गांधी और गांधीवाद
यदि आपको अपने उद्देश्य और साधन तथा ईश्वर में आस्था है तो सूर्य की तपिश भी शीतलता प्रदान करेगी। - महात्मा गांधी
47. बालासुन्दरम का मामला
प्रवेश
दक्षिण अफ़्रीका में किए गए उनके सभी क्रिया कलापों को हम तभी समझ
सकते हैं जब सामान्य जन के प्रति उनके प्रेम को समझ सकें। कालजीवी होकर ही कालजयी हुआ
जा सकता है। महात्मा गांधी की विशेषता उनके कालजीवी होने में है। उनके विचार उनकी
देशकाल के समीक्षा की देन है। यही कारण है कि आज परिस्थितियों की जटिलता ने गांधीजी
को अत्यंत प्रासंगिक बना दिया है। उनका चिंतन, जिसमें साध्य के साथ-साथ साधन पर भी विचार किया जाता था, आज पुनः महत्त्वपूर्ण हो गया है।
गांधीजी के प्रचार कार्य
गांधीजी के नेतृत्व में नेटाल
के भारतीयों ने रंगभेद मूलक कानूनों तथा कष्टप्रद नियमों को रद्द कराने और भावी
अत्याचार को रोकने की कोशिश की। गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लंदन
स्थित ब्रिटिश समिति के सदस्यों से, जिनमें नौरोजी भी थे, सम्पर्क बनाए रखा। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के मामले को भारत
मंत्री और उपनिवेश मंत्री के सामने पेश करने के विषय में, वह उनकी सलाह और समर्थन प्राप्त करते
रहे। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की शिकायतों को लेकर उन्होंने एक अथक
पत्राचारकर्ता के रूप में तीन महाद्वीपों में मित्रों, विरोधियों, समाचारपत्रों और अधिकारियों के नाम
पत्र, तार और विवरण पत्रों की बौछार कर दी। गांधीजी के प्रचार कार्य के ही
परिणाम स्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिसम्बर 1894 के अपने वार्षिक अधिवेशन में
मताधिकार विधेयक के विरोध में प्रस्ताव पास किया और लंदन के ‘टाइम्स’ समाचारपत्र
ने इस समस्या पर कई विशेष लेख छापे।
कमज़ोर तबके के लोगों की कांग्रेस से दूरी
नेटाल कांग्रेस सदस्यता शुल्क
की राशि 3 पौण्ड प्रति वर्ष थी। इसके कारण निम्न आय के भारतीयों को यह अपनी ओर
आकर्षित नहीं कर सकी। हालाकि उपनिवेश में जन्मे हुए हिन्दुस्तानियों और
व्यापारियों का समाज उसमें दाखिल हुआ, लेकिन मज़दूरों ने, गिरमिटिया समाज के लोगों ने, उसमें प्रवेश नहीं किया था। फलस्वरूप इसके ऊपर काफ़ी रुतबे वाले
गुजराती व्यापारियों का प्रभुत्व बना रहा। नतीजतन इसके क्रियाकलापों का झुकाव
अपने ही समुदाय के लाभ की ओर रहा। कमज़ोर तबके के लोगों से जो दूरी पहले से बनी हुई
थी, अब भी बनी रही।
कांग्रेस उनकी नहीं हुई। वे उसमें चंदा देकर और दाखिल होकर उसे अपना नहीं सके।
गांधीजी को इन अनुबंधित
मज़दूरों के बारे में पता तो था, परन्तु उनके काम का दायरा कुछ ऐसा रहा कि अब तक उनसे उनका सीधा
सम्पर्क नहीं हो पाया था। गांधीजी ने अब तक तो धनाढ्य व्यापारियों के साथ काम किया
था, उनके हक़ की लड़ाई
लड़ी थी, इसलिए श्रमिकों की समस्याओं की तुलना में, उन व्यापारियों की समस्याओं की
उन्हें बेहतर जानकारी थी। मज़दूरों और गिरमिटिया समाज के लोगों के मन में कांग्रेस के प्रति
प्रेम तो तभी पैदा हो सकता था, जब कांग्रेस उनकी सेवा करती। ये तो समय बीतने के साथ ज्यों-ज्यों
इक्का-दुक्का मामला सामने आया तो श्रमिकों और अन्य निम्न आय-वर्ग के लोगों की
समस्यायें भी उनके सम्मुख आईं और वे उनसे वाकिफ़ हुए। तदनुसार धीरे-धीरे उनकी
प्राथमिकताएं भी बदलने लगी। ग़रीबों और श्रमिकों की समस्यायों से गांधीजी का शुरु से ही नावाकिफ़
होने का कारण समझा जा सकता है। लेकिन यह कहना, जैसा कि कुछ मानते हैं, बिल्कुल ही ग़लत होगा कि गांधीजी का नेटाल कांग्रेस में भारतीय
बुद्धिजीवी व्यापारियों के एक किराए के प्रतिनिधि की तरह की हैसियत थी। उन्होंने अगर फ़ीस लिया भी था, तो सिर्फ़ उन कामों के जो उन्होंने
उनके लिए एक वकील के रूप में किए थे। उनकी राजनीतिक गतिविधियां ऐच्छिक थी, उनके समाज-सेवा का एक अंग।
असहाय लोगों की मदद
इसी बीच घटनाचक्र ने एक नया
मोड़ लिया। वकालत शुरु किए हुए उन्हें अभी दो-चार महीने ही हुए थे। अपने सक्रिय समय
में से, वकालत के पेशे से कुछ समय बचाकर, गांधीजी ग़रीब और असहाय लोगों की मदद में लगाते थे। यदि उनकी कोई
क़ानूनी सहायता भी करनी होती तो वे इसके लिए कोई फ़ीस नहीं लेते थे। ज़रूरतमंदों की
मदद करने की अपनी दिली इच्छा के तहत वे यह काम करते थे। गांधीजी कहते हैं, “जैसी
जिसकी भावना वैसा उसका फल, नियम
को मैंने अपने बारे में अनेक बार घटित होते देखा है। जनता की अर्थात ग़रीबों की
सेवा करने की मेरी प्रबल इच्छा ने ग़रीबों के साथ मेरा सम्बन्ध हमेशा ही अनायास जोड़
दिया है।”
बालासुन्दरम मदद के लिए पहुंचा
वकालत करते अभी मुश्किल से
तीन-चार महीने ही हुए थे और कांग्रेस अपनी शैशवावस्था में थी, कि एक दिन उनके दफ़्तर में एक तमिल व्यक्ति कांपते और रोते हुए अन्दर
आया। उसके सिर पर साफा नहीं था, उसने साफा बगल में दबा रखा था, बैरिस्टर गांधी के प्रति सम्मान स्वरूप। गांधी को दासता सूचक उसका यह
व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उन्होंने उसे पगड़ी पहन लेने को कहा। उसके कपड़े फटे हुए थे, और वह लहू-लुहान था। मुंह से उसके
ख़ून बह रहे थे। सामने के दो दांत बाहर आकर फटे ओठ से लटक रहे थे। दोनों हाथ को जोड़, वह भय से थर-थर कांप रहा था और उसकी
आंख से झर-झर आंसू गिर रहे थे। गांधीजी के क्लर्क,
जो
स्वयं भी तमिल थे, ने दुभाषिये का काम किया
और उन्हें सम्पूर्ण तथ्य प्राप्त करने में सहायता की। उसका नाम बालासुन्दरम था। वह एक प्रतिष्ठित गोरे के यहाँ मजदूरी करता था। उसने गांधीजी से कहा, कि उसे उसके मालिक ने बुरी तरह मारा
है। उस व्यक्ति ने पूरी जानकारी विस्तार से गांधी को कहा। डरबन में
रह रहे एक प्रतिष्ठित यूरोपीय परिवार के यहां वह इकरारनामे के तहत काम करने वाला
एक गिरमिटिया मज़दूर था। किसी कारण से नाराज़ हो कर उसके मालिक ने उसकी निर्दयता से
पिटाई की थी। इस जंगली और क्रूर व्यवहार के कारण उसके दांत टूट गए थे। उसने गांधीजी
के बारे में सुन रखा था। इसीलिए वह उनके पास मदद के लिए पहुंचा था।
डॉक्टर के पास उपचार के लिए भेजा
गांधीजी ने उसे अपनी मातृभाषा में अपनी शिकायत लिखने को कहा
और उसे अपनी चोटों की प्रकृति के बारे में प्रमाण-पत्र प्राप्त करने तथा उपचार के लिए तत्क्षण उसे एक यूरोपियन डॉक्टर के पास भेजा। साथ ही
उन्होंने उस डॉक्टर से चोटों के बारे में सर्टिफिकेट भी मांगा जिसमें उसके ज़ख़्मों
का पूरा ब्यौरा हो। उन दिनों गोरे डॉक्टर ही मिलते थे, पर सौभाग्य से जिस डॉक्टर के पास वह
गया, वह काफ़ी
संवेदनशील और पुण्यात्मा था। उसने चोटों का प्रमाण-पत्र दे दिया। इसके बाद गांधीजी
बालासुन्दरम को एक मजिस्ट्रेट के पास ले गए। वहां पर बालासुन्दरम ने शपथ-पत्र
प्रस्तुत किया। उसे पढ़कर मजिस्ट्रेट को काफ़ी गुस्सा आया। बालासुन्दरम की हालत देख
वह भी काफ़ी द्रवित हुआ। बालासुन्दरम को उसने इलाज के लिए अस्पताल भेज दिया।
साक्ष्य के तौर पर उसकी रक्तरंजित पगड़ी कोर्ट में ही रख ली गई। मालिक के नाम से
समन भी ज़ारी करने का हुक्म दिया गया।
इकरारनामा रद्द करने की गुजारिश
अस्पताल से कुछ दिनों के बाद
उसकी छुट्टी हुई। वह फिर गांधीजी के पास गया। उसकी इच्छा थी कि उसके मालिक के
ख़िलाफ़ कार्रवाई हो। बालासुन्दरम अपने मालिक के पास वापस नहीं लौटना चाह रहा था।
उसे इतनी बुरी तरह से पीटा गया था कि वह भीतर से बिल्कुल टूट गया था। साथ ही उसने
यह भी गुजारिश की कि उसका इकरारनामा रद्द किया जाए। गांधीजी उसकी भावना को समझ गए।
गांधीजी की नीयत मालिक को सज़ा कराने की नहीं थी। वे तो बालासुन्दरम को उस आदमी से
मुक्ति दिलाना चाहते थे। उन्होंने गिरमिटिया प्रथा से संबंधित क़ानूनों का अध्ययन
किया। अनुबंधित मज़दूरों पर लागू होने वाला क़ानून काफ़ी कठोर था। करार या एग्रीमेंट
पर आए हुए मज़दूर पांच साल तक अपने मालिक को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकते थे। काम
छोड़ने को दंडनीय अपराध माना जाता था। साधारण नौकर अगर नौकरी छोडता तो मालिक उसके
खिलाफ़ दीवानी मुकदमा तो दायर कर सकता था, फ़ौज़दारी नहीं। पर गिरमिटिया क़ानून में यही गुनाह फ़ौज़दारी गुनाह माना
जाता था। क़ैद की सज़ा हो सकती थी। वास्तव में यह एक प्रकार की ग़ुलामी थी जिसमें और
भी कई बातें जुड़ गईं थीं, जैसे कि मियाद। ग़ुलाम की तरह, गिरमिटिया मालिक की मिल्कियत माना जाता था। इसमें मज़दूर को कर्म
करने की स्वतंत्रता नहीं थी। इसीलिए गिरमिटियों पर अफ्रीका के अंग्रेज़ मालिक खूब
अत्याचार करते थे क्योंकि उनकी हालत गुलामों जैसी थी। हां, अगर मालिक रज़ामंदी से उसे अन्यत्र जाने दे, तो दूसरी बात थी। उन्हें मालूम था कि
बालासुन्दरम एक करारबन्द मज़दूर है। इसके क़ानून के तहत यदि कोई मज़दूर मालिक को
छोड़कर चला जाता है, तो उसे भारी दण्ड देना पड़ता था। यहां तक कि उसे जेल भी जाना पड़
सकता था।
मदद के उपाय
गांधीजी क़ानून जानते थे। वे
नहीं चाहते थे कि निर्दयी यूरोपीय मालिक को सज़ा मिले। क़ानून के तहत बालासुन्दरम की
सहायता किस प्रकार से हो सकती थी इस पर गांधीजी ने खूब सोच विचार किया। दो ही
तरीक़े थे। गिरमिटियों के लिए एक नियुक्त अधिकारी हुआ करता था, उसे रक्षक या आश्रयदाता (प्रोटेक्टर
ऑफ इंडेन्चर्ड लेबरर्स) कहते थे। अगर वह गिरमिट या इकरारनामा रद्द कर देता या
दूसरे के नाम कर देता तो बालासुन्दरम का पीछा उस मालिक से छूट सकता था। दूसरा उपाय
यह था कि मालिक खुद ही उसे छोड़ने को तैयार हो जाता।
मालिक से मिले
गांधीजी ने बालासुन्दरम से
पूछा, “यदि तुम्हारा इकरारनामा किसी दूसरे मालिक के पास स्थानान्तरित कर
दिया जाए तो क्या वह तुम्हें मान्य होगा?” उसने हामी भरी। इस मामले को आगे बढ़ाने के लिए गांधीजी को कई औपचारिक
माध्यम से जाना पड़ा। गांधीजी मालिक से मिले और उससे बोले, “मैं आपको सज़ा नहीं कराना चाहता। इस
आदमी को बहुत बुरी तरह से पिटाई लगी है, यह तो आप जानते ही हैं। आप इसका गिरमिट दूसरे के नाम कर दें, इसमें ही हमें संतोष होगा।” पहले तो यूरोपीय मालिक इस बात के लिए तैयार हो गया था कि वह
बालासुन्दरम को छोड़ देगा, पर पत्नी के द्वारा विरोध किए जाने पर वह अपनी बात से तुरत पलट गया।
आश्रयदाता से मिले
गांधीजी प्रवासी भारतीय के
आश्रयदाता से मिले। पर वह बड़ा ही पक्षपाती निकला। उसे तो केवल यूरोपीय मालिक के
हित की ही चिन्ता थी। वहां बदनसीब बालासुन्दरम को इस बात के लिए राज़ी किया जाने
लगा कि वह एक ऐसे दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करे जिसमें यह लिखा था कि उसे अपने मालिक
से कोई शिकायत नहीं है। आश्रयदाता के व्यवहार से गांधीजी चकित थे। बालासुन्दरम गांधीजी
से अब भी निवेदन कर रहा था कि वे उसका पीछा इस मालिक से छुड़वाएं। गांधीजी ने
आश्रयदाता पर और दवाब बढाया पर वह किसी तरह राज़ी नहीं हुआ।
फिर मजिस्ट्रेट के पास
अंतिम विकल्प के तौर पर वे
बालासुन्दरम को एक बार फिर मजिस्ट्रेट के पास ले गए। पूरा वाकया सुन कर मजिस्ट्रेट
आग-बबूला हो गया। उसने मालिक को बुलवाया। गांधीजी इसके बाद भी नहीं चाहते थे कि
उसे कोई सज़ा हो। यहां तक कि यदि वह इकरारनामे को तोड़ बालासुन्दरम को नए मालिक के
पास जाने के लिए छोड़ देता तो वे अपनी शिकायत भी वापस लेने को तैयार थे। कानून को अपने
हाथ में लेने और गरीब आदमी को “जानवर की तरह पीटने” के लिए नियोक्ता
को कड़ी फटकार लगाते हुए मजिस्ट्रेट ने उससे कहा कि अगर उसने उसके सामने रखे गए प्रस्ताव
का लाभ नहीं उठाया तो परिणाम गंभीर हो सकते हैं। इसके साथ ही उसने अदालत की कार्यवाही
स्थगित कर दी और नियोक्ता को अपना मन बनाने के लिए एक दिन का समय दिया। इस चेतावनी का असर हुआ, और वह बालासुन्दरम को छोड़ने पर राज़ी हो गया। आश्रयदाता तो अब भी
सहयोग करने को राज़ी नहीं था। उसकी जिम्मेदारी थी कि वह नए यूरोपीय मालिक की तलाश
करता, पर उसने यह जिम्मेदारी गांधीजी पर टाल दी। संरक्षक ने गांधीजी को
एक नोट भेजा कि जब तक वे किसी दूसरे यूरोपीय नियोक्ता का नाम नहीं बताते, जिसे वे, संरक्षक स्वीकार कर सकें,
वे
हस्तांतरण के लिए सहमति नहीं देंगे। गांधीजी को
बालासुन्दरम के लिए नया मालिक खोजना था। भारतीयों को गिरमिटिया मज़दूर रखने की
इजाज़त नहीं थी।
बालासुन्दरम का मामला चर्चा का विषय
गांधीजी ने अपने मित्र ए.जे.
एस्क्यू से बात की, वह बालासुन्दरम को अपने यहां रखने के लिए खुशी-खुशी राज़ी हो गया।
पूरे उपनिवेश में बालासुन्दरम का मामला चर्चा का विषय बन गया। गांधीजी को
बालासुन्दरम का मित्र मान लिया गया। उनके दफ़्तर में गिरमिटियों का तांता लग गया। इकरारनामे
के तहत मज़दूर बने प्रवासी भारतीयों के मन में एक सुरक्षा की भावना जगी कि दक्षिण
अफ़्रीका में अब कोई उनका हिमायती है जो वक़्त ज़रूरत पर उनकी रक्षा करने को आगे
आएगा। उनके बीच जो कोई भी पीड़ित था, अब गांधीजी को मददगार के रूप में देखने लगा। गांधीजी को अब लगने लगा कि वे
उन सारे क़ानूनों का अध्ययन करें जो इकरारनामे के तहत लाए गए मज़दूरों से संबंधित
था। गांधीजी अब दुगुने उत्साह के साथ नेटाल कांग्रेस के लिए काम करने लगे
और उन्हें इस बात का संतोष था कि यह संस्था ग़रीब-मज़दूरों के हित में आगे आकर उनकी
समस्याओं का समाधान कर रही है। प्रवासी भारतीय के विभिन्न समुदाय के हितों का
कांग्रेस से जोड़ना गांधीजी की भाव-भंगिमा में यह एक सुखद बदलाव था। बालासुन्दरम से
भेंट काफ़ी परिवर्तनकारी साबित हुआ।
श्रमिक के सिर की पगड़ी
बालासुन्दरम गांधीजी के दफ़्तर
में उनका आभार प्रकट करने आया। उसका साफा उसके हाथ में था। यह देख गांधीजी काफ़ी
दुखी हो गए। उन्होंने बालासुन्दरम को कहा कि फ़ौरन इसे सिर पर रखो। काफ़ी संकोच के
साथ उसने साफा सर पर बांधा। सर पर साफा बांधने की जो खुशी बालासुन्दरम के मन में
थी वह गांधीजी की नज़रों से न छुप सकी। गांधीजी को इस बात का घोर आश्चर्य था कि इस
ग़रीब को सताकर गोरों को क्या मिला? इस ग़रीब श्रमिक के सिर की पगड़ी हटाकर उन्हें कौन सा सुख मिलता है? गांधीजी कहते हैं, “दूसरों
को अपमानित करके लोग अपने को सम्मानित कैसे समझ सकते हैं,
इस पहेली को मैं आज तक हल नहीं कर सका हूं।”
उपसंहार
अब्दुल्ला सेठ के मुकदमे ने
गांधीजी को अफ्रीका के हिन्दुस्तानी समाज के उच्च और मध्यम वर्ग में प्रसिद्ध किया था लेकिन अफ्रीका के गरीब
हिन्दुस्तानियों के बीच गाांधी की लोकप्रियता बालासुंदरम के मुकदमे के बाद ही हुई थी। इस
मामले के बाद नेटाल के करारबंद मज़दूरों को आशा की एक किरण दिखाई देने लगी कि उनके
हित के लिए सोचने वाला वहां कोई है। गांधीजी उनके संरक्षक बन गए। पीड़ितों को न्याय
दिलाना गांधीजी का मकसद बन गया। गरीबों
की सेवा करने की उनकी प्रबल इच्छा ने गरीबों के साथ उनका
सम्बन्ध हमेशा ही अनायास जोड़ दिया। बदले में, उन्हें गिरमिटिया मज़दूरों से
संबंधित विभिन्न अधिनियमों का और अधिक अध्ययन करने की प्रेरणा मिली। इस प्रक्रिया
में वे इस तथ्य के प्रति अधिक सजग हो गए कि नेटाल कांग्रेस को उनकी समस्याओं के
बारे में कुछ करना होगा। यह भारतीय समुदाय के विभिन्न वर्गों के प्रति गांधीजी के
दृष्टिकोण में कुछ हद तक बदलाव की शुरुआत थी। उस समय उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन्हें
गिरमिटिया मज़दूरों के रहने और बागानों में काम करने की परिस्थितियों के बारे में
पर्याप्त प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं था। गांधीजी
चाहते थे कि सामाजिक विषमता और अन्याय को मिटाने के लिए अहिंसात्मक तरीक़े अपनाए
जाएं। गांधीजी की अहिंसा बलवानों की अहिंसा थी। वे मानते थे
कि विरोधियों को पराजित करने के बजाय उनके हृदय-परिवर्तन से आने वाला बदलाव
चिरस्थायी होता है। बालासुन्दरम ने इतिहास में एक छोटी सी लेकिन निर्णायक भूमिका
निबाही, क्योंकि अनजाने में ही उसने गांधीजी
को एक बड़े अभियान की आधारशिला रख दी थी। अब गाँधीजी
अफ्रीका के समस्त हिन्दुस्तानी समाज के नायक बन गये और उनके नायकत्व के चर्चे भारत
में भी होने लगे।
***
संदर्भ :
1 |
सत्य के प्रयोग |
2 |
बापू के साथ – कनु गांधी और आभा
गांधी |
3 |
Gandhi Ordained in South
Afrika – J.N. Uppal |
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गांधीजी एक महात्मा की संक्षिप्त जीवनी – विंसेंट शीन |
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महात्मा गांधीजीवन और दर्शन – रोमां रोलां |
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M. K. GANDHI AN INDIAN
PATRIOT IN SOUTH AFRICA by JOSEPH J. DOKE |
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गांधी एक जीवनी, कृष्ण कृपलानी |
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गाांधी जीवन और विचार - आर.के . पालीवाल |
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दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास,
मो.क. गाँधी |
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The Life and Death
of MAHATMA GANDHI by Robert
Payne |
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गांधी की कहानी - लुई फिशर |
12 |
महात्मा गाांधी: एक जीवनी - बी. आर. नंदा |
13 |
Mahatma
Gandhi – His Life & Times by:
Louis Fischer |
14 |
MAHATMA Life of
Mohandas Karamchand Gandhi By:
D. G. Tendulkar |
15 |
MAHATMA GANDHI
By PYARELAL |
16 |
Mohandas A True
Story of a Man, his People and an Empire – Rajmohan Gandhi |
17 |
Catching
up with Gandhi – Graham Turner |
18 |
शांति दूत गांधी – मनोरमा जफ़ा |
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां
गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में
सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के
कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की
सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी
तौर-तरीक़े,
22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों
का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का,
31. प्रवासी
भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय
में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स...,
33. अपमान
का घूँट, 34. विनम्र
हठीले गांधी, 35. धार्मिक
विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी
का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना
रहित मन, 38. दो
पत्र, 39. मुक़दमे
का पंच-फैसला, 40. स्वदेश
लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़
बिल का विरोध, 42. नेटाल
में कुछ दिन और, 43. न्यायालय
में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा
अनुभव, 45. धर्म
संबंधी धारणाएं, 46. नेटाल इन्डियन कांग्रेस
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