राष्ट्रीय आन्दोलन
247. चम्पारण
सत्याग्रह-2
1917
दिसंबर 1916 में राजकुमार शुक्ला नामक एक
अज्ञात बिहारी किसान ने अपने साथी देशवासियों को नील मजदूरों की दुर्दशा से परिचित
कराने की उम्मीद में लखनऊ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
में भाग लेने का फैसला किया।
दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में
गांधीजी ने भाग लिया। इस अधिवेशन में उनकी मुलाक़ात चम्पारण के एक
किसान राजकुमार शुक्ल से हुई थी। इस मुलाक़ात ने उनकी राजनीति की दिशा बदलकर रख दी।
राजकुमार शुक्ल चम्पारण के एक समृद्ध किसान थे। एक प्राचीन व्यवस्था के तहत चंपारण
के किसान बटाईदार थे। राजकुमार शुक्ल उनमें से एक थे। वे अनपढ़ थे, लेकिन
दृढ़ निश्चयी थे। वह एक विनम्र, मिलनसार, गंभीर
व्यक्ति थे, जिनमें भाषण देने की कोई योग्यता नहीं थी, वे
कांग्रेस में मिलने वाले गणमान्य व्यक्तियों से प्रभावित थे। उन्होंने शोषण की इस तिनकठिया
व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया, जिसके बदले में उन्हें कई बार अंग्रेजों के कोड़े और
प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा था। राजकुमार शुक्ल कांग्रेस के समक्ष नील की खेती
करने वाले किसानों की समस्यायें रखने आए थे। लेकिन कांग्रेस का कोई अधिकारी उनकी
बात सुन ही नहीं रहा था। उन्होंने तिलक और मालवीय से संपर्क
किया, लेकिन उन्होंने उत्तर दिया कि उनका मुख्य
सरोकार राजनीतिक स्वतंत्रता है और वे नील की खेती करने वालों की शिकायतों की जांच
करने के लिए समय नहीं निकाल सकते। राजकुमार शुक्ल अन्य महत्वपूर्ण प्रतिनिधियों की
तलाश में इधर-उधर भटकते रहे, लेकिन उनके अपने प्रांत के लोगों ने भी उनके
प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। वह इच्छुक व्यक्ति की तलाश में तंबुओं के बीच
भटकते रहते थे। कोई भी उनकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था। किसी ने उन्हें सलाह दी कि
वह गांधीजी से मिलें, वही उनका दर्द समझ सकते हैं। उन्होंने संयोगवश बिहार से आए प्रतिनिधियों
के तंबू के पास ही अपना तंबू लगाया था। वे कांग्रेस में कोई प्रभावशाली व्यक्ति
नहीं थे, जहाँ तिलक, श्रीमती बेसेंट और जिन्ना का वर्चस्व था। एक विशाल सफ़ेद
काठियावाड़ पगड़ी पहने और लंबी काली मूंछों के साथ, वे
गुजरात के एक सफल व्यापारी की तरह अधिक दिखते थे, न कि
एक ऐसे व्यक्ति की तरह, जिसने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को सरकार की
जमी हुई सत्ता के विरुद्ध नेतृत्व किया था।
शुक्ल गांधीजी से मिलते हैं और उन्हें चंपारण
के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों द्वारा उनके शोषण की दास्तान बताई। शुक्ल गांधी जी से सिर्फ़ इतना चाहते थे कि वे
एक बार चंपारण आकर किसानों की बदहाली अपनी आंखों से देख लें। “आप इस क्षेत्र का दौरा करें, और अपनी आँखों से उन किसानों की दुर्दशा देखें
जिनको यूरोपीय निलहे (प्लान्टर) मज़बूर करते हैं कि वे अपनी ज़मीन के एक निर्धारित
भाग पर नील की खेती करें और निर्धारित दाम पर उनको अपनी फसल बेचें, जो हमेशा
किसानों के लिए घाटे का कारण होता है। क़ानून द्वारा पुष्ट और डंडे के बल लागू यह
व्यवस्था दुष्टतापूर्ण और मनमानी है, और किसान इसके बोझ तले कराह रहे हैं।”
गाँधीजी कई बार उन्हें टालते हैं क्योंकि तब तक
न तो वे बिहार को जानते थे और न ही उन्होंने चंपारण का नाम सुना था। भारत के
किसानों से उनका कोई संपर्क नहीं था और नील की खेती के बारे में भी उन्हें कुछ पता
नहीं था। लेकिन राज कुमार शुक्ल उनके पीछे पड़े रहे और उनसे बार-बार चंपारण चलने
के लिए कहते रहे। वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर)
आपको सब हाल बताएंगे, कहकर शुक्ल गांधीजी का पीछा करते जाते। राजकुमार शुक्ल ब्रजकिशोर प्रसाद को गांधीजी के
तंबू में ले आए। उन्होंने काले रंग की अलपाका अचकन और पतलून पहन रखी थी। उस समय
बृजकिशोर बाबू गांधीजी पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाए। गांधीजी ने समझा कि वे कोई
वकील होंगे जो सीधे-सादे किसानों का शोषण कर रहे होंगे। उनसे चंपारण के बारे में
कुछ सुनने के बाद गांधीजी ने अपनी आदत के अनुसार उत्तर दिया: 'मैं
अपनी आँखों से वहाँ की स्थिति देखे बिना कोई राय नहीं दे सकता। आप कृपया कांग्रेस
में प्रस्ताव पेश करें, लेकिन मुझे अभी के लिए स्वतंत्र छोड़ दें।' अगले
दिन उस अधिवेशन में ब्रजकिशोर प्रसाद ने चंपारण की दुर्दशा पर अपनी बात रखी जिसके
बाद कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर दिया। राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस को
संक्षिप्त रूप से संबोधित करने की अनुमति दी गई, और
कांग्रेस ने अधिक महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा की, बिहार
के किसानों की पीड़ा की जांच का काम सरकार पर छोड़ दिया। लेकिन इससे शुक्ल कहां
संतुष्ट होने वाले थे। वे तो गांधीजी को चंपारण ले जाने की जिद के पीछे पड़े ही रहे। चूंकि कांग्रेस ने उनकी
मदद करने से इनकार कर दिया, इसलिए उन्होंने फैसला किया कि गांधीजी को
चंपारण जाना चाहिए और नील मजदूरों की ओर से काम करना चाहिए।
उनसे एक तरह से पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से
गांधीजी उनसे कहते हैं, ‘अपने भ्रमण में चंपारण को भी शामिल कर लूंगा और एक-दो दिन
वहां ठहर कर अपनी नजरों से वहां का हाल देख भी लूंगा। बिना देखे इस विषय पर मैं
कोई राय नहीं दे सकता।’
लखनऊ से गांधीजी कानपुर चले गए, लेकिन शुक्ल जी ने वहां भी उनका पीछा नहीं
छोड़ा। वहां उन्होंने कहा, ‘यहां से चंपारण बहुत नजदीक है. एक दिन दे दीजिए।’ इस पर गांधीजी ने कहा, ‘अभी मुझे माफ कीजिए, लेकिन मैं वहां आने का वचन देता हूं।’ गांधीजी साबरमती आश्रम
वापस आ गए। एक दिन शुक्लजी अहमदाबाद में गांधीजी के आश्रम तक पहुंच गए और चम्पारण जाने
की तारीख तय करने की जिद करने लगे। उस किसान की ज़िद देख गांधीजी से रहा न गया।
उन्होंने कहा “सात अप्रैल को मैं कोलकाता जा रहा हूँ। आप भी
वहाँ पहुंचिए। वहाँ से मैं आपके साथ चंपारण चलूंगा।” राजकुमार शुक्ल ने सात अप्रैल, 1917 को गांधीजी के कलकत्ता में भूपेन बाबू के घर पहुंचने
से पहले ही वहां डेरा डाल दिया था। इस पर गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया।’ गांधीजी उसके साथ कलकत्ता से पटना के लिए
रवाना हुए।
पटना के विशाल शहर में, जो
कभी अशोक के साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था, गांधीजी
को उम्मीद थी कि किसानों की शिकायतों से निपटने में व्यस्त लोगों का एक समूह
मिलेगा। इसके बजाय, उन्होंने पाया कि राजधानी उनके भाग्य के प्रति
उदासीन थी। गांधीजी 9 अप्रैल 1917 को कलकत्ता से पटना के लिए ट्रेन से रवाना हुए। 10 अप्रैल, 1917 की सुबह राजकुमार शुक्ला के साथ पटना पहुंचे। वे
दोनों किसान जैसे दिखते थे। यह गांधीजी की पटना की पहली यात्रा थी। उनका कोई मित्र
या परिचित नहीं था, जिसके साथ वह ठहर सकते थे। गांधीजी राज कुमार
शुक्ल के साथ पटना स्टेशन पर उतर तो जाते हैं लेकिन शुक्ल को समझ नहीं आता कि रात
में गांधीजी को ठहराए कहाँ? उनका मुकदमा लड़ रहे एक वकील पटना में रहते थे।
वो गाँधीजी को उनके यहाँ ले जाते हैं। जब वो उनकी कोठी पर पहुंचते हैं तो बाहर एक
नेम प्लेट देखते हैं जिस पर राजेंद्र प्रसाद लिखा हुआ है। पता चलता हैं कि
राजेंद्र प्रसाद तो घर पर नहीं हैं, पुरी गए हुए हैं। जब शुक्ल कहते हैं कि ये हमारे मेहमान हैं।
उनको यहाँ ठहराना है तो नौकर लोग बरामदे में उस जगह उन्हें बिस्तर बिछाने की जगह
दे देते हैं, जहाँ मुवक्किलों को ठहराया जाता है। राजेन्द्र
बाबू किसी काम से जगन्नाथपुरी गए हुए थे। राजमोहन गांधी बताते हैं कि राजेंद्र
प्रसाद के नौकरों को वेशभूषा से गांधीजी संभ्रांत व्यक्ति नहीं लगे, इसलिए
उन्होंने गांधीजी को कुएं से पानी निकालने और शौचालय का इस्तेमाल करने की अनुमति
नहीं दी। उन दिनों उनके यहां भी आम घरों की तरह छुआछूत का माहौल था। गांधीजी इस
तरह की चीजों को दिल पर नहीं लेते थे। उन्होंने नौकर की आज्ञा का सहर्ष पालन किया
क्योंकि वह तो अपने मालिकों के कहे अनुसार उनके लिए वफ़ादारी से काम कर रहा था। पटना में अपने अनुभव का
वर्णन करते हुए गांधीजी ने 10 अप्रैल को मगनलाल को लिखा: जो आदमी मुझे यहाँ लाया
है, वह कुछ नहीं जानता। उसने मुझे किसी अज्ञात
स्थान पर छोड़ दिया है। घर का मालिक बाहर गया हुआ है और नौकर हम दोनों को भिखारी
समझते हैं। वे हमें अपने शौचालय का उपयोग करने की भी अनुमति नहीं देते हैं। राजेंद्र
प्रसाद कलकत्ता में उसी ए.आई.सी.सी. की बैठक में भाग लेने गए थे जिसमें भाग लेकर
गांधीजी पटना आ गए थे और वहाँ उन्होंने गांधीजी को देखा था। उन्हें गांधीजी के
कार्यक्रम के बारे में पता नहीं था और वे कलकत्ता से पुरी चले गए। राजेंद्र प्रसाद
को बहुत शर्मिंदगी हुई जब उन्हें बाद में पता चला कि उनके नौकर ने गांधीजी के साथ
कैसा व्यवहार किया।
इस मोड़ पर, राजेंद्र
प्रसाद के घर में बिताए एक दुखद दिन के बाद, गांधीजी
को अचानक याद आया कि मुस्लिम नेता मौलाना मज़हरुल हक भी पटना में रह रहे थे। वे
लंदन में दोस्त थे, और 1915 में बॉम्बे कांग्रेस में दोनों मिले थे
- जिस साल वे मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे - उन्होंने फिर से परिचय कायम किया और गांधीजी
को निमंत्रण दिया कि जब भी वह पटना आएं तो उनके साथ रहें। वो उन तक संदेशा भिजवाते
हैं। हक़ मोटर लेकर गांधीजी से मिलने पहुंचे। गांधीजी ने उनसे बात की और आगे का
कार्यक्रम तय किया। मज़हरुल हक ने सुझाव दिया कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन
क्षेत्रों में तुरंत जाया जाए जहाँ किसान फ़ैक्टरी मालिकों के खिलाफ़ विद्रोह कर
रहे थे। पटना के बजाय वहाँ उन्हें ऐसे नेता मिलेंगे जो समस्या से अवगत थे और
सहायता देने में सक्षम थे। पटना से कुछ भी उम्मीद नहीं की जा सकती थी। मज़हरुल हक ने
गांधीजी को मुज़फ़्फ़रपुर जाने वाली ट्रेन में बैठाया। ट्रेन से वे शाम को
मुज़फ़्फ़रपुर के लिए रवाना हुए।
मज़हरुल हक़ ने अपने मित्र जोइतराम भगवानदास कृपलानी
को टेलीग्राम भेजा कि जब गांधी आधी रात को स्टेशन पर पहुँचें तो वे वहाँ मौजूद
रहें। हैदराबाद की यात्रा के समय से ही गांधीजी उन्हें जानते थे। वे अंग्रेज़ी के
प्रोफ़ेसर थे। अपना पूरा वेतन वे विद्यार्थियों में बांट दिया करते थे। उनका अपना
कोई घर नहीं था। दिनभर कॉलेज और विद्यार्थियों में बिताते और रात कहीं भी गुज़ार
लेते। मुज़फ़्फ़रपुर में रह रहे आचार्य कृपलानी जब साढ़े नौ बजे क्लब से अपने
हॉस्टल लौटते हैं तो अपनी मेज़ पर एक टेलिग्राम रखा पाते हैं, जिसमें लिखा है कि अब से कुछ घंटे बाद गांधीजी
वहाँ ट्रेन से पहुंचने वाले हैं। कृपलानी समझ नहीं पा रहे हैं कि इतने बड़े आदमी
का स्वागत वो किस तरह से करें? दरभंगा
के एक ब्राह्मण छात्र ने सलाह दी कि इतने बड़े आदमी का स्वागत हिंदू रीति से आरती
उतार कर करना चाहिए। कृपलानी ने वो बात मान ली। छात्रों ने आसपास के बगीचों से
बहुत सारे फूल तोड़ डाले। आरती के लिए हर चीज़ जमा हो गई सिवाय नारियल के। इतनी
रात उसे बाज़ार से तो मंगवाया नहीं जा सकता था, क्योंकि सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं। उनके बगीचे में एक
नारियल का पेड़ था। सवाल उठा कि उस पर चढ़े कौन? कोई भी सामने नहीं आया। आखिर में कृपलानी खुद नारियल के
पेड़ पर चढ़े और कई हरे नारियल तोड़ कर नीचे उतरे।
काली स्याह रात में मुज़फ़्फ़रपुर रेलवे स्टेशन पर पटना से आई एक
ट्रेन रुकती है। कृपलानी एक लंबे, सुंदर, कुछ हद तक उदास व्यक्ति थे, जिनमें तीखे हास्य की
प्रतिभा थी और अपने दत्तक प्रांत के किसानों के लिए गहरी चिंता थी - वे मूल रूप से
सिंध से आए थे, और उनमें सिंधियों जैसा कुछ लापरवाह चरित्र था। मुज़फ्फ़रपुर के एक डिग्री कॉलेज में इतिहास के
प्रोफ़ेसर आचार्य जेबी कृपलानी अपने छात्रों के साथ गांधीजी का स्वागत करने स्टेशन
पर पहुंचे हुए थे। उनके हाथों में लालटेनें थीं, लेकिन तब भी वे अपने
मेहमान को ढ़ूंढ़ नहीं पाए, क्योंकि महात्मा गांधी तीसरे दर्जे में सफ़र कर रहे थे। जब गाँधीजी
मुज़फ़्फ़रपुर के स्टेशन पर उतरे तो उनके हाथ में एक कपड़े से बंधे कुछ कागज़ थे।
शुक्ल के हाथ में उनका एक छोटा सा बिस्तरबंद था।
कृपलानी और उनके छात्र गांधीजी को नहीं देख पाए क्योंकि वे उन्हें
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में ढूँढ़ रहे थे। राजकुमार शुक्ल ने एक छात्र से पूछा कि
वे किसे ढूँढ़ रहे हैं। छात्र ने देहाती के सवाल को नज़रअंदाज़ कर दिया। शुक्ल ने
कहा: ''अगर आप करमवीर गांधी को ढूँढ़ रहे हैं तो वे मेरे पास हैं।'' इस पर वे सभी चुप हो गए।
वे कृपलानी को गांधीजी के पास ले गए और कहा, ''ये महात्माजी हैं।'' ऐसा कहा जाता है कि यह
पहली बार था जब भारत में उनके लिए 'महात्मा' की उपाधि का इस्तेमाल किया
गया था।
गांधीजी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि स्टेशन पर उनका स्वागत किसी राजा
की तरह किया गया। वह नंगे पांव, एक मोटी धोती पहने और हाथ में एक टिफिन-बॉक्स लिए ट्रेन से उतरे, उन्होंने कल्पना की थी कि
वह चुपचाप प्लेटफॉर्म पर भीड़ में घुस जाएंगे, लेकिन कुछ ही क्षणों बाद
उन्हें एहसास हुआ कि भीड़ उनका स्वागत कर रही थी, उनका नाम पुकार रही थी और
अंधेरे शहर में उनकी गाड़ी को खींचने पर जोर दे रही थी। गाँधीजी की आरती उतारी गई, लेकिन कृपलानी ने नोट किया कि गांधीजी को ये सब रास नहीं आ रहा था।
उसी ट्रेन से कृपलानी का एक ज़मींदार दोस्त भी उतरा। स्टेशन पर उसकी
बग्घी उसका इंतज़ार कर रही थी। कृपलानी ने उससे अनुरोध किया कि वो अपनी बग्घी उन्हें
दे दे ताकि वे उस पर गाँधीजी को बैठाकर ले जा सकें। वह मान गया। जब वे बग्घी के
पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि लड़कों ने उसमें जुते घोड़े हटा दिए थे और वो
उसमें गांधीजी को बैठाकर उसे खुद खींचने के लिए तैयार थे। जब गांधीजी ने ये देखा
तो वो बोले, “मैं इस बात के लिए कतई राज़ी नहीं होऊंगा कि लोग मुझे इस तरह खींच कर
ले जाएं। अगर आप ऐसा करेंगे तो मैं पैदल ही चलना पसंद करूंगा।”
कृपलानी ने लड़कों से कहा कि वो इस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दें। जब उनकी बग्घी चली
तो घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ नहीं सुनाई दी। तब उनकी समझ में आया कि लड़कों ने
गाँधीजी की बात नहीं मानी थी। उस ज़माने में बिहार में इस तरह की बग्घियाँ होती
थीं कि अंदर बैठा शख़्स नहीं देख पाता था कि उसे कौन चला रहा है? जब वे हॉस्टल पहुंचे तो
गांधीजी को पता चला कि लड़कों ने किया क्या है! गांधीजी बहुत नाराज़ हुए और बोले
आपने मेरे साथ धोखा किया है।
रात को ठहरने के लिए गांधीजी को प्रेफ़ेसर मलकानी के घर ले जाया गया।
कृपलानीजी ने चंपारण की स्थिति से गांधीजी को अवगत कराया। शुक्ल जी ने यहां गांधी
जी को छोड़कर चंपारण का रुख किया, ताकि उनके वहां जाने से पहले सारी तैयारियां पूरी की जा सकें।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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