राष्ट्रीय आन्दोलन
242. काशी विश्वविद्यालय की स्थापना-गांधीजी का भाषण
1915 में दक्षिण अफ्रीका से गांधी जी भारत लौट आए थे। वे गोखले जी को
अपना गुरु मानते थे। गोखले जी ने गांधी जी को कहा था कि भारत लौटने के बाद वे सेवा
के काम में जुट जाने की उतावली न करें। एक वर्ष तक न कहीं भाषण दें, न लेख आदि
लिखकर अपने विचार प्रकट करें। पहले देश के विभिन्न भागों में घूमें। देश की स्थिति
को पूरी तरह समझ लें। सार्वजनिक सेवा में लगे नेताओं के विचारों को समझ लें, उनके
काम के करने के तरीक़ों का गहराई से अध्ययन कर लें। गांधी जी ने अपने राजनैतिक गुरु
की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। उन्हें देश की असहनीय दरिद्रता का दर्शन हुआ। फरवरी
1916 में राजनीतिक स्थिति पर विचार व्यक्त न करने के गांधी के वादे की अवधि समाप्त
हो गई। अब तक जब उन्होंने पूरी तैयारी कर
ली थी। जब उन्होंने पहला राजनीतिक भाषण दिया, तो यह एक अजीब संयोग था कि पंडित
मालवीय ने गांधीजी को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर बोलने के
लिए आमंत्रित किया। वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग विशेष रूप से विश्वविद्यालय की
आधारशिला रखने आए थे।
1898 में श्रीमती एनी बेसेंट ने लगभग अकेले ही बनारस में सेंट्रल
हिंदू कॉलेज की स्थापना की थी, ताकि युवाओं को सही शिक्षा
दी जा सके और उनमें हिंदू धर्म के मूल्यों का संचार किया जा सके। साल दर साल
उन्होंने कॉलेज के भाग्य को संभाला। अब आखिरकार, लगभग एक चौथाई सदी बाद, इसे आधिकारिक तौर पर एक विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। सभी
तैयारियाँ करने के बाद, उन्होंने संस्थान को
संस्कृत और हिंदू शास्त्रों के एक अनुभवी विद्वान और कांग्रेस के एक मान्यता
प्राप्त नेता मदन मोहन मालवीय को सौंप दिया।
गांधीजी की पहली
महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपस्थिति 4 फ़रवरी 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के इस उद्घाटन समारोह में हुई। गांधीजी
औपचारिक समारोह समाप्त होने के बाद पहुंचे और वायसराय पहले ही दिल्ली लौट चुके थे।
फरवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के तीन दिवसीय उद्घाटन
समारोह में कई नामचीन लोग शामिल हुए थे - वायसराय भी थे और कई रत्नजड़ित महाराजा, महारानियाँ, राजा और उच्च अधिकारी भी
अपनी पूरी चकाचौंध के साथ मौजूद थे। इस समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों में वे राजा और मानव प्रेमी थे जिनके द्वारा दिए गए दान ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में योगदान किया था। समारोह में एनी बेसेंट जैसे कांग्रेस के कुछ महत्वपूर्ण नेता भी उपस्थित थे। इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की तुलना में गाँधीजी अपेक्षाकृत अज्ञात थे। उन्हें यहाँ भारत के अंदर उनकी प्रतिष्ठा के कारण नहीं बल्कि दक्षिण अफ़्रीका में उनके द्वारा किए गए कार्य के आधार पर आमंत्रित किया गया था। जब गाँधीजी की बोलने की बारी आई तो उन्होंने मजदूर गरीबों की ओर ध्यान न देने के कारण भारतीय विशिष्ट वर्ग को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना ‘निश्चय ही अत्यंत शानदार’ है किन्तु उन्होंने वहाँ धनी व सजे-सँवरे भद्रजनों की उपस्थिति और ‘लाखों गरीब’ भारतीयों की अनुपस्थिति के बीच की विषमता पर अपनी चिंता प्रकट की। 6 फरवरी 1916 की शाम को दिया गया
उनका भाषण हंगामे में समाप्त हो गया। इससे पहले कि वह अपनी बात ख़त्म कर पाते, सभा समाप्त कर दी गई। भारत ने कभी भी
ऐसा स्पष्ट, बेबाक भाषण नहीं सुना था। गांधीजी ने किसी को भी नहीं बख्शा, खासकर उन लोगों को जो वहां मौजूद थे।
समारोह शान-शौकत से भरा
महात्मा गांधी ने जो भाषण दिया था, उसने भी बहुत से
भारतवासियों का ध्यान खींचा था। समारोह भारी शान-शौकत से भरा हुआ था। बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय का उद्घाटन वाइसराय ने राज्य के महान गणमान्य व्यक्तियों, महाराजाओं और पूरे भारत से आए शिक्षकों की मौजूदगी में किया। महामना
मदनमोहन मालवीय जी ने तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड हार्डिंग के हाथों हिन्दू
विश्वविद्यालय के शिलान्यास का आयोजन रखा था। किसी नए विश्वविद्यालय की स्थापना के
समय बहुत से भाषण देना अनिवार्य है। बनारस में ऐसा ही हुआ और गांधीजी उन कई
प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक थे जिन्हें मालवीय
जी ने उस समारोह में वक्ता के रूप में निमंत्रित किया था।
उपस्थित प्रतिष्ठित व्यक्तियों की तुलना में गाँधीजी अपेक्षाकॄत अज्ञात थे। गाँधीजी
तब तक भारतीय राजनीति में रच-बस नहीं पाए थे और वैसे भी वो कभी भी बहुत अच्छे
वक्ता नहीं रहे। सफ़ेद बालों वाली और सफ़ेद कपड़े, सफ़ेद मोज़े और सफ़ेद जूते
पहने हुए श्रीमती एनी बेसेंट भी उस सभा में मौज़ूद थीं। 6 फरवरी, 1916 की शाम को दिया गया उनका भाषण एक हंगामे के साथ समाप्त हुआ। दरभंगा
के महाराज सर रामेश्वर सिंह ने अध्यक्ष की कुर्सी संभाली। अन्य राजकुमारों की तरह
उन्होंने भी रत्नजटित शानदार वर्दी पहनी थी। सफ़ेद कुर्ता और छोटी सफ़ेद धोती पहने
मंच पर आगे बढ़ते हुए गांधीजी स्पष्ट रूप से किसी और ही तरह के थे। गाँधीजी ने विशेष सुविधा प्राप्त आमंत्रितों से कहा कि ‘भारत के लिए मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि आप अपने को इन अलंकरणों से मुक्त न कर लें और इन्हें भारत के अपने हमवतनों की भलाई में न लगा दें’। वे कहते गए कि, ‘हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग सम्पूर्ण लाभ स्वयं अथवा अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न ही जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।’ 'सुनो, सुनो,' श्रोताओं में से छात्र चिल्लाए। कई लोगों ने असहमति जताई। कई
राजकुमार बाहर चले गए।
मंच पर मौजूद लोगों को गाँधीजी की स्पष्टवादिता नागवार गुज़री और मंच
के सभापति ने उन्हें अपना भाषण रोक देने के लिए कहा। गांधीजी को जब बोलने का मौका
दिया गया था तो उन्होंने सबसे पहले काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों तरफ़ फैली गंदगी
का ज़िक्र किया। क्या यह महान मंदिर हमारे अपने चरित्र का प्रतिबिंब नहीं है? मैं एक हिंदू के रूप में भावनापूर्वक बोल रहा हूँ। क्या यह सही है कि
हमारे पवित्र मंदिर की गलियाँ इतनी गंदी होनी चाहिए जितनी कि वे हैं? आस-पास के घर वैसे भी बने हुए हैं। गलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी और संकरी हैं।
यदि हमारे मंदिर भी स्वच्छता के आदर्श नहीं हैं, तो हमारा स्वशासन क्या हो
सकता है? क्या अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता और शांति के निवास बन जाएंगे, चाहे वे अपनी मर्जी से या
मजबूरी में?
“मैं
बहुत ज़्यादा रेल यात्रा करता हूँ। मैंने तीसरी श्रेणी के यात्रियों की परेशानी
देखी है। लेकिन रेलवे प्रशासन को उनकी सारी मुश्किलों के लिए किसी भी तरह से दोषी
नहीं ठहराया जा सकता। हम स्वच्छता के बुनियादी नियमों को नहीं जानते। हम गाड़ी के
फर्श पर कहीं भी थूक देते हैं, भले ही यह अक्सर सोने की
जगह के रूप में इस्तेमाल किया जाता हो। हम इस बात की परवाह नहीं करते कि हम इसका
इस्तेमाल कैसे करते हैं; नतीजा डिब्बे में अवर्णनीय
गंदगी होती है। तथाकथित बेहतर श्रेणी के यात्री अपने कम भाग्यशाली भाइयों को डराते
हैं।
अपने दर्शन के सार की ओर मुड़ते हुए, गांधीजी ने ऐसे शब्दों का
प्रयोग किया, जिसने एकत्रित अभिजात वर्ग को झकझोर दिया, उन्होंने कहा, 'कोई भी कागजी योगदान हमें कभी भी स्वशासन नहीं दिला सकता। कोई भी
भाषण हमें स्वशासन के योग्य नहीं बना सकता। केवल हमारा आचरण ही हमें इसके योग्य
बना सकता है। और हम अपने आप को कैसे नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं? ... यदि आप मुझे आज शाम बिना किसी संकोच के बोलते हुए पाते हैं, तो कृपया विचार करें कि आप केवल उस व्यक्ति के विचारों को साझा कर
रहे हैं, जो खुद को सुनने की अनुमति देता है, और यदि आपको लगता है कि
मैं उन सीमाओं का उल्लंघन कर रहा हूँ, जो मेरे लिए उपयुक्त हैं, तो मुझे उस स्वतंत्रता के लिए क्षमा करें, जो मैं ले रहा हूँ।”
उस समारोह में शिरकत करने देश के अनेक राजा-महाराजा
राजसी वेश-भूषा में सज-धजकर पधारे थे। गांधीजी बड़े ही सीधे-सादे ढंग से काठियावाड़ी
वेश में उपस्थित हुए। सभा में आए लोगों का वैभव
प्रदर्शन गांधीजी को बहुत अखरा। देश की ग़रीबी की चर्चा करने वाले राजा-महाराजाओं
की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने अपने भाषण में कहा, “जिन
महाराजा महोदय ने कल की बैठक की अध्यक्षता की थी, (दरभंगा के महाराजा) उन्होंने
भारत की ग़रीबी की चर्चा की। किन्तु जिस शामियाने में वायसराय के द्वारा
शिलान्यास-समारोह हो रहा था, वहां हमने क्या देखा? एक ऐसा शानदार प्रदर्शन, जड़ाऊ
गहनों की ऐसी प्रदर्शनी, जिसे देखकर पेरिस से आनेवाले किसी जौहरी की आंखें भी
चौंधिया जातीं। जब मैं गहने से लदे हुए उन अमीर-उमराओं का भारत के लाखों ग़रीब
आदमियों से मिलान करता हूं, तो मुझे लगता है कि मैं इस अमीरों से कहूं – जबतक आप
अपने ये जेबरात नहीं उतार देते और इन्हें ग़रीबों की धरोहर मानकर नहीं चलते, तबतक
भारत का कल्याण नहीं हो सकता। मुझे यकीन है कि यह राजा-सम्राट या लॉर्ड हार्डिंग
की इच्छा नहीं है कि हमारे राजा-सम्राट के प्रति सच्ची वफादारी दिखाने के लिए, हमें अपने गहनों के बक्से खंगालने और सिर से पैर तक सजे-धजे दिखने की
ज़रूरत है। मैं अपने जीवन को जोखिम में डालकर खुद किंग जॉर्ज का संदेश आपके पास
लाने का बीड़ा उठाऊंगा कि उन्हें इस तरह की किसी चीज़ की उम्मीद नहीं है। जब भी
मैं भारत के किसी भी महान शहर में एक महान महल के निर्माण के बारे में सुनता हूं, चाहे वह ब्रिटिश भारत में हो या भारत में, जिस पर हमारे महान सरदारों का शासन है, तो मैं तुरंत ईर्ष्यालु हो जाता हूं और कहता हूं: ‘ओह, यह वह पैसा है जो किसानों से आया है।’” अनेक राजा-महाराजा
गुस्से में आकर बाहर चले गए।
गांधीजी को ठीक से पता था कि वे क्या कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें भाषण देने का लंबा अनुभव था और वे दर्शकों को अपनी
मुट्ठी में बांध सकते थे। जब लॉर्ड हार्डिंग बनारस पहुंचे, तो उनकी सुरक्षा सुनिश्चित
करने के लिए पुलिस ने असाधारण उपाय किए; उनके रास्ते में पड़ने
वाले घरों की छतों पर सादे कपड़ों में पुलिसकर्मी तैनात किए गए; लोगों को अपने घरों से बाहर न निकलने का आदेश दिया गया; हर जगह जासूस तैनात थे; ऐसा लग रहा था कि पुलिस ने
पूरे शहर को अपने कब्जे में ले लिया है। सरकार बम फेंकने वाले के खौफ में थी।
पुलिस का बहुत ही कड़ा प्रबंध किया गया था। गांधीजी ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड
हारडिंग के बारे में कहा कि “उनको
इतनी ज़बरदस्त सुरक्षा दी गई है कि उनके चारों तरफ़ एक दीवार सी बना दी गई है। अगर
उनको भारत के लोगों से इतना डर है, तो
उन्हें यहाँ आना ही नहीं चाहिए था। अगर हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं और उससे डरते
हैं, तो हमें किसी से भी नहीं डरना पड़ेगा, न
महाराजाओं से, न वायसराय से, न जासूसों से, यहाँ तक कि किंग जॉर्ज से भी नहीं।” हॉल में तनाव बढ़ रहा था, क्योंकि यह एक स्वतंत्र
भाषण था और कोई नहीं जानता था कि वह आगे किस दिशा में मुड़ेंगे।
अंग्रेजी में बोलते हुए, एक कर्कश आवाज़ में जो
पूरे हॉल में गूंजती रही, उन्होंने भाषण देने की
मूर्खता पर हमला करना शुरू किया, खासकर अंग्रेजी में, जो एक विदेशी जाति की भाषा है। विश्वविद्यालय में दिए गए सभी भाषण
अंग्रेजी में थे, और उन्हें इस बात पर शर्म और हैरानी थी कि किसी ने भी भारत की
स्थानीय भाषाओं में बात नहीं की। गांधीजी को संचालक ने अंग्रेज़ी भाषा में
बोलते हुए गांधीजी को अपना वक्तव्य रखने के लिए जब आमंत्रित किया, तो गांधीजी ने
क्षमा मांगते हुए जो कहा भारत में भावी गांधी की ललकार थी। उनके शब्दों में
अप्रत्याशित रूप से तीखापन था। उन्होंने कहा, “यह हमारे
लिए बहुत ही शर्म और अपमान की बात है कि इस पवित्र नगरी के इस महान महाविद्यालय की
छत्र-छाया में अपने देशवासियों को उस भाषा में संबोधित करने के लिए कहा गया है जो
मेरे लिए विदेशी है। जिस भाषा में तुलसीदास
जैसे कवि ने कविता की हो, वह अवश्य पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती। पिछले दो दिनों में
यहां जो भाषण दिए गए हैं, यदि उनमें लोगों की परीक्षा ली जाए और मैं परीक्षक हो
जाऊं, तो निश्चित है कि ज़्यादातर लोग फेल हो जाएं। यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी
भाषा में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तो हमारा संसार से उठ जाना
अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति सपने में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेज़ी भविष्य में
किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। मान लीजिए कि पिछले पचास वर्षों में
हम अपनी स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे होते, तो आज हम क्या होते? आज हमारे पास एक स्वतंत्र
भारत होता, हमारे पास ऐसे शिक्षित लोग होते जो अपनी ही भूमि पर विदेशी न होते, बल्कि राष्ट्र के हृदय से बात करते; वे
सबसे गरीब लोगों के बीच काम करते, और पिछले पचास वर्षों में
उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया होता, वह
राष्ट्र की विरासत होती।” इस भावना से छिटपुट
तालियाँ बजीं।
गांधीजी भीड़ के मनोविज्ञान के अपने अध्ययन से अच्छी तरह जानते थे, किसी विचार की मात्र पुनरावृत्ति उन पर असाधारण प्रभाव डाल सकती है।
उत्तरदायी सरकार की मांग से संबद्ध कांग्रेस में पारित हुए राजनैतिक प्रस्ताव का
ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, “कांग्रेस ने स्वराज्य के
बारे में प्रस्ताव पास किया है। मुझे उम्मीद है कि कुछ ठोस प्रस्ताव सामने आएंगे।
कोई भी कागज़ी कार्रवाई हमें स्वराज्य नहीं दे सकती। धुआंधार भाषण हमें स्वराज्य के
योग्य नहीं बना सकते। हमारा अपना आचरण हमें स्वराज्य के योग्य बनाएगा। कल विश्वनाथ
जी के दर्शन करने जाते वक़्त गलियों और मन्दिर परिसर का हाल देखा। क्या यह महान
मन्दिर हमारे अपने आचरण की ओर उंगली नहीं उठाता? अगर हमारे मन्दिर स्वच्छता और
सफाई के नमूने न हों, तो हमारा समाज कैसा होगा?
“… अगर
मैं यह ज़रूरी समझ पाता हूं कि अंग्रेज़ों को देश से चले जाना चाहिए, या उन्हें यहां से भगा दिया जाना चाहिए, तो मैं यह घोषणा करने में ज़रा भी संकोच नहीं करूंगा कि उन्हें भारत
छोड़ देना चाहिए, और मैं आशा करता हूं कि
मुझे अपने इस विश्वास की रक्षा के लिए मरने को भी तैयार रहना चाहिए। …”
वे
कहते गए कि, ‘हमारे
लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग
सम्पूर्ण लाभ स्वयं अथवा अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी
मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न ही जमींदार इसे
सुरक्षित रख सकते हैं।’ गांधीजी ने
शक्तिशाली लोगों के सामने अपना झंडा फहराया, जो भारत का झंडा था। यह दबे-कुचले
लोगों का झंडा था।
भारतीय
सिविल सेवा की ओर लक्ष्य कर उन्होंने
कहा, “इस
सेवा के बहुत से लोग निःसंदेह उद्धत, अत्याचार प्रिय और अविवेकी होते हैं। मैं यह
भी मानता हूं कि वे ओछी मनोवृत्ति के बन गए हैं। यदि वे नीति-भ्रष्ट हो गए हैं, तो
क्या इसे हमारी ही चरित्र का प्रतिबिम्ब नहीं कहना चाहिए? कभी-कभी अपने दोष
स्वीकार करना भी अच्छा होता है। यदि किसी दिन हमें स्वराज मिलेगा, तो वह अपने ही
पुरुषार्थ से मिलेगा। वह दान के रूप में कदापि नहीं मिलेगा। ब्रिटिश साम्राज्य के
इतिहास पर नज़र डालिए। स्वयं उद्योग न करनेवालों को वह कभी स्वतंत्रता देनेवाला
नहीं है।”
बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना एक उत्सव एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय की
स्थापना का द्योतक था। लेकिन गाँधीजी ने स्वयं को बधाई देने के सुर में सुर मिलाने
की अपेक्षा लोगों को उन किसानों और कामगारों की याद दिलाना चुना जो भारतीय
जनसंख्या के अधिसंख्य हिस्से का निर्माण करने के बावजूद वहाँ श्रोताओं में
अनुपस्थित थे। गांधीजी का भाषण पूरा न हो पाया। सभा में गड़बड़ शुरू हो गई। श्रोतागण
अनियंत्रित होते जा रहे थे और सभा के विभिन्न भागों में बहस छिड़ गई। उस मंच पर मौजूद
लोगों को गाँधीजी की स्पष्टवादिता नागवार गुज़री और मंच के सभापति ने उन्हें अपना
भाषण रोक देने के लिए कहा। श्रीमती बेसेंट बेचैन हो रही थीं और उन्हें अपने बगल
में बैठे लोगों से फुसफुसाते हुए देखा जा सकता था। अचानक एनी बेसेंट अपनी जगह से
उठ कर बोलीं, 'स्टॉप मिस्टर
गाँधी... स्टॉप नाऊ।' गांधी
उनकी ओर मुड़े और समझाया कि उन्होंने कुछ दिन पहले ही बंगाल में यही बात कही थी, कि ये बातें कहना
ज़रूरी था, लेकिन अगर उन्हें
लगता है कि वह अपने देश और साम्राज्य की सेवा नहीं कर रहे हैं, तो वह तुरंत बंद कर
देंगे। दरभंगा के महाराजा ने कहा: "कृपया अपना उद्देश्य स्पष्ट करें," और गांधीजी ने
समझाया कि वह केवल भारत को संदेह के उस माहौल से मुक्त करने का प्रयास कर रहे थे
जो उस पर छा गया था, और
उन्होंने बताया कि कैसे हाल ही में उनका सामना भारतीय सिविल सेवा में एक अंग्रेज
से हुआ था, जिसने शिकायत की थी
कि भारतीय उसे एक उत्पीड़क मानते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि वे सभी अत्याचारी
नहीं थे, लेकिन भारत में
उनके चारों ओर चाटुकारिता और झूठ का जो माहौल था, उसने उन्हें हतोत्साहित कर दिया था और
सत्ता अपने हाथ में न लेने के कारण भारतीय स्वेच्छा से उत्पीड़न के शिकार बन गए
थे। शिष्टाचार को कायम रखते हुए गांधीजी ने श्रीमती बेसेंट का बचाव किया। ऐसा
इसलिए क्योंकि 'वह भारत से बहुत
प्यार करती हैं और उन्हें लगता है कि मैं आप नौजवानों के सामने खुलकर बोलने में
गलती कर रहा हूँ।' लेकिन
उन्होंने खुलकर बोलना पसंद किया। 'मैं
अपनी तरफ़ से सर्चलाइट घुमा रहा हूँ... कभी-कभी दोष लेना अच्छा होता है।' गांधीजी ने मंच छोड़
दिया। वहाँ कोलाहल मच गया था, लोग
गांधीजी को मंच पर जाने के लिए चिल्ला रहे थे जबकि अन्य उन्हें मंच से चले जाने के
लिए चिल्ला रहे थे और इस हंगामे के बीच वे कह रहे थे कि वे तभी मंच पर जाएँगे जब
उन्हें अध्यक्ष की अनुमति होगी। अचानक दरभंगा के महाराज उठे और हॉल से चले गए।
वहाँ कोई अध्यक्ष नहीं था और बैठक भ्रम में समाप्त हो गई। जब अध्यक्ष भी चले गए,
तो गांधीजी ने एक मित्र से कहा: "मैंने श्रोताओं को ऊब से दूर जाते देखा है; मैंने वक्ताओं को
बैठते देखा है; लेकिन मैंने कभी अध्यक्ष
को खुद बैठक छोड़ते नहीं देखा।"
सबने
देखा कि आगे बैठे सभी महाराजा धीरे धीरे उठ कर जाने लगे। मदनमोहन मालवीय उनके पीछे
ये कहते हुए दौड़े, 'महाराज
वापस आइए। गांधी को चुप करा दिया गया है।' लेकिन तब तक सभा भंग हो चुकी थी। एक
दृष्टि से फ़रवरी 1916 में
बनारस में गाँधीजी का भाषण मात्र वास्तविक तथ्य का ही उद्घाटन था अर्थात भारतीय
राष्ट्रवाद वकीलों, डॉक्टरों
और जमींदारों जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा निर्मित था। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा
जाए तो यह वक्तव्य उनकी मंशा भी जाहिर करता था। यह भारतीय राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण
भारतीय लोगों का और अधिक अच्छे ढंग से प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाने की
गाँधीजी की स्वयं की इच्छा की प्रथम सार्वजनिक उद्घोषणा थी। एक वर्ष के
स्वघोषित प्रतिबन्ध के बाद अब उन्हें फट पड़ने की आज़ादी थी और वे फट पड़े। श्रीमती
बेसेंट ने गांधीजी के भाषण की कड़ी निंदा की। गांधीजी ने टिप्पणी की: "मैं
दावा करता हूं कि सार्वजनिक जीवन के बीस वर्षों के अनुभव के साथ, जिसके दौरान मुझे
कई मौकों पर अशांत दर्शकों को संबोधित करना पड़ा है, मुझे अपने दर्शकों की नब्ज को महसूस
करने का कुछ अनुभव है। मैं बारीकी से देख रहा था कि भाषण को किस तरह से लिया जा
रहा है, और मैंने निश्चित
रूप से यह नहीं देखा कि छात्र जगत पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। लेकिन
श्रीमती बेसेंट के व्यवधान के बिना, मैं
कुछ ही मिनटों में अपना भाषण समाप्त कर देता और मेरे विचारों के बारे में कोई
संभावित गलतफहमी पैदा नहीं होती।"
विनोबा भावे ने गुरु बनाया
विनायक
नरहरि भावे, जिन्हें विनोबा
भावे के नाम से जाना जाता है, ने
बनारस में गांधीजी के भाषण से उत्पन्न तूफान को समाचार पत्रों में पढ़ा था और वे
रोमांचित थे। उन दिनों विनोबा भावे विद्यार्थी थे। गुरु की तलाश और तपस्या के लिए
उन्होंने परीक्षा छोड़कर हिमालय जाने का निश्चय किया था। रास्ते में जब वे काशी
पहुंचे, तो संस्कृत का परिचय प्राप्त करने के लिए वे काशी में रुके। अगले दिन
गांधीजी का भाषण उन्होंने स्थानीय अखबार में पढ़ा। उन्हें लगा, जिस गुरु की उन्हें
तलाश थी, वह मिल गया। हिमालय जाने का विचार त्यागकर उन्होंने साबरमती का रुख किया।
विनोबा
भावे, जो उस समय संस्कृत
और वैदिक शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे,
को याद आया कि गांधीजी ने वायसराय से घर जाने के लिए कहा था: “अगर ऐसी स्पष्ट बातों के लिए हमें मौत की
सजा दी जाती है, तो हमें खुशी-खुशी
फांसी पर चढ़ जाना चाहिए!”
एक ऐसे व्यक्ति के साहस और दृढ़ संकल्प से बहुत प्रभावित हुए, जिसने वायसराय को
भारत से बाहर करने का आदेश देने का साहस किया, विनोबा भावे ने गांधीजी को पत्र लिखा, कुछ दार्शनिक
प्रश्न पूछे और अहमदाबाद के आश्रम में रहने का निमंत्रण प्राप्त किया। गांधीजी ने
विनोबा को कोचरब आश्रम में मिलने के लिए आमंत्रित किया। 7 जून 1916 को आश्रम
पहुँचने पर विनोबा को रसोई में ले जाया गया जहाँ गांधीजी सब्ज़ियाँ साफ कर रहे थे
और उन्हें काट रहे थे। पहली बातचीत तब हुई जब गांधीजी इस दैनिक काम में लगे हुए
थे। गांधीजी ने 20 वर्षीय इस युवक का आश्रम में स्वागत किया और उसे पूर्ण सदस्यता
प्रदान की। वहाँ वे एक समर्पित शिष्य बन गए, गांधीजी ने उनकी तपस्या और उनके उच्च
मनोबल, अहिंसा के प्रति
उनकी पूर्ण निष्ठा और कताई में उनकी दक्षता के लिए उन्हें बहुत प्यार किया -
गांधीजी को लगता था कि उत्तम कताई के लिए उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। बाद में, विभिन्न सविनय
अवज्ञा अभियानों में भाग लेने के लिए,
विनोबा भावे ने साढ़े पाँच साल जेल में बिताए। कुछ समय बाद, गांधीजी ने सी.एफ.
एंड्रयूज से विनोबा का वर्णन करते हुए कहा कि वे “आश्रम के उन कुछ मोतियों में से एक हैं
जो आशीर्वाद लेने नहीं, बल्कि
आश्रम को आशीर्वाद देने आए थे।” अंततः
गांधीजी ने उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी मान लिया, जैसे उन्होंने नेहरू को अपना राजनीतिक
उत्तराधिकारी मान लिया था, और
गांधीजी की मृत्यु के बहुत समय बाद तक विनोबा भावे उनके विचारों के सबसे सशक्त
पैरोकार बने रहे।
देर
रात पुलिस कमिश्नर ने गांधीजी को बनारस से तत्काल बाहर निकालने का आदेश जारी किया।
पंडित मालवीय ने पुलिस कमिश्नर को आदेश वापस लेने के लिए राजी कर लिया, लेकिन गांधीजी अगली
सुबह बनारस से चले गए। बनारस से गांधीजी साबरमती स्थित अपने घर चले गए। भारत में दूरियाँ
बहुत हैं और संचार व्यवस्था खराब है; बहुत कम लोग पढ़
सकते हैं और बहुत कम लोगों के पास रेडियो है। इसलिए भारत के कान बड़े और संवेदनशील
हैं। 1916
में, कान
ने एक ऐसे व्यक्ति की आवाज़ को सुनना शुरू किया जो साहसी और विवेकशील था, एक
छोटा आदमी जो एक गरीब आदमी की तरह रहता था और अमीरों के सामने गरीबों की रक्षा
करता था, एक
आश्रम में रहने वाला एक पवित्र व्यक्ति। गांधीजी
अभी तक राष्ट्रीय व्यक्ति नहीं थे। करोड़ों लोग उन्हें नहीं जानते थे। लेकिन नए
महात्मा की ख्याति फैल रही थी।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।