मंगलवार, 13 अगस्त 2024

42. नेटाल में कुछ दिन और

 गांधी और गांधीवाद

निर्मल चरित्र एवं आत्मिक पवित्रता वाला व्यक्तित्व सहजता से लोगों का विश्वास अर्जित करता है और स्वतः अपने आस पास के वातावरण को शुद्ध कर देता है।- महात्मा गांधी

जुलाई 1894

42. नेटाल में कुछ दिन और

प्रवेश

मताधिकार विधेयक पारित हो गया। निराशा हाथ लगी पर गांधीजी निरुत्साहित नहीं हुए। अंतिम क्षण की ऐसी निराशा भी गांधीजी की एक अलग विशेषता थी। इससे प्रयास में शामिल लोगों को दुगुने उत्साह से कोशिश करने की प्रेरणा देते और प्राण-पन से जुट जाते। इस पराजय में भी गांधीजी को इस लड़ाई का सकारात्मक पहलू दिखा। पहली बार, दर्जनों छोटे-छोटे व विरोधी गुटों में बंटे डरबन के भारतीय एक साथ इकट्ठा हो पाए थे। यह सफलता उस असफलता की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, कौम में नव जीवन का संचार हुआ। सब कोई यह समझे कि हम एक कौम हैं, केवल व्यापार संबंधी अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि कौम के अधिकारों के लिए भी लड़ना हम सबका धर्म है।

दावों को खारिज़ करने वाले अकाट्य प्रमाण

उन दिनों लॉर्ड रिपन उपनिवेश मंत्री थे। तय हुआ कि उनको नेटाल में बसे हुए सब प्रवासी भारतवासियों की ओर से एक बड़ी अर्जी भेजा जाए और इस याचिका पर नेटाल के अधिकाधिक भारतीयों के हस्ताक्षर लिया जाए। गांधी जी ने विस्तृत ज्ञापन तैयार करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की। जो भी संबंधित दस्तावेज़ हाथ लगे वे सब उन्होंने पढ़ डाला। दोनों सदनों में चर्चा के दौरान इस विधेयक के समर्थन में जो दलीलें दी गई थी, गांधी जी ने अब इस अर्ज़ी को उसी के दायरे में तैयार किया। उन्होंने बहुत सारे अकाट्य प्रमाण ढूंढ निकाला जो इस दावे को खारिज़ करते थे कि मताधिकार पर केवल यूरोपवासी का ही सुरक्षित अधिकार था। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि नेटाल स्थित कुछ भारतीय जो यहीं पले-बढ़े हैं, मताधिकार का प्रयोग करने के योग्य हैं। उन्होंने इस व्यावहारिक दलील को केन्द्र-बिन्दु बनाया कि संख्या के आधार पर भी प्रवासी भारतीय बहुत ही कम हैं, और उन्हें मताधिकार दे-देने से यूरोपवासी को कोई खतरा नहीं था।

इन मौलिक बातों की चर्चा करने के बाद गांधीजी ने अपने तर्कों को एक दूसरा आयाम भी दिया। उन्होंने कहा कि यह उन भारतीयों के लिए, जो नेटाल आकर यहां बस गए हैं, सम्मान पर चोट करने की बात है। उन्हें मताधिकार से वंचित कर देने से उनकी स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। इससे उपनिवेश में यूरोपवासियों और भारतवासियों के बीच की खाई बहुत चौड़ी और गहरी हो गई है। भारतवासियों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। अनावश्यक तरीक़े से उन्हें तंग भी किया जाता है। इस क़ानून के पारित हो जाने से उनकी दशा और ख़राब होगी। उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया कि सदन में चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने यहां तक कहा कि उन्हें म्यूनिसिपल चुनावों में भी मताधिकार से वंचित कर दिया जाना चाहिए। इस क़दम से ब्रिटिश उपनिवेश, दक्षिण अफ़्रीका के अन्य भागों में रहने वाले भारतीयों की अवस्था बद से बदतर होती चली जाएगी। उन्होंने इस तरह की अनावश्यक दखलंदाज़ी को रोकने के लिए सहायता मांगी।

भाषा के भेद-भाव भुलाकर एक हुए

चार हजार शब्दों की इस लंबी अर्ज़ी पर पूरे नेटाल में बसे दस हजार भारतीयों के हस्ताक्षर लिया जाना था। यह अपने आप में एक बहुत ही दुरूह कार्य था। नेटाल बहुत बड़ा था। इसके गांव दूर-दूर बसे हुए थे। गांधी जी के स्वयं सेवकों के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। लेकिन गांधी जी के नेतृत्व में सभी देश भाई - धर्म, वर्ग और भाषा के भेद-भाव भुलाकर एक हो गए। गांधी जी ने अपने प्रवासी देशवासियों में नए प्राण फूंक दिए थे। इस काम को अंजाम देने के लिए स्वयं-सेवकों की एक सुगठित टीम तैयार की गई। वे उत्साह-पूर्वक काम में जुट गए। दादा अब्दुल्ला का घर सार्वजनिक दफ़्तर बन गया। गांधी जी के स्नेहपूर्ण और दृढ़ प्रेरणा के जादू ने असर दिखाया। दो सप्ताह में याचिका पर दस हजार हस्ताक्षर करा लिए गए। 17 जुलाई 1894 को अंततोगत्वा प्रार्थना पत्र ब्रिटिश उपनिवेश मंत्री लॉर्ड रिपन को भेज दिया गया। व्यापक प्रचार के लिए इसकी हजार प्रतियां बनवा कर नेटाल के भारतीयों और ब्रिटेन के प्रेस में वितरित किया गया। इस सब का अच्छा असर पड़ा। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने उस पर सम्पादकीय लिख कर भारतीयों की मांग का समर्थन किया। लन्दन के ‘टाइम्स’ ने भी समर्थन दिया।

एक महीने का समय बीत गया

इन सब कामों के बीच एक महीने का समय बीत गया। अब गांधीजी को भारत वापस लौटना था। लेकिन गांधी जी के सामने प्रश्न था कि वे वहां रह कर इस लड़ाई को अंजाम देते या वापस लौटने की तैयारी करते। इस लड़ाई में उनके साथ जुड़े लोग उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थे। उन्होंने उनके कर्म को देखा था। उनके नेतृत्व के प्रशंसक थे। वे उनसे बिछड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। वहां के व्यापारियों ने उनसे काम बीच में अधूरा छोड़कर न जाने का और अभियान को उसकी सफलता तक पहुँचाने का निवेदन किया। एक लंबी लड़ाई सामने थी। नेटाल के प्रवासी भारतीय गांधीजी की ओर आशा से देखने लगे। वे उन्हें नेटाल में बस जाने के लिए उन पर ज़ोर डालने लगे। उनकी विनती थी, जीवनदान देकर हमें अधर में छोड़कर मत जाइए। वे उनसे वहीं रुकने का आग्रह करने लगे। लोगों ने कहा कि अभी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। हमें मार्ग दर्शक चाहिए। आपके चले जाने से सब काम रुक जाएगा। गांधीजी को भी लगा कि सब किया-कराया बेकार हो जाएगा। गांधीजी के लिए नेटाल छोड़ना असम्भव लगने लगा। गांधीजी को लगा कि लड़ाई अधूरी छोड़ कर जाने का औचित्य नहीं बनता। अपने स्वभाव के अनुसार गांधीजी भी बीच में छोड़ कर भारत वापस जाने के पक्ष में नहीं ही थे। अब जब प्रवासी भारतीय अपनी स्थिति की गम्भीरता से अवगत हो चुके थे, तो गांधीजी को लगा कि यह आवश्यक है कि उनके लिए कोई ऐसा व्यक्ति हो जो दोनों राष्ट्रों के विचारों की व्याख्या करने में सक्षम हो, तथा उनकी इच्छाओं को स्वीकार्य रूप दे सके। इसके अलावा गांधीजी को लगा कि हिन्दुस्तानियों के हितों की रक्षा के लिए कोई स्थाई संस्था खड़ी हो जाये तो अच्छा होगा वहाँ के भारतीयों के तर्कों की ताकत को महसूस करते हुए, गांधीजी ने अंततः वहां रहने के लिए सहमति दे दी। पर सबसे अहम सवाल आजीविका की समस्या के समाधान का था। जिस जंग में वे कूद पड़े थे, उस राजनीतिक लड़ाई के लिए एक स्तरीय जीवन जीना ज़रूरी था। नितांत अवैयक्तिक कारणों से, उनकी इच्छा थी कि वे एक लंदन बैरिस्टर की गरिमा के अनुकूल रहें। एक अच्छी बस्ती में अच्छे कार्यालय, और आवास की व्यवस्था भी करनी थी। उन्होंने अपने भारतीय मित्रों से कहा कि कम से कम तीन सौ पौंड सालाना की वकालत की गारण्टी मिलने पर ही वे रह सकते हैं। उन्होंने यह मन बना लिया था कि वे सार्वजनिक खर्च पर नहीं रहेंगे।

ठहरने के लिए राजी हो गये

उन लोगों ने इस ख़र्चे को वहन करने की इच्छा जताई पर गांधी जी को यह मंज़ूर नहीं था। गांधीजी का मानना था कि सार्वजनिक कार्य बड़े- बड़े वेतन लेकर नहीं किया जा सकता। गांधीजी ने कहा कि जिस लड़ाई को लड़ा जा रहा है उसके खर्चे को सभी भारतीयों को वहन करना होगा, उसमें गांधी जी स्वयं भी हैं। अगर उन्होंने अपना ख़र्चा उन लोगों की सहायता से चलाया तो वे उतने प्रभावी नहीं रह पाएंगे, जितने वे अन्यथा होते। व्यावहारिक तौर तरीक़ों से भी गांधी जी को यह प्रस्ताव मान्य नहीं था। उन्होंने कहा, मैं इस तरह पैसे नहीं ले सकता। आपने सार्वजनिक काम की मैं इतनी क़ीमत नहीं समझता और न किसी मित्र पर अपना भार डाल सकता हूं।पर वहां के भारतीय उनकी इन दलीलों से संतुष्ट नहीं थे। उनका मानना था कि, चूंकि उन लोगों के कहने पर गांधी जी वहां रुक रहे थे, इसलिए यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे उनका खर्च वहन करें।

जिस राजनीतिक संघर्ष में गांधीजी कूद पड़े थे, उसके प्रथम अनुभव ने उन्हें उस संकोच और झेंप से मुक्त कर दिया जिससे पहले वह बुरी तरह चिपके थे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनमें एकाएक अहं भाव प्रबल हो उठा। उन्होंने बड़ी विनम्रता से उन्हें समझाया, सार्वजनिक काम में मुझे कोई वकालत तो करनी नहीं है। मुझे तो आप लोगों से काम लेना है। उसके पैसे मैं कैसे ले सकता हूं। फिर मुझे सार्वजनिक काम के लिए आपसे पैसे निकलवाने होंगे। यदि मैं अपने लिए पैसे लूं तो जिस अधिकार के साथ आपको आदेश देकर आपसे पैसे निकलवा सकता हूं वह मैं नहीं दे पाऊंगा। दूसरे किसी सामाजिक काम के लिए मैं कोई मेहनताना नहीं ले सकता। तीसरे न्यायालय में भी मेरी विश्वसनीयता जाती रहेगी।

इस वार्तालाप का असर हुआ। उपस्थित बीस व्यापारियों ने उन्हें अपने फर्म का एक वर्ष के लिए अधिवक्ता नियुक्त कर लिया। इस प्रकार डरबन में अपने भारतीय मित्रों के आग्रह पर गांधीजी नेटाल में अभी और ठहरने के लिए राजी हो गये और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करने के लिए अपना नाम दर्ज करा लिया। सार्वजनिक काम के लिए पैसा लेने को वह किसी तरह राजी न हुए, इसलिए बीस व्यापारी उन्हें वकालत का काम देने को सहमत हुए और प्रतिधारण फीस के रूप में एक वर्ष का तीन सौ पौण्ड अग्रिम देने लगे। यह रकम इतनी थी कि गांधीजी साल भर अपना जीवन यापन कर लेते। गांधीजी रुक गए। राजमोहन गाँधी कहते हैं, 1894 के आरम्भ में 24 वर्षीय गांधीजी ने अपने पत्ते मेज पर रख दिए थे, लेकिन वे यह भी जानते थे कि उन्हें कैसे खेलना है।

उपसंहार

गांधीजी को रुकने के लिए राज़ी होने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। वे ऐसे ध्येय को नहीं छोड़ सकते थे जिसे उन्होंने खुद ही उठाया था। न ही वे उन उत्साही मगर अनुभवहीन कार्यकर्ताओं के दल को निराश कर सकते थे जिनको उन्होंने भरती और प्रेरित किया था। इस नैतिक विवशता के आगे वे असहाय थे। भाग्य एक-एक कदम करके उनको आगे ले गया था। अब ऐसी जगह पहुँच गए थे जहाँ वे पूरी तरह बंधन में जकड़ चुके थे। गांधीजी अब अफ्रीका के हिन्दुस्तानी समुदाय के एक छत्र स्वाभाविक नेता बन गए थे और अफ्रीका से उनका रिश्ता बहुत गहरा हो गया था। उनके विचारों की परिपक्वता से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह तूफान का शान्त केन्द्र थे, क्योंकि वह बोलने में धीमा और सतर्क रहते थे और दुश्मन पर आक्रमण करते समय भी वह न तो जल्दबाजी दिखाते थे और न ही अधीर प्रतीत होते थे। हालाकि अभी तक उनमें इतिहास के महान गांधी का केवल जरासा संकेत दिखाई पड़ता था, परंतु उन्होंने अपने को एक प्रभावशाली नेता और सर्वोत्तम संगठनकर्ता साबित कर दिया था।

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मनोज कुमार

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