गांधी और गांधीवाद
क्रूरता का उत्तर क्रूरता से देने का अर्थ अपने नैतिक व बौद्धिक पतन को स्वीकार करना है। - महात्मा गांधी
57. ‘द
पायोनियर’ के
संपादक से भेंट
1896
कलकत्ता से शीघ्र राजकोट जाने की गांधीजी को व्यग्रता
थी। इसलिए 4 जुलाई, 1896, को हावड़ा से बम्बई की ओर जाने वाली सबसे पहली गाड़ी का
टिकट उन्होंने लिया। गाड़ी प्रयाग होते हुए जाती थी। यह गाड़ी इलाहाबाद में 45 मिनट रुकती थी। इस अवकाश
का लाभ उठाकर वे गाड़ी से उतर गए और शहर का एक चक्कर लगा लेने के विचार से स्टेशन
के बाहर निकल पड़े। दक्षिण अफ्रीका से कलकत्ते की यात्रा के दौरान समुद्री पानी में साबुन का उपयोग करने के
परिणामस्वरूप उन्हें कष्टदायक खुजली हो गई थी। उसके उपचार के लिए कोई दवा
लेनी थी। किसी केमिस्ट की दुकान पर मलहम खरीदने के लिए रुके। केमिस्ट ऊंघता हुआ
बाहर निकला। दवा देने में दुकानदार ने काफ़ी समय ले लिया। जब वे स्टेशन पहुंचे, गाड़ी छूट चुकी थी। भला हो उस स्टेशन मास्टर का जिसने
उनका सामान गाड़ी से उतरवा कर रख लिया था। गांधीजी ने सोचा कि गाड़ी छूट ही चुकी है
तो क्यों नहीं एक दिन के लिए इलाहाबाद में ही रुका जाए। वे केलनर के होटल में ठहरे
और वहीं से अपने काम की शुरुआत करने की सोची।
इलाहाबाद से अंग्रेज़ी का
एक अखबार ‘द पायोनियर’ निकलता था। इसकी ख्याति गांधीजी ने सुन रखी थी। समय
का सदुपयोग करने के लिए वे इलाहाबाद के इस अखबार के सम्पादक से मिलने उसके दफ़्तर
गए। ‘द पायोनियर’ पत्र का संपादक अंग्रेज़ हुआ करता था। उसके संपादकीय
विभाग में प्रसिद्ध साम्राज्यवादी साहित्यकार किप्लिंग भी काम कर चुका था। हालाकि
यह अखबार अंग्रेज़ी प्रभुसत्ता का समर्थक होने के कारण भारतीयों की आकांक्षाओं के
प्रति सहानुभूति की कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता था, फिर भी गांधीजी के कारण यह समाचार पत्र दक्षिण अफ़्रीका में
रह रहे भारतीयों को समुचित रूप से विज्ञापित करता था। ‘द पायोनियर’ का सम्पादक मिस्टर जॉर्ज मैक्लेगन चेज़नी गांधीजी के इस
अप्रत्याशित और अकस्मात आगमन से बहुत ही प्रसन्न हुआ। दोनों की बात-चीत काफ़ी
उत्साहवर्धक रही। सम्पादक ने गांधीजी की बातों को ध्यान से सुना और कहा कि हालाकि
उनकी सब बातों पर समर्थन संभव नहीं है फिर भी नेटाल संबंधी उनके लेखों पर ध्यान
दिया जाएगा। उसे तो शासक जाति के दृष्टिकोण का भी ध्यान रखना था। गांधीजी ने उससे
कहा, “मैं आपसे पक्ष-समर्थन नहीं, केवल सामान्य न्याय दृष्टि की आशा करता हूं।”
गांधीजी ने जो मसविदा रास्ते में जहाज पर लिखा था, उसके पम्फलेट की शीघ्र छपाई का इंतजाम भी संपादक ने
करवाया। चूंकि यह हरे ज़िल्द में प्रकाशित हुआ था और इसका शीर्षक “The Grievances of the British Indians in South Africa, An
Appeal to the Indian Public.’’ काफ़ी लंबा था, इसका नाम “हरी पुस्तिका” रखा गया। जब अगस्त 1896 में यह पंफलेट प्रकाशित किया गया तो इस समाचार पत्र
के सम्पादक ने कोई खास संज्ञान इसको नहीं दिया। अखबार में एक छोटी सी जगह इसे दी
गई। यह बताया गया कि भारत में एक पंफलेट प्रकाशित हुआ है जिसके द्वारा यह घोषित
किया गया है कि नेटाल में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार होता है और उनकी
शिकायतों को न तो सुना जाता है न ही निपटारा किया जाता है। जबकि वास्तविकता यह थी
कि इस पुस्तिका में बातें तो प्रायः वे ही थीं, जो गांधीजी ने नेटाल में प्रकाशित अपनी ही पुस्तिका “दक्षिण अफ़्रीका में बसने वाले हरेक अंग्रेज़ से अपील” में लिखी थी। लेकिन इसकी भाषा कुछ नरम थी।
शेष दिन नगर भ्रमण में बीता। इलाहाबाद छोड़ने के पहले गांधीजी
भव्य त्रिवेणी, गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर गए। गांधीजी अपने भावी
कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने में लग गए। तब उन्हें क्या पता था कि प्रयाग में ‘द पायोनियर’ के सम्पादक से इस अप्रत्याशित भेंट का भविष्य में क्या
परिणाम निकलेगा? अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि इस अप्रत्याशित
साक्षात्कार ने घटनाओं की श्रृंखला की नींव रखी जिसके कारण अंततः नेटाल में उनकी
लगभग हत्या कर दी गई थी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
1 से 50
तक यहाँ पर - 51. एलेक्ज़ेंडर से पहचान,
52. गिरमिटियों
पर कर,
53. आत्म-दर्शन
की अभिलाषा, 54. नया फ्रैंचाइज़ अधिनियम, 55. दक्षिण
अफ्रीका में बसने वाले भारतीय हतोत्साहित, 56. छः माह
के लिए भारत आगमन
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