सोमवार, 12 अगस्त 2024

41. फ्रेंचाईज़ बिल का विरोध

 गांधी और गांधीवाद

जो मनुष्य किसी का भी बोझ हलका करता है वह निकम्मा नहीं है। - महात्मा गांधी

जून-जुलाई 1894

41. फ्रेंचाईज़ बिल का विरोध

प्रवेश

दक्षिण अफ्रीका की गिरमिटिया मज़दूरी की व्यवस्था, जिसके तहत भारतीयों को चीनी के खेतों में काम करने के लिए आयात किया जाता था, गुलामी से थोड़ी बेहतर, दासता की व्यवस्था थी। यहाँ तक कि आज़ाद भारतीयों को भी इसके अपमानजनक प्रभावों का सामना करना पड़ा। कुछ उल्लेखनीय मामलों को छोड़कर, प्रवासी भारतीयों में कोई उच्च सिद्धांत, कोई महान महत्वाकांक्षा, कोई पुरुषार्थ की चेतना नहीं थी, जिसके साथ वे औपनिवेशिक कानूनों के लगातार बढ़ते उत्पीड़न का विरोध कर सकें। वे गुलाम बनकर जीने में संतुष्ट थे। यह उदासीनता ही थी जिसने गांधीजी को स्तब्ध कर दिया। अब तक के दक्षिण अफ़्रीका में बिताए दिनों में गांधीजी का अनुभव अनोखा था। इंग्लैंड से बैरिस्टर की उपाधि ग्रहण करने के कारण गांधीजी ने कई चीज़ें बतौर हक़ मांगी, जैसे पहले दर्ज़े का टिकट, होटल के कमरे में ठहरने के लिए कमरा। उनसे पहले दक्षिण अफ़्रीका में कोई भारतीय इस तरह की बात करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था। गांधीजी के अनुभवों ने भारतीयों को यह समझा दिया कि गोरी जाति हर हाल में अपनी जातीय संप्रभुता क़ायम रखना चाहती है। चूंकि प्रवासी भारतीयों में केवल गांधीजी ही ऐसे थे, जो ब्रिटेन से पढ़कर आये थे, इसलिए रंगभेद के ख़िलाफ़ भारतीयों के आंदोलन चलाने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी उन्हीं पर आ पड़ी। उन्होंने देखा कि प्रवासी भारतीय क्या करने में सक्षम थे, और महसूस किया कि वे किस ओर बह रहे थे, और उन्होंने अपने समुदाय के भीतर और बाहर, उन तत्वों का पूरी ताकत से विरोध करने का दृढ़ निश्चय किया, जो पतन का कारण बन रहे थे। जनसेवा के लिए गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में रुकना मंज़ूर कर लिया और भारतीय व्यापारियों ने गांधीजी को अपना नेता मान लिया। 

बिल के विरोध के लिए सभा

बहुत से लोगों को क़ानून की जानकारी नहीं के बराबर थी इसलिए सबसे पहले उन्हें यह समझाने की ज़रूरत थी कि उनके लिए इस क़ानून का विरोध करना क्यों आवश्यक है उस समय मौजूद क़ानून के मुताबि केवल 250 भारतीयों को मताधिकार प्राप्त था, जबकि ऐसे अधिकार रखने वाले यूरोपिय लगभग 10,000 थे। यह अधिकार भारतीयों को संपत्ति का स्वामी होने के कारण या कर देने के कारण प्राप्त थे। प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य इन मुट्ठीभर भारतीयों को भी उनके चुनावी अधिकारों से वंचित करना था। गांधी जी तुरन्त काम में जुट गये। भारतीयों द्वारा विधेयक-विरोधी आंदोलन चलाने के लिये, विदाई के जलसे में सम्मिलित लोगों की एक राजनीतिक समिति बन गई। दूसरे दिन मिलने के निर्णय के साथ सभा विसर्जित हुई। नेटाल के हिन्दुस्तानी समाज के अग्रगण्य नेता सेठ हाजी मुहम्मद हाजी दादा, के सभापतित्व में दूसरे दिन सेठ अब्दुल्ला के घर पर एक सभा हुई। सभा में गांधी जी ने विभिन्न जातियों के प्रवासी भारतीयों में एकता की दृढ़ भावना पैदा की। भारतीयों को मताधिकार से वंचित किये जाने का सही-सही अर्थ और उससे होने वाले परिणाम को उन्होंने खूब अच्छी तरह समझाया। यह निश्चय किया गया कि मताधिकार संशोधन विधेयक का विरोध किया जाएगा। उन्हें इस बात का पता चला कि नेटाल में जो भारतीय जन्मे थे, वे अधिकांशतया ईसाई हो गए थे और ये लोग भारत से आए हिन्दू-मुसलमानों में अधिक घुलते-मिलते भी नहीं थे। ये युवा थे, और कुछ हद तक शिक्षित भी। इन ईसाई नौजवानों को इकट्ठा कर स्वयं सेवकों का दल गठित किया गया। बाद में सभी जातियों, धर्मों, के युवा, व्यस्क सभी ने, स्वयं सेवक दल में अपना नाम लिखाया। उपस्थित संकट के सामने नीच-ऊँच, छोटे-बडे, मालिक-नौकर, हिन्द-ू मुसलमान, पारसी, ईसाई, गुजराती, मराठी, सिन्धी आदि भेद समाप्त हो चुके थे। सब भारत की सन्तान और सेवक थे। उनके कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण अंग था, भारत और इंग्लैंड की सरकारों और जनता का विवेक जागृत कर उन्हें अपने आंदोलन के पक्ष में करने के लिए व्यापक प्रचार।

बिल विधान सभा में पेश

संगठन के काम और शुरुआती तैयारियों में कुछ दिन लग गए। विषय का गहन अध्ययन, वकीलों से सलाह-मशवरा और मामले से संबंधित दस्तावेज़ों को इकट्ठा करना बहुत ज़रूरी था ताकि प्रस्तावित विधेयक के विरोध में प्रभावकारी तर्क दिया जा सके। जब तक इन सब से निबट कर गांधी जी अर्ज़ी का मसौदा तैयार करने की स्थिति में हुए तब तक विधान सभा में 20 जून 1894 को बिल का दूसरा वाचन हो चुका था। प्रधान मंत्री सर जॉन रॉबिन्सन ने जातीय आधार पर मताधिकार से वंचित करने वाले सिद्धांत को मान लिया। उनके अनुसार एशियावासी न तो उस धरती और न ही उस उपनिवेश की स्थानीय जातियों के वंशज थे। दक्षिण अफ़्रीकी उपनिवेश में ये लोग क्रिस्चियन और यूरोप वासियों के लिए खतरा हो सकते थे। जो इस विधेयक से प्रभावित हो रहे हैं वे किसी राजनीतिक उद्देश्य से दक्षिण अफ़्रीका नहीं आए थे। उनका तो उद्देश्य व्यापार करना या धन कमाना था। यह संशोधन उन्हें किसी ऐसे अधिकार से वंचित नहीं करने जा रहा, जो उन्हें पहले से रहा हो। बल्कि यह अधिकार उन्हें दे दिया गया तो ये उस देश में भी आन्दोलन करेंगे जहां से ये आए हैं। इस विधेयक को पास करने की इतनी जल्दबाजी थी कि रात दस बजे तक विधान सभा की बैठक चली और इस विधेयक को पढ़ा गया।

बिल की चर्चा दो दिनों के लिए मुलतवी

गांधी जी ने महसूस किया कि किसी भारतीय द्वारा इस विधेयक का विरोध नहीं किए जाने को वहां की सरकार इस बिल के प्रति भारतीयों की उदासीनता मान रही है और निष्कर्ष के तौर पर वे यह कह रहे थे कि भारतीय इसके लिए योग्य नहीं हैं। विधेयक पास कराने की गति से भी वे भौचक्के थे। इसलिए वे बिना विलम्ब धारा सभा में अपनी अर्ज़ी पेश कर देना चाह रहे थे। चूंकि विधेयक 26 जून 1894 को एक समिति के पास भेज दिया गया था और तीसरी बार इसे 27 जून को धारा सभा में पेश किया जाना था, इसलिए गांधीजी ने पहला काम यह किया कि तार द्वारा सभा के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री सर जॉन रोबिन्सन को यह निवेदन किया कि वे विधेयक पर अधिक विचार करना मुलतवी कर दें। इस तार के जवाब में अध्यक्ष का तार मिला कि बिल की चर्चा दो दिन तक मुलतवी रहेगी। सब ख़ुश हुए। यह समय मिल जाने से अर्ज़ी तैयार कर पाने की मोहलत मिली।

प्रार्थना-पत्र तैयार

यह बात तो तय था कि डरबन में हैरी एस्कोम्ब जैसे सहयोगी, लंदन में दादाभाई नौरोजी जैसे सहयोगी और दादा अब्दुल्ला के संसाधनों के साथ गांधीजी एक शक्तिशाली स्थिति में थे। अगर वह किसी उच्च अधिकारी को ज्ञापन या याचिका लिखते, तो उसे रद्दी की टोकरी में फेंके जाने की संभावना नहीं के बराबर थी। तथ्य और आंकड़ों के आधार पर गांधी जी द्वारा प्रार्थना-पत्र तैयार किया गया। गांधी जी ने अर्ज़ी में निवेदन किया कि एक आयोग गठित किया जाना चाहिए ताकि मताधिकार संबंधी प्रश्न की जांच हो सके। प्रार्थना-पत्र पर जितना मिल सके उतने हस्ताक्षर लेने थे। सारा काम एक ही रात में करना था। एक कमेटी गठित की गयी। सेठ अब्दुल्ला हाजी आदम को उस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। शिक्षित स्वयं सेवक और दूसरे लोग लगभग सारी रात जागे।  स्वयं सेवकों द्वारा जी-तोड़ मेहनत कर इस विरोध-पत्र पर 500 हस्ताक्षर लिए गए। व्यापारी स्वयं सेवक अपनी- अपनी गाड़ियां लेकर अथवा अपने खर्च से गाड़ियां किराये पर लेकर हस्ताक्षर लेने के लिए निकल पड़े। एक भारतीय मि. आर्थर ने सुन्दर अक्षरों में प्रार्थना-पत्र लिखा था। इसकी प्रतिलिपियां बनाई गई। प्रार्थना-पत्र यथा-स्थान भेज दिए गए। 28 जून, 1894 को उस विरोध-पत्र को उन्होंने धारा-सभा के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री आदि को भेजा। वह अर्जी दक्षिण अफ्रीका की धारा सभाओं में से नेटाल की धारासभा में भेजी गई हिन्दुस्तानियों की सबसे पहली अर्जी थी उसका काफ़ी असर हुआ अगली सुबह इस प्रार्थनापत्र को समाचारपत्रों में काफी प्रचार मिला। गांधीजी ने भारत के नेताओं को भी इस बारे में पत्र लिखकर बताया। इसका नतीज़ा यह हुआ कि दिसंबर, 1894 में जो वार्षिक अधिवेशन हुआ उसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मताधिकार क़ानून के विरोध में प्रस्ताव पारित किया। गांधीजी ने भारत और इंग्लैंड के समाचार पत्रों को भी इस बाबत लिखा। लंदन के ‘टाइम्स’ समेत कई अखबारों ने इस विषय पर आलेख लिखे।

बिल पास हो गया

28 जून 1894 को अर्ज़ी धारा सभा में पेश की गई। सदन की कार्रवाई देखने के लिए उत्सुक भारतीय समुदाय से आगन्तुक गैलरी खचाखच भरी थी। अर्ज़ी स्वीकार कर ली गई और यह निर्णय हुआ कि इसे सबकी जानकारी के लिए प्रकाशित किया जाए। प्रधानमंत्री ने इस अर्ज़ी पर आगे की कार्रवाई चार दिनों के स्थगित कर दिया। 29 जून को गांधी जी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिला। उनके साथ एक संशोधित ज्ञापन भी था, जिसमें कई और बातों का ज़िक्र किया गया था, जो पहले की अर्ज़ी में छूट गई थीं। हालाकि उनकी बातें गंभीरता से सुनी गई, पर उन्हें कहा गया कि अब काफ़ी देर हो चुकी है। सत्तारूढ़ दल भारतीयों के मताधिकार को खत्म करने पर अड़ा था। 2 जुलाई को तीसरी सुनवाई हुई और बिल पास हो गया। 3 जुलाई को एक प्रतिनिधिमंडल ने नेटाल के राज्यपाल को एक ज्ञापन दिया। 4 और 6 जुलाई को नेटाल विधान सभा को विस्तृत ज्ञापन दिया गया। इस सब के बावज़ूद बिल को ऊपरी सदन से भी पारित करा लिया गया। वहां के गवर्नर ने उसे मंजूरी भी दे दी थी। पर इसके बावज़ूद प्रवासी भारतीयों में नवजीवन का संचार हुआ। वे यह समझे कि हम एक कौम हैं, केवल व्यापार सम्बन्धी अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि कौम के अधिकार के लिए भी लड़ना सबका धर्म है।

एक अवसर अभी भी बचा था

नेटाल की धारा सभा से पास यह विधेयक इंग्लैंड की महारानी की मंजूरी के बिना क़ानून का रूप नहीं ले सकता था। इस बीच एक अच्छी खबर यह आई कि जब प्रस्तावित बिल समिति के स्तर पर थी, तो इसमें एक नई धारा जोड़ दी गई कि बिल पारित हो जाने की बाद भी तब तक प्रभावी नहीं होगी जब तक महारानी की मंज़ूरी नहीं मिल जाती। इस तरह से भारतीयों के पास एक अवसर अभी भी बचा था कि वे लंदन में उपनिवेशों का काम देखने वाले गृह सचिव के पास यह अर्ज़ी कर सकें कि महारानी से इस पर मंज़ूरी न देने की सिफ़ारिश किया जाए। वहाँ के भारतीय इस तरह की लड़ाई पहली बार लड़ रहे थे, इसलिए उनके बीच एक अजीब तरह का उत्साह था। रोज़ सभाएं होती। अधिक से अधिक लोग उसमें भाग लेते। स्वेच्छा से लोग दान देते। काफी धन भी इकट्ठा हो गया। काम करने के लिए अनेक स्वयं सेवक सामने आ गए। दादा अब्दुल्ला का घर सार्वजनिक दफ्तर सा बन गया था। काम करने वालों का भोजन दादा अब्दुल्ला के घर से ही होता था। गांधीजी एक और प्रार्थनापत्र तैयार करने लगे। यह प्रार्थनापत्र ब्रिटेन उपनिवेश सचिव लॉर्ड रिपन के नाम था। एक पखवाड़े में इस प्रार्थनापत्र पर उन्होंने दस हज़ार भारतीयों के हस्ताक्षर प्राप्त किया। कहना चाहिए कि नेटाल में बसे हुए सभी मुक्त भारतवासियों ने उसपर अपने हस्ताक्षर किए थे। गांधीजी का एक खास ढंग यह रहा कि वह हर बहाने से लोगों को राजनैतिक शिक्षा भी देते जाते थे। उदाहरण के लिए, जबतक हर आदमी अर्जी में लिखी बात को समझ और स्वीकार नहीं कर लेता, उसपर उसके दस्तखत नहीं करवाए जाते थे। इंग्लैंड में उपनिवेश मंत्री लॉर्ड रिपन को यह विरोध अर्ज़ी भेजी गई। उस अर्ज़ी की प्रति गांधीजी ने कई अख़बारों को भी भेजी। भारत के अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया और लंदन के टाइम्स अख़बारों ने गांधीजी की अर्ज़ी का समर्थन करते उनके विचारों का समर्थन किया। 'टाइम्स' अखबार ने तीन साल के दरम्यान दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की समस्या पर आठ विशेष लेख छापे। गांधीजी की इन राजनीतिक गतिविधियों को ‘भारतीयों का नरमपंथी आंदोलन’ की संज्ञा दिया जा सकता है। वे समझते थे कि यदि ब्रिटिश सरकार को सच्चाई का पता चल जायेगा, तो उसका दिल ज़रूर पिघलेगा और वह भारतीयों के हित में ज़रूर कुछ करेगी, क्योंकि आख़िर भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के ही तो बाशिंदे हैं। साथ ही गांधीजी विभिन्न भारतीय समुदाय को संगठित करने और उनकी मांगों का ख़ूब प्रचार करने का लगातार प्रयास करते रहे। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ़ विधान मण्डलों में याचिकाएं प्रस्तुत की बल्कि अखबारों में वक्तव्य प्रकाशित कराये; ब्रिटेन, भारत और नेटाल में प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे और सार्वजनिक सभाएं आयोजित की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीयों के साथ न्याय किया जाए। इससे जन-मानस आन्दोलित तो हुआ। भारत की जनता को दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे अपने देश-वासियों के कष्टों और अपमानों का पहली बार पता चला। जोसफ डोक कहते हैं, इन सब गतिविधियों ने अब तक उदासीन भारतीय समुदाय में एक नई आत्म चेतना का संचार किया, जिसे सरकार भी बिना चिंता के नहीं देख सकी। स्वयं गांधीजी का मानना ​​था कि अपने लोगों को उस दासतापूर्ण स्थिति से ऊपर उठाने के लिए इस तरह की जागृति की आवश्यकता थी। दक्षिण  अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष का उद्देश्य यह नहीं था कि वहाँ के भारतीयों के साथ गोरों के समान बर्ताव किया जाये। वह तो एक सिद्धांत स्थापित करना चाहते थे भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक हैं और इसलिए उसके कानून के अधीन उन्हें उसी समानता का अधिकार है।

गांधीजी की रणनीति

ऊपर के वर्णनों के आधार पर हम देख सकते हैं कि गांधीजी की रणनीति के तीन अंग थे — एक तो दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न जातियों के प्रवासी भारतीयों में एकता की भावना पैदा करना। बंबई के मुसलमान व्यापारी और उनके हिन्दू एवं पारसी क्लर्क, मद्रास के अर्ध-गुलामों जैसे गिरमिटिया मज़दूर और नेटाल में पैदा हुए हिंदुस्तानी ईसाई — सभी अपने को एक देश की संतान अर्थात भारतीय समझें। खासतौर पर नेटाल के हिंदुस्तानी ईसाइयों में यह भावना पैदा करनी थी कि ईसाई होने से ही उनका हिंदुस्तानीपन खत्म नहीं हो जाता। उधर व्यापारियों में भी यह भावना पैदा करनी थी कि बेहद गरीबी के कारण दूर देश नेटाल में आकर गिरमिटिया बनने को मज़बूर होनेवाले बदनसीब मज़दूर भी आखिर उन्हीं के देश-भाई हैं। दूसरा अंग था, भारतीयों को मताधिकार से वंचित किए जाने के सही-सही माने और उससे होनेवाले नतीजों को न केवल वहां के भारतीय निवासियों को बल्कि नेटाल की सरकार और यूरोपियन आबादी में जो समझदार तबका था उन सबको समझाने का काम और तीसरा अंग था, भारत और इंग्लैंड की सरकारों और दोनों देशों के जनमत को इस आंदोलन के पक्ष में करने के लिए व्यापक प्रचार कार्य।

दादाभाई नौरोजी को पत्र

दादाभाई नौरोजी, बॉम्बे के भूतपूर्व गणित शिक्षक और लंदन के व्यापारी थे, जिन्होंने राजनीति के लिए गणित और व्यापार को त्याग दिया था। उस समय वे सेंट्रल फिन्सबरी निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य के रूप में हाउस ऑफ कॉमन्स (ब्रिटिश संसद) में बैठे थे। दादाभाई नौरोजी उन बुद्धिमान, संयमी, शांत व्यक्तियों में से एक थे, जो भारतीय स्वतंत्रता की नींव रखने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थे। जब उनसे पूछा गया कि यदि किसी चमत्कार से भारत उनके जीवनकाल में स्वतंत्र हो जाए तो क्या वे स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री का पद स्वीकार करेंगे, तो उन्होंने उत्तर दिया: "नहीं, मैं गणित पढ़ाने वापस जाऊंगा।" उनको जीवन भर यह अफसोस रहा कि differential calculus पर लिखी जा रही पुस्तक को पूरा करने के लिए उनके पास कभी समय नहीं था। गांधीजी को इस बात की जानकारी थी कि दादा भाई नौरोजी की दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों के प्रति गहरी सहानुभूति है। वे उनसे भी सहायता मांगने में नहीं हिचकिचाए। उन्हें इस बात का अहसास था कि हाउस ऑफ कॉमन में सदस्य होने के नाते उनसे काफ़ी मदद मिल सकती है। 5 जुलाई 1894 को ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया’ को लिखे अपने पहले पत्र में उन्होंने लिखा था, अगर प्रेषक की सूचना सही है, तो एटर्नी जनरल एस्कोंब ने इस आशय की रिपोर्ट दी है कि मताधिकार विधेयक को पारित करने का एकमात्र उद्देश्य एशियावासियों को देसी लोगों के शासन पर नियंत्रण स्थापित करने से रोकना है। लेकिन वास्तविकता मात्र यह है कि वे भारतीयों को इस तरह अपात्र बना देना चाहते हैं और उनको इस प्रकार अपमानित करना चाहते हैं कि उपनिवेश में रहना उनके लिए संभव रहे। लेकिन फिर भी वे भारतीयों से पूरी तरह पीछा छुड़ाना नहीं चाहते। वे निश्चित ही ऐसे भारतीयों को नहीं चाहते जो अपने साधनों के साथ आएं। उन्हें करारबंद भारतीयों की बहुत ज़रूरत है। लेकिन वे चाहते हैं कि करारबंद भारतीय करार की अवधि पूरी हो जाने के बाद भारत लौट जाएं। वे दक्षिण अफ़्रीका में और भारतीयों को देखना नहीं चाहते। वे सिर्फ़ कुली चाहते हैं, जो तब तक ही वहां रहेंगे जब तक ग़ुलाम रहेंगे। और जैसे ही आज़ाद होंगे, भारत चले जाएंगे।  कितनी पूर्ण, सिंह-समान भागीदारी है यह! वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह काम वे एक ही बार में नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने मताधिकार विधेयक से अपना काम शुरू किया है। वे इस सवाल पर अपने देश की सरकार की भावना जानना चाहते हैं। ...

दो शब्द मेरे और ... जो कुछ मैंने किया उसके बारे में। मैं अभी भी अनुभवहीन और छोटा हूं और इसलिए बहुत संभव है कि ग़लतियां कर बैठूं। यह जिम्मेदारी मेरी योग्यता से कहीं बहुत अधिक है। मैं यह भी लिख दूं कि मैं यह सब बिना किसी पारिश्रमिक के कर रहा हूं। इसलिए आप पाएंगे कि मैंने इस विषय को जो मेरी योग्यता से बाहर है, इसलिए नहीं उठाया है कि मैं भारतीयों की क़ीमत पर ख़ुद धन बटोरना चाहता हूं। मैं यहां एकमात्र उपलब्ध व्यक्ति हूं जो इस सवाल को निबटा सकता है। इसलिए अगर आप मुझे कृपा करके रास्ता दिखाएं और आवश्यक सुझाव दें तो यह मेरे ऊपर आपका  बहुत बड़ा एहसान होगा। मैं उनको बच्चे के लिए पिता का सुझाव मानकर स्वीकार करूंगा।

विधेयक अस्वीकार – एक और विधेयक प्रस्तुत

गांधीजी के प्रभावशाली प्रचार-प्रसार के कारण लंदन के उपनिवेश मंत्रालय ने यह कहकर उस विधेयक को अस्वीकार कर दिया कि यह विधेयक ब्रिटिश साम्राज्य के एक भाग के निवासियों के साथ भेद-भव बरतने वाला है। लेकिन भारतीय समुदाय की ख़ुशी क्षणिक सिद्ध हुई। नेटाल सरकार ने सम्राजी सरकार की आपत्ति से बचने का रास्ता निकालने के लिए दूसरा दांव खेला। एक और विधेयक प्रस्तुत किया गया। जिसका लक्ष्य तो वही था, लेकिन रास्ता दूसरा। इस विधेयक में रंग-भेद का कहीं कोई उल्लेख नहीं था। इस संशोधित विधेयक के अनुसार गवर्नर जनरल की विशेष अनुमति के बिना जिन देशों (यूरोप के अलावा) में पार्लियामेंटरी ढंग की चुनावी-प्रणाली और उससे बनी जन-प्रतिनिधियों की संस्थाएं नहीं हैं, वहां के मूल निवासियों का नाम मतदाता सूची में दर्ज़ नहीं हो सकता। यह संशोधित विधेयक भी भारतीयों को मताधिकार से वंचित करता था।

उपसंहार

डरबन से गांधीजी ने एक शानदार अभियान चलाई उनके निशाने पर एक साथ चार-चार लक्ष्य थे, नेटाल की धरा सभा जहां से विधेयक को पारित किया जाना था, नेटाल के यूरोपवासी, साम्राज्य के लन्दन स्थित नेता, भारत में जनता की राय गांधीजी के नेतृत्व में प्रवासी भारतीयों का प्रयास विधेयक को पराजित करने में असफल रहा, लेकिन इसने भारतीयों को यह सिखा दिया कि वे कोई सिफर नहीं हैं, और इसने यूरोपीय लोगों को यह सिखाया कि औपनिवेशिक जीवन में एक नई शक्ति का जन्म हो चुका है। अंततः जागृति आ चुकी थी; और पूरे भारतीय समुदाय में आत्म-चेतना की एक नई लहर दौड़ चुकी थी। अब उनका प्रयास इस राष्ट्रीय उत्थान को बढ़ावा देना और प्रोत्साहित करना था। भारतीय समुदाय को नेतृत्व के लिए गांधी जी की ओर आशा से निहार रहा था। काम को पूरा करने का उत्तरदायित्व उन्होंने अपने ऊपर ले लिया, क्योंकि उस समय इस काम को कर सकने वाले वही अकेले व्यक्ति थे। वे 1893 में एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। तब वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें करीब दो दशक का समय वहां बिताना पड़ेगा। प्राथमिक नागरिक अधिकारों के लिए भारतीय प्रवासियों का संघर्ष दीर्घ अवधि तक चलने वाला और प्रचण्ड रूप ग्रहण करने वाला था। उनके लिए यह एक शानदार शुरुआत थी, जिसका परिणाम अच्छे फलों की फसल की भविष्यवाणी थी। नेटाल की राजनीति में गांधीजी के हस्तक्षेप का तात्कालिक कारण भारतीयों को मताधिकार से वंचित किया जाना था, लेकिन यह तो जाति-भेद के रोग का एक लक्षण मात्र था जो उस अंधियारे महाद्वीप को सता रहा था। इस शुरुआती सार्वजनिक जीवन के दिनों में ही गांधीजी ने सूक्ष्म राजनीतिक अन्तःदृष्टि का परिचय दिया। राजनीतिक अन्तःदृष्टि, व्यक्तियों की गहरी समझ और समझौताविहीन आदर्शवाद का यही दुर्लभ समन्वय था, जिसने उन्हें महात्मा बनाया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का, 31. प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स..., 33. अपमान का घूँट, 34. विनम्र हठीले गांधी, 35. धार्मिक विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना रहित मन, 38. दो पत्र, 39. मुक़दमे का पंच-फैसला, 40. स्वदेश लौटने की तैयारी

 

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