ना किंग्सफोर्ड की पुस्तक ‘आदर्श
मार्ग’ (दि परफ़ैक्ट वे) तथा लियो टॉलस्टॉय लिखित ‘परमात्मा आपके हृदय में है’ (दि किंग्डम
ऑफ गॉड विदिन यू) किताबों के अध्ययन से उन्हें कई सवालों के जवाब मिल गए। मेटलैंड इंग्लैण्ड
स्थित ईसाई यूनियन (ईजोटेरिक क्रिश्चियन यूनियन) के संस्थापक थे। ब्लैवटस्की की
किताबों के ज़रिए हिन्दू दर्शन की कई महत्वपूर्ण बातों से वे परिचित थे। टॉल्सटॉय
की पुस्तकों का अध्ययन उन्होंने बढ़ा दिया। उनकी 'गॉस्पेल्स इन ब्रीफ' ( नये करार का सार), 'व्हॉट टु डू' (तब क्या करें? ) आदि पुस्तकों ने उनके मन में गहरी छाप डाली। विश्व
प्रेम मनुष्य को कहां तक ले जा सकता है, इसे वह अधिक समझने लगे। जब वे अपने रचनात्मक अध्ययन में “पर्वतीय उपदेश” (“Sermon
on the Mount”) तक पहुंचे,
तो उन्हें धर्मशास्त्रों के
पूर्ण आकर्षण का एहसास होने लगा। उन्होंने कहा, "निश्चय ही,
भगवद् गीता में वर्णित हिंदू
धर्म और ईसा के इस रहस्योद्घाटन के बीच कोई अंतर नहीं है; दोनों का स्रोत एक ही होना चाहिए।" ईसाई धर्म की प्यूरिटन
जीवन-दृष्टि का भारतीय अध्यात्मवाद की संकल्पनाओं के साथ उन्होंने ताल-मेल बैठाया।
इसके अनुसार .. इंसानों की भलाई के लिए परमात्मा का दिया सन्देश ही धर्म
है। प्रत्येक इन्सान के हृदय में ईश्वरीय ‘चित्-तत्व’ की चिनगारी मौज़ूद होती है।
क्षणिक भौतिक सुख इन्सान को तृप्त नहीं कर सकते। जो सीमित और शान्त है वह जड़ के बंधनों
से मुक्त होने के लिए अनायास छटपटाता है। अपने भीतर मौज़ूद ईश्वरीय तत्व का अहसास
होना, संसार की परमात्मा से
मानवी आत्मा का तदाकार होना ही मुक्ति है। गांधीजी को मेटलैंड ने
काफ़ी प्रभावित किया। सभी धर्म विश्व धर्म के ही विभिन्न रूप हैं। इसलिए
धर्म-परिवर्तन को उन्होंने अनुचित बतलाया। धर्म त्याग किये बिना अन्य धर्मों के
उत्तमोत्तम तत्त्वों के आधार पर उन्हें विकसित करने की प्रेरणा गांधीजी के मन में
उत्पन्न हुई। दूसरी तरफ़ टॉलस्टॉय का मानना था हर आदमी को मन-ही-मन
ईश्वरीय सत्य का एहसास होता है। इसलिए अपने विवेक से ईमान रखना ही असली धर्म है।
धर्मग्रंथों की सूक्ति केवल वाह्यांग हैं। इनकी अपेक्षा भीतर की नैतिक प्रेरणा को
अधिक महत्त्व देना चाहिए। नीति ही धर्म की आत्मा होती है। इसीलिए धर्मशास्त्रों की
सीख और धर्म-पीठों के आदेश यदि नीति की कसौटी पर खरे न उतरते हों तो वहां उनका
विरोध कर अपनी अन्तःप्रेरणा से ईमान रखना ही असली धर्म-साधना है। टॉलस्टॉय के इन्हीं
विचारों के अनुरूप गांधीजी ने भी अस्पृश्यता, विषमता और अनीति की समर्थक शास्त्र सम्मतियों और रूढ़ियों को
बेशक धर्म-विरोधी करार दिया।
राजचन्द्रजी
से धार्मिक शंकाएं दूर की
उन दिनों भारत में राजचन्द्र नामक हिन्दू धर्म
विशेषज्ञ एवं विद्वान जैन मनीषी से पत्र-व्यवहार कर अपनी धार्मिक शंकाएं उन्होंने
दूर की। राजचन्द्र जी के साथ हुई धार्मिक बहस के बाद गांधीजी के मन में धर्म
संबंधी धारणाएं स्पष्ट होती चली गयीं। इस प्रकार धर्म-परिवर्तन के प्रति उनका
रुझान क्रमशः घटता गया। राजचन्द्र जी को स-सम्मान दिल में बिठा लेने के बावज़ूद भी गांधीजी
ने उन्हें अपना गुरु नहीं बनाया। गांधीजी जैसे प्रज्ञावान और प्रयोगशील इंसान किसी भी व्यक्ति को गुरु मानकर उसकी शरण में हठात
नहीं जा सकते। इसके अलावा गांधीजी और
राजचन्द्र जी की सामाजिक भूमिका में भी बहुत बड़ा अन्तर था। पश्चिमी सभ्यता से
प्रभावित होकर गांधीजी ने धर्म-सुधार की बात पर अधिक बल दिया। राजचन्द्र की जीवन
दृष्टि से गांधीजी की जीवन दृष्टि सर्वथा भिन्न थी। अपने पेशे में रहकर
आत्म-प्रतिष्ठा और भारतीयों की अस्मिता की रक्षा की दृष्टि से शुरु-शुरु में उनका
रहन-सहन दक्षिण अफ़्रीका के बैरिस्टरों के समान ही था। लेकिन आत्मविश्वास के बढ़ने
के साथ ही वाह्याडम्बर का खोखलापन भी
उन्हें महसूस होने लगा।
थियॉसॉफिस्ट
से परिचय
उन्हीं दिनों थियॉसॉफिस्ट से उनका परिचय हुआ और वे
विश्वबंधुता की दिशा में अग्रसर हुए। गांधीजी ने थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा
प्रकाशित उपनिशर्दो का भाषान्तर पढ़ा। इससे हिहन्दू धर्म के प्रति उनका आदर बढ़ा। पर दूसरे धर्मों के प्रति उनके मन में
अनादर उत्पन्न नहीं हुआ। शाकाहारी समूह की टोह लेने वे ट्रैपिस्ट पादरियों की कॉलोनी
देखने गए। ट्रैपिस्टों की इस कॉलोनी में शारीरिक मेहनत, समता और बंधुता का अनोखा मेल था। इसी त्रि-सूत्री की
बुनियाद पर यह बस्ती खड़ी थी। इस बस्ती के ईसाई स्त्री-पुरुष पादरियों ने मौनौर
ब्रह्मचर्य की शपथ ले रखी थी। सादगीपूर्ण रहन-सहन, उद्योगप्रियता, वैराग्य, अनुशासन और गोरे और काले
के साथ समान व्यवहार से गांधीजी बहुत प्रभावित हुए। उन पादरियों ने सिद्ध कर दिया
कि मानव-सेवा ही प्रभु-सेवा का असली रास्ता हो सकता है। इस सेवा-भाव को गांधीजी अपने अश्रमीय जीवन में शामिल
किया।
उपसंहार
विभिन्न धर्मों की चर्चाओं से गांधीजी का आत्म-निरीक्षण बढ़ा। उन्होंने जो पढ़ा और पसंद किया, उसे आचरण में लाने की उनकी आदत पक्की हुई। धर्म को वे
सिर्फ़ कर्मकांड नहीं मानते थे। वे तो अचार संहिता बनाना चाहते थे, जिससे व्यावहारिक दिशानिर्देश मिले। किसी भी प्राचीन और मध्य-युगीन संप्रदायों की चहारदीवारी में उन्होंने अपनी
धर्म-भावनाओं को क़ैद नहीं होने दिया। उनके धर्म-विचारों में आधुनिक भौतिकवादी
उदारता की छाप दिखाई देती है। उन्होंने धर्म को आधार बनाकर आधुनिक मानवतावादी नीति
को जनमानस में प्रतिष्ठित करने का प्रयास नहीं किया। पश्चिमी और भारतीय – दोनों
संस्कृतियों का सार ग्रहण कर उन्होंने अपना एक नया सुसंगत दर्शन साकार किया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों
का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का,
31. प्रवासी
भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय
में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स...,
33. अपमान
का घूँट, 34. विनम्र
हठीले गांधी, 35. धार्मिक
विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी
का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना
रहित मन, 38. दो
पत्र, 39. मुक़दमे
का पंच-फैसला, 40. स्वदेश
लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़
बिल का विरोध, 42. नेटाल
में कुछ दिन और, 43. न्यायालय
में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा अनुभव
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