बुधवार, 22 जनवरी 2025

243. लखनऊ समझौता

राष्ट्रीय आन्दोलन

243. लखनऊ समझौता



1916

गुजरात क्लब में 

वल्लभ भाई पटेल के पिता झेवर भाई ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था। 31 अक्टूबर 1875 में पटेल का जन्म हुआ था। वह गांधीजी से केवल छह साल छोटे थे। पटेल लंदन के उसी लॉ कॉलेज मिडिल टेंपल से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे, जहाँ से गांधी, जिन्ना, उनके बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल और नेहरू ने बैरिस्टर की डिग्रियां ली थीं। पटेल ने पहली बार गाँधीजी को गुजरात क्लब में 1916 में देखा था। साल 1916 की गर्मियों में गाँधीजी गुजरात क्लब में आए थे। गाँधीजी साउथ अफ्रीका में झंडे गाड़ने के बाद पहली दफ़ा गुजरात आए थे। देश में जगह-जगह उनका अभिनंदन हो रहा था। उन्हें कुछ लोग 'महात्मा' भी कहने लगे थे लेकिन तब पटेल गांधीजी के इस 'महात्मापन' ने जरा भी प्रभावित नहीं थे। वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे। लेकिन बहुत जल्द ही पटेल की गांधीजी को लेकर धारणा बदल गई। चंपारण में गाँधीजी के जादू का उन पर जबरदस्त असर हुआ। वो गांधीजी से जुड़ गए। खेड़ा का आंदोलन हुआ तो पटेल गाँधीजी के और करीब आ गए। असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो पटेल अपनी दौड़ती हुई वकालत छोड़ कर पक्के गाँधी-भक्त बन गए। उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महँगे वकीलों में से एक हुआ करते थे। बारदोली सत्याग्रह में पटेल पहली बार सारे देश में मशहूर हो गए।

जवाहरलाल नेहरू से पहली बार भेंट

गांधीजी से नेहरू की पहली मुलाक़ात लखनऊ कांग्रेस के समय 1916 में हुई थी। जिस बहादुरी से गांधीजी ने दक्षिण अफ़्रीका में लड़ाई लड़ी थी उसकी नेहरूजी काफ़ी प्रशंसा किया करते थे। लेकिन युवा नेहरू को वे अपने से बहुत दूर, बिलकुल अलग और अराजनैतिक लगते थे। उन दिनों गांधीजी ने कांग्रेस या राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने से मना कर दिया था। वे अपने को दक्षिण अफ़्रीका के प्रश्न तक ही सीमित रखते थे।

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन

दिसम्बर 1916 में लखनऊ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। गांधीजी ने यहां हिंदी का नारा बुलंद किया। श्रोताओं से कहा, यदि एक वर्ष के अंदर आप हिंदी न सीख लेंगे, तो आपको मेरा भाषण अंग्रेज़ी में सुनने को नहीं मिलेगा। मैं गुजरात से आता हूं। मेरी हिंदी टूटी-फूटी है – मैं उसी में आपसे बोलता हूं, क्योंकि अंग्रेज़ी बोलने में मुझे ऐसा मालूम होता है, मानों मुझे इससे पाप लगता है। आपको हिंदी का गौरव बताने की ज़रूरत नहीं है।

उसी अधिवेशन में गाँधीजी को अपने नियमों को व्यवहार में लाने का अवसर मिला। वार्षिक कांग्रेस में बिहार में चंपारण से आए एक किसान राजकुमार शुक्ल ने उन्हें वहाँ अंग्रेज नील उत्पादकों द्वारा किसानों के प्रति किए जाने वाले कठोर व्यवहार के बारे में बताया। वहां के किसानों में नील की खेती को लेकर असंतोष तीव्र हो उठा था। निलहे गोरों के ख़िलाफ़ भारतीयों के जातीय रोष और घृणा का रूप धारण करता जा रहा था। उसने गांधीजी को चम्पारण आने का निवेदन किया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन 26-30 दिसंबर, 1916को अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में हुआ।  'लखनऊ अधिवेशन' में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का पुनर्मिलन हुआ। 1907 में सूरत अधिवेशन में उदारवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच जो विभाजन हुआ था, उसे समाप्त किया गया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक कांग्रेस में वापस आ गए। इसने होम रूल लीग को मान्यता दी, जिसने लोगों को जागृत करने और स्वराज की मांग को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। देश को एक बड़ी राजनीतिक प्रगति की उम्मीद थी। पश्चिमी भारत से लखनऊ तक प्रतिनिधियों को ले जाने के लिए एक विशेष ट्रेन का आयोजन किया गया, जिसे 'कांग्रेस स्पेशल' और 'होम रूल स्पेशल' के नाम से जाना जाता था। अरुंडेल ने लीग के हर सदस्य से लखनऊ अधिवेशन में एक प्रतिनिधि के रूप में खुद को निर्वाचित करने के लिए कहा - इसका उद्देश्य कांग्रेस को होम रूल लीगर्स से भर देना था। लखनऊ में कांग्रेस में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। 2,301 प्रतिनिधि थे, साथ ही बड़ी संख्या में आगंतुक भी थे, जिन्होंने विशाल पंडाल को पूरी तरह से भर दिया। कांग्रेस चार दिनों तक चली और विभिन्न विषयों पर प्रस्ताव पारित किए गए। दिसंबर में आयोजित लखनऊ कांग्रेस कई मायनों में ऐतिहासिक थी। अध्यक्ष ने कहा: "अगर नौ साल पहले सूरत के पुराने फ्रेंच गार्डन के मलबे में संयुक्त कांग्रेस को दफना दिया गया था, तो आज लखनऊ के कैसरबाग में इसका पुनर्जन्म हुआ। भारतीय राष्ट्रीय पार्टी के दोनों विंग एक साथ आए हैं और उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति और जिम्मेदारी का एहसास हुआ है।

लगभग 10 वर्षों के दर्दनाक अलगाव और गलतफहमियों के जंगल और अप्रिय विवादों की भूलभुलैया में भटकने के बाद... भारतीय राष्ट्रवादी पार्टी की दोनों शाखाओं को यह एहसास हो गया है कि एकजुट होकर वे खड़े हैं, लेकिन विभाजित होकर वे गिर जाते हैं और आखिरकार भाई-भाई मिल गए हैं...

यह स्पष्ट था कि युद्ध ने देश में पूरी तरह से नई ताकतों को जन्म दिया था। नरमपंथियों का दृष्टिकोण व्यापक हो गया था और गरमपंथी कांग्रेस के विचार-विमर्श से बाहर नहीं रहना चाहते थे। बिपिन चंद्र पाल, तिलक, श्रीमती बेसेंट सभी कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने आए थे। तिलक बंबई प्रेसीडेंसी से अपने अनुयायियों के एक बड़े हिस्से को लखनऊ अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में लाने में सफल रहे।

अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार ने अपने संबोधन में कहा कि अब देश पर शासन करने वाली नौकरशाही निरंकुशता का संघनित रूप है। हालाँकि, लोग इस व्यवस्था से पूरी तरह से बाहर निकल चुके थे और देश में एक नई भावना पैदा हुई थी। चाहे इसे दूरदर्शी कहा जाए या अधीर आदर्शवाद, यह भावना एक लोकतांत्रिक शक्ति की अभिव्यक्ति थी जो एक पुरानी दुनिया की नियति को एक नई व्यवस्था या चीजों में बदल रही थी। इस अदम्य शक्ति के दबाव में, समय-सम्मानित राज्य टुकड़े-टुकड़े हो रहे थे और प्राचीन और यहाँ तक कि दिव्य मूल के वंशानुगत नरेश बिना एक आँसू या खून की एक बूँद बहाए चुपचाप निकल रहे थे। पुराने विचार इतनी तेज़ी से बदल रहे थे कि कुछ लोग समझ नहीं पा रहे थे और अगर भारतीय लोग खुद को पितृसत्तात्मक या पैतृक शासन प्रणाली के साथ सामंजस्य स्थापित करने में असमर्थ थे तो यह उनका कोई दोष नहीं था। वर्तमान सरकार, चाहे वह प्रशासन को सुव्यवस्थित रखने का जो भी दावा करती हो, कालभ्रमित हो चुकी है। यह लोगों को पूरी तरह से खुश कर सकती है, लेकिन यह उन्हें साधन संपन्न, संतुष्ट, आत्मनिर्भर और जीवन तथा आचरण में पुरुषार्थी नहीं बना सकती।

स्वशासन पर प्रस्ताव में कहा गया था: "इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारत के महान समुदाय प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं, और उन्होंने शासन और प्रशासन के लिए महान क्षमता दिखाई है, और ब्रिटिश शासन की एक शताब्दी के दौरान उन्होंने शिक्षा और सार्वजनिक भावना में जो प्रगति की है, और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि सरकार की वर्तमान प्रणाली लोगों की वैध आकांक्षाओं को संतुष्ट नहीं करती है और मौजूदा स्थितियों और आवश्यकताओं के लिए अनुपयुक्त हो गई है, कांग्रेस की राय है कि समय आ गया है जब महामहिम राजा-सम्राट को यह घोषणा करते हुए प्रसन्न होना चाहिए कि यह ब्रिटिश नीति का उद्देश्य और इरादा है कि भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वशासन प्रदान किया जाए; यह कांग्रेस मांग करती है कि अखिल भारतीय कांग्रेस समिति द्वारा तैयार की गई योजना में निहित सुधारों को स्वीकार करके और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा अपनाई गई योजना में निहित सुधारों को स्वीकार करके स्वशासन की दिशा में एक निश्चित कदम उठाया जाना चाहिए; और यह कि साम्राज्य के निर्माण में भारत को निर्भरता की स्थिति से साम्राज्य में समान भागीदार की स्थिति में उठाया जाना चाहिए। स्वशासित प्रभुत्व के साथ।"

लखनऊ कांग्रेस द्वारा पारित प्रस्तावों में से एक गिरमिटिया मजदूरों पर था। इसे गांधीजी ने पेश किया था। प्रस्ताव में जोरदार तरीके से आग्रह किया गया था कि "अगले वर्ष के भीतर ऐसे मजदूरों की भर्ती पर रोक लगाकर गिरमिटिया प्रवास को रोका जाना चाहिए" और आगे कहा गया कि कम से कम एक प्रतिनिधि भारतीय को "इस प्रश्न पर विचार करने के लिए लंदन में आयोजित होने वाले आगामी अंतर-विभागीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए।" फिजी और वेस्ट इंडीज में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की कठिनाइयां गंभीर राष्ट्रीय चिंता का विषय बन गई थीं और गिरमिटिया व्यवस्था को समाप्त करने के लिए पूरे देश में बैठकों के माध्यम से सार्वजनिक आंदोलन चल रहा था।

इस सब के बावज़ूद अब भी कांग्रेस एक विचार-विमर्श का मंच ही थी। यह अभी भी लगातार चलाए जाने वाले आन्दोलन के लिए तैयार नहीं थी। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने एक सुगठित वर्किंग कमेटी की स्थापना का प्रस्ताव इस अधिवेशन में दिया था ताकि कांग्रेस को एक वास्तविक राजनीतिक दल बनाने की दिशा में एक कदम उठाया जाए, लेकिन अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार ने इसे व्यवस्था के अनुरूप न मानकर अस्वीकार कर दिया।

लखनऊ समझौता

लखनऊ कांग्रेस प्रसिद्ध कांग्रेस लीग समझौते के लिए भी महत्वपूर्ण थी, जिसे लखनऊ समझौते के नाम से जाना जाता है। नौ वर्षों की अनुपस्थिति के बाद तिलक लखनऊ कांग्रेस में अपने पुराने साथियों के साथ शामिल हुए। अपनी दो गिरफ़्तारियों की बदौलत तिलक भारतीयों के बड़े जननायक बन कर उभरे थे। उनकी पहली गिरफ़्तारी 1897 में हुई थी। उस साल उन्हें डेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया गया था। 1908 में वह एक बार फिर गिरफ़्तार किए गए। उन्हें छह साल की सश्रम कारावास की सजा सुना कर बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया। देश के कामगार वर्ग ने तिलक की सज़ा का जोरदार विरोध किया। इस सज़ा के ख़िलाफ़ कामगारों ने बॉम्बे (मुंबई) में अब तक की पहली राजनीतिक हड़ताल की। हिंदुओं और मुस्लिमों ने बॉम्बे (मुंबई) को छह दिन के लिए ठप कर दिया। तिलक को दी गई हर एक साल की सजा के विरोध में एक दिन का बंद रखा गया यानी छह साल की सजा के लिए छह दिन। तिलक के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला चलाया गया। तब के युवा वकील और भारतीय राजनीति पर उभर रहे मोहम्मद अली जिन्ना ने उनका सफलतापूर्वक बचाव किया। आगे चल कर पाकिस्तान की स्थापना करने वाला जिन्ना उन दिनों राष्ट्रीय मुक्ति के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता का पैरोकार था। जिन्ना 1896 में कांग्रेस में शामिल हुआ था। वह काफ़ी बाद में, 1913 में मुस्लिम लीग का सदस्य बना। एक ही वक्त में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों का सदस्य था। बॉम्बे हाई कोर्ट में एक शेर  की तरह गरजते हुए तिलक ने ऐलान किया "स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।" जब जज ने उनसे पूछा कि क्या आप सज़ा सुनाए जाने से पहले कुछ कहना चाहते हैं तो तिलक ने बड़ी निर्भिकता से कहा, "मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूं कि ज्यूरी का फ़ैसला ग़लत है। मैं निर्दोष हूं। लोगों और देश की नियति इससे भी ऊंची सत्ता के हाथ में होती है। ईश्वर शायद चाहता है कि मैं जिन हितों के लिए लड़ रहा हूं उन्हें बाहर रहने के बजाय जेल के कष्ट सह कर ज़्यादा मजबूती दी जा सकती है।" तिलक की सजा की निंदा करते हुए 1917 की रूस क्रांति का नेतृत्व करने वाले ब्लादीमिर लेनिन ने कहा, "ब्रिटिश भेड़ियों ने भारतीय लोकतांत्रिक नेता तिलक को सजा सुनाई है, वह यह दिखाता है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बस नाश होने ही वाला है!" मौलाना हसरत मोहानी एक प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी और उर्दू के शायर थे। मौलाना ने ही इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा पहली बार दिया था। वह तिलक को अपना मेंटर और गुरु मानते थे। तिलक को जब जेल भेज गया तो उन्होंने लोकमान्य की शान में एक गज़ल लिखी।

तिलक ने स्वतंत्रता आंदोलन को आम आदमी से जोड़ने के लिए धार्मिक प्रतीकों का सहारा लिया था। एक तरफ़ उन्होंने गणेश और शिवाजी महोत्सवों का आयोजन कर 'हिंदू पुनरुत्थानवाद' को बढ़ाने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ़  वे पुणे में अपने मुस्लिम भाइयों के साथ मुहर्रम के जुलूस में भी शामिल होते थे। स्वतंत्रता आंदोलन को नेतृत्व देने के दौरान तिलक को यह पक्का विश्वास हो गया था कि भारत की मुक्ति और भविष्य की तरक्की के लिए हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच एकता निहायत ज़रूरी है। उन्होंने इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया कि भारतीय राष्ट्रवाद 'साझा' है- मतलब इसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों के लिए बराबर की जगह है। खिलाफत आंदोलन के प्रमुख नेता मौलाना शौकत अली और उनके भाई मोहम्मद अली जौहर तिलक का काफ़ी सम्मान करते थे। शौकत अली ने तो यहां तक कहा, "मैं एक बार नहीं सैकड़ों बार यह कहता हूं कि मेरा और मेरे भाई का नाता अब भी लोकमान्य तिलक की राजनीतिक पार्टी से है"।

जब तिलक विशाल सभा को संबोधित करने के लिए खड़े हुए, तो उनका अभूतपूर्व तालियों से स्वागत किया गया। उन्होंने कहा: "मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि यह सोचूँ कि यह स्वागत मेरे विनम्र व्यक्तित्व के लिए किया गया है। अगर मैं सही ढंग से समझूँ तो यह उन सिद्धांतों के लिए किया गया है जिनके लिए मैं लड़ता रहा हूँ, वे सिद्धांत जो उस प्रस्ताव में सन्निहित हैं जिसका समर्थन करने का मुझे सम्मान मिला है। मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि मैंने इन दस वर्षों में यह देखा है कि हम स्वशासन की योजना को आगे बढ़ाने के लिए अपनी आवाज़ और अपने कंधे एक साथ रखने जा रहे हैं। हम अब संयुक्त प्रांत में हर तरह से एकजुट हैं।"

लखनऊ समझौते की सराहना करते हुए तिलक ने कहा: "यह कहा गया है कि हम हिंदुओं ने अपने मुस्लिम भाइयों के सामने बहुत कुछ किया है। मुझे यकीन है कि जब मैं कहता हूं कि हम बहुत कुछ नहीं कर सकते थे, तो मैं पूरे भारत के हिंदू समुदाय की भावना का प्रतिनिधित्व करता हूं। मुझे परवाह नहीं होगी अगर स्वशासन के अधिकार केवल मुस्लिम समुदाय को दिए जाएं। मुझे परवाह नहीं होगी अगर वे राजपूतों को दिए जाएं। मुझे परवाह नहीं होगी अगर वे हिंदू आबादी के निचले वर्गों को दिए जाएं। तब लड़ाई त्रिकोणीय नहीं होगी, जैसा कि वर्तमान में है।"

तिलक चाहते थे कि कांग्रेस होम रूल लीग और अन्य सार्वजनिक संगठनों से लगातार जोरदार प्रचार करने का आह्वान करे। नरमपंथियों ने बड़ी अनिच्छा से प्रस्ताव पारित होने दिया। यहां तक ​​कि जिन्ना और पंडित मालवीय ने भी इसके खिलाफ वोट दिया।

1916 में लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का समझौता हुआ था और उसके मुख्य वास्तुकार थे तिलक और जिन्ना। कांग्रेस ने अलग मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र को स्वीकार किया। इसमें ये तय हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों को भारत की आज़ादी के लिए साथ-साथ लड़ना चाहिए। जिन्ना ने खुद को देश की आज़ादी के साझा लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे दो भारतीय राजनीतिक दलों के बीच पुल के तौर पर देखा। जिन्ना ने तिलक की सोच को वाणी दी। लखनऊ में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में जिन्ना ने खुद को एक 'पक्का कांग्रेसी' करार दिया। ऐसा कांग्रेसी जिसे 'सांप्रदायिक नारों से कोई लगाव नहीं' था। जिन्ना का 'भारत के दो बड़े समुदायों के बीच एकता' में पक्का विश्वास था। उसका मानना था कि 'हिंदू-मुस्लिम एकता और साझा हितों के लिए दोनों के बीच सौहार्दपूर्ण माहौल' होना चाहिए। तब गोखले ने जिन्ना को 'हिंदू-मुस्लिम एकता का दूत' क़रार दिया था। तिलक और जिन्ना ही ऐतिहासिक लखनऊ पैक्ट के वास्तुकार बने। तिलक और जिन्ना के बनाए माहौल का ही नतीजा था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों का वार्षिक अधिवेशन दिसंबर, 1916 में लगभग एक ही समय हुआ। कांग्रेस और मुस्लिम लीग समझौते ने एकता का ऐसा माहौल बना दिया था कि तिलक को मुस्लिम लीग के अधिवेशन के एक सत्र में बुलाया गया। वहां उनका भव्य स्वागत और अभिनंदन हुआ। इन अधिवेशनों में दोनों पार्टियां मुस्लिमों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करने को तैयार हो गईं। उनके प्रतिनिधित्व को पर्याप्त महत्व दिया गया।  अल्पसंख्यक होने के बावजूद इंपीरियल और प्रांतीय विधानमंडलों में आबादी के अनुपात से मुस्लिमों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने पर सहमति बनी। इसी तरह इस समझौते ने पंजाब और बंगाल जैसे मुस्लिम बहुल राज्यों में गैर मुस्लिमों के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई। गैर मुस्लिमों को पर्याप्त सीटें देने के लिए मुस्लिमों की सीटें घटाई भी गईं। इस समझौते की वजह से इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मुस्लिमों को एक तिहाई सीट दी गई। मुसलमानों ने बदले में सामान्य रूप से वोट देने के अपने मौजूदा अधिकार के साथ-साथ अलग निर्वाचन क्षेत्रों को त्याग दिया।

लखनऊ में जो एक समझौता कर हिंदू-मुसलमानों के राजनीतिक मतभेदों का समाधान करने का प्रयास किया गया था उसके तहत कांग्रेस ने हिंदू-मुसलमानों के लिए अलग-अलग निर्वाचक मंडल की बात स्वीकार कर ली। सीटों के बंटवारे पर भी फैसला हो गया। मुसलमान नेताओं ने मुसलमान बहुल क्षेत्रों (बंगाल आदि) में अनुपात से कम प्रतिनिधित्व और बदले में बंबई और संयुक्त प्रांत जैसे क्षेत्रों में अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व लेना स्वीकार कर लिया। इस दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अभूतपूर्व भाईचारा देखने को मिला। लीग के अध्यक्ष जिन्ना ने कहा: "जिन मुख्य सिद्धांतों पर पहला अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीतिक संगठन आधारित था, वे थे मुस्लिम सांप्रदायिक व्यक्तित्व को मजबूत और अप्रभावित बनाए रखना, जो भारत में इसके राजनीतिक विकास के दौरान किए जाने वाले किसी भी संवैधानिक समायोजन में मजबूत और अप्रभावित हो। समुदाय में राजनीतिक जीवन और विचार के विकास के साथ-साथ यह पंथ विकसित और व्यापक हुआ है। भविष्य के संबंध में अपने सामान्य दृष्टिकोण और आदर्श में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ खड़ी है और पूरे देश की उन्नति के लिए किसी भी देशभक्तिपूर्ण प्रयास में भाग लेने के लिए तैयार है।"

पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे कांग्रेस के प्रभावशाली हिंदू नेताओं ने तिलक का विरोध किया। उन्होंने कहा कि अलग निर्वाचक मंडल जैसी 'राष्ट्रविरोधी' और 'लोकतंत्र विरोधी' व्यवस्था का समर्थन कर तिलक ने मुस्लिमों के सामने समर्पण कर दिया है। इसके बावजूद तिलक अपने रुख़ पर दृढ़ रहे और हिंदू-मुस्लिम समझौते के लिए सारी आलोचनाएं झेल लीं। उन्होंने कहा कि हम हिंदुओं ने बहुत ज़्यादा ले लिया है। हमारे मुस्लिम भाइयों को विधान मंडलों में जो सीटें मिली हैं, वो कहीं से भी ज़्यादा नहीं है। जिस अनुपात में उन्हें रियायत दी गई है उसके हिसाब से उन्होंने बहुत उत्साह और ज़िंदादिली दिखाई है। मुस्लिमों की मदद के बगैर हम मौजूदा असहिष्णु दौर से नहीं निकल सकते। तिलक यह मानते थे कि ब्रिटिश, हिंदू और मुस्लिमों के इस त्रिकोणीय संघर्ष को ब्रिटिश और आम हिंदू-मुसलमान के साझा मोर्चे के बीच की लड़ाई में बदल देना चाहिए और इस बुनियादी तबदीली को जमीन पर उतारने के लिए वह यह दिखाने को तैयार थे कि हिंदू मुस्लिमों के लिए सदाशयता बरतने को तैयार हैं। आख़िरकार हिंदू और मुसलमान, दोनों ही तो भारतीय हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की यह सबसे बड़ी त्रासदी रही कि आगे आने वाले घटनाक्रमों के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता और कांग्रेस-मुस्लिम सहयोग अपनी कसौटी पर खरा नहीं उतर सका। इसकी एक वजह तो यह है कि तिलक ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहे। 1920 में उनका निधन हो गया। वह ज़िंदा रहते तो शायद इसे एक व्यावहारिक शक्ल दे पाते।

यद्यपि मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र के सिद्धांत को स्वीकार करना निश्चित रूप से सबसे विवादास्पद निर्णय था, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह समझौता बहुसंख्यक वर्चस्व के बारे में अल्पसंख्यकों के डर को दूर करने की ईमानदार इच्छा से प्रेरित था।

गांधीजी धीरे-धीरे उस ख़िलाफ़त आंदोलन में खिंचे जा रहे थे जिसके मंच से शीघ्र ही सरकार से असहयोग करने की घोषणा करनी थी। जब वह दक्षिण अफ़्रीका में थे, तभी से उनके मन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को लेकर दिलचस्पी पैदा हो गई थी। उनके अनुसार लखनऊ समझौते ने एकता का कोई पर्याप्त आधार नहीं बनाया था। उन्होंने कहा, लखनऊ समझौता शिक्षित और धनी हिन्दुओं तथा शिक्षित और धनी मुसलमानों के बीच का समझौता था।

उन्होंने अली बंधुओं से सम्पर्क स्थापित किया था और मानते थे कि ख़िलाफ़त की मांग न्यायोचित थी। उनके लिए, ख़िलाफ़त आंदोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बांधने का एक ऐसा सुअवसर है, जो सैकड़ों वर्षों में नहीं आयेगा। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा, यदि उनका मसला मुझे न्यायोचित लगता है तो मेरा यह फ़र्ज़ है कि मैं उसकी मुसीबत की घड़ियों में भरसक मदद करूं।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

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