गांधी और गांधीवाद
निःशस्त्र अहिंसा की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र शक्ति से सर्वश्रेष्ठ होगी।- महात्मा गांधी
1896
56. छः माह के लिए भारत आगमन
प्रवेश
दक्षिण अफ़्रीका के विभिन्न भागों में रह रहे प्रवासी
भारतीय काफ़ी निराश थे। हर क्षेत्र में भारतीय व्यापारियों और प्रवासियों पर
तरह-तरह के बंधन लगाए जा रहे थे जिससे वे गोरों से मुक़ाबला नहीं कर पा रहे थे।
गोरों का लालच, रंगभेद की नीति और इस बात
का भय कि यदि भारतीय को समान अधिकार दे दिए गए तो न जाने क्या होगा, से उनके मन में प्रवासी भारतीयों के प्रति घृणा बढ़ती
गई। क़ानून बनाने वालों पर दवाब बढने लगा और उन्होंने ऐसे क़ानून बनाए कि नेटाल में
बिना लाइसेंस कोई व्यापार ही नहीं कर सकता था। प्रवासी के लिए किसी एक यूरोपीय
भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत से अपनी मर्ज़ी से
जानेवालों के लिए दक्षिण अफ़्रीका के दरवाज़े बंद हो गए। हां, इकरारनामे के तहत लाए जाने वाले अर्द्धगुलाम
गिरमिटियों के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी।
गोरों
से अपमानित
ट्रांसवाल (बोअर) के प्रेसिडेंट क्रूगर ने तो भारतीय
प्रतिनिधि मंडल को यहां तक कह दिया, “तुम इस्माइल के वंशज हो, इसलिए तुम्हारा जन्म ही हुआ है ईसू के वंशजों की
ग़ुलामी करने के लिए।” परिस्थिति ऐसी थी कि
दक्षिण अफ़्रीका में अंग्रेज़ों से न्याय पाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हर
दिन गोरों से अपमानित होते रहते थे। जीवन कष्टदायक था। नेटाल के संवैधानिक ग्रंथ
में उन्हें अर्द्ध-बर्बर एशियाई और असभ्य जाति के लोग कहकर उल्लेख किया गया था।
ट्रांसवाल में भारतीय व्यापारी खास जगहों के बाहर न तो रह सकते थे और न व्यापार ही
कर सकते थे। ‘लंदन टाइम्स’ ने इन स्थानों को यहूदियों की बंदी बस्तियों, ‘गेटों’ का नाम दिया था।
अधिकारों
की लड़ाई
गांधी जी ने उनके अधिकारों की न सिर्फ़ लड़ाई लड़ना शुरु
किया बल्कि उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक भी करते रहे। वे लगातार
प्रतिवेदन देते रहे, जिसका मुख्य उद्देश्य यह
होता था कि गोरे इस बात को समझें कि भारतीय यहां उनकी ही मदद कर रहे हैं। दक्षिण
अफ़्रीका में उनके संघर्ष का उद्देश्य यह नहीं था कि वहां के भारतीयों के साथ गोरों
के समान बर्ताव किया जाए। वे तो एक सिद्धांत स्थापित करना चाहते थे कि भारतीय
ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक हैं और इसलिए उसके क़ानून के अधीन उन्हें उसी समानता
का अधिकार है। दुर्भाग्य से अधिकांश लोग उनके विचार को सही ढ़ंग से स्वीकार नहीं
पाए। परन्तु बहुत से ऐसे भी थे जिन्होंने गांधी जी के शान्तिपूर्ण प्रयासों की
सराहना भी की और इस बात को सही परिप्रेक्ष्य में लिया कि उनका प्रयास तो
प्रवासियों के ऊपर हो रहे अन्याय के प्रति एक शान्तिपूर्वक किया गया प्रतिरोध है।
गांधी जी के प्रयासों की सराहना करते हुए ‘द केप टाउन टाइम्स’ ने लिखा, “जिन लोगों के बिना उसका
काम एक क्षण भी नहीं चल सकता, उन्हीं से भयंकर घृणा का
विचित्र दृश्य नेटाल में हमें देखने को मिलता है। यहां से सारे भारतवासियों के चले
जाने पर इस उपनिवेश के वाणिज्य और व्यवसाय की जो दुर्व्यवस्था होगी उसकी कल्पना
करते भी डर लगता है। लेकिन फिर भी भारतीयों को यहां बड़ी बुरी तरह दुरदुराया जाता
है।” प्रवासी भारतीय अच्छा काम कर रहे थे। थोड़े में अपना काम चला
लेते थे। परिश्रमी तो थे ही। उनकी ये अच्छाइयां ही उनकी दुश्मन बन गई थीं। उनके इन
अच्छे गुणों के कारण गोरे उन्हें अपना प्रतिद्वन्द्वी मानने लगे थे। इसलिए उनपर
तरह-तरह की बंदिशें लगा रहे थे। अत्याचार और अन्याय कर रहे थे।
छह महीने का अवकाश
गांधीजी नेटाल में पूरी तरह व्यवस्थित हो गए थे।
उनका सार्वजनिक कार्य सुचारु रूप से चल रहा था। वकालत भी जम गई थी। दक्षिण अफ़्रीका
में तीन बरस बीत चुके थे। अब उन्हें लग रहा था कि दक्षिण अफ़्रीका में अनिश्चित काल
तक रहने के लिए परिवार को लाकर साथ में रखना ज़रूरी है। गांधी जी कस्तूरबाई से यह
कहकर दक्षिण अफ़्रीका आए थे कि वह सिर्फ़ एक साल के लिए वहां जा रहे हैं, यदि किसी कारण से उन्हें छह माह से अधिक रुकना पड़ा तो
वे उन्हें भी बुला लेंगे। मई में वे तीन साल पूरा कर चुके थे। इन तीन वर्षों में
गांधी जी एक संपन्न वकील और प्रमुख भारतीय राजनैतिक नेता बन गए थे। नेटाल भारतीय
कांग्रेस का बिरवा जम गया था। जो हालात बन गए थे, उसके मद्दे-नज़र वे यहां हाथ में लिए काम को अधूरा छोड़कर जा
नहीं सकते थे। उन्होंने भांप लिया था कि इन कामों को पूरा होने में समय लगने वाला
था। इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि जिस काम का श्रीगणेश उन्होंने किया है उसके
सुपरिणाम निकलने तक उन्हें वहां ठहरना होगा। इस बात से वे निश्चिंत थे ही कि वकालत
की कमाई इतनी तो है कि अपनी पत्नी और बच्चों को डरबन में वे सुविधा और आराम की
ज़िन्दगी दे सकते हैं। इसलिए उन्होंने अपने भारतीय मित्रों से छह महीने का अवकाश
देने का निवेदन किया ताकि अपने परिवार और उनका जो कुछ भी माल-असबाब है, ला सकें और साथ ही दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए लड़ाई में भारत में
भारतीयों के सक्रिय समर्थन की आवश्यकता थी, और वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की राय जानना
चाहते थे। इस संदर्भ की चर्चा करते हुए गांधी जी ने अपनी “आत्मकथा” में लिखा है, “तीन पौंड का कर एक नासूर
था – सदा बहने वाला घाव था। जब तक वह रद्द न हो, चित्त को शांति नहीं मिल सकती थी।”। गाांधी जानते थे कि अफ्रीका के हिन्दुस्तानी समाज के साथ
हो रहे अत्याचार में भारत की अंग्रेज सरकार की भी मौन सहमति थी क्योंकि अफ्रीका और भारत दोनों ब्रिटिश
शासन के अधीन थे और गिरमिटिया हिन्दुस्तानी समाज
पर लगाए गए कर पर भारत के वायसराय की भी सहमति ली गई थी। इस मुद्दे पर इन्डियन नेशनल
कांग्रेस ने भी अपने ढंग से विरोध जताया था लेकिन गांधीजी की नजर में वह विरोध काफी नहीं था।
छह महीने के अवकाश पर भारत
जाने के उनके निवेदन को स्वीकार करते हुए प्रवासी भारतीय सहयोगियों ने गांधी जी को
शुभकामनाएं प्रकट की और विनयपूर्वक जल्द वापस आने को कहा। वे प्रसन्न थे कि गांधी
जी वापसी में अपने पत्नी-बच्चों को भी नेटाल ला रहे हैं। नेटाल कांग्रेस ने इस
अवधि में उन्हें भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। इसके पीछे यह भी भावना थी
कि भारत में वहां के लोगों को प्रवासियों की अवस्था का व्यापक प्रचार किया जा सके
और साथ ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं से मिलकर उनके सक्रिय सहयोग की
गुजारिश भी कर सकें। इस मिशन को अंजाम देने के लिए उन्हें 75 पौंड की राशि दी गई। अपनी
अनुपस्थिति में नेटाल इंडियन कांग्रेस का काम चलाने के लिए उन्होंने दो समर्पित
कार्यकर्ताओं आदमजी मियाखान और पारसी रुस्तमजी को छांटा। आदमजी मियाखान को मानद
सचिव का काम संभालने के लिए कहा गया।
भारत रवाना
रवाना होने के पहले उन्हें अपने सम्मान में डरबन के तमिल और गुजराती भारतीयों ने नेटाल भारतीय कांग्रेस
के तत्वावधान में भारतीय कांग्रेस हॉल में उन्हें विदाई दी। लोगों को संबोधित करते हुए
उन्होंने भिन्न-भिन्न समुदाय के लोगों को अधिक एकजुटता से मिलजुल कर रहने और काम
करने की नसीहत दी। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि तमिल समुदाय के कई पूर्व
गिरमिटिया मज़दूर अब राजनीतिक गतिविधियों से अलग-थलग रहने लगे थे।
5 जून 1896 को, एस.एस. पोन्गोला, पानी के जहाज़ से दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों के लिए
जिस आंदोलन का गांधीजी नेतृत्व कर रहे थे, उसके लिए जितना हो सके भारतीय जनता का समर्थन और जनमत
प्राप्त करने हेतु गांधी जी छह महीने के लिए नेटाल से भारत की ओर रवाना हुए। जिस
जहाज़ से वे जा रहे थे वह कलकत्ता जा रहा था। कलकत्ता जाने का उनका न तो कोई खास
मकसद था और न ही वहां वे किसी को जानते थे। साधारण सी बात यह थी कि भारत की ओर
जाने वाला सबसे पहला जहाज़ एस.एस. पोन्गोला था और उन्हें पत्नी और दोनों बच्चों से
मिलने की तीव्र इच्छा थी।
उर्दू और तमिल का अभ्यास
लगभग एक महीने की हलचल
रहित इस यात्रा का अधिकांश समय गांधी जी ने उर्दू और तमिल सीखने में लगाया। वे
समझते थे कि ये भाषाएं उन्हें आनी चाहिए। दोनों ही भाषाएं उन्होंने अंग्रेज़
अधिकारियों से या उनकी मदद से सीखी। स्टीमर के डॉक्टर ने गांधी जी को तमिल सिखाने
वाली किताब दी। उन्होंने उसका अभ्यास शुरु कर दिया। तमिल तो वे पूरी तरह नहीं सीख
पाए, लेकिन इतना तो हो गया कि
वे बड़ी आसानी से उसे पढ़ सकते थे। उर्दू के लिए उसी अंग्रेज़ अधिकारी की सलाह पर
उन्होंने डेक के मुसाफ़िरों में से एक अच्छा मुंशी ढ़ूंढ़ निकाला। उर्दू में कठिनाई
कम हुई, लेकिन इसे भी वे कभी भी
सही ढ़ंग से नहीं सीख पाए। इस तरह शुरु किए गए अभ्यास को वे देश में पहुंचने के बाद
ज़ारी रख न पाए। बाद के दिनों में तमिल का ज्ञान वे दक्षिण अफ़्रीका की जेल में और
उर्दू का ज्ञान यरवदा की जेल में बढ़ा पाए। तेलुगु सीखने का प्रयास उन्होंने भारत
में किया पर वह आरंभिक स्तर से आगे न बढ़ पाया। इन अध्ययनों का उद्देश्य उन्हें नेटाल लौटने पर भारतीय
समुदाय के मुस्लिम और दक्षिण भारतीय वर्गों के साथ अधिक निकट संपर्क में लाना था।
स्टीमर पर फ़ुरसत के क्षण
में
उन्होंने यह भी सोचा कि प्रवासी भारतीयों के लिए
अपने देश में जितना हो सके समर्थन जुटाया जाए। इसके साथ ही स्टीमर पर वे
दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक पम्फलेट का मसविदा तैयार
करने में व्यस्त रहे, जिसे भारत पहुंचने पर
प्रकाशित और वितरित करने का इरादा था। इस मसविदे का शीर्षक था, “The Grievances of the British Indians in South
Africa, An Appeal to the Indian Public.’’ (“दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश भारतीयों की शिकायतें”).
फ़ुरसत के क्षण में वे जहाज के कप्तान के साथ रोज़ एक
घंटा शतरंज खेलते थे। जहाज का कप्तान ‘प्लीमथ ब्रदरन’ सम्प्रदाय का था। इस बार जहाज के कप्तान से उनकी दोस्ती हो
गई। उसके साथ शतरंज खेलने के अलावा शाकाहार और धर्म पर भी चर्चा होती थी। उसके
विचार में बाइबिल की शिक्षा बच्चों का खेल था। उसका कहना था कि बालक, स्त्री, पुरुष सब ईसा को और उनके बलिदान को मान लें, तो उनके पाप धुल जायेंगे। यात्रा बहुत अच्छी रही। एक महीने की यात्रा के बाद 4 जुलाई को वे कलकत्ता पहुंच
गए। अपनी ‘आत्मकथा’ में उन्होंने इस दिन का वर्णन करते हुए लिखा है, “यह आनंदप्रद यात्रा पूरी
हुई और हुगली के सौंदर्य को निहारता हुआ कलकत्ते उतरा। ...”
उपसंहार
गांधीजी का उद्देश्य भारतीयों और गोरों की गरिमा को
बचाना था। दक्षिण अफ्रीका में अब तक उन्होंने अथक ऊर्जा, समुदाय की सेवा करने की उत्सुकता, विश्वास को प्रेरित करने वाली ईमानदारी और लोगों के
साथ सहज व्यक्तिगत संबंध बनाने की प्रतिभा का प्रदर्शन किया था। उद्देश्य ने उनकी
कायरता को खत्म कर दिया और उनकी जुबान खुल गई। उन्होंने खुद को एक प्रभावी नेता और
एक बेहतरीन आयोजक साबित किया था। उनके भारतीय सहकर्मियों ने तीव्रता से महसूस किया, कि उनके बिना भारतीय अधिकारों के लिए संघर्ष विफल हो जाएगा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
1 से 50
तक यहाँ पर - 51. एलेक्ज़ेंडर से पहचान,
52. गिरमिटियों
पर कर,
53. आत्म-दर्शन
की अभिलाषा, 54. नया फ्रैंचाइज़ अधिनियम, 55. दक्षिण अफ्रीका में
बसने वाले भारतीय हतोत्साहित
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