भुजरिया
पर्व
अच्छी बारिश, फसल एवं सुख-समृद्धि की कामना के लिए रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरियां पर्व मनाया जाता है। श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन मनाया जाता है। उसके अगले दिन भुजरियां पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से बुंदेलखंड का लोकपर्व है। इसे कजलियों का पर्व भी कहते हैं। कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। सावन के महीने की अष्टमी और नवमी को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौ के दाने बोए जाते हैं। इसके बाद इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में ये अन्न उग आता है, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। इन भुजरियों की पूजा अर्चना की जाती है एवं कामना की जाती है, कि इस साल बारिश बेहतर हो जिससे अच्छी फसल मिल सकें। भुजरियां नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं पूजा-अर्चना करके इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
इस पर्व की कथा आल्हा की बहन चंदा से जुड़ी है। आल्हा की बहन
चंदा श्रावण माह में ससुराल से मायके आई
तो सारे नगरवासियों ने भुजरियां से उनका स्वागत किया था। महोबे के राजा परमाल की पुत्री
राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पर आक्रमण
कर दिया था। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी-सहेलियों के साथ गई
थी। राजकुमारी को पृथ्वीराज हाथ न लगाने पाए इसके लिए राज्य के वीर सपूतों ने
वीरता का पराक्रम दिखलाया था। चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से आ पहुंचा।
कीरत सागर ताल के पास में होने वाली इस लड़ाई में अभई वीरगति को प्राप्त हुआ, राजा परमाल का एक बेटा रंजीत भी शहीद हुआ। बाद
में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद
राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसे वीरों
ने पृथ्वीराज की सेना को हरा कर वहां से भगा दिया। महोबे की जीत के बाद राजकुमारी
चन्द्रवलि और अन्य सभी लोग अपनी-अपनी भुजरियां खोंटने लगे। इस घटना के बाद सें
महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में भुजरियां का त्यौहार विजयोत्सव के रूप में
मनाया जाने लगा है। भुजरियां पर गाजे-बाजे और पारंपरिक गीत गाते हुए महिलाएं
नर्मदा तट या सरोवरों में भुजरियां खोंटने के लिए जाती हैं। हरियाली की खुशियां
मनाने के साथ लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और बड़े बुजुर्ग भुजरियां देकर धन-धान्य से
पूरित होने का आशीर्वाद देते हैं।
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मनोज कुमार
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