राष्ट्रीय आन्दोलन
239. डॉ. एनी बेसेंट
डॉ एनी बेसेंट (वुड) प्रमुख
दार्शनिक, थियोसोफिस्ट, महिला अधिकार के समर्थक, लेखिका, वक्ता
एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। वह भारतीय मूल की नहीं थी, लेकिन
फिर भी उन्होंने भारतीयों के हक के लिए लड़ाई लड़ीं। उन्होंने
अपनी प्रभावशाली लेखनी के द्वारा भारतवासियों के अंदर आजादी पाने की भावना को
जागृत किया।
एनी बेसेन्ट का जन्म लन्दन
शहर में 1 अक्टूबर 1847 को हुआ था। उनके पिता विलियम पेज वुड्स आधे आयरिश और आधे अंग्रेज
थे, और एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते थे, उनके
पूर्वजों में से एक लंदन के मेयर और दूसरे लॉर्ड चांसलर थे। बेसेन्ट के ऊपर इनके
माता पिता के धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव था। वह एक
धर्मनिष्ठ ईसाई थीं। जब उनकी उम्र 5 साल की थी,
उनके पिता का निधन हो गया। धन की कमी के कारण इनकी माता इन्हें हैरो ले गई। वहाँ
मिस मेरियट के सानिध्य में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की। मिस मेरियट इन्हें फ्रांस
तथा जर्मनी ले गई और उन देशों की भाषा सीखीं। 17 वर्ष की आयु में अपनी माँ के पास वापस आ गईं। इनका
परिचय एक युवा पादरी से हुआ और 1867 में बीस वर्ष की आयु में उनका विवाह उसी
अंग्रेज पादरी, रेव. फ्रैंक
बेसेंट, सिबसी, लिंकनशायर के
पादरी से हुआ था। इस विवाह से
उन्हें एक बेटा आर्थर डिग्बी और एक बेटी मैबेल हुई। पति के विचारों से असमानता के कारण दाम्पत्य
जीवन सुखमय नहीं रहा। अंततः 1874 में उनका सम्बन्ध टूट गया। कानून
की सहायता से उनके पति दोनों बच्चों को प्राप्त करने में सफल हो गये। इस घटना से
उन्हें हार्दिक कष्ट हुआ।
ईसाई परंपराओं
से तर्क निकालने में असमर्थ, उन्होंने 1872 में चर्च छोड़
दिया और एक स्वतंत्र विचारक बन गईं। सत्य के प्रति अपने जुनून के कारण उनकी
सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं रही; परिणामस्वरूप उन्हें अपने पति और
छोटे बेटे को छोड़ना पड़ा। 1879 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से
मैट्रिक किया। उन्होंने विज्ञान में अपनी पढ़ाई जारी रखी। लेकिन उस समय
के लिंगभेदी पूर्वाग्रहों के कारण उन्हें वहाँ बाधाओं का सामना करना पड़ा।
उन्होंने 1874-88
तक कई राजनीतिक और स्वतंत्र विचारों वाली किताबें और पुस्तिकाएँ लिखीं। उनके
पति ने उनकी बेटी को उनसे दूर करने के लिए अदालत का रुख किया, यह आरोप लगाते
हुए कि वह अपने विचारों के कारण 'अनुपयुक्त' थी। इस वंचना ने उन्हें गहरा दुख
पहुँचाया। हालाँकि, जब बच्चे बड़े
हुए तो वे अपनी माँ के प्रशंसक बन गए।
लंदन में पहली ट्रेड यूनियन शुरू करने में उनकी
महत्वपूर्ण भूमिका थी। वह फैबियन सोसाइटी में शामिल हो गईं और सिडनी वेब्स, जॉर्ज
बर्नार्ड शॉ, जॉर्ज लैंसबरी, रामसे मैकडोनाल्ड और उस समय के कई अन्य प्रमुख
समाजवादियों की करीबी सहयोगी थीं। वह लेबर और सोशलिस्ट आंदोलनों में
प्रमुख थीं, फेबियन सोसाइटी
और सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन की सदस्य थीं, और अकुशल मजदूरों के बीच ट्रेड
यूनियन के काम में सक्रिय रूप से भाग लेती थीं; हर्बर्ट बरोज़ के साथ उन्होंने
पथ-प्रदर्शक 'मैच गर्ल्स' हड़ताल को सफल
निष्कर्ष तक पहुँचाया।
स्वतंत्र विचार
के नकारात्मक दृष्टिकोण से असंतुष्ट होकर श्रीमती बेसेंट ने अध्यात्मवाद, सम्मोहन, इत्यादि पर शोध
करना शुरू कर दिया। इस समय, द रिव्यू ऑफ
रिव्यूज़ के संपादक श्री
डब्ल्यू.टी. स्टीड ने उन्हें 1889 में मैडम ब्लावात्स्की की द सीक्रेट
डॉक्ट्रिन समीक्षा के लिए
भेजी। जब उन्होंने पुस्तक पढ़ी, तो ऐसा लगा जैसे सत्य की एक खोई हुई
झलक उनके दिमाग में कौंध गई। यह किताब उनके लिए एक रहस्योद्घाटन थी। दुनिया में मौजूद विभिन्न बुराइयों
के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल गया और उसने उन मूल कारणों से निपटना शुरू कर दिया, जो सभी
अस्तित्व को नियंत्रित करने वाले नियमों के प्रकाश में हैं। मई 1889 में वह थियोसोफिकल सोसाइटी में शामिल हो गईं और
मैडम ब्लावात्स्की की समर्पित शिष्या और सहायक बन गईं। वह सोसाइटी में एक प्रमुख
कार्यकर्ता बन गईं और बाद में उन्हें अध्यक्ष चुना गया, जिस
पद पर वह 21 सितंबर 1933 को अपनी मृत्यु तक रहीं। 1893 में
उन्होंने शिकागो में विश्व धर्म संसद में थियोसोफिकल सोसाइटी का
प्रतिनिधित्व किया।
उनका 1893 में
भारत आगमन हुआ। उन्होंने एचएस ऑलकॉट के साथ देश का दौरा किया। उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण कर ब्रिटिश
हुकूमत की क्रूरता को देखा। बेसेंट ने देखा कि भारतीयों को शिक्षा, स्वास्थ्य
जैसी बुनियादी जरूरतों से भी दूर रखा जा रहा है। वे भारतीयों को उनके अधिकार
दिलाने के लिए हमेशा उनके साथ खड़ी रहीं। उन्होंने जल्द ही देश के पुनरुद्धार के
लिए काम करने हेतु भारतीयों का एक समूह इकट्ठा कर लिया और काफी योजना के बाद 1898 में
बनारस (अब वाराणसी) में सेंट्रल हिंदू स्कूल और कॉलेज की स्थापना
की। कुछ साल बाद उन्होंने सेंट्रल हिंदू स्कूल फॉर गर्ल्स शुरू
किया। विदेशों से थियोसोफिस्ट कॉलेज के काम में उनकी मदद करने कई लोग आए। उनके
आसपास कार्यकर्ताओं का एक प्रतिभाशाली समूह इकट्ठा हो गया, जिसमें
डॉ भगवान दास, उनके भाई गोविंद दास, ज्ञानेंद्र नाथ चक्रवर्ती, उपेंद्रनाथ
बसु, आईएन गुर्टू और पीके तेलंग शामिल थे, जिनमें
से सभी ने मानद क्षमता में काम किया। बाद में कॉलेज हिंदू विश्वविद्यालय का
केंद्र बन गया, और भारतीय शिक्षा के लिए श्रीमती बेसेंट की सेवाओं के
सम्मान में 1921 में उन्हें डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की उपाधि प्रदान की गई।
1907
में कर्नल एचएस ऑलकॉट के निधन के बाद एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसाइटी की दूसरी
अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते
हुए प्राचीन हिंदू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। उस काल में बाल गंगाधर तिलक के
अलावा उन्होंने भी गीता का अनुवाद किया। 1914 में उन्होंने दो पत्रिकाओं ‘न्यू इंडिया‘ दैनिक
तथा ‘द कॉमन व्हील‘ साप्ताहिक का प्रकाशन कराया। जून 1914 में
उन्होंने 'मद्रास स्टैंडर्ड' खरीदा और उसका नाम बदलकर 'न्यू
इंडिया' रख दिया, जो उसके बाद भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके
उग्र प्रचार के लिए उनका चुना हुआ मुखपत्र बन गया।
1908 के बाद से डॉ.
बेसेंट ने अड्यार में मुख्यालय का विस्तार करना शुरू कर दिया। अड्यार को
थियोसोफिकल दुनिया के बाकी हिस्सों से और अधिक घनिष्ठ रूप से जोड़ने के लिए, उन्होंने अड्यार बुलेटिन शुरू किया, जो 1929 तक जारी रहा।
वर्तमान में अड्यार न्यूज़लेटर भी इसी तरह का
कार्य करता है।
उन्होंने होमरूल लीग
(स्वराज संघ) की स्थापना की और स्वराज के आदर्श को लोकप्रिय बनाने में जुट गई। होम
रूल लीग की शुरुआत 1 सितंबर 1916 को हुई। बाल गंगाधर तिलक को दोनों आंदोलनों को
एक साथ लाने के लिए मनाने के अपने पहले प्रयास में वे असफल रहीं। जून 1917 में, अपने
दो प्रमुख कार्यकर्ताओं जीएस अरुंडेल और बीपी वाडिया के साथ उन्हें ऊटाकामुंड में
नजरबंद कर दिया गया। पूरे भारत और विदेशों में व्यापक विरोध के कारण, नजरबंदी
आदेश वापस ले लिया गया और अगस्त 1917 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के
कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। उनके अभियान के परिणामस्वरूप और भारत में
जनमत के दबाव के कारण, मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रस्तावों को ब्रिटिश संसद द्वारा
अधिनियमित किया गया। 1917 में उन्होंने महिला भारतीय संघ की स्थापना की, जिसे
उन्होंने अपना शक्तिशाली समर्थन दिया।
चूंकि लॉर्ड बेडेन-पॉवेल ने माना कि भारतीय
स्काउट बनने के लिए अयोग्य हैं, इसलिए 1918 में उनके द्वारा भारतीय स्काउट आंदोलन की स्थापना
की गई, जिसमें लड़के भारतीय पगड़ी पहनते थे! जब बेडेन-पॉवेल भारत
आए और उन्होंने देखा कि एनी बेसेंट द्वारा शुरू किया गया आंदोलन कितना सफल रहा, तो
इसे विश्व आंदोलन के साथ मिला दिया गया और उन्हें भारत के लिए मानद स्काउट कमिश्नर
बनाया गया। 1932 में बेडेन-पॉवेल ने उन्हें लंदन से सर्वोच्च स्काउट सम्मान, 'सिल्वर
वुल्फ' पदक भेजा।
जब गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया
तो वह भारतीय राजनीति की मुख्यधारा से अलग हो गईं। 1920 में गांधीजी ने सत्याग्रह का अभियान शुरू किया
और लाहौर में 1920 के कांग्रेस में एनी बेसेंट ने पांच अन्य लोगों के साथ
गांधीजी की योजना के पक्ष में भारी समर्थन के खिलाफ आवाज उठाई। एनी बेसेंट ने
निर्धनों की सेवा में आदर्श समाजवाद देखा। वह विधवा विवाह एवं अंतर-जातीय विवाह के
पक्ष में थीं, लेकिन बहुविवाह को नारी गौरव का अपमान एवं समाज के लिए
अभिशाप मानती थीं। दुर्भाग्य से, वह गांधीजी की असहयोग और सविनय
अवज्ञा की योजना का विरोध करने के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ नाराज हो
गईं क्योंकि उन्होंने कानून के प्रति अनादर पैदा करने के खतरे को पहले ही भांप
लिया था। गांधीजी की
नीतियों को अपनाया गया और भारत के विभिन्न भागों में वे आपदाएँ घटित हुईं जिनकी
उन्होंने आशंका जताई थी। हालाँकि वे अलोकप्रिय हो गईं और एक राजनीतिक नेता के रूप
में अपनी स्थिति खो बैठीं, फिर भी
उन्होंने भारत के लिए अपना काम जारी रखा।
एक बार लंदन के क्वीन्स हॉल
में अपने भाषण को समाप्त करते हुए उन्होंने वह कहा, जिसने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था कि “उन्हें इस बात से संतुष्टि होगी कि उनकी कब्र
पर यह लिखा जाए कि उन्होंने सत्य के लिए जिया और सत्य के लिए ही उनकी मृत्यु हुई।”
बचपन से ही गांधीजी को सत्य के प्रति सहज
आकर्षण था। जिस ईमानदारी के साथ बेसेंट ने ये शब्द कहे, गांधीजी
ने महसूस किया कि उन्होंने उन्हें मोहित कर लिया और तब से वह उनके करियर को निरंतर
रुचि के साथ देखते रहे। हमेशा उनकी असीम ऊर्जा, उनकी शानदार आयोजन क्षमता और उनके काम के प्रति समर्पण की गांधीजी
प्रशंसा करते थे। 1889 में उन्होंने पहली बार श्रीमती बेसेंट को देखा था, जब लंदन
में एक बालक के रूप में अध्ययन कर रहे थे। वह अभी-अभी वहाँ थियोसोफिकल सोसाइटी में
शामिल हुई थीं। वह दुनिया की जीवित महिला वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ थीं।
भारत के लिए स्वशासन के विचार को किसी ने इतनी
सफलता से लोकप्रिय नहीं बनाया जितना कि उन्होंने बनाया। उनमें परिश्रम, उत्साह और संगठन क्षमता गजब का था। वह पूरी तरह से भारत की सेवा के लिए समर्पित थीं। उन्होंने
अपने परिपक्व जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा भारत की सेवा में बिताया है और उन्होंने
भारत में लोकमान्य तिलक के बाद सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की थी।
डॉ. बेसेंट एक विश्व विभूति थीं। भारत के लिए
यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है कि उन्होंने भारत माता को अपनी मां के रूप में अपनाया
और अपनी सभी अतुलनीय प्रतिभाओं को उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। अपने जीवन के उस
समय में, जब लोगों को सभी प्रकार के परिश्रम से पूर्ण
विश्राम मिलना चाहिए, वे अद्भुत ऊर्जा के साथ लिख रही थीं, भाषण दे रही थीं, घूम रही थीं और भारत के उद्धार के लिए योजनाएँ बना रही थीं।
सभी कठिनाइयों का सामना करने में उनका अदम्य साहस, उनकी महान संगठन शक्ति, उनकी साहित्यिक और वक्तृत्व प्रतिभा, और कई अन्य गुण उभर कर सामने आया।
जीवन और ब्रह्मांड के कई रहस्यों की स्पष्ट
व्याख्या उनकी उत्कृष्ट पुस्तकों जैसे कि ए स्टडी इन कॉन्शियसनेस में प्रस्तुत की गई थी, जिसका
उपयोग कुछ विश्वविद्यालयों में पाठ्यपुस्तक के रूप में किया जाता है। उनकी एक और
प्रमुख रचना, एसोटेरिक क्रिस्चियनिटी, को एक ऐतिहासिक दस्तावेज माना गया है; और
इसने ईसाई धर्म के सच्चे ज्ञान को पुनर्जीवित करने में मदद की है। दुनिया के महान
धर्मों पर थियोसोफिकल सम्मेलनों में उनके व्याख्यानों को सात
महान धर्म नामक एक मूल्यवान पुस्तक में रखा गया था, जिसमें उनमें से प्रत्येक की मूल शिक्षाओं को
प्रस्तुत किया गया था। भगवद्गीता के उनके अंग्रेजी अनुवाद का पहला संस्करण 1905 में
प्रकाशित हुआ था।
एनी बेसेंट भारत की एक महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता
होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध समाज सुधारक भी थीं, जिन्होंने न
सिर्फ इंग्लैंड में बल्कि, भारत में भी
मजदूर और महिलाओं की हक की लड़ाई लड़ी एवं देश में फैली कई सामाजिक बुराईयों के
खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। इसके अलावा उन्होंने भारत में महिलाओं की शिक्षा को
बढा़वा देने के लिए साल 1913
में वसंता कॉलेज की स्थापना की। 20 सितंबर, 1933 को ब्रिटिश
भारत के मद्रास प्रेसीडेंसी के अडयार में उन्होंने अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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