मंगलवार, 14 जनवरी 2025

227. भारतीय रंगमंच पर गांधीजी के प्रवेश के समय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि

राष्ट्रीय आन्दोलन

227. भारतीय रंगमंच पर गांधीजी के प्रवेश के समय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि



इंग्लैंड में और हां से भारत लौट आने के बाद भी गांधीजी की रानीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। 1894 से पूरे बीस बरस तक वह दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों की अस्तित्व-रक्षा की लडाई में लगे रहे थे। हां से भारत लौट आने के कुछ ही वर्षों के अंदर, जिस राष्ट्रीय आंदोलन को वह के वल दूर से देखते रहे थे, उसके संचालन के सारे सूत्र उनके हाथ में गए और मृत्युपर्यन्त उन्हीं के हाथों में रहे। 1915 में गांधीजी ने भारतीय रानीति में प्रवेश किया उस समय के उसके स्वरूप और उसपर गांधीजी की छाप को ठीक से समझने के लि राष्ट्रीय आंदोलन की तात्कालि पृष्ठभूमि पर एक नज़र डाल लेना ज़रूरी है

1915 वह साल था जब दक्षिण अफ़्रीका की अपार सफलता के बाद गांधीजी भारतीय भूमि पर पैर रखने वाले थे। गांधीजी की वापसी के समय भारत में हालात निराशाजनक थे। 1915 के शुरू के दिन देश में राजनीतिक सुस्ती के दिन थे। पूरे देश में सन्नाटा पसरा हुआ था। हर तरफ से सवाल उठ रहे थे, "अब आगे क्या करना चाहिए?" यह समय संक्रमण का समय था। गोखले जी का निधन हो चुका था। फिरोज शाह मेहता और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी नेपथ्य में चले गए थे। लोकमान्य तिलक जेल से अभी-अभी छूटे थे और गरम दल का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन चुप थे। एक विचारोत्तेजक लेख को लिखने के कारण उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला और छह वर्षों की सज़ा दी गई थी। जेल में उन्होंने गीता रहस्य लिखा श्रीमती बेसेंट भारत के लिए होम रूल की वकालत करने इंग्लैंड गई थीं। इंग्लैंड में उनका मिशन विफल हो गया, लेकिन वे होम रूल के लिए आंदोलन करने के लिए भारत लौट आईं। "भारत की वफ़ादारी की कीमत भारत की आज़ादी है" उनका आदर्श वाक्य था और लाजपत राय और जिन्ना ने उनका समर्थन किया। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय देशनिकाला की सज़ा भुगत रहे थे। अरविंद घोष राजनीति से संन्यास लेकर पांडिचेरी जा बैठे थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अली बंधु जेल में थे। राजनैतिक आंदोलन काफी शिथिल हो चुका था। हां, देश की आम जनता में तो नहीं, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन इस देश की शिक्षित और व्यावसायिक वर्गों में अपनी जड़ें जमा चुका था। आगे बढ़ने के पहले हमें उस समय की पृष्ठभूमि पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए, जब गांधीजी देश की आज़ादी की लड़ाई को नेतृत्व देने वाले थे।

यह बात तो तय थी कि भारत पर हमेशा अंग्रेज़ों का ही अधिकार नहीं बना रहने वाला था। और यह भी तथ्य ही है कि भारत पर अंग्रेज़ों से पहले भी पश्चिमोत्तर सीमांत से कई विदेशी हमले हुए और सात सौ वर्षों से अधिक समय तक विदेशियों ने राज्य किया। लेकिन उनके समय में अंतर यह था कि वे भारतीय समाज में घुल-मिल कर उसी का एक अंग बन गए थे। जबकि अंग्रेज़ तो यहां का शोषण करने के साथ स्थानीय लोगों के प्रति हिंस्र और क्रूर थे, यहां तक कि घृणा भी करते थे। काले-गोरे का भेद सदा बना हुआ था। 1857 का विद्रोह इसी काले-गोरे के भेद के कारण था और इसने इस खाई को और गहरा कर दिया था। इस विद्रोह के बाद से अंग्रेज़ को चिंता इस बात की थी कि इस देश पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत होनी चाहिए कि फिर कभी कोई विद्रोह सिर उठा सके। इसके लिए उन्होंने सेना में गोरों का अनुपात काफी बढ़ा दिए। रियासतों से दोस्ती की और उनकी रियायतें बढ़ा दी गईं। इस तरह एक और नई खाई का सृजन हुआ जिसमें एक ओर था प्रभुता का उन्मत अहंकार और हेकड़ी तो दूसरी ओर था भारतीयों की ज़बर्दस्त दीनता और ग़ुलामी। गदर अपने पीछे भय, आतंक और गहरें संदेहों का वातावर छोड गया। 'टाइम्स' के संवाददाता इस निष्कर्ष पर पहुाँचा था किदोनों जातियों में पारस्परि विश्वास शायद ही पनप  सकेगा गोरे फौजीशाहों और नौकरशाहों को पारस्परि विश्वास को पनपाने की कोई चिन्ता भी थी, उन्हें चिंता इस बात की थी कि इस मुल्क पर उनकी पकड इतनी बूत हो जानी चाहि कि यह फि कभी सि उठा ही सके। इसके लि सेना में गोरों का अनुपात काफी तादाद में बढा दिया गया। रियासतों से नरमी का बर्ताकिया गया और रियायतें दी गई, जिससे वे भविष्य में विद्रोह को रोकने में सहायता दें। हालत यहां तक गिर चुकी थी कि गदर के बाद साठ वर्षों में किसी भी अधिकारी अंग्रेज़ से राजा राममोहन राय की तरह बराबरी के दावे से मिलने और बात करनेवाला कोई भारतीय न हुआ।

इसके ऊपर उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में कुल 31 अकाल पड़े। सात शुरू के पचास वर्षों में और चौबीस बाद के पचास वर्षों में।  इससे किसानों की हालत काफी ख़राब हो चुकी थी और उनमें भयंकर असंतोष फैला हुआ था। इतना असंतो फैला कि सरकार को बूर होकर किसानों की रक्षा और अकाल में उनकी सहायता के कानून बनाने पडे। असंतो की यह गूँज शहरों में भी सुनाई देने लगी थी।

जब अंग्रेज़ी शासन था तो देश के कुछ प्रमुख व्यक्तित्व उनके शासन के प्रशंसक भी थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी शुरू में अंग्रेज़ों के प्रशंसक थे। अपने बचपन में उन्होंने इंग्लैंड में जा ब्राइट के भाषण सुने थे और उनके विश्वव्यापी महान् उदारतावाद से बडे प्रभावि हुए थे। मदन मोहन मालवीय भी युवावस्था में अंग्रेज़ों की पार्लियामेंटरी प्रथा के समर्थक और भक्त थे। मैकाले ने भारत में नई शिक्षा पद्धति की शुरुआत की। जब गांधीजी का देश में पदार्पण हो रहा था तब तक देश में पश्चिमी शिक्षा पाए हुए भारतीयों का एक वर्ग खड़ा हो चुका था। इनकी पहली मांग यह थी कि देश के प्रशासन में उन्हें हिस्सा मिले। 1877-78 में भारत में जो पहला संगठित आंदोलन हुआ था, वह सरकारी नौकरियों में भारतीयों को लिए जाने के प्रश्न पर था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने देश भर में यह आवाज़ उठाई थी कि इंडियन सिविल सर्विस की प्रवेश परीक्षाएं भारत और इंग्लैंड दोनों जगह होनी चाहिए।

गांधीजी के राष्ट्रीय क्षितिज पर अवतरित होने के पहले तक देश में कई धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन शुरू हो चुके थे। इन आंदोलनों ने मध्यम वर्ग में नया जोश भर दिया था। स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे कई महापुरुषों ने हिंदू धर्म का परिष्कार किया था। इन्होंने लोगों के सामने देश की महान आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों को रखकर उनमें नई जागृति का संचार किया था। भारतीयों के आत्म-सम्मान में वृद्धि की थी।

गदर के बाद से गोरे शासकों के दूर-दूर रहने की नीति से भारतीयों को पग-पग पर लांछि और अपमानि होना पडता था। नौकरशाही के टुकडों पर पलने वाले वर्ग की चाटुकारिता को बढावा दिया जाता था। देश में आधुनिक उद्योगों की स्थापना से राष्ट्रीय उभार में एक नया मोड़ आया था। पहला सूती कपड़ा मिल 1854 में बंबई में स्थापित हुआ था। पचास वर्ष के अंदर इनकी संख्या दो सौ हो गई। 1882 में सरकार ने कपड़े पर से आयात कर उठा लिया था जिससे लंकाशायर और मैनचेस्टर के उत्पादकों को काफी मदद मिल रही थी। .... और वकालत की पढाई के लि गांधीजी के इंग्लैंड जाने के लगभग तीन साल पहले, दिसंबर 1885 में .. ह्यूम ने इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कर दी थी। इसे तिहास की विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत से अंग्रेज़ी राज्य को समाप्त करने वाली इंडियन नेशनल कांग्रेस के संस्थापक एक अंग्रेज़ थे। कांग्रेस के शुरू के पच्चीस धिवेशनों में से पां की अध्यक्षता अंग्रेज़ों ने की थी।  इंग्लैंड में और हां से भारत लौट आने के बाद भी गांधीजी की रानीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वराज्य की मांग की जाती रही थी।

कांग्रेस नरम दल और गरम दल में बंटी हुई थी। कुछ क्रांतिकारी समितियां भी बन गई थीं। मीठे वादों से फुसलाकर सरकार नरम-दल को अपने साथ बनाए रखने की कोशि कर रही थी 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। लीग मुसलमानों की वफ़ादारी और कौंसिलों तथा नौकरियों में मुसलमानों की संख्या बढ़ाने पर ज़ोर दिया करती थी। नरम दल और गरम दल में विभाजित हो चुके कांग्रेस में पुनर्मिलन की प्रक्रिया फिर से शुरू हो चुकी थी। तिलक के गुट को फिर से कांग्रेस में सम्मिलित होने की अनुमति दे दी गई। थियोसोफिकल नेता एनी बेसंट राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण हो गई थीं। दक्षिण अफ़्रीका के अनुभवों के साथ गांधीजी जब भारत पहुंचे, तो कुछ ही दिनों में वे उस समय के अन्य राजनीतिकों लाल, बाल और पाल की अपेक्षा अखिल भारतीय स्तर पर अधिक मान्य हुए। दक्षिण अफ़्रीका ने गांधीजी को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की थी। हिंदू-मुस्लिम एकता, जिसके वे आजीवन पैरोकार रहे, की आवश्यकता में उनका विश्वास जगाया।

1914 में जब युद्ध छिड़ा तो क्रांतिकारी समूह को छोड़कर सभी दलों ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपना समर्थन और वफादारी घोषित कर दी। तिलक ने कहा, "ऐसे संकट के समय, हर भारतीय का कर्तव्य है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, अपनी क्षमता के अनुसार महामहिम की सरकार का समर्थन और सहायता करना।" श्रीमती बेसेंट ने सोचा कि यह नरमपंथियों और गरमपंथियों को साथ लाने का सबसे उपयुक्त अवसर है। हालांकि, कांग्रेसियों के बीच समझौते के लिए बातचीत अस्थायी रूप से विफल रही। कांग्रेस की बैठक दिसंबर 1914 में मद्रास में हुई थी। मंडप को शाही महामहिमों के चित्रों और शाही हथियारों से सजाया गया था। जब मद्रास के गवर्नर लॉर्ड पेंटलैंड कांग्रेस में आए, तो उनका स्वागत जयकारे के साथ किया गया। कांग्रेस ने सिंहासन के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और नागरिकता के समान अधिकारों पर जोर दिया, साथ ही "जाति या वर्ग के भेदभाव के बिना" "साम्राज्य के नागरिक-सैनिकों" के नामांकन पर भी जोर दिया। कांग्रेस ने श्री गांधी और उनके अनुयायियों के वीरतापूर्ण प्रयासों और भारत के आत्मसम्मान को बनाए रखने और भारतीयों की शिकायतों के निवारण के लिए उनके संघर्ष में उनके अद्वितीय बलिदान और कष्टों की हार्दिक सराहना और प्रशंसा की।

1914 में प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने से राष्ट्रवादी आंदोलन को नई जान मिली, जो स्वदेशी आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही सुस्त पड़ा हुआ था। ब्रिटेन की मुश्किलें भारत के लिए ‘अवसर’ थीं। इस अवसर का लाभ उत्तरी अमेरिका में स्थित ग़दर क्रांतिकारियों और भारत में लोकमान्य तिलक, एनी बेसेंट और उनके होम रूल लीग ने अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग सफलता के साथ उठाया। ग़दरियों ने ब्रिटिश शासन को हिंसक तरीके से उखाड़ फेंकने का प्रयास किया, जबकि होम रूल लीगर्स ने होम रूल या स्वराज को सुरक्षित करने के लिए देशव्यापी आंदोलन शुरू किया। श्रीमती बेसेंट ने घोषणा की: "भारत इतनी स्वतंत्रता, इतने अधिकार के बदले में अपने बेटों के खून और अपनी बेटियों के गर्व भरे आंसुओं से नहीं चिढ़ता। भारत एक राष्ट्र के रूप में साम्राज्य के लोगों के बीच न्याय के अधिकार का दावा करता है। भारत ने युद्ध से पहले इसकी मांग की थी। भारत युद्ध के बाद भी इसकी मांग करेगा, लेकिन वह इसे पुरस्कार के रूप में नहीं बल्कि अधिकार के रूप में मांगेगा। इस पर कोई गलती नहीं होनी चाहिए।"

राष्ट्रीय आंदोलन की इस पृष्ठभूमि में भारतीय रंगमंच पर गांधीजी का प्रवेश होता है। उनके अहिंसक सविनय अवज्ञा ने विरोधियों को बातचीत की मेज पर लाने और आंदोलन द्वारा रखी गई मांगों को स्वीकार करने में सफलता प्राप्त की थी। संघर्ष की ‘गांधीवादी’ पद्धति का खाका तैयार हो चुका था और गांधीजी अपनी जन्मभूमि के लिए वापस चल पड़े। दक्षिण अफ्रीकी ‘प्रयोग’ को अब भारतीय उपमहाद्वीप पर बहुत बड़े पैमाने पर आजमाया जाना था।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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