गांधी और गांधीवाद
निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है। उसका कर्तव्य है कि सत्य जैसा उसे दिखाई दे, उसका अनुगमन करे, और ऐसा करते समय शुद्धतम साधन अर्थात अहिंसा को अपनाए।
- महात्मा गांधी
53. आत्म-दर्शन की अभिलाषा
1895
प्रवेश
नेटाल इंडियन कांग्रेस के
अभियान और न्यायालय में आजीविका कमाने के साथ-साथ गांधी जी दक्षिण अफ़्रीका में
भारतीय समाज की सेवा में पूरे मनोयोग से लग गए थे। इसमें उन्हें जीवन का आनंद आ
रहा था। साथ ही वे आत्मदर्शन का सुख पा रहे थे। सेवा में ईमानदारी का गुण सफलता को
मूर्त बना देता है। जो सच्ची भावना से सेवा करता है उसे ईश्वर के दर्शन होते हैं।
गांधी जी ने भी यह मानकर कि ईश्वर की पहचान सेवा से ही होगी, सेवा-धर्म स्वीकार किया था। जब आप समझते है कि आपके
सभी कार्य परमात्मा के लिए हैं तो हर कार्य एक सुखदायी अनुभव बन जाता है। उन्हें
भारतीयों की सेवा करना रुचिकर लग रहा था। वे तो काठियावाड़ के सियासी षड्यंत्रों
से बचने और रोज़ी-रोटी कमाने के लिए दक्षिण अफ़्रीका आए थे। यहां आकर उन्हें
मानव-सेवा के रूप में एक ऐसा ज़रिया मिला जिसमें वे आत्म-दर्शन के द्वारा ईश्वर को
खोजने लगे। इस संदर्भ में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि आरंभिक महीनों में ही
प्रिटोरिया के ईसाइयों ने धर्म के प्रति उनकी जागृत दिलचस्पी को तेज़ कर दिया।
उनकी जिज्ञासा शान्त होने की जगह बढ़ती ही जा रही थी।
ईसाई दोस्तों से संबंध
जब वे नेटाल में बस गये तो प्रिटोरिया के ईसाई मित्र उन्हें
नहीं भूले। शुरु से ही मिशनरी ईसाई दोस्तों से उनके संबंध अच्छे थे।
इनमें से एक थे डरबन में स्थित स्पेन्सर वॉल्टन। वे दक्षिण अफ़्रीकी जनरल मिशन के
मुखिया थे। उन्होंने गांधीजी के धर्मान्तरण का कोई प्रयास नहीं किया। वे गांधीजी
को बुलवा भेजे। गांधीजी उनसे मिले। जब गांधीजी उनके यहां पहुंचे तो अपने प्रति घर
के सदस्य सा व्यवहार पाकर काफ़ी ख़ुश हुए। वॉल्टन कुछ अलग हट के विचार रखते थे।
पहले भी उनसे प्रिटोरिया में गांधीजी का समागम हो चुका था। उन्होंने गांधीजी के
सामने अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को रख दिया। उनकी प्रवृत्तियों और क्रियाकलापों
से गांधीजी वाकिफ़ हुए। उनकी धर्मपत्नी बहुत नम्र
और तेजस्वी महिला थीं। इस दम्पत्ति की नम्रता, उद्यमशीलता और
कर्तव्यपरायणता से गांधीजी काफ़ी प्रभावित हुए। वे अकसरहां एक दूसरे से मिलते रहते
थे। हालाकि दोनों के विचारों में आधारभूत मतभेद थे। और ये मतभेद आपसी वार्तालाप से
मिटने वाले नहीं थे। इस बात का दोनों को पता था। पर गांधीजी का मानना था, “जहां उदारता, सहिष्णुता और सत्य होता है वहां मतभेद भी लाभदायक सिद्ध
होते हैं।”
धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन
1893 से 1896 के बीच कार्य की व्यस्तता
ने गांधीजी को धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन से वंचित रखा। फिर भी जब भी उन्हें समय
मिलता उसका उपयोग वे पुस्तकों को पढ़ने में करते। पत्र-व्यवहार उनका प्रिय शगल था। रायचन्द उनका मार्गदर्शन
करते ही रहते थे। उन्हें वे हमेशा रायचंद भाई कहा करते थे। लंदन से वापसी के समय
वे उनसे मिले थे। उनके ज्ञान और चरित्र से गांधीजी काफ़ी प्रभावित हुए थे।
उन्होंने गांधीजी को नर्मदा शंकर की पुस्तक ‘धर्म-विचार’ भेजी पढ़ने के लिए। इसके अलावा गांधीजी ने मैक्समूलर की
पुस्तक ‘हिन्दुस्तान क्या सिखाता
है?’ बड़े चाव से पढ़ी। थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा
प्रकाशित उपनिषदों का रूपान्तर भी उन्होंने पढ़ा। इन सब अध्ययन से हिन्दू धर्म के
प्रति उनका सम्मान और अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। उन्हीं
दिनों, उन्होंने इस्लाम के बारे
में कुछ और पुस्तकें भी पढ़ीं, जिसमें वाशिंग्टन इरविंग
की लिखी “लाइफ ऑफ मोहम्मद” (मुहम्मद का चरित्र) और कार्लाइल कृत “मुहम्मद-स्तुति” शामिल था। इनके अध्ययन से पैगम्बर मुहम्मद के प्रति
उनका सम्मान बढ़ा। उन्होंने ‘ज़रथुस्त के वचन’ नामक पुस्तक भी पढ़ी।
प्राणायाम संबंधी
क्रियायों के प्रति उनकी रुचि जगी और वे इसे करने भी लगे। पर जब वे नहीं सधीं तो
आगे नहीं बढ़ा पाए। टॉल्सटॉय की किताब तो पहले भी वे पढ़ चुके थे, ‘गॉस्पेल इन ब्रीफ़’ (नये करार का सार), ‘व्हॉट टु डू’ (तब क्या करें?) ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी। उन्हीं दिनों उन्होंने ‘लाइट ऑफ एशिया’ का अध्ययन किया। एक वर्ष बाद निकली “व्हाट इज़ आर्ट” गांधीजी के लिए किसी भी धर्म ग्रंथ से कम नहीं था। इन
सब के अध्ययन से विश्व-प्रेम संबंधी उनकी अवधारणा और अधिक मज़बूत हुई। इस प्रकार भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के ज्ञान अर्जन से
उनका आत्म-निरीक्षण बढ़ा। गांधीजी ने लियो टालस्टॉय की पुस्तक “दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन
यू” पढ़ी थी। इस पुस्तक ने
उनके मन को मथ डाला। टालस्टॉय का मत था कि नैतिक सिद्धांतों का हमें दैनिक जीवन
में प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी ने इस आदर्श को जीवन में प्रयोग करने की ठान ली।
जो पढ़ा उसे आचरण में लाया
इस प्रकार उन्होंने भिन्न-भिन्न
सम्प्रदायों का थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त किया। उनका आत्म-निरीक्षण बढ़ा। जो पढ़ा और अच्छा लगा उसे आचरण में लाने का वह
प्रयत्न करते रहे। गांधीजी एक सरल व्यक्ति
थे। उन्हें कोई उपदेश देता और कहता कि यही नियम है तो वे उसे मान लेते और उसे अपने
लिए वैसा ही बनाने का प्रयास करते। उन्हें कभी भी इस बात का पता नहीं चलता कि जिस व्यक्ति ने
उन्हें उपदेश दिया था, वह स्वयं तो उस पर अमल ही
नहीं करता। वे सदैव ही दूसरों की सच्चाई को पूर्णता में मान लिया करते थे। इस
प्रकार उन्होंने माना, “मेरा अस्तित्व नहीं है। सफलता के लिए विशेष गुण
मुझमें नहीं है। लेकिन फिर भी मैं यदि कर सकता हूं, तब दूसरे क्यों नहीं? जो मैं एक निरीह प्राणी अनुशासन के दायरे में रह कर
पाता हूं, दूसरों के लिए अत्यंत सरल होना
चाहिए या कम से कम इतना ही सरल होना चाहिए।” वे यही सोचते थे कि जो वे
कर रहे हैं, कर सकते हैं, वह दूसरे भी कर सकते हैं। क्योंकि वे यही मानते थे कि
कर्म करने की दृष्टि से सभी उनसे श्रेष्ठ हैं। शायद यह उनका सबसे बड़ा भ्रम था।
ईसाई परिवार के सम्पर्क में
एक ईसाई परिवार के सम्पर्क
में आने के कारण उन्होंने रविवार को वेस्लियन गिरिजाघर में जाना शुरु किया। उस दिन
उन्हें उसके घर पर ही भोजन करना पड़ता था। जिस परिवार में वे जाते थे उसकी मालकिन
भोली पर संकुचित स्वभाव की थी। भोजन करते वक़्त उसका पांच साल का बच्चा भी साथ
होता था। गांधीजी को बच्चे प्रिय थे ही, उन्होंने उस बच्चे से दोस्ती कर ली। उन्होंने उसकी प्लेट
में पड़े मांस के टुकड़े का मज़ाक़ किया और अपनी प्लेट में से सेव को उठा कर उसका
गुणगान शुरु कर दिया। निर्दोष बालक ने भी गांधीजी के साथ सेव की स्तुति शुरु कर
दी। बच्चे की मां उसकी यह हरकत
देख कर दुखी हो गई। गांधीजी को लगा कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, वे चुप हो गए। उन्होंने तुरत ही चर्चा का विषय बदल
दिया। दूसरे हफ़्ते जब वे उसके यहां गए तो बहुत ही सावधान थे। थोड़े पेशोपेश में
भी थे कि जाऊं या न जाऊं। उस महिला ने गांधी जी से कहा, “मि. गांधी! आप बुरा मत मानियेगा, पर मुझे तो आपको बताना ही चाहिए कि मेरे बेटे पर आपकी
सोहबत का बुरा असर पड़ने लगा है। अब वह रोज़ मांस खाने में आनाकानी करता है। पिछले
रविवार को हुई आपसे चर्चा का हवाला देता है और खाने के लिए फल मांगता है। मुझसे यह
न निभ सकेगा। मेरा बेटा मांसाहार छोड़ने से बीमार चाहे न पड़े, कमज़ोर तो हो ही जाएगा। इसे मैं कैसे सह सकती हूं? आप जो चर्चा करते हैं, वह हम सयाने के बीच शोभा दे सकती है। लेकिन बच्चों पर
तो उसका बुरा ही असर हो सकता है।” गांधीजी जी ने उसे समझाया “मुझे दुख है। माता के नाते मैं आपकी भावना को समझ
सकता हूं। मेरे भी बच्चे हैं। इस आपत्ति का अन्त सरलता से हो सकता है। मेरे बोलने
का जो असर होगा, उसकी अपेक्षा मैं जो खाता
हूं या नहीं खाता हूं, उसे देखने का असर बच्चे पर
बहुत अधिक होगा। इसलिए अच्छा रास्ता तो यह है कि अबसे आगे मैं रविवार को आपके यहां
न आऊं। इससे हमारी मित्रता में कोई बाधा न पहुंचेगी।”
उस महिला ने ख़ुश होकर
जवाब दिया, “मैं आपका आभार मानती हूं।”
उपसंहार
गांधीजी की सार्वजनिक गतिविधियाँ उनकी आध्यात्मिक प्रगति के
साथ-साथ चलती रहीं। गांधीजी धीरे-धीरे किसी निश्चित धार्मिक आस्था की ओर
बढ़ रहे थे। अपने अनुभव बताते हुए गांधीजी कहते हैं, ये लोग मुझसे इतना प्यार करते थे,
कि अगर इसने मुझे ईसाई बनने के
लिए प्रभावित किया होता, तो वे खुद शाकाहारी बन गए होते! इस तरह यह यादगार पलों को वह समेटते गए।
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मनोज कुमार
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