गांधी और गांधीवाद
सत्य न्यायोचित ध्येय को कभी नुकसान नहीं पहुंचता। - महात्मा गांधी
1895
49. सत्य और ईमानदारी का मार्ग
प्रवेश
गांधीजी का वक़ालत का पेशा
शत्रुवत वातावरण में एक व्यक्ति के लिए पहाड़ चढने जैसा था। वक़ालत के साथ-साथ
राजनीतिक अभियान, मानव कल्याण के कार्य और धार्मिक संवाद भी चल रहे थे। यही तो उनकी
विशेषता थी। जो भी काम उनके सामने आता उसे वह एकाग्रचित्त होकर पूरा करते। उनकी
दिलचस्पियों के अनेक पहलू थे और उनकी
जिज्ञासा जीवंत थी। उनके लिए कोई काम इतना छोटा नहीं था कि उस पर वह पूरा ध्यान
नहीं देते और कोई काम इतना बड़ा भी नहीं था कि दूसरी दिलचस्पियों को छोड़कर केवल उसी
के होकर रह जाते। दूसरों के हितों के प्रश्न पर वह यथार्थवादी और व्यावहारिक थे।
कड़ी सौदेबाज़ी करते थे और गहरी सूझबूझ दिखाते थे।
263 पौण्ड का दावा
कुछ दिनों के बाद गांधीजी एक दीवानी मुक़दमे के सिलसिले में कोर्ट में
हाजिर हुए। गांधीजी के मुवक्किल सेठ अब्दुल्ला ने गोपी महाराज के विरुद्ध 263 पौण्ड का दावा दायर किया था। जब कोर्ट ने इस दावे को दण्ड
के साथ वादी के पक्ष में मान लिया तो गांधीजी की तरफ़ सबका ध्यान आकर्षित हुआ।
नेटाल के बार एसोसिएशन में गांधीजी की साख बढ़ी। बहुत ही लगन और परिश्रम से गांधीजी
मामले के एक-एक पहलू पर नज़र डालते थे। इस फैसले के बाद न सिर्फ़ साथियों में बल्कि
जज और मजिस्ट्रेट की नज़रों में भी उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी।
सम्पत्ति के बंटवारे का मामला
1895 के शुरुआती दिनों की बात है। गांधीजी की मुठभेड़ सुप्रीम कोर्ट के
वकील सर वाल्टर रैग से हो गई। इसका लोगों में खासा प्रचार हुआ। यह हसनजी दावजी, जिनकी मृत्यु बिना
वसीयत के हो गई थी, की मृत्यु के बाद सम्पत्ति के बंटवारे का मामला था। मुख्य न्यायाधीश
ने सुझाव दिया कि गांधीजी से अनुरोध किया जाना चाहिए कि वह मुस्लिम कानून के अनुसार
सम्पत्ति के बंटवारे की योजना तैयार करें। गांधीजी द्वारा जब रिपोर्ट सौंपी गई तो सर वाल्टर ने जहां तक विधवा
पत्नी के हिस्से की बात थी, अपनी मंज़ूरी दे दी। पर मृतक के बच्चों और भाइयों के हिस्से से
संबंधित प्रस्ताव पर उसने असहमति जताई। इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए जज ने
इस्लामिक नियमों के गांधीजी की जानकारी पर सवालिया निशान लगाया। उसने कहा कि चूंकि
गांधीजी हिन्दू हैं, इसलिए उन्हें सिर्फ़ हिन्दू नियमों की जानकारी है, मुसलमानों के नियम की उन्हें जानकारी
नहीं है। उसने कहा कि गांधीजी के अनुसार जो हिस्सा मृतक के भाई को मिलना चाहिए, वास्तव में वह मुस्लिम कानून के
अनुसार गरीबों को मिलना चाहिए। पर वस्तुस्थिति
यह थी कि उत्तराधिकार संबंधी इसलाम के नियमों का गांधीजी ने काफ़ी ध्यानपूर्वक
अध्ययन किया था। पवित्र पुस्तक और इसके व्याख्या के उद्धरणों का हवाला देते हुए
उन्होंने साबित किया कि उनके जायदाद के विभाजन की प्रस्तावित योजना सही और
नियमानुसार है। गांधीजी ने बताया कि मुस्लिम कानून में दान (ज़कात) और उत्तराधिकार
के प्रावधानों के बीच अंतर करने की उनमें सूझबूझ थी। उन्होंने सर वाल्टर का ध्यान इस ओर भी आकृष्ट किया कि मुस्लिम नियमों
पर सबसे अच्छी पुस्तकें ग़ैर-मुसलमानों द्वारा ही संपादित की गई हैं। नेटाल के
क़ानूनी जानकारों में से अधिकांश का मानना था कि इस मामले में गांधीजी सही थे। उस
उपनिवेश के अधिकांश मुस्लिम समुदाय, जिनका इस मामले में रुचि थी, गांधीजी की दलीलों से अच्छे-खासे प्रभावित दिख रहे थे। पर फैसला
गांधीजी के पक्ष में नहीं गया। गांधीजी ने इसे मुस्लिम उत्तराधिकार कानून के
विरुद्ध माना और इसे चुनौती देने के लिए खुद को बाध्य महसूस किया। उन्होंने 23
मार्च 1895 के नेटाल विटनेस में लिखा कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मुस्लिम कानून के
गलत दृष्टिकोण पर आधारित था और इससे भारतीय उपनिवेशवादियों का एक बड़ा हिस्सा बुरी
तरह प्रभावित होगा। उन्होंने यह सुझाया कि यह संभव है कि जब महामहिम ने
उत्तराधिकार के बारे में बात की थी तो उनके मन में दान देने की बात थी "जो
प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है"। एक मुसलमान अपने जीवनकाल में दान देकर अपने
लिए स्वर्ग या वहाँ सम्मानजनक स्थान अर्जित करता है। उसकी मृत्यु के बाद राज्य
द्वारा उसकी संपत्ति से दी गई दान राशि निश्चित रूप से उसे कोई आध्यात्मिक लाभ
नहीं पहुँचा सकती, क्योंकि यह उसका कार्य नहीं है। एक मुसलमान की मृत्यु के बाद उसके
रिश्तेदारों का ही उसकी संपत्ति पर पहला, बल्कि एकमात्र, अधिकार होता है।
दिवालिया का मामला
बाद में एक और मामले में कुछ
रोचक वाकया हुआ। यह मामला दिवालिया का था, और इसमें गांधीजी का सामना नेटाल सभा के एटर्नी आर.एच. तथम से हुआ।
जब अपनी दलीलों से वह परास्त हुआ तो उसने मज़ाकिए लहजे में कहा, “गांधीजी का जवाब नहीं, .. एक बार फिर एक काले ने गोरों
पर विजय पाई!”
दलील रखने का तरीक़ा
जज के समक्ष गांधीजी का दलील
रखने का तरीक़ा विशिष्ट होता था। बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी शाब्दिक युद्ध के, पूरी तरह तथ्यों पर वे अपने तर्क
स्थापित करते थे। अपनी बहस के लिए तैयार किए गए संक्षिप्त विवरण में वे मामले से
संबंधित कोई गड़बड़ी या कमी संबंधी तथ्य नहीं छिपाते थे। अपने पक्ष के समर्थन में
सत्य को सामने लाकर ही वे तर्क देते थे। अपने पक्ष से संबंधित कमज़ोर बिन्दुओं को
जिस स्पष्टोक्ति के साथ वे स्वीकार करते थे वही उनके लिए एक मज़बूत बिन्दु बन जाता
था और इसके आधार पर वे मामले के निर्णायक बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रीत करते थे। क़ानूनी
विवाद के अधिकांश मामलों का निर्णय इन्हीं बिन्दुओं के आधार पर होता था। हालांकि
अनेकों बार गांधीजी की ईमानदारी को कठिन जांच के दौर से गुज़रना होता था, पर गांधीजी कभी हार नहीं मानते और
अपने सत्य और ईमानदारी के मार्ग को छोड़ते भी नहीं थे।
एक दीवानी मुकदमा
ऐसे ही एक मामले का जिक्र
उन्होंने किया है। यह एक दीवानी मुकदमा था। इसमें गांधीजी कनिष्ठ अधिवक्ता के तौर
पर हाजिर हुए थे। जिस खाते पर विवाद था उसके निपटारे के लिए अदालत ने एक चौपाट को
मामला सुलझाने के लिए आदेश दिया था। फैसला गांधीजी के मुवक्किल के पक्ष में गया
था। लेकिन पंच ने जो गणना की थी उसमें से एक संख्या उधार स्तम्भ में दिखाया था
जबकि इसे ख़र्च के स्तम्भ में होना चाहिए था। यह भूल गांधीजी की नज़र में तो आ गई
जबकि प्रतिपक्षी की नज़र में नहीं आई थी। गांधीजी और वरिष्ठ अधिवक्ता के बीच इस बात
को लेकर मतभिन्नता थी कि इस भूल को सामने लाया जाना चाहिए या नहीं। गांधीजी इस बात
पर दृढ़ थे कि इसे सामने लाया जाना चाहिए। पर वरिष्ठ ने चेतावनी दी कि अगर ऐसा किया
जाता है तो ऐसा भी हो सकता है कि पंच का फैसला बदल दिया जाए और वह हमारे खिलाफ़ चला
जाए। पर गांधीजी इस तर्क को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे। दोनों में समझौता
होता दिख नहीं रहा था, तब वरिष्ठ काउंसिल ने कहा कि फिर यह मामला तुम ही देखो मैं नहीं
देखूंगा। गांधीजी ने कहा ठीक है, यदि मुवक्किल तैयार है तो यह मामला मैं लड़ूंगा, पर इस फैसले को इस भूल के साथ मैं
नहीं स्वीकार कर सकता। मुवक्किल पेशोपेश में पड़ गया। पर उसकी गांधीजी में अटूट
श्रद्धा थी। उसने कहा कि मुझे इस बात में कोई आपत्ति नहीं होगी यदि आप इस केस के
लिए बहस करें। हम हार भी जाएं तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। पर इसे हम भूल के साथ नहीं
स्वीकार करेंगे।
गांधीजी निश्चित नहीं थे कि
वे उचित ढ़ंग से सर्वोच्च न्यायालय में इस जटिल मामले में बहस कर पाएंगे या नहीं।
बेंच के सामने जब वे उपस्थित हुए तो थोड़े घबड़ाए भी थे। जैसे ही उन्होंने गणना की
भूल की ओर इशारा किया, एक जज ने बड़ा ही तीखा व्यंग्य कसा। इसने गांधीजी के मनोबल को बढ़ाया, तोड़ा नहीं। अपने खास सौम्य अंदाज़ में
वे भूल को बताते चले गए। वे जज को इस बात के लिए राज़ी कराने में क़ामयाब हुए कि यह
चूक जानबूझकर नहीं की गई है इसलिए फैसले को बिना बदले हुए इस भूल को दूर किया जा
सकता है। जब प्रतिपक्षी वकील ने इस बात पर बहस शुरु की और कहा कि चूंकि गणना में
ग़लती है इसलिए फैसले को निरस्त किया जाए तो जज ने कहा कि यदि गांधीजी इस बात को
सामने न लाए होते तो आप क्या कर लेते? विपक्षी वकील की दलील को नकारते हुए जज ने फैसला सुनाया कि पूर्व
फैसला बरकरार रहता है और निर्देश दिया कि इस भूल को सुधारा जाए।
उपसंहार
इस घटना पर अपने विचार व्यक्त
करते हुए गांधीजी कहते हैं, मैं प्रफुल्लित था। मेरा मुवक्किल और वरिष्ठ भी। इससे मेरे इस
विश्वास को और बल मिला कि यह कोई ज़रूरी नहीं कि बिना सच से समझौता किए मामला नहीं
लड़ा जा सकता। सच एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ था जिसके आलोक में अपने मुवक्किल और
न्यायालय के प्रति वे अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहे। आदतन गहन और सावधान रहने
वाले गांधीजी ने हर मामले का अध्ययन करने के लिए असाधारण परिश्रम किया। उन्होंने
अपने सहकर्मियों के साथ-साथ मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों का भी उतना ही सम्मान
अर्जित किया, जो विचार और अभिव्यक्ति
की स्पष्टता, कानूनी कौशल और बौद्धिक
शक्ति के लिए उनका सम्मान करने लगे थे।
***
संदर्भ :
1 |
सत्य के प्रयोग – मो.क. गाँधी |
2 |
बापू के साथ – कनु गांधी और आभा
गांधी |
3 |
Gandhi Ordained in South
Afrika – J.N. Uppal |
4 |
गांधीजी एक महात्मा की संक्षिप्त जीवनी – विंसेंट शीन |
5 |
महात्मा गांधीजीवन और दर्शन – रोमां रोलां |
6 |
M. K. GANDHI AN INDIAN
PATRIOT IN SOUTH AFRICA by JOSEPH J. DOKE |
7 |
गांधी एक जीवनी, कृष्ण कृपलानी |
8 |
गाांधी जीवन और विचार - आर.के . पालीवाल |
9 |
दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास,
मो.क. गाँधी |
10 |
The Life and Death
of MAHATMA GANDHI by Robert
Payne |
11 |
गांधी की कहानी - लुई फिशर |
12 |
महात्मा गाांधी: एक जीवनी - बी. आर. नंदा |
13 |
Mahatma
Gandhi – His Life & Times by:
Louis Fischer |
14 |
MAHATMA Life of Mohandas
Karamchand Gandhi By: D. G. Tendulkar |
15 |
MAHATMA GANDHI
By PYARELAL |
16 |
Mohandas A True
Story of a Man, his People and an Empire – Rajmohan Gandhi |
17 |
Catching
up with Gandhi – Graham Turner |
18 |
Satyagraha – Savita Singh |
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों
का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का,
31. प्रवासी
भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय
में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स...,
33. अपमान
का घूँट, 34. विनम्र
हठीले गांधी, 35. धार्मिक
विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी
का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना
रहित मन, 38. दो
पत्र, 39. मुक़दमे
का पंच-फैसला, 40. स्वदेश
लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़
बिल का विरोध, 42. नेटाल
में कुछ दिन और, 43. न्यायालय
में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा
अनुभव, 45. धर्म
संबंधी धारणाएं, 46. नेटाल
इन्डियन कांग्रेस, 47. बालासुन्दरम
का मामला, 48. सांच
को` आंच कहां
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