शनिवार, 10 अगस्त 2024

39. मुक़दमे का पंच-फैसला

गांधी और गांधीवाद

शांति का मार्ग ही सत्य का मार्ग है। शांति की अपेक्षा सत्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है।- महात्मा गांधी

1894

39. मुक़दमे का पंच-फैसला

प्रवेश

चाहे जिस किसी वजह से वे दूसरे कामों में उलझे रहे हों, परंतु गांधी जी का असल काम, जिसके लिए वे प्रिटोरिया गए थे, से ध्यान कभी नहीं हटा। सेठ अब्दुल्ला और उसके चचेरे भाई तैयब सेठ के बीच का वित्तीय विवाद काफ़ी जटिल था। यह छोटा भी नहीं था, चालीस हजार पाउण्ड यानी छह लाख रुपयों का दावा था। बही-खातों के विनिमय और लेखा-जोखा की गुत्थियां पेचीदी और उलझी हुई थीं। सेठ अब्दुल्ला का दावा आंशिक रूप से उन प्रोमिसरी नोट पर टिका हुआ था, जिसे प्रतिवादी पक्ष ने ज़ारी किया था और कुछ उन पर जिन्हें ज़ारी करने का उसने वादा किया था। जबकि प्रतिवादी-पक्ष का कहना था कि प्रोमिसरी नोट बिना किसी मुआवज़े के और धोखा देकर बनाए गए हैं। मामला अनेकों तथ्यों और क़ानून की धाराओं के बीच फंसा हुआ था।

गांधी जी का काम

जिस काम के लिए गांधीजी भारत से दक्षिण अफ़्रीका आए थे अब उस पर उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। झगड़ा चालीस हज़ार पाउंड की मोटी रकम का तो था ही, उसके साथ दक्षिण अफ़्रीका के दो सबसे बड़े भारतीय व्यापारी घराने के बीच अनबन का भी था। इनमें से एक थे नेटाल के सेठ अब्दुल्ला और दूसरे थे ट्रांसवाल के तैयब सेठ। दोनों सच्चे मुकदमेबाज अदालत से फैसला करवाने पर तुले थे, चाहे तबाह ही क्यों न हो जाएं! गांधीजी को जो काम सौंपा गया था वह था बही खाते की जांच कर मुकदमे के लिए सार्थक तथ्य इकट्ठा करना और बड़े बैरिस्टर सॉलिसिटर बेकर के लिए मुकदमा तैयार करने का था। एक तरह से यह बही खाते की जांच करने का ही काम था। दूसरा कोई बैरिस्टर इसे अपना अपमान ही समझता। लेकिन गांधीजी ने इसे काम सीखने और कुछ कर दिखाने का अवसर माना। गांधीजी ने पूरे मन से बही खातों की जांच की और इस काम को बड़ी दिलचस्पी से अंजाम दिया। मुवक्किल का उनपर पूरा विश्वास था। गांधीजी ने पहले हिसाब किताब करने की पद्धति को समझा। फिर हरेक चीज़ों का बारीक़ी से अध्ययन किया। गुजराती में किए गए पत्राचार और अन्य दस्तावेज़ों का उन्होंने अंग्रेज़ी में अनुवाद भी कर दिया। उनका गहन अध्ययन कर प्रमुख बातें भी नोट कर ली। जो मसाला वो तैयार करते उनमें से बड़े वकील कितना रखते और उनका कितना और किस तरह से उपयोग करता वह बहुत ध्यान से गांधीजी समझते। एक नया बैरिस्टर पुराने बैरिस्टर के दफ्तर में रहकर जो बातें सीख सकता है, वह सब गांधीजी सीख सके।

अदालती कार्रवाई से लंबा खिंचता मामला

गांधी जी के पास दोनों पक्षों के काग़ज़-पत्र रहते थे। इन सब की गहरी पड़ताल और कड़े परिश्रम से उन्हें मुकदमे के तथ्यों पर इतना प्रभुत्व प्राप्त हो गया जितना शायद वादी-प्रतिवादी को भी नहीं था। अब्दुल्ला का मुकदमा तथ्यों और कानून दोनों ही दृष्टियों से काफी मजबूत लगा। उन्हें यह लगा कि जब दादा अब्दुल्ल़ा का दावा मज़बूत है तो क़ानून को उनकी मदद करनी ही चाहिए। पर अदालती कार्रवाई से मामला काफ़ी लंबा खिंचता और दोनों ही पक्ष को भारी रकम भी खर्च करना पड़ता। दोनों ही पक्ष ने केस लड़ने के लिए अच्छे-से-अच्छे सॉलिसिटर और बैरिस्टर कर रखे थे। उनकी फ़ीस की रकम का भारी बोझ भी उन्हें उठाना पड़ता। समय के साथ वकीलों की फीस बढती जाती थी। फिर केस की अदालती कार्रवाई में दोनों इतने उलझकर रह जाते कि अपने व्यवसाय पर ध्यान केन्द्रीत कर पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता। इस सबके ऊपर यह भी ध्यान देने वाली बात थी कि जीतने वाला पक्ष भी कोई खास लाभ की स्थिति में नहीं होता, क्योंकि मिलने वाला दावा, किए जाने वाले ख़र्च के मुक़ाबले में कोई बहुत बड़ी रकम नहीं होने जा रहा था। कुल मिलाकर दोनों ही बरबाद हो जाते। बीतते समय के साथ उनका आपस में बैर भी बढ़ता जा रहा था।

स्मगलिंग का आरोप

इन सब से बचने के लिए तैयब ने अब्दुल्ल़ा के ऊपर स्मगलिंग का आरोप लगाने का प्रयास भी किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अब्दुल्ला द्वारा निकाल दिए गए एक लेखापाल को अपने यहां रख लिया था, और उससे अनेकों जानकारियां भी हासिल की। उसकी गवाही को उसने केस में अब्दुल्ल़ा के ख़िलाफ़ उसे भारी क्षति पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया।

झगड़े को आपस में निबटाने की सलाह

जिस तरह से मामला आगे बढ़ रहा था इसके लंबे खिंचने की प्रबल संभावना बढ़ती जा रही थी। कोई भी दल झुकने को तैयार नहीं था। वे दोनों न सिर्फ़ एक ही नगर के रहने वाले थे, बल्कि आपस में रिश्तेदार भी थे। गांधी जी कोई ऐसा उपाय खोज रहे थे जिससे कि मामला जल्द से जल्द अपने निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंच जाए। उन्हें एक मात्र रास्ता मध्यस्थता या पंच का लगा। उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरु कर दिया। उन्होंने तैयब सेठ से विनती की और झगड़े को आपस में निबटा लेने की सलाह दी। उन्हें अपने वकील से मिलने को कहा। उन्हें समझाया कि यदि दोनों पक्ष अपने विश्वास के किसी व्यक्ति को पंच चुन लें, तो मामला झटपट निबट जायेगा। गांधी जी को लगा कि उनका धर्म दोनों की मित्रता साधना और दोनों रिश्तेदारों में मेल करा देना है।

पंच के सामने मुकदमा चला

गांधीजी ने राज़ीनामे के लिए जी-तोड़ मेहनत की। तैयब सेठ मान गए। पंच नियुक्त हुए। उनके सामने मुकदमा चला। सेठ अब्दुल्ला की कम्पनी हालाकि तस्करी के आरोप के साये से उबरा नहीं था, फिर भी पंच का काम आगे बढ़ रहा था। पंच का काम बीच में रुक गया क्योंकि सरकारी वकील ने दादा अब्दुल्ला कम्पनी के कुछ ज़रूरी काग़ज़ात जो पंचों के अधीन था, ज़ब्त करवा लिए। बेकर इस ज़ब्ती को रुकवाना चाहते थे। इसे सरकारी कार्रवाई में दखलंदाज़ी माना गया और इसके बुरे परिणाम सामने आए। इन घटनाओं से गांधी जी काफ़ी विचलित हुए। फिर भी ने उन्होंने मध्यस्थता के लिए निर्धारित अपनी भूमिका ज़ारी रखी।

पंच फैसला अब्दुल्ला सेठ के पक्ष में

अंत में पंच फैसला अब्दुल्ला सेठ के पक्ष में गया। तय यह हुआ कि अब्दुल्ला को सैंतीस हजार पौंड का हर्जाना और केस की फ़ीस मिले। इस फैसले पर अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी। अब एक दूसरी समस्या सामने आई। यदि पूरी राशि का भुगतान एकमुश्त करना पड़ा तो तैयब सेठ का दिवाला निकल जाता। वे इतनी भारी रकम एकसाथ अदा कर पाने की स्थिति में नहीं थे। स्वाभिमानी तैयब सेठ अपने आप को दिवालिया घोषित करने जैसा घृणित काम करना नहीं चाहता था। दक्षिण अफ़्रीका में बसे हुए पोरबन्दर के मेमनों में आपस का ऐसा एक अलिखित नियम था कि खुद चाहे मर जाएं पर दिवाला न निकालें। एक मात्र चारा यह था कि अब्दुल्ला सेठ यह रकम किश्तों में प्राप्त करने के लिए राज़ी हो जाए। गांधीजी के लिए अपने मालिक को इस बात के लिए राज़ी करवाना बड़ा ही चुनौती पूर्ण काम हो गया। परन्तु गांधीजी भी कहां मानने वाले थे। उन्होंने लगातार अब्दुल्ल़ा को समझाने का प्रयत्न ज़ारी रखा। अंततोगत्वा वह लंबी अवधि की मोहलत देने हेतु राज़ी हो गया। गांधीजी के लिए इससे बड़ी प्रसन्नता की बात क्या हो सकती थी। लम्बी अवधि के लिए किश्तें बंध गईं। समझौते की भावना की विजय हुई। अदालती कार्रवाई के तनाव के समाप्त हो जाने से दोनों ही पक्ष को परम शांति का अनुभव हुआ। भारतीय समुदाय के बीच गांधीजी की साख में वृद्धि हुई। क़ानून के लिहाज़ से यह अजीब तरीक़ा था, लेकिन गांधीजी की विशिष्ट प्रतिभा से मेल खाता था।

सच्ची वकालत सीखी

इस मुकदमे से गांधी जी को बहुत बड़ी शिक्षा मिली। उन्होंने सच्ची वकालत सीखी। अब तक बाल की खाल निकालने वाली जिरह, ज़ोरदार बहस और कानून के पोथों से खोजकर उपयुक्त नज़ीरें पेश करने को ही गांधीजी वकालत में सफलता पाने का गुर समझते थे। लेकिन इस केस में उनकी समझ में आया कि असल में वकील का काम तथ्यों के आधार पर सच्चाई का पता लगाना है। गांधीजी को काम सीखने के दौरान दो तथ्यों का पता चला। पहला यह कि तथ्य क़ानून का तीन-चौथाई होते हैं और दूसरा यह कि मुक़दमेबाज़ी के झगड़े दोनों पक्षों को तबाह करती है। यदि तथ्यों पर ठीक-ठीक अधिकार हासिल कर लिया जाए, तो क़ानून अपने-आप साथ हो जाएगा। गांधीजी का मत है तथ्य का अर्थ है, सच्ची बात। सच्चाई पर डटे रहने से क़ानून अपने-आप मदद पर आ जाते हैं। आपसी लड़ाई के मारक परिणामों की चिन्ता और चिन्तन से वे उस पेशे, जिसमें जाने की तैयारी कर रहे थे, के लिए उन्होंने अपने सिद्धांत बनाने शुरु कर दिए। इस मामले में जिस तरह की उनकी भूमिका रही, और जो सफलता उन्हें मिली इसने उनके इस विश्वास को और पक्का किया कि एक वकील की सही भूमिका दोनों पक्षों को समझौते के एक बिन्दु तक ला देना और सहमति का आधार तैयार कराना होना चाहिए। यह उनके लिए एक निर्देशक सिद्धांत बनकर उनके साथ तब तक रहा, जब तक वे वकालत के पेशे से जुड़े रहे।

उपसंहार

अब्दुल्ला मामले में गांधीजी साल भर की कड़ी मेहनत के बाद यह जान सके कि असल में वकील का काम तथ्यों के आधार पर सचाई का पता लगाना है। इस मुकदमे से उनमें यह आत्मविश्वास भी जागा कि वह असफल नहीं हो सकते। प्रिटोरिया में बिताया एक साल उनके जीवन के लिए अमूल्य वर्ष था। इससे उन्हें सार्वजनिक काम करने की उनकी शक्ति का अंदाज़ा हुआ। उनकी धार्मिक भावना भी तीव्र होने लगी। उन्होंने मनुष्य के अच्छे पहलू को खोजना सीखा। उन्होंने मनुष्य के हृदय में प्रवेश करना सीखा। इन सीखों का नतीज़ा यह हुआ कि उन्होंने अपने बीस साल के वकालत के जीवन का अधिकांश समय अपने दफ़्तर में बैठकर मामलों को आपस में सुलझाने में बिताया। इससे उन्होंने पैसों या आमदनी को खोया हो या नहीं इतना तो तय था कि उन्होंने अपनी आत्मा तो नहीं ही खोयी।

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मनोज कुमार

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