शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

38. दो पत्र

 गांधी और गांधीवाद

अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्तव्य है |- महात्मा गांधी

सितम्बर 1893

38. दो पत्र

गांधी जी ने दक्षिण अफ़्रीका में इंडियन फ्रेंचाइज बिल के विरोध में पहला जन प्रतिरोध किया। इस विधेयक के पास होने से भारतीयों को नेटाल विधानमंडल के सदस्यों के चुनाव में मताधिकार के प्रयोग से वंचित होना पड़ता।

बात थोड़े पहले से शुरु करनी होगी। एक पढ़े-लिखे भारतीय ने, गांधी जी के साथ जो प्रेसिडेण्ट मार्ग पर दुर्व्यवहार हुआ था  उसके विरोध में ‘ट्रांसवाल एडवर्टाइज़र’ को एक पत्र लिखा। इस पत्र की प्रतिक्रिया में नटाल एडवर्टाइज़र’ ने बहुत ही घृणित और आक्रामक तरीक़े से उस पत्र लिखने वाले के विरोध में लिखा। इस तरह की आक्रामक भाषा के पीछे मुख्य बात यह थी कि भारतीय व्यापारियों के बढ़ते व्यापार से यूरोपीय व्यापारियों के व्यापार पर खतरा मंडराने लगा था। समाचार पत्रों के द्वारा इसे इस क़दर प्रस्तुत किया जा रहा था मानो उपनिवेश ही नष्ट हो जाएगा। बात यहां तक पहुंच गई कि नेटाल में रहने वाले गोरे अल्प-संख्यक प्रवासी भारतीयों के मताधिकार से भी भयभीत थे। यह बताया जाता था कि भारतीय मत यूरोपीय मत को लील जाएगा। इस तरह से नेटाल एडवर्टाइज़र’ यूरोपीय समुदाय के बीच भारतीयों के प्रति दुर्भावना फैला रहा था।

गांधी जी इसकी अनदेखी नहीं कर सकते थे। उन्होंने नेटाल एडवर्टाइज़र’ को दो पत्र लिखा, पहला 19 सितम्बर 1893 को और दूसरा 29 सितम्बर 1893 को। गांधी जी ने प्रवासी भारतीयों की सादगी, नशा न करने की आदत, उनके व्यवसाय कुशल होने की प्रवृत्ति और कम ख़र्चीले स्वभाव की चर्चा करते हुए इस बात पर बल दिया कि ये उनकी अच्छाई है, खामी नहीं। यह आपत्ति भी जताई कि उनके प्रति जो यह घृणित दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, वह उचित नहीं है। प्रेस के माध्यम से अपना विरोध प्रकट करते हुए नेटाल एडवर्टाइज़र’ को लिखे चिट्ठी में गांधी जी ने लिखा था, क्या यही ईसाइयत है, यही मानवता है, यही न्याय है, इसी को सभ्यता कहते हैं?”

दूसरे पत्र के माध्यम से उन्होंने इस विचार को निराधार करार दिया कि भारतीयों के मत यूरोप वासी के ऊपर भारी पड़ेंगे।

गांधी जी पत्रों के द्वारा विरोध प्रकट करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान सकते थे, पर वे ऐसा नहीं कर सके। गांधीजी की दक्षिण अफ़्रीका में ज़्यादा दिन रहने की योजना नहीं थी, फिर भी वे वहां रुके और प्रिटोरिया में भारतीयों के अंदर स्वाभिमान की भावना जगायी। रंगभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष का आह्वान किया।

ट्रांसवाल में भारतीयों की स्थिति चिंताजनक हो रही थी। ट्रांसवाल और ऑरेंज फ़्री स्टेट में भारतीयों को निरंतर असमानताओं, तिरस्कारों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उन्हें मताधिकार प्राप्त नहीं था। 1885 में एक कड़ा क़ानून बना था। 1888 में उनमें कुछ सुधार हुआ। उसके फलस्वरूप हर एक भारतीयों को प्रवेश-फीस के रूप में तीन पौण्ड जमा करने होंगे और उनके लिए अलग ज़मीन छोड़ी गई थी। इन कुछ बस्तियों को छोड़कर कहीं भी वे जमीन के मालिक नहीं हो सकते थे। वास्तव में ये बस्तियां भी इन लोगों की नहीं थी, वहां भी उन्हें व्यवहार में ज़मीन का स्वामित्व नहीं मिला। 8 सितम्बर 1893 को क़ानून में संशोधन कर यह प्रावधान कर दिया गया कि प्रवासी भारतीय को 29 जनवरी 1894 तक उनके लिए निर्धारित जगह में चला जाना होगा। ट्रांसवाल के भारतीय व्यापारियों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1893 के अधिवेशन के अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी को तार द्वारा इसकी जानकारी दी और ब्रिटिश हुकूमत से हस्तक्षेप  का अनुरोध करने को कहा। तब तक ट्रांसवाल और नटाल के भारतीय समुदाय को गांधी जी के राजनीतिक प्रशिक्षण के इस शुरु के साल में उनकी क्षमता पर भरोसा नहीं हुआ था। कितने ग़लत थे वे!

इस बीच कुछ समय तक गांधी जी ने भारतीयों की दुर्दशा की ओर से ध्यान हटा कर मुक़दमे की ओर ध्यान लगाया। ये एक व्यावहारिक फैसला था।

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मनोज कुमार

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