शनिवार, 17 अगस्त 2024

46. नेटाल इन्डियन कांग्रेस

 गांधी और गांधीवाद

किसी भी समझौते की अनिवार्य शर्त यही है कि वह अपमानजनक तथा कष्टप्रद हो।- महात्मा गांधी

अगस्त 1894

46. नेटाल इन्डियन कांग्रेस

प्रवेश

वकालत के पेशे के साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में भी गांधीजी स्थान बनाते जा रहे थे। नेटाल का भारतीय समुदाय हर कठिनाई में मार्गदर्शन और सहायता के लिए उनकी ओर देखता था। ऐसा तो तय था कि आने वाले कुछ वर्षों तक दक्षिण अफ़्रीका ही उनकी कर्म भूमि होगी। उन्हें भी लगता था कि वह एक शुभ ध्येय के लिए काम कर रहे हैं। उन्हें यह भी पता था कि उस ध्येय की प्राप्ति के लिए उनके पास अपर्याप्त साधन थे। गांधी जी आन्दोलन की रणनीति बाकायदा पहले से तैयार कर कोई काम नहीं करते थे। उनका कहना था – मैं अगले केवल एक कदम तक ही सोचता हूं। कदम-दर-कदम आगे बढ़ने से रास्ता अपने आप मिलता रहेगा। – इसी सोच पर वे आगे बढ़ते रहे … और उन्हें सफलता भी मिली। आखिर मिलती भी क्यों नहीं … उनकी ज़िन्दगी और विचारधारा सत्य और अहिंसा की पुख्ता नींव पर जो टिकी थी!

एक स्थायी संस्था की आवश्यकता

वकालत का काम तो उनके लिए बहुत मायने नहीं रखता था, क्योंकि जब गांधी जी ने डरबन में रहने का निर्णय ले लिया तो सार्वजनिक काम ने ज़्यादा महत्व का स्थान ग्रहण कर लिया था। उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था, प्रवासी भारतीयों की मदद करना था। भारतीय मताधिकार प्रतिबंधक क़ानून के खिलाफ़ केवल प्रार्थना पत्र भेजकर ही बैठा नहीं जा सकता था। उसके बारे में आन्दोलन चलते रहने से ही उपनिवेश मंत्री पर उसका असर पड सकता था। वे देख सकते थे कि जब तक सभी पक्षों से जनमत का पर्याप्त दबाव नहीं होगा, व्हाइटहॉल मदद नहीं करेगा। इसलिए, इंग्लैंड, भारत और दक्षिण अफ्रीका में समस्या के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करना आवश्यक था। इसके लिए गांधीजी ने अनुभव किया कि भारतीयों के हितों पर नजर रखने तथा भविष्य में किसी अप्रत्याशित घटना को रोकने के लिए एक स्थायी संगठन तुरन्त बनाया जाना चाहिए। उन्होंने अब्दुल्ला सेठ और अन्य क़रीबी लोगों के साथ सलाह-मशवरा किया। उसके आधार पर एक आम सभा बुलाई गई। इसमें बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीयों ने भाग लिया। भारतीय समिति के प्रमुख सदस्य अब्दुल्ला हाजी आदम ने इन सब में प्रमुख भूमिका निभाई। एक मत से सभी ने स्वीकार किया कि एक संगठन की स्थापना की ही जानी चाहिए।

संगठन का नाम नेटाल इंडियन कांग्रेस

इसका नामाकरण एक नाज़ुक मामला था। गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय कान्ग्रेस के बारे में सुन रखा था। उन्हें इसके प्रति गोरों के रवैये के बारे में भी पता था और यदि उस तरह का एक संगठन यहां भी खड़ा होता है तो गोरों का इसके प्रति क्या रुख हो सकता है इसका भी उन्हें अनुमान था। परन्तु इस डर से हाथ पर हाथ धरे तो नहीं ही बैठा जा सकता था। काफ़ी विचार-विमर्श के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1893 के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष, अपने आदर्श पुरुष, दादा भाई नौरोजी के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उन्होंने अपने नये संगठन का नाम नेटाल इंडियन कांग्रेस रखा। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हो चुका था (14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय)। गांधीजी दादाभाई और उनके माध्यम से कांग्रेस के प्रशंसक थे। वे इस नाम को लोकप्रिय बनाना चाहते थे और इसलिए उन्होंने नेटाल के भारतीयों को अपने संगठन का नाम नेटाल इंडियन कांग्रेस रखने की सलाह दी थी। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में 22 मई 1894 का ज़िक्र किया है, लेकिन डी.जी. तेंदुलकर के अनुसार अगस्त 22, 1894 को नेटाल इंडियन कांग्रेस का जन्म हुआ। प्यारेलाल इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं यह तारीख (22 मई 1894) स्पष्ट रूप से गलत है। इसकी (नेटाल इंडियन कांग्रेस) पहली रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस की औपचारिक स्थापना 22 अगस्त को हुई थी। अब्दुल्ला हाजी आदम इसके अध्यक्ष और गांधी जी अवैतनिक सचिव मनोनीत किए गए। अब्दुल्ला सेठ के घर के पहले तले पर उस खचाखच भरे विशालकाय हॉल में उपस्थित सभी लोगों के लिए यह एक यादगार दिन था।

एक जीवंत संगठन

नेटाल कांग्रेस के निर्माण में गांधीजी ने असाधारण संगठन क्षमता का परिचय दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान, कर्तव्य और कार्य प्रणाली की गांधीजी को कोई जानकारी नहीं थी। यह उनके लिए अच्छा ही हुआ। वह नेटाल इंडियन कांग्रेस को अपनी प्रतिभा से वहां के भारतीयों की आवश्यकताओं के अनुरूप एक जीवंत संगठन बना सके, जो पूरे साल कार्यशील रहता और जिसका उद्देश्य केवल राजनीतिक चौकसी न होकर सदस्यों का सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक उत्थान भी था। इसका उद्देश्य यह था कि लोगों पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द की जाए और साथ ही ग़रीब लोगों की सहायता भी की जाए। कांग्रेस का यह भी लक्ष्य था कि प्रवासी भारतीय और यूरोप वासियों के बीच सौमनष्य और सौहार्द्र की भावना का विकास किया जाए। हर तरह से यह एक युगांतकारी घटना थी, पर इसकी अखबारों में बहुत ही साधारण तरीक़े से चर्चा हुई। गांधी जी भी यही चाहते थे कि जब तक यह संगठन अपने पैर न जमा ले इस बात का अधिक प्रचार नहीं किया जाए। इस संगठन के नियमों में से दो नियम बड़े दिलचस्प थे। एक कोई सदस्य दूसरे किसी सदस्य को उसके नाम में ‘मिस्टर जोड़े बिना संबोधित नहीं कर सकता था। दूसरा किसी को धूम्रपान की इजाज़त नहीं थी।

संगठन के सदस्यों की संख्या बढ़ी

नेटाल भारतीय कांग्रेस का एक नियमित सदस्यता रजिस्टर था। इसमें वही सदस्य बन सकते थे, जो उसका खर्च अदा कर सकें। इसलिए यह संगठन नेटाल के अपेक्षाकृत खुशहाल मध्यवर्गीय भारतीय निवासियों तक अर्थात व्यापारियों, क्लर्कों और उसी उपनिवेश में जन्मे स्वतंत्र भारतीयों तक सीमित था। यद्यपि नेटाल इंडियन कांग्रेस में कुछ उपनिवेश-जनित भारतीय और लिपिक वर्ग के लोग सदस्य थे, लेकिन अकुशल वेतनभोगी और गिरमिटिया मजदूर इसके दायरे से बाहर थे। कांग्रेस को स्पष्ट रूप से मध्यम वर्ग के भारतीयों की सेवा के लिए बनाया गया था, क्योंकि साधारण गिरमिटिया मजदूर इतनी बड़ी फीस नहीं दे सकता था। जिनके हितों के लिए यह संगठन बना था, उनका राजनैतिक अनुभव और ज्ञान नहीं के बराबर था; फिर भी उस संस्था पर किसी व्यक्ति-विशेष की इजारेदारी नहीं थी। संगठन यदि अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में गम्भीरता से आगे बढ़ना चाहता तो उसके लिए वित्तीय संसाधनों की प्रबल आवश्यकता थी। चंदे की राशि प्रति माह पांच शिलिंग रखी गई। यदि कोई सदस्य अधिक भी दे सकने की स्थिति में था तो उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। पाँच-सात सदस्य तो वर्ष के 24 पौंड देने वाले भी निकल आये। 12 पौंड देने वालों की संख्या काफ़ी थी। दादा अब्दुल्ला सहित दो और सदस्यों ने तो दो पौंड प्रति माह देना स्वीकार किया। गांधी जी ने स्वयं एक पौंड प्रति माह देने की इच्छा ज़ाहिर की। कई सदस्यों ने दस शिलिंग प्रति माह देना स्वीकारा। 76 सदस्यों ने उसी जगह चंदे की राशि का भुगतान कर दिया। धीरे-धीरे संगठन के सदस्यों की संख्या बढने लगी और एक महीने में नेटाल कांग्रेस के करीब 300 सदस्य बन गये थे। उनमें हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्म के और सभी प्रान्तों के लोग थे। चंदा की नीति को सरल करते हुए सदस्यता राशि सालाना कर दी गई और इसे तीन पौंड रखा गया। इससे चंदा उगाही का काम सरल हुआ। जो समय से सदस्यता राशि नहीं देते उनका नाम काट दिया जाता। जो लगातार छह बैठकों में भाग नहीं लेते उनका भी नाम रजिस्टर से हटा दिया जाता। कांग्रेस रजिस्टर पर केवल प्रभावी सदस्यों को ही रखा जाता था।

नियमित बैठकें

नेटाल कांग्रेस वर्ष में पूरे 365 दिन काम करती थी। पहली बार दक्षिण अफ़्रीकी भारतीयों ने सार्वजनिक जीवन के प्रति प्रेरणा महसूस की। कांग्रेस की बैठकें नियमित रूप से होती थी। कम से कम महीने में एक बार बैठक ज़रूर होती थी। बैठक में मदों पर काफ़ी गम्भीरता से चर्चा होती थी। उसमें उस माह का पाई-पाई का हिसाब सुनाया जाता था और सदस्य उसे मंजूर करते थे। भारतीय समुदाय से संबंधित विषयों, ताज़ा घटनाओं आदि पर चर्चा होती थी। कार्रवाही का रिकॉर्ड बनाकर रखा जाता था। अगली बैठक में पिछली बैठक का विवरण पढ़ा जाता था और उस पर सभा की सहमति ली जाती थी। सदस्यों को कार्रवाही में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। जिन्हें सार्वजनिक सभाओं में बोलने में हिचक होती थी वे भी धीरे-धीरे अच्छे वक्ता बन गए। यह सब एक बिल्कुल नया अनुभव था। हिन्दुस्तानियों ने इसमें खूब उत्साह से भाग लिया। इसकी बैठक में आंतरिक सुधार का प्रश्न गांधी जी द्वारा उठाया गया भारतीयों पर गंदे और कंजूस होने का आरोप लगाया गया था। उनके घर सिर्फ़ झुग्गियाँ थीं। वे जहाँ व्यापार करते थे, वहीं सोते थे। सुख-सुविधाओं के आदी यूरोपीय लोग इन कंजूस लोगों से व्यापार में कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकते थे, जो तेल लगे कपड़े की महक पर जीते थे? यह महसूस करते हुए कि कोई भी उन पर उपहास की उंगली नहीं उठा सकता, गांधीजी ने कांग्रेस की बैठकों में व्यक्तिगत स्वच्छता, व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट स्वच्छता और व्यापारिक परिसर से अलग रहने के अपार्टमेंट की सलाह जैसे विषयों पर व्याख्यान दिए, बहस की और सुझाव दिए। संपन्न लोगों को सलाह दी गई कि वे अपने जीवन स्तर के अनुरूप अपने रहन-सहन को बेहतर बनाएँ। कार्यवाही गुजराती में आयोजित की गई, जो मेमन समुदाय की प्रमुख भाषा थी। जिन यूरोपियों को भारतीय समुदाय के लोगों के कल्याण की चिंता थी वे इनके प्रति सहानुभूति का रवैया अख्तियार करने लगे। ऐसे लोगों को भी बैठकों में बुलाया जाता था। ओ.जे. एस्क्यू, जो सॉलिसिटर और वेस्लेयन प्रचारक थे, इनमें से एक थे जिनका गांधी जी से काफ़ी निकटता का संबंध था। गांधीजी की ओर से यह दूरदर्शी समझदारी भरा कार्य नेटाल इंडियन कांग्रेस को बचाने में सहायक सिद्ध हुआ, जब अगले वर्ष वह गंभीर संकट में फंस गई।

सहानुभूति का वातावरण बना

गांधीजी नेटाल इंडियन कांग्रेस को अफ्रीका के समग्र हिन्दुस्तानी समाज के दुख दर्द से जोड़ना चाहते थे। गांधीजी के पास इस समय भी यह देखने की दूरदर्शिता थी कि दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों का भविष्य काफी हद तक उपनिवेश में जन्मे भारतीय शिक्षित युवाओं पर निर्भर करता है। गांधीजी ने तुरंत ही तय कर लिया कि इसकी एक शैक्षणिक शाखा होनी चाहिए। शिक्षित युवाओं को  अपनी भूमिका निभाने और सार्वजनिक जीवन में अपना उचित हिस्सा लेने के लिए तैयार करने के लिए, गांधीजी ने नेटाल इंडियन कांग्रेस के तत्वावधान में नेटाल इंडियन एजुकेशनल एसोसिएशन की स्थापना की। श्री पॉल इसके अध्यक्ष बने और वे स्वयं इसके सचिव बने। यह एक तरह की बहस करने वाली संस्था के रूप में विकसित हुई। शीघ्र ही एक पुस्तकालय, एक वाद-विवाद संस्था अस्तित्व में आ गईं। इसमें नाममात्र का सदस्यता शुल्क लिया था। एसोसिएशन ने उनकी जरूरतों और शिकायतों को व्यक्त करने, उनके बीच विचारों को प्रोत्साहित करने, उन्हें भारतीय व्यापारियों के संपर्क में लाने और समुदाय की सेवा करने के लिए उन्हें अवसर प्रदान करने का काम किया। यह वास्तव में काफी हद तक एक वाद-विवाद समिति और युवाओं का एक भंडार था, जो कांग्रेस के लिए उपयोगी हो सकते थे। एसोसिएशन ने पूर्व गिरमिटिया भारतीयों के बच्चों में मातृभूमि के प्रति प्रेम तथा उसके इतिहास, संस्कृति और समृद्ध आध्यात्मिक परम्परा से परिचित होने की इच्छा को बढ़ावा दिया, जो उनकी गौरवशाली विरासत थी और जिस पर उन्हें गर्व होना चाहिए।

कांग्रेस का एक और अंग था बाहरी कार्य। इसमें दक्षिण अफ्रीका के अंग्रेजों में और बाहर इंग्लैंड तथा हिंदुस्तान में नेटाल की सच्ची स्थिति पर प्रकाश डालने का काम होता था। इसके लिए कांग्रेस की ओर से दो पुस्तिकाएं निकाली गईं – एक थी दक्षिण अफ़्रीका में प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक के नाम अपील और दूसरी थी भारतीय मताधिकार – एक अपील। दोनों ही पुस्तिकाएं दक्षिण अफ़्रीका के अलावा इंग्लैण्ड और भारत में दूर-दूर तक भेजी गईं। इसके परिणामस्वरूप भारतीयों के प्रति सहानुभूति का वातावरण बना।

पाई-पाई का हिसाब

भारतीय नेटाल कांग्रेस के निर्माण में गांधी जी ने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। विलायत से शिक्षा ग्रहण किया यह व्यक्ति व्यापारियों के बीच अपने विवेक के सहारे पैठ जमा सका। उनकी व्यवहार कुशलता का ही परिणाम था कि किसी के बीच कोई ग़लतफ़हमी नहीं पैदा हुई। साथ ही इस संगठन के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण भी क़ाबिले तारीफ़ थी। एक भी व्यक्ति उनकी खिलाफ़त नहीं कर सका। उन्होंने कुछ नियम बना रखे थे। कार्यालय का खर्चा कम रखा जाए। चंदा वसूली के काम में ढील न दी जाए। प्राप्त धन राशि की रसीद तुरत दी जाए। पाई-पाई का हिसाब रखा जाए। हाथ में अधिक धनराशि न रखी जाए। खाते की देख-भाल में ज़रा सी चूक संदेह की दीवार खड़ी कर देता। पर गांधी जी की कुशलता ही थी कि पाई-पाई का हिसाब-किताब पारदर्शिता के साथ रखा जाता था। जो चंदा देते थे उन्हें रसीद दिया जाता था। गांधी जी का मानना थाकिसी भी संस्था का बारीकी से रखा गया हिसाब उसकी नाक है। इसके अभाव में वह संस्था आखिर गंदी और प्रतिष्ठा रहित हो जाती है। शुद्ध हिसाब के बिना शुद्ध सत्य की रक्षा असम्भव है। सिर्फ़ छह पेंस की गड़बड़ी थी, उसे भी पहले वार्षिक रिपोर्ट में दिखाया गया। जो भी खर्च किया जाता उसकी भी वह पूरी देखभाल करते। किसी भी अपव्यय के वे सख्त ख़िलाफ़ थे। सारे क़ागज़ के दोनों तरफ़ लिखा जाता।

चंदा उगाहना कठिन काम

शुरुआती उत्साह अधिक समय तक बरकरार नहीं रह पाया। जिन्होंने शुरु में चंदा देने का वचन दिया था, बाद में वे वह मुस्तैदी नहीं दिखाया करते थे। 900 पाउंड की संभावित आय में से केवल 500 पाउंड या 59% ही वास्तव में प्राप्त हो सका। गांधी जी और स्वयं सेवकों का काफ़ी समय चंदा उगाही में ही बर्बाद हो जाता था। उनका सिद्धांत था कि समाज सेवा के लिए क़र्ज़ा मत लो और फ़ालतू भी नहीं। गांधीजी ने नेटाल इन्डियन कांग्रेस की रचना इस प्रकार की थी कि कम से कम बीस वर्षों तक यह संगठन दिवालिया न हो। पैसे उगाहने का बोझ गांधी जी के ऊपर था। धीरे-धीरे चंदा उगाहना बड़ा ही कठिन काम हो गया। सुदूर प्रदेशों से लोगों को सम्पर्क करना और चंदा प्राप्त करना कठिन, दुष्कर और श्रम-साध्य कार्य था। कांग्रेस के अथक परिश्रमी सचिव गांधी हर कदम पर सभी का सक्रिय सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे। इससे काम में सार्वजनिक उत्साह और रुचि बराबर बनी रही। सदस्य बनाने और चंदा जमा करने जैसे साधारण कार्य को भी उन्होंने महत्व दे रखा था। आधे मन से सहयोग देने वालों के साथ वह नैतिक दबाव का विनम्र, परन्तु साथ ही दृढ़ ढंग अपनाते थे। एक बार एक छोटे कस्बे के भारतीय व्यापारी के घर पर वह सारी रात भूखे बैठे रहे, क्योंकि व्यापारी नेटाल कांग्रेस का अपना चंदा नहीं बढ़ा रहा था। आखिर सबेरा होते-होते उन्होंने उसे अपना चंदा तीन से बढ़ा कर छः पौण्ड कर देने को राजी कर ही लिया।

अपने लिए राजनैतिक आचार-संहिता

संस्था के पैसों में से वह स्वयं कुछ भी नहीं लेते थे। वह मानते थे कि पैसा लेकर सार्वजनिक काम करने वाला संस्था और समाज की स्वतंत्रता और निर्भीकता से सेवा नहीं कर सकता। अवैतनिक सार्वजनिक सेवा को वह जनता के प्रति अपना कर्तव्य ही नहीं, अपनी स्वाधीनता की गारंटी भी समझते थे। ये आरंभिक दिन उनके सार्वजनिक जीवन और राजनैतिक कार्यों के प्रशिक्षण के दिन थे। इसी समय उन्होंने अपने लिए एक राजनैतिक आचार-संहिता भी बनाई। राजनीति में अपने दल के लिए उचित-अनुचित सभी उपायों का अवलंबन करने का प्रचलित मत उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। बात या वस्तु-स्थिति को बढा-चढाकर कहने से स्वयं तो बचते ही थे, अपने साथियों-सहकर्मियों को भी रोका-टोका करते। 'नेटाल इंडियन' कांग्रेस उनके निकट भारतीय अल्प-संख्यकों के राजनैतिक एवं आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा का माध्यम ही नहीं, उनके सुधार और उनमें एकता कायम करने का अस्त्र भी थी। गलतियों के लिए वह अपने देशवासियों को भी नहीं बख्शते थे, खामियों के लिए उनकी पूरी आलोचना करते थे। वह नेटाल में बसे भारतीयों के सबसे कट्टर हिमायती और मित्र ही नहीं, उनके ज़बरदस्त आलोचक भी थे।

उपसंहार

दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए तथा बिखरे, भेदों से भरे भारतीय समुदाय को एक अनुशासित और सुगठित स्थायी संगठन का रूप देने की आवश्यकता गांधीजी ने महसूस की। इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका उनकी गोद ली हुई भूमि बन गयी और उनके नेतृत्व में नेटाल इंडियन कांग्रेस और नेटाल इंडियन एजुकेशनल एसोसिएशन की स्थापना हुई। वह इस संस्था को नेटाल के भारतीयों की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला। इसका नियम ख़ुद बनाया। यह संगठन पूरे साल काम करने वाला प्राणवान संगठन बनकर उभरा। यह सदस्यों के राजनैतिक हितों की चौकसी करता था। उनके नैतिक और सामाजिक उन्नयन के लिए प्रयत्नशील था। यह संगठन हिन्दुस्तानी समुदाय की भलाई और विकास के लिए कानून के दायरे में रहकर सरकार से शांतिपूर्ण  साधनों से अपील आदि करने की मूल भावना से स्थापित किया गया था। गांधीजी इसके महामंत्री थे। वह सभी का सक्रिय सहयोग प्राप्त करने के लिए अथक परिश्रम करते। उनके प्रयासों के फलस्वरूप सदस्यों में उत्साह और रुचि हमेशा बनी रहती। सदस्य बनाने और चंदा इकट्ठा करने का काम भी उन्होंने बड़े लगन से किया। आय-व्यय का हिसाब बड़ी सतर्कता से रखते। संस्था के पैसों में से वह कुछ भी नहीं लेते। अवैतनिक सामाजिक सेवा उनका धर्म था। शीघ्र ही विविध तत्व एकजुट होने लगे और आपस में तथा भारत के साथ समान उद्देश्य और एकता की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने सक्रियता से कार्य करना शुरू कर दिया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

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