गांधी और गांधीवाद
105. गांधीजी काशी में
1902
प्रवेश
कोलकाता से राजकोट की वापसी की यात्रा शुरु हो चुकी थी। सुबह-सुबह
काशी स्टेशन पर गाड़ी लगी। गांधीजी उतरे। कई ब्राह्मणों ने उन्हें घेर लिया। उसमें
से एक को जो थोड़ा सुघड़ और सज्जन लगा, उन्होंने उसे पसन्द किया। एक सामान्य तीर्थयात्री की तरह वे उसी
पंडे के घर ठहरे। उस ब्राह्मण के आंगन में गाय बंधी थी। ऊपर एक कमरा था। उसमें गांधीजी
को ठहराया गया।
काशी विश्वनाथ के दर्शन
बनारस में गंगा जी की पूजा
कर, उन्होंने स्नान
किया और लगभग बारह बजे भगवान शिव के पवित्र मंदिर काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए गए। काशी विश्वनाथ के दर्शन के वक्त
का अनुभव भी उनका कोई खास संतोषजनक नहीं था। यह एक ऐसी जगह है जहां लाखों लोग
ईश्वर की खोज में पहुंचते हैं। श्रद्धा भक्ति से गांधीजी भी विश्वनाथ जी के मंदिर
में दर्शनार्थ गए, लेकिन सड़े हुए फूलों की बदबू भरे
रास्तों की गंदगी और सड़ांध से उनका दिमाग चकराने लगा। तंग संकरी, फिसलन वाली गली, मक्खियों की भिनभिनाहट, यात्रियों और फेरी वाले दुकानदारों
का कोलाहल, यह सब उन्हें असह्य प्रतीत हुआ। उन्होंने लिखा है, “काशी-विश्वनाथ के आसपास शान्त, निर्मल, सुगन्धित और स्वच्छ
वातावरण – वाह्य और आन्तरिक – उत्पन्न करना और उसे बनाए रखना प्रबन्धकों का
कर्तव्य होना चाहिए। इसके बदले वहां ठग दुकानदारों का बाज़ार है!”
पुजारी की लोलुपता
जब वे मन्दिर के गर्भ गृह में
पहुंचे तो चारों ओर बदबूदार सड़े हुए फूल और गंदगी देख कर उनका मन भिन्ना गया। उससे
भी ज़्यादा पुजारी की नग्न लोलुपता देखकर गांधीजी ग्लानि से विरक्त हो उठे। दक्षिणा
के रूप में कुछ चढ़ाने की श्रद्धा न रहते हुए भी उन्होंने एक पाई चढ़ाई, जिसे देखते ही पुजारी तमतमा उठा।
उसने पाई फेंक दी। दो-चार गालियां देकर बोला, “तू यों अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा।” गांधीजी शान्तिपूर्वक बोले, “महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुंह में गाली शोभा नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिए, नहीं तो यह भी हाथ से जाएगी।” पुजारी ने कहा, “जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए” कहकर, दो-चार और उसने गांधीजी को सुना दी। गांधीजी पाई लेकर चल दिए। पुजारी
ने गांधीजी को वापस बुलाया। बोला, “अच्छा, धर दे। मैं तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूं, तो तेरा बुरा हो।” गांधीजी ने पाई रख दी और चुपचाप चल दिए। उन्होंने यहां के अनुभव के
बारे में लिखा, “मैंने यहां ईश्वर को
तलाशने की कोशिश की, पर असफल रहा।” बाद में उन्हें फिर काशी आना पड़ा था,
लेकिन वह तब, जब वे “महात्मा” बन गए थे और करोड़ों लोगों के आदर के पात्र बन चुके थे। तब भी उनका काशी
का अनुभव कोई भिन्न नहीं था। वह पवित्र स्थान पर स्थापित शिव के दर्शन और
पवित्र दृश्य प्राप्त करना चाहते थे, लेकिन उस स्थान
के बारे में सब कुछ अशांत करने वाला था। बाद के वर्षों
में उनके लिए मंदिर जाना असंभव हो गया, क्योंकि लोग
उनके दर्शन प्राप्त करने के लिए इतने उत्सुक हो गए थे कि उन्हें भगवान के दर्शन
प्राप्त करने से रोक दिया जाता था। महात्माओं के दुःख केवल महात्माओं को ही मालूम
होते हैं।
श्रीमती
एन्नी बेसंट से मिलने गए
काशी-विश्वनाथ के दर्शन के बाद बनारस से रवाना
होने से पहले गांधीजी भारतीय स्वतंत्रता की
प्रबल समर्थक और थियोसोफिस्ट श्रीमती एन्नी
बेसंट (1 अक्टूबर 1847 - 20 सितम्बर 1933) से शिष्टाचार वश मिलने सेंट्रल हिंदू कॉलेज गए। उनका
जन्म 1 अक्टूबर,
1847 को आयरलैंड में हुआ था और 1893 में वह भारत आ गईं। भारत के धर्म आध्यात्म की ओर आकर्षित हुईं और भारत आकर भारत की होकर
रह गईं। वह थियोसॉफी
सोसाइटी की प्रमुख बनीं और 1916
में उन्होंने इंडियन होम रूल लीग की स्थापना की। सन 1917 में वे भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्षा भी बनीं। वह लंबे समय से
बीमार चल रही थीं। लेकिन हाल में ही, उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा
था। इस प्रखर व असाधारण व्यक्तित्व ने समाजवाद और अन्य विभिन्न आस्थाओं से होते
हुए थियोसोफी (ब्रह्मविद्या) में अपना स्थान बना लिया था। ऐसा करने के साथ-साथ
उन्होंने युवाओं में साहित्य और अपने अतीत की मान्यताओं के प्रति रुचि जाग्रत करके
भारत की सच्ची सेवा की थी। व्याख्यान करने के लिए वे भारत के कोने-कोने में जातीं।
हालाकि एक अंग्रेज़ महिला होने के कारण उन्हें उपनिवेशवादी दमनकारी ख़ेमे से जुड़ा
माना जा सकता था, लेकिन वास्तव में भारतीय पुनर्जागरण, भारतीय गौरव के प्रति फिर से चेतना जाग्रत करने में उनका योगदान
अत्यंत महत्वपूर्ण था। इन्हीं कारणों से गांधीजी के मन में उनके प्रति असीम आदर का
भाव था।
उनसे मिलने के लिए गांधीजी ने
अपना नाम भेजा। वे तुरन्त ही मिलने आ गईं। गांधीजी बोले, “मुझे आपके दुर्बल
स्वास्थ्य का पता है। मैं तो सिर्फ़ आपके दर्शन करने आया हूं। दुर्बल स्वास्थ्य के
रहते भी आपने मुझे मिलने की अनुमति दी, इसी से मुझे संतोष है।
मैं आपका अधिक समय नहीं लेना चाहता।”
गांधीजी ने उनसे विदा ली।
उपसंहार
गांधीजी अभी महात्मा नहीं बने थे। भारत में उन्हें अभी भी कम
ही लोग जानते थे और जब वे अपने साथ बारह आने का धातु का टिफिन-बॉक्स और कैनवास का
थैला लेकर एक जगह से दूसरी जगह घूमते थे, तो उन्हें दूसरे
घुमक्कड़ तीर्थयात्रियों से अलग पहचान पाना मुश्किल था।
" उनके दिमाग में लगातार घूमता रहा।
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मनोज कुमार
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कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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