गुरुवार, 22 अगस्त 2024

51. एलेक्ज़ेंडर से पहचान

 गांधी और गांधीवाद

गति जीवन का अंत नहीं हैं। सही अर्थों में मनुष्य अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए जीवित रहता है। - महात्मा गांधी

51. एलेक्ज़ेंडर से पहचान

1895

प्रवेश

गांधी जी ने समाज की जड़ता को भंग कर लोगों को सोचने का नया दृष्टिकोण प्रदान किया और समाज में बदलाव के लिए आवश्यक ऊर्जा का संचार किया। जात-पात, छुआ-छूत, सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर करने के लिए सारी उम्र लड़ते रहे। गांधी जी एक कठोर और सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे। दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के लिए छोटी-छोटी बातों पर उत्पीड़न, यातनाएं और परेशानियां रोजमर्रा की बात थी। यहां तक ​​कि किसी को यह नहीं पता होता कि घर से बाहर निकलते ही कब कोई श्वेत उपद्रवी उस पर हमला कर देगा, कोई पुलिसकर्मी उसे चुनौती देकर जेल भेज देगा या फिर आम यूरोपीय जनता द्वारा उसे अपमानित किया जाएगा। अधिकांश मामलों में कानून से सुरक्षा की उम्मीद व्यर्थ ही थी। अपने मुवक्किलों के लिए कानूनी कार्य करने के अलावा, जो उन्हें रिटेनर देते थे, गांधीजी ने अपना सारा समय और प्रतिभा कानूनी अदालतों में उन साथी भारतीयों की लड़ाई लड़ने में समर्पित कर दी, जो विभिन्न प्रकार की कानूनी और गैर-कानूनी अक्षमताओं से जूझ रहे थे। आत्म-सम्मान के लिए किए गए कठिन संघर्ष में की गई सेवाओं के लिए उन्हें किसी पारिश्रमिक की अपेक्षा नहीं थी और न ही उन्हें कोई पारिश्रमिक मिला। यह विशुद्ध रूप से प्रेम का श्रम था।

आवारागर्दी के ख़िलाफ़ नियम का दुरुपयोग

दक्षिण अफ़्रीका में आवारागर्दी के ख़िलाफ़ एक नियम था (Vagrancy Law)। इसके प्रावधानों में से एक प्रमुख नियम यह था कि रात के नौ बजे के बाद से काले लोग घर से बाहर सड़क पर चल-फिर नहीं सकते थे। कुछ लोगों को अधिकृत पास दिया गया था, जिसे उन्हें दिखाना पड़ता था अथवा पकड़े जाने पर उन्हें अपनी पहचान के रूप में संतोषजनक उत्तर देना पड़ता था। प्रवासी भारतीयों को इस नियम के कारण काफ़ी तंग किया जाता था। इकरारनामे के करार से मुक्त हुए मज़दूर और उनके वंशज इस नियम के घेरे में आते थे। लेकिन वे भारतीय जो ख़ुद से नेटाल आए थे, वे इस नियम से मुक्त थे। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि अधिकतर मामलों में यह पुलिस की मर्ज़ी पर निर्भर करता था कि किसके साथ वह कैसा व्यवहार करती है। गुजराती व्यापारी, जिन्हें अरब कहा जाता था, अपनी वेश-भूषा से ही पहचान में आ जाते थे। लेकिन साधारणतया कौन गिरमिटिया मज़दूर है और कौन नहीं, फ़र्क़ कर पाना कठिन था। यह भी सच था कि जिस तरीक़े का व्यवहार पुलिस उनके साथ करती थी, वह भी उचित नहीं था। कई बार तो उन लोगों को भी पुलिस परेशान करती थी जो इस नियम के अंतर्गत नहीं आते थे।

जनवरी 1895 में उन्नीस भारतीय फेरीवालों पर बोरो कोर्ट डरबन में बिना पास के दिन के उजाले से पहले बोरो में आने का आरोप लगाया गया था। सुबह 2 बजे वे बुल्वर रोड पर फलों और सब्जियों की टोकरियों के साथ जा रहे थे। "देशी" कांस्टेबलों ने उन्हें पकड़ कर पुलिस स्टेशन ले गए। मजिस्ट्रेट मि. डिलन के समक्ष पेश किए जाने पर उन्होंने कहा कि वे थोक विक्रेताओं से अपनी आपूर्ति प्राप्त करने के लिए बेलेयर से ग्रे स्ट्रीट में मस्जिद के पास बाजार जा रहे थे। उनके वकील ने उन्हें रिहा करने की मांग करते हुए तर्क दिया कि कानून अश्वेत व्यक्तियों को दिन के उजाले से पहले बाहर निकलने की इजाजत देता है, बशर्ते वे "संतोषजनक स्पष्टीकरण" दे सकें। उनका यह बयान कि वे बाजार जा रहे थे, उन्हें सही ठहराने के लिए पर्याप्त था। कानूनी रूप से बाजार जा रहे पुरुषों को गिरफ्तार करना सरासर उत्पीड़न था। मजिस्ट्रेट ने दलील को बरकरार रखा और उन्हें रिहा कर दिया। लेकिन बेचारे उन लोगों ने पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने से दो दिन की संभावित कमाई खो दी।

वैध पास रहने के बावज़ूद पिटाई

गांधी जी के पास कई ऐसे मामले आए जिनमें प्रवासी भारतीय पर आरोप था कि उन्होंने इस नियम का उल्लंघन किया, हालाकि वे इस नियम के अंतर्गत नहीं आते थे। गांधी जी ने उनका सफलतापूर्वक बचाव किया। एक ऐसे ही मामले में जिसमें पुलिस ने वैध पास रहने के बावज़ूद एक व्यक्ति की पिटाई कर दी थी। गांधी जी ने अदालती कार्रवाई में जीत हासिल की और उस कांस्टेबल को ही अदालत ने जुर्माना भी भरने को कहा। फिर भी उन्होंने महसूस किया कि सिर्फ़ मामला जीत भर लेने से बात नहीं बनती है। इससे समस्या का कोई स्थाई निदान तो हुआ नहीं। वे चाहते थे कि पुलिस लोगों के साथ रूख़ा व्यवहार न करे। उनके इस विचार पर पुलिस अधीक्षक ने कोई तवज़्ज़ो नहीं दी। गांधी जी ने निश्चय किया कि प्रेस के द्वारा इस तरह के मामलों को लोगों के सम्मुख लाएंगे।

दिसंबर 1895 के अंत में दो युवा भारतीय ईसाई जो पूर्व-बंधुआ भारतीयों के बच्चे थे, पर रात 9-30 बजे बाहर रहने का आरोप लगाया गया। उनमें से एक स्कूल मास्टर था, दूसरा सिविल सेवा का उम्मीदवार था, जिसे गांधीजी ने पढाया था। मि. वालर के समक्ष पेश किए जाने पर उन्होंने बताया कि वे टहलने के लिए निकले थे और घर लौट रहे थे, तभी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और रात भर के लिए जेल में बंद कर दिया गया। बचाव पक्ष की ओर से पेश होते हुए गांधीजी ने तर्क दिया कि इन लोगों को बाहर जाने का पूरा अधिकार था। वे पूरी तरह से सम्मानित लड़के थे, उन्होंने अच्छा व्यवहार प्रदर्शन किया। मजिस्ट्रेट ने मामले के तथ्यों पर टिप्पणी करने के बाद कहा कि वह इस स्पष्टीकरण से संतुष्ट हैं कि वे केवल सैर कर रहे थे और आवारा नहीं थे। गांधीजी को एहसास हुआ कि सिर्फ़ अदालतों में मुक़दमे जीतने से उनके लोगों की मदद नहीं होगी। लड़ाई जीतने के लिए उन्हें कानून और व्यवस्था के लिए अधिकारियों की सद्भावना जीतनी होगी। इसलिए, मामले के समापन पर, उन्होंने पुलिस से भारतीय समुदाय के प्रति "थोड़ा और उदार और विचारशील" बनने की अपील की। ​​पुलिस गलतियां करने से पीछे नहीं हटती। अगर पुलिस भारतीयों के लिए कुछ विचार रखे और उन्हें गिरफ़्तार करने में विवेक का इस्तेमाल करे तो वैग्रांट कानून दमनकारी नहीं रह जाएगा।

इस मामले में पुलिस अधीक्षक ने प्रेस में वक्तव्य ज़ारी कर दिया कि अदालत ने बिना अधिकार के निर्णय दिया है। इस मामले के दोनों आरोपी लड़कों को उसने नवसमृद्ध कहा। गांधी जी ने इस लड़ाई को अपने हाथ में लिया और अंजाम दिया। बचाव पक्ष के लिए सहानुभूति हासिल करने में भी वे सफल हुए। गांधीजी के पत्र से दोनों भारतीय युवकों के प्रति जनता में काफी सहानुभूति पैदा हुई और पुलिस प्रमुख की कड़ी निंदा हुई। इस पूरे प्रकरण में पुलिस अधिकारी की अच्छी खासी दुर्गति हुई। लेकिन एक बात उसकी समझ में आ गई कि गांधी जी के सामने तलवार न भांजने में ही उसकी भलाई है। गांधी जी को भी यह महसूस हुआ कि वह पुलिस अधिकारी जिसका नाम एलेक्ज़ेंडर था, सिर्फ़ दिखावे के लिए ही निर्मम और कठोड़ था, अंदर से दिल का वह बड़ा ही नेक ख़्याल और दयालु इंसान था। उन्होंने उसे और उसके आदमियों की सद्भावना को बढ़ाना जारी रखा। धीरे-धीरे गांधी जी और एलेक्ज़ेंडर एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचानने लगे और कुछ ही दिनों के बाद दोनों के बीच एक-दूसरे के प्रति अच्छी समझ विकसित हो गई।

यही एलेक्ज़ेंडर और उसकी पत्नी ने कुछ दिनों के बाद गांधी जी को जानलेवा हमले से बचाया था। उसका किस्सा समय आने पर।

उपसंहार

दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों की नज़रों में एक वकील के रूप में गांधी जी की इज़्ज़त दिन ब दिन बढ़ती गई। एक वकील के रूप में उनकी सफलता ने उन्हें अपना आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद की। उन्होंने आखिरकार उसी क्षेत्र में अपनी योग्यता साबित कर दी जिसमें उन्हें अपनी युवावस्था में सबसे बड़ी असफलता का सामना करना पड़ा था। यह एक उपलब्धि थी, कि वे अपने पेशे में उच्च नैतिक मूल्यों को लाने में सक्षम हुए। उन्होंने यह साबित कर दिया था कि एक वकील अनैतिक तरीकों का सहारा लिए बिना भी सफल हो सकता है। उन्होंने केस जीतने के लिए हेरफेर किए गए सबूतों, प्रशिक्षित गवाहों, कानूनी खामियों या प्रक्रियात्मक तकनीकी बातों का सहारा लेने से इनकार कर दिया था, भले ही उन्हें पता था कि विरोधी इन तरीकों का सहारा ले रहे हैं। उन्होंने न्यायाधीशों के बीच व्यक्तिगत ईमानदारी से ऐसी प्रतिष्ठा हासिल की थी कि उन्हें हमेशा सावधानीपूर्वक सुनवाई दी जाती थी, भले ही उनके पास सामान्य वकील की तरह बोलने का हुनर ​​न हो।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम 8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए 11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक 12. राजनीतिक संगठन 13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का, 31. प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स..., 33. अपमान का घूँट, 34. विनम्र हठीले गांधी, 35. धार्मिक विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना रहित मन, 38. दो पत्र, 39. मुक़दमे का पंच-फैसला, 40. स्वदेश लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़ बिल का विरोध, 42. नेटाल में कुछ दिन और, 43. न्यायालय में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा अनुभव, 45. धर्म संबंधी धारणाएं, 46. नेटाल इन्डियन कांग्रेस, 47. बालासुन्दरम का मामला, 48. सांच को` आंच कहां, 49. सत्य और ईमानदारी का मार्ग, 50. सत्य और ईमानदारी के सिद्धांत पर

 

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