गुरुवार, 30 जनवरी 2025

257. इन्दौर हिंदी साहित्य सम्मेलन

राष्ट्रीय आंदोलन

257. इन्दौर हिंदी साहित्य सम्मेलन



1918

जब खेड़ा का सत्याग्रह चल रहा था, उसी दौरान (28 मार्च से 31 मार्च, 1918 तक) इन्दौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की थी। सम्मेलन के पहले गांधीजी ने सम्मेलन के द्वारा एक परिपत्र ज़ारी कराया और उसे भारत के सभी प्रांतों के नेताओं को भेजा गया। इस परिपत्र में पूछा गया था कि भारत में कौन-सी भाषा राष्ट्रभाषा का स्थान ले सकती है। उसके उत्तर में जो पत्र आए, उनमें अधिकांश ने हिंदी के पक्ष में अपनी राय दी। बाद में सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर हिंदी को राष्ट्रभाषा माना गया। अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधीजी ने कहा, हिंदी भाषा वह भाषा है, जिसको उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और वह नागरी अथवा फारसी में लिखी जाती है। भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जन-समूह सहज में समझ ले। .. हिंदू-मुसलमानों के बीच जो भेद किया जाता है, वह कृत्रिम है। ऐसी ही कृत्रिमता हिंदी और उर्दू भाषा के भेद में है। दोनों का स्वाभाविक संगम गंगा-यमुना के संगम-सा शोभित अचल रहेगा। मुझे उम्मीद है कि हम हिंदी-उर्दू के झगड़े में पड़कर अपना बल क्षीण नहीं होने देंगे। बाद में गांधीजी के प्रयासों से अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी के प्रचार के लिए मद्रास में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई।

हिंदी प्रचार सभा की स्थापना

हिन्दी प्रचार सभा एक आन्दोलन थी जो भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ ही आरम्भ हुई। इंदौर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन में बापू ने हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना का संकल्प लेकर धन इकट्ठा किया। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना सन 1918 में मद्रास नगर के गोखले हॉल में डॉ॰सी.पी. रामास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में एनी बेसेन्ट ने की थी। बाद में तमिल और अन्य दक्षिणी राज्यों की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए ही इस संस्था को 'राष्ट्रीय महत्व की संस्था' घोषित किया गया। गांधीजी आजीवन इसके सभापति रहे। उन्होंने देश की अखंडता और एकता के लिए हिन्दी के महत्व एवं उसके प्रचार-प्रसार पर बल दिया। कांग्रेस द्वारा स्वीकृत चौदह रचनात्मक कार्यक्रमों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार कार्य का भी उल्लेख है। गांधीजी का विचार था कि दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार का कार्य वहाँ के स्थानीय लोग ही करें। गांधीजी ने हिंदी के प्रचार के लिए अपने सबसे छोटे पुत्र पुत्र देवदास गांधी सहित पांच लोगों जिनमें स्वामी सत्यदेव परिव्राजक भी थे, को हिन्दी दूत बनाकर तत्कालीन मद्रास प्रांत में भेजा जिन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रथम हिन्दी वर्ग देवदास गांधी ने शुरू किया। उन्होंने हिंदी-प्रचार का जो बीज दक्षिण में बोया था, उसका वृक्ष आज काफी बड़ा हो गया है और फल-फूल रहा है। उन दिनों गांधीजी ने यह सलाह दी थी कि दक्षिण के लोगों को हिंदी और उत्तर भारत के लोगों को दक्षिण की कोई एक भाषा सीखनी चाहिए। गांधीजी तो स्वयं, जब वे दक्षिण अफ़्रीका में भारतीय मज़दूरों के लिए संघर्ष कर रहे थे, तभी तमिल सीख ली थी।

सन 1920 तक सभा का कार्यालय जार्ज टाउनमद्रास (अब, चेन्नै) में था। कुछ वर्ष बाद यह मालापुर में आ गया। इसके बाद यह ट्रिप्लिकेन में आ गया और 1936 तक वहीं बना रहा।

महात्मा गांधी के बाद भारतरत्न डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद इस संस्था के अध्यक्ष बनाए गए, जो स्वयं हिन्दी के कट्टर उपासक थे। हिन्दी समाचार नाम की मासिक पत्रिका द्वारा सभा के उद्देश्य, प्रवृत्ति तथा अन्यान्य कार्यकलापों की विस्तृत सूचनाएँ प्रचारकों को मिलती रहती हैं। 'दक्षिण भारत' नामक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका में दक्षिण भारतीय भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी-अनुवाद और उच्च स्तर के मौलिक साहित्यिक लेख छपते हैं। हिन्दी अध्यापकों और प्रचारकों को तैयार करने के लिए सभा के शिक्षा विभाग के मार्गदर्शन में 'हिन्दी प्रचार विद्यालय' नामक प्रशिक्षण विद्यालय तथा प्रवीण विद्यालय संचालित होते हैं। प्रचार कार्य को सुसंगठित तथा शिक्षण को क्रमबद्ध और स्थायी बनाने के उद्देश्य से सभा प्राथमिक, मध्यमा, राष्ट्रभाषा प्रवेशिका, विशारद, प्रवीण और हिन्दी प्रशिक्षण नामक परीक्षाओं का संचालन करती है। सभा की ओर से एक स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसंधान विभाग खोला गया है, जिसमें अध्ययनार्थ प्रोफेसरों की नियुक्ति होती है। पुस्तकों का प्रकाशन सभा के साहित्य विभाग की ओर से किया जाता है। हिन्दी के माध्यम से तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम चारों भाषाएँ सीखने के लिए उपयोगी पुस्तकों एवं कोश आदि के प्रकाशन का विधान है।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कल्पना 

दक्षिण अफ़्रीका के जोहान्सबर्ग की धरती ने गाँधीजी को हिंदी-हिंदुस्तानी का विचार दिया था। उसे राष्ट्रभाषा बनाने की कल्पना जन्मी थी। भले उस समय वह वैसी नहीं थी, जैसी आज है। लेकिन हिंदी वहां थी। महात्माजी को हिंदी का विचार मिला। उसकी ताक़त का अंदाजा हुआ। भारत लौटकर गाँधीजी हिंदुस्तानी पर लगातार सोचते रहे। इसी दौरान यह ख्याल आया कि हिंदुस्तानी को देवनागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखा जाए। भारत वापसी के दो साल बाद भरूच और खेड़ा के अपने भाषणों में महात्मा गाँधी ने यह बात विस्तार से कही। सन 1917 में भरूच में उन्होंने लम्बा भाषण दिया और वह तर्क सामने रखे, जिनसे तय हो कि राष्ट्रभाषा कैसी हो, कौन हो? गाँधीजी ने जनता से पूछा कि वह कौन सी भाषा है जिसे अधिकारी वर्ग और आम जनता आसानी से सीख-समझ सकती है? कौन भाषा है जिसमें धार्मिक विचार रखे जा सकें? राजनीतिक बहसें हो सकें? आर्थिक मुद्दे उठाए जा सकें? भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि वह भाषा अंग्रेजी नहीं हो सकती। इसी सन्दर्भ में गाँधीजी ने कहा कि इस दृष्टि से केवल हिंदी ही वह भाषा हो सकती है जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सके।

उन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में दृढ़तापूर्वक सुझाया: "हिंदी के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम कोई अन्य भाषा नहीं है। हिंदी के बाद बंगाली आती है। लेकिन बंगाली स्वयं बंगाल के बाहर हिंदी का प्रयोग करते हैं। हिंदी बोलने वाले व्यक्ति को हिंदी का प्रयोग करते देखना किसी को भी आश्चर्य नहीं होता, चाहे वह कहीं भी जाए। हिंदू उपदेशक और मुस्लिम मौलवी पूरे भारत में हिंदी और उर्दू में अपने धार्मिक प्रवचन देते हैं और यहां तक ​​कि अनपढ़ लोग भी उनका अनुसरण करते हैं। यहां तक ​​कि उत्तर की ओर जाने वाला अनपढ़ गुजराती भी कुछ हिंदी शब्दों का प्रयोग करने का प्रयास करता है, जबकि उत्तर से आने वाला द्वारपाल अपने नियोक्ता से भी गुजराती में बात करने से मना कर देता है, जिसके कारण उसे टूटी-फूटी हिंदी में बात करनी पड़ती है। मैंने द्रविड़ देश में हिंदी बोलते हुए सुना है। यह कहना सही नहीं है कि मद्रास में अंग्रेजी से काम चलाया जा सकता है। वहां भी मैंने हिंदी का प्रभावी ढंग से प्रयोग किया है। मैंने ट्रेनों में मद्रास के यात्रियों को हिंदी का प्रयोग करते सुना है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि पूरे भारत में मुसलमान उर्दू बोलते हैं और वे यहां पाए जाते हैं। हर प्रांत में हिंदी का बोलबाला है। इस प्रकार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनना तय है। हमने अतीत में इसका इस्तेमाल किया है। उर्दू का उदय इसी तथ्य के कारण हुआ है। मुस्लिम राजा फारसी या अरबी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने में असमर्थ थे। उन्होंने हिंदी व्याकरण को स्वीकार किया, लेकिन अपने भाषणों में उर्दू लिपि और फारसी शब्दों का इस्तेमाल किया।

लिपि के प्रश्न पर विचार करते हुए गांधीजी ने कहा: "फिलहाल मुस्लिम बच्चे निश्चित रूप से उर्दू लिपि में लिखेंगे और हिंदू अधिकतर देवनागरी लिपि में लिखेंगे। मैं अधिकतर इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हजारों हिंदू उर्दू लिपि का प्रयोग करते हैं और कुछ तो देवनागरी भी नहीं जानते। लेकिन जब हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे को संदेह के बिना देखने लगेंगे, जब संदेह पैदा करने वाले कारण दूर हो जाएँगे, तो जिस लिपि में अधिक जीवन शक्ति होगी, उसका अधिक सार्वभौमिक उपयोग होगा और इसलिए वह राष्ट्रीय लिपि बन जाएगी।"

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

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