राष्ट्रीय आन्दोलन
240.
होमरूल लीग आंदोलन
1916
1915 की राजनीतिक सुस्ती होमरूल लीग आन्दोलन के छिड़ते ही काफ़ूर
हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ होने पर भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के नरमपंथियों ने ब्रिटेन की सहायता करने का निश्चय किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के
इस निर्णय के पीछे संभवतः ये कारण था कि यदि भारत ब्रिटेन की सहायता करेगा तो
युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत को स्वतंत्र कर देगा। परन्तु शीघ्र ही भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस को ये अनुमान हो गया कि ब्रिटेन ऐसा कभी नहीं करेगा और इसलिए भारतीय नेता असंतुष्ट होकर कोई दूसरा रास्ता खोजने लगे। यही असंतोष ही होम
रूल आन्दोलन के जन्म का कारण बनी। 1915 ई. से 1916 ई. के मध्य दो होम रूल लीगों की स्थापना हुई। 'पुणे होम रूल लीग' की स्थापना बाल
गंगाधर तिलक ने और 'मद्रास होम रूल लीग' की स्थापना श्रीमती एनी बेसेंट ने की थी।
'होमरूल लीग' की स्थापना
छह वर्ष की कठोर नज़रबंदी से 16 जून 1914 को रिहा होकर बालगंगाधर तिलक मंडालय जेल (बर्मा) से
छूटकर भारत लौटे। तब तक देश का राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल चुका था। स्वदेशी
आंदोलन के क्रांतिकारी नेता अरविंद घोष
संन्यास धारण कर पांडिचेरी जा चुके थे। लाला लाजपत राय
अमेरिका में थे। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हो
चुका था और इससे वे अभी तक नहीं उबर पाए थे। अंग्रेज़ों का दमनात्मक रवैया ज़ारी था।
नरमपंथी निराश हो चुके थे। तिलक ने सोचा की सबसे पहले कांग्रेस में प्रवेश किया
जाए और फिर गरमपंथियों को उसमें शामिल किया जाए। उनका अब भी मानना था कि भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस राष्ट्रीय आन्दोलन का पर्याय बन चुकी है। तिलक ने घोषणा की, “हम लोग हिन्दुस्तान में प्रशासनिक आज़ादी चाहते हैं। अंग्रेज़ी
हुक़ूमत को उखाड़ फेंकने का हमारा कोई इरादा नहीं है। भारत के विभिन्न भागों में हो रहे
हिंसात्मक आंदोलन हमारी विचारधारा के विपरीत हैं। संकट की इस घड़ी में आप अंग्रेज़ी हुक़ूमत
का साथ दें।”
कांग्रेस को तिलक की अपील भाई। 1907 सूरत अधिवेशन के बाद
से कांग्रेस लगभग पूरी तरह से निष्क्रिय हो गई थी। इसलिए, वे तिलक के प्रस्तावों से काफी सहानुभूति रखते थे। इसके अलावा, उन पर श्रीमती एनी बेसेंट का भी काफी दबाव था, जो हाल ही में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुई थीं और राष्ट्रवादी
राजनीतिक गतिविधि को जगाने के लिए उत्सुक थीं, ताकि वे गरमपंथियों को शामिल कर सकें। इसलिए उन्होंने अपनी ऊर्जा नरमपंथी
नेताओं को तिलक और उनके गरमपंथी साथियों के लिए कांग्रेस के दरवाजे खोलने के लिए
राजी करने में लगा दी।
लेकिन दिसंबर 1914 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन
निराशाजनक साबित हुआ - फिरोजशाह मेहता और उनके बॉम्बे मॉडरेट समूह ने गोखले और
बंगाल मॉडरेट को अपने पक्ष में करके गरमपंथियों को बाहर रखने में सफलता प्राप्त
की। इसके बाद तिलक और बेसेंट ने अपने दम पर राजनीतिक गतिविधि को पुनर्जीवित करने
का फैसला किया, जबकि कांग्रेस पर गरमपंथी समूह को फिर से शामिल करने के
लिए दबाव बनाए रखा।
1915 में पूना में तिलक ने अपने समर्थकों का एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें यह
फैसला लिया गया कि ग्रामीण जनता को कांग्रेस के उद्देश्यों और उसकी गतिविधियों से
परिचित कराए जाने के लिए एक संस्था का गठन किया जाए। इस तरह उन्होंने इस बात का
ध्यान रखा कि वे किसी भी तरह से नरमपंथियों को डराएँ नहीं या कांग्रेस को दरकिनार
करते हुए न दिखें। तिलक को अभी भी उम्मीद थी कि उनकी तर्कसंगतता और सावधानी के
कारण बहुमत उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी कर लेंगे।
तिलक के और एनी बेसेंट के प्रयासों को जल्द ही सफलता
मिली और दिसंबर 1915 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि
उग्रवादियों को कांग्रेस में फिर से शामिल होने की अनुमति दी जाए। फिरोजशाह मेहता
की मृत्यु के कारण बॉम्बे समूह का विरोध बहुत कमज़ोर हो गया था। लेकिन एनी बेसेंट
होम रूल लीग स्थापित करने के अपने फ़ैसले के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग का
समर्थन पाने में सफल नहीं हुईं। उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर कांग्रेस सितंबर 1916
तक यह गतिविधि शुरू नहीं करती है, तो वह अपनी
खुद की लीग स्थापित करने के लिए स्वतंत्र होगी।
तिलक, ऐसी किसी
प्रतिबद्धता से बंधे नहीं थे। उन्होंने देश के राजनैतिक जीवन को पुनर्जीवित करने
के लिए 22 अप्रैल, 1916 ई. को बेलगांव में 'होमरूल लीग' की स्थापना की थी। जेल से मुक्त होने पर देशवासियों से जो एक लाख रुपए की
थैली मिली थी, वह भी उन्होंने लीग को दे दी। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के
अधीन रहते हुए संवैधानिक तरीक़े से स्वशासन को प्राप्त करना था। “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा” बाल गंगाधर तिलक का प्रसिद्ध नारा था। तिलक की लीग
महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रांत और बिहार में सक्रिय थी।
एनी बेसेंट का योगदान
सुप्रसिद्ध थियोसोफिस्ट
व शिक्षा विशेषज्ञ एनी बेसंट मूलतः आयरिश थीं। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत
इंग्लैंड में हुई थी। श्रीमती एनी बेसेंट एक ऊर्जावान नेता थीं जिन्होंने इंग्लैंड
में चार्ल्स ब्रैडलॉ के साथ काम किया था। ब्रैडलॉ की भारत में गहरी दिलचस्पी थी, इतनी कि उन्हें अक्सर 'भारत के सदस्य' कहा जाता था। 1893 में वह थियोसॉफिकल
सोसायटी के लिए काम करने भारत आईं। उन्होंने मद्रास के उपनगर अडियार में अपना
दफ़्तर खोला। फिर वह यहीं बस गईं और यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए
जीवन भर काम किया। भारत में एनी बेसेंट ने साप्ताहिक पत्र 'कामनवेल्थ' का 2 जनवरी, 1914 ई.
से एवं दैनिक पत्र 'न्यू इंडिया' का 14 जुलाई, 1914 ई. से प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन पत्रों के द्वारा एनी बेसेंट ने
भारतीयों में स्वतन्त्रता एवं राजनीतिक भावना को जागृत किया। 1914 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल
हो गयीं। अप्रैल 1915 से उनका लहजा और अधिक आक्रामक हो गया। उन्होंने होम रूल लीग
नामक एक सक्रिय राजनीतिक निकाय शुरू करने का विचार बनाया, जिसका उद्देश्य होम रूल के उद्देश्य को
आगे बढ़ाने के लिए दिन-प्रतिदिन सक्रिय कार्य को बढ़ावा देना और कांग्रेस द्वारा
पारित प्रस्तावों के संबंध में अनुवर्ती कार्य करना था। श्रीमती बेसेंट को
कांग्रेस नेताओं को यह समझाना था कि आगे के काम के लिए एक नये संगठन की आवश्यकता
है। वाचा और कई अन्य लोगों को श्रीमती बेसेंट द्वारा होम रूल लीग शुरू करने का
विचार पसंद नहीं आया। उन्हें लगा कि वह कांग्रेस के समानांतर एक संस्था स्थापित कर
रही हैं। उन्होंने उनसे होम रूल लीग शुरू करने से पहले प्रतीक्षा करने को कहा। श्रीमती
बेसेंट अगस्त 1916 तक इंतजार करने के लिए सहमत हो गईं। श्रीमती बेसेंट ने भी पूना
में तिलक से मुलाकात की और उन्हें अच्छी प्रतिक्रिया मिली। कांग्रेस और मुस्लिम
लीग ने इस मामले पर विचार करने के लिए एक संयुक्त समिति बनाई, लेकिन समिति के प्रयासों से कुछ खास नतीजा
नहीं निकला, क्योंकि उस समय कांग्रेस सर फिरोजशाह
मेहता जैसे नरमपंथियों के हाथों में थी, जो कांग्रेस द्वारा इस तरह का कोई भी जल्दबाजी वाला कदम
उठाने के खिलाफ थे। अब बिना किसी देरी के उन्होंने
भारत में आयरलैण्ड की तरह सितम्बर, 1916 ई. में मद्रास (अडयार) में 'होमरूल लीग' की स्थापना की तथा जॉर्ज अरुंडेल को लीग का सचिव नियुक्त किया। एनी
बेसेंट के सहयोगियों में बी.पी. वाडिया तथा सी.पी. रामास्वामी अय्यर शामिल थे। जवाहर लाल नेहरू, वी. चक्रवर्ती, जितेंद्रलाल
बनर्जी जैसे नेताओं ने भी लीग की सदस्यता ग्रहण की। गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा स्थापित संस्था 'सर्वेण्ट
ऑफ़ इण्डिया सोसायटी' के
सदस्यों को लीग में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। श्रीमती एनी बेसेंट ने गांधीजी को
भी होमरूल लीग के संस्थापकों में शरीक करना चाहा था, लेकिन वह विश्वयुद्ध के समय
ब्रिटिश सरकार को परेशानी में डालनेवाले किसी भी रानैतिक आंदोलन के पक्ष में नहीं
थे।
विश्वयुद्ध और होमरूल
आन्दोलन
श्रीमती एनी बेसेंट ने नारा लगाया था: “इंग्लैंड
की कठिनाई का क्षण भारत के अवसर का क्षण है,” और
भारतीय स्वशासन के लिए समर्पित उनकी होम रूल लीग का देश पर शक्तिशाली प्रभाव था, जबकि मद्रास से उनके द्वारा संपादित समाचार पत्र न्यू इंडिया को
लोग उत्सुकता से पढ़ रहे थे। साठ-सत्तर वर्ष की आयु में भी उनके पास एक तीक्ष्ण
बुद्धि थी, जो युवा उत्साह के साथ अपने राजनीतिक विचारों को प्रस्तुत करती थी।
वह भारतीयों से भी अधिक भारतीय बन गई थी, एक अदम्य साहस और गहन
अंतर्दृष्टि वाली महिला, जिससे ब्रिटिश अधिकारी
डरते थे। जब श्रीमती बेसेंट होम रूल और इंग्लैंड की कठिनाइयों के बारे में बोलती
थीं, तो उनका मतलब वही होता था जो वह कहती थीं। उन दिनों वह गांधीजी से
कहीं ज़्यादा जानी-मानी और सम्मानित थीं। 1916 के उत्तरार्ध में तिलक, श्रीमती बेसेंट और जिन्ना के नेतृत्व में देश में राजनीतिक जीवन की
एक नई लहर आई। तिलक के साथ, वह राष्ट्रीय मंच पर छाई
रहीं। 1917 में
उन्हें तीन महीने के लिए गिरफ़्तार किया गया और उसी साल उन्होंने कलकत्ता में
कांग्रेस की बैठक की अध्यक्षता की।
तिलक को कांग्रेस में अभी तक कोई जगह नहीं मिली थी, क्योंकि बंबई अधिवेशन में हुए समझौते के तहत उन्हें उस प्रतिष्ठित
निकाय को प्रभावित करने के लिए एक साल तक इंतजार करना पड़ा। इसलिए तिलक होम रूल
लीग के अपने विचार पर वापस लौट आए, जिसे उन्होंने अप्रैल 1916 में शुरू किया, श्रीमती बेसेंट द्वारा
अपनी लीग शुरू करने से छह महीने पहले। श्रीमती बेसेंट ने लिखा, "श्री तिलक ने एक लीग बनाई और मैंने दूसरी, इस
आधार पर कि कुछ लोग उनसे प्यार करते थे और मुझसे नफरत करते थे, और दूसरे लोग उनसे नफरत करते थे और मुझसे प्यार करते थे; इसलिए अलग-अलग काम करना सबसे अच्छी नीति थी।" हालाँकि तिलक की
होम रूल लीग ने राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांत को स्वीकार किया और यहाँ तक कि
श्रीनिवास शास्त्री भी इससे खुश थे, लेकिन सरकार उनकी
गतिविधियों को बहुत संदेह की दृष्टि से देखती थी।
होमरूल आंदोलन का प्रभाव
होमरूल आंदोलन का प्रभाव को हम इस आन्दोलन के क्षेत्रों, समूहों और नई पीढ़ी तक इसके विस्तार में देख सकते हैं। होम रूल
आंदोलन द्वारा सक्रिय किए गए युवाओं में 1920 के दशक से भारतीय राजनीति के कई भावी
नेता शामिल थे: मद्रास में सत्यमुनि, कलकत्ता में जीतेंद्रलाल
बनर्जी, इलाहाबाद और लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू और खलीकुज्जमां, और बंबई और गुजरात में धनी रंग आयातक इयानदास द्वारकादास, उद्योगपति उमर सोभानी, अमीर आदमी के बेटे
शंकरलाल बैंकर और इंदुलाल याज्ञिक जैसे लोग। इस आन्दोलन के कारण गुजरात और उत्तर
प्रदेश के कई हिस्सों में भी पहली बार सक्रियता दिखाई दे रही थी - भविष्य के संकेत, जब ये क्षेत्र गांधीवादी राष्ट्रवाद की रीढ़ बनेंगे। दोनों लीगों
ने अपनी गतिविधि के क्षेत्र को सीमांकित करके किसी भी घर्षण से बचा लिया; तिलक की लीग को महाराष्ट्र (बॉम्बे शहर को छोड़कर), कर्नाटक, मध्य प्रांत और बरार में
काम करना था और एनी बेसेंट की लीग को शेष भारत का प्रभार दिया गया था। दोनों लीगों
का विलय न होने का कारण यह था कि एनी बेसेंट के शब्दों में, 'उनके कुछ अनुयायी मुझे नापसंद करते थे और मेरे कुछ लोग उन्हें
नापसंद करते थे। हालाँकि, हमारा आपस में कोई झगड़ा
नहीं था।' तिलक के होमरूल लीग के
प्रभाव क्षेत्र से बाहर के सभी हिस्सों में लीग के प्रभाव को फैलाने की
ज़िम्मेदारी एनी बेसेंट पर थी। होमरूल लीग के सर्वाधिक कार्यालय मद्रास में थे।
तिलक ने अपने पत्र 'मराठा' एवं 'केसरी' तथा एनी बेसेंट ने पत्र 'कॉमनवेल्थ' एवं 'न्यू इण्डिया' के माध्यम से 'गृह
शासन' या 'होमरूल' का ज़बरदस्त प्रचार किया। तिलक ने क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा और
भाषाई राज्यों की मांग को ‘स्वराज’ की मांग के साथ जोड़ दिया। उन दिनों होमरूल
आंदोलन ने भारतीय राजनीति में बिजली सा असर किया। देश की पढ़ी-लिखी जनता इस आंदोलन
की ओर खिंची चली आई। इसने देश के राजनैतिक जीवन में जोश और उत्साह का संचार किया।
आंदोलन के प्रबल जन-समर्थन से ब्रिटिश शासन मुश्किल में फंस गया। यह होमरूल लीग
आंदोलन का ही प्रभाव था कि 1917 में सल्तनत को यह कहना पड़ा कि भारत साम्राज्य का एक
अविच्छिन्न अंग है। इसे क्रमशः उत्तरदायी शासन प्रदान किया जाएगा। प्रशासन के हर
विभाग में भारतीयों का उत्तरोत्तर समावेश किया जाएगा।
गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर तथा अस्पृश्यता के
मुद्दे पर तिलक के रुख ने यह प्रदर्शित किया कि वे जातिवादी भी नहीं थे। गैर-ब्राह्मणों
को उन्होंने समझाया कि वास्तविक अंतर ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण के बीच नहीं, बल्कि शिक्षित और अशिक्षित के बीच है। अस्पृश्यता निवारण के लिए एक
सम्मेलन में, तिलक ने घोषणा की: 'यदि कोई भगवान
अस्पृश्यता को सहन करता है, तो मैं उसे भगवान के रूप
में बिल्कुल भी मान्यता नहीं दूंगा।' उनका कहना था, अंग्रेज विदेशी हैं, इसलिए नहीं कि वे दूसरे धर्म के हैं, बल्कि
इसलिए कि उन्होंने भारतीय हित में काम नहीं किया। 'जो कोई भी इस देश के
लोगों के लिए लाभकारी काम करता है, चाहे वह मुसलमान हो या
अंग्रेज, वह विदेशी नहीं है। उन्होंने लीग को छह शाखाओं में संगठित किया गया, जिनमें से एक-एक मध्य महाराष्ट्र, बॉम्बे
शहर, कर्नाटक और मध्य प्रांत में और दो बरार में थीं। अप्रैल 1917 में
इसकी सदस्यता 14,000 और 1918 की शुरुआत में 32,000 हो गई।
बेसेंट की लीग की दो सौ शाखाएँ स्थापित की गईं, जिनमें से कुछ में एक शहर और अन्य में गाँवों के समूह शामिल थे। एनी
बेसेंट की लीग की सदस्यता तिलक की लीग की तुलना में धीमी गति से बढ़ी। उनके मौजूदा
थियोसोफिकल अनुयायियों के अलावा, इलाहाबाद में जवाहरलाल
नेहरू और कलकत्ता में बी चक्रवर्ती और जे बनर्जी सहित कई अन्य लोग होम रूल लीग में
शामिल हो गए। 1917 के मध्य में अपने चरम पर बेसेंट होम रूल लीग के 27,000 सदस्य थे। हालाँकि, लीग की ताकत का अंदाजा
शाखाओं की संख्या से नहीं लगाया जा सकता था, क्योंकि
कई शाखाएँ बहुत सक्रिय थीं, जबकि अन्य थियोसोफिकल
सोसाइटियों के सहायक बने रहे। इसकी गतिविधि का मुख्य जोर होम रूल की मांग के
इर्द-गिर्द एक आंदोलन खड़ा करने की ओर था। इसे राजनीतिक शिक्षा और चर्चा को बढ़ावा
देकर हासिल किया जाना था। जब भी किसी विशेष मुद्दे पर विरोध के लिए राष्ट्रव्यापी
आह्वान किया जाता था, तो वे हमेशा प्रतिक्रिया देते थे। उदाहरण के लिए, जब नवंबर 1916 में एनी बेसेंट को सेंट्रल प्रोविंस और बरार से
निर्वासित किया गया, तो अरुंडेल के कहने पर अधिकांश शाखाओं ने बैठकें कीं और वायसराय और
राज्य सचिव को विरोध के प्रस्ताव भेजे। फरवरी 1917 में तिलक को पंजाब और दिल्ली से
निर्वासित किए जाने पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया हुई।
गांधीजी होमरूल आन्दोलन से
दूर रहे
गांधीजी अभी तक भारतीय राजनीति के दर्शक ही थे। 1916-18 में गांधीजी ने राजनीति में कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन में लीग और कांग्रेस के बीच जो समझौता
हुआ था, उसमें भी गांधीजी का कोई हाथ नहीं था। इस समय भारत के सबसे प्रभावशाली
नेता तिलक ही थे। एक तो गांधीजी ने उस समय (युद्धकाल में) किसी राजनैतिक आंदोलन
में भाग न लेने का दृढ़ निश्चय किया हुआ था। दूसरे उनके आदर्श और कार्यप्रणाली, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
के दोनों प्रमुख दलों से बिल्कुल ही मेल नहीं खाते थे। नरम दल उनके सत्याग्रह के
संविधानेतर तरीके को पसन्द नहीं करता था। गरम दल, महायुद्ध में अंग्रेज
सरकार के प्रति, उनके द्वारा जानबूझ कर अपनाये गए सहानुभूतिपूर्ण –दृष्टिकोण को नापसन्द करता था। अतः गांधीजी ने न तो होम रूल
(स्व-शासन) आंदोलन में भाग लिया और न समझौते की उस बातचीत में, जिसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम
लीग के बीच लखनऊ समझौता हुआ। वह भारतीय राजनीति की प्रमुख धारा से विलग मालूम
पड़ते थे। जब 1915 में एनी बेसेंट ने गांधीजी को बंबई में देखा, तो उन्होंने उन्हें होम रूल लीग शुरू करने में शामिल होने के लिए
आमंत्रित किया। गांधीजी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वे भारत में राजनीतिक
आंदोलन करके अंग्रेजों को शर्मिंदा और परेशान नहीं करना चाहते, जबकि ग्रेट ब्रिटेन जर्मनी के खिलाफ युद्ध में गहराई से शामिल था।
उन्हें यकीन था कि जब युद्ध खत्म हो जाएगा तो ब्रिटिश सरकार राजनीतिक सुधारों को
मंजूरी देकर युद्ध के प्रयासों में भारत के निरंतर समर्थन के लिए अपना आभार प्रकट
करेगी। श्रीमती बेसेंट ने गांधीजी से कहा, "मैं
अंग्रेजों को अच्छी तरह जानती हूं। वे कभी भी दमन के अलावा कुछ नहीं देंगे। जब
उन्हें भारत की दोस्ती की जरूरत होगी तो हमें भारत की आजादी के लिए दावा आगे
बढ़ाना चाहिए। लोहा गर्म है, तब वार करें।"
गांधीजी ने राजी होने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, "मैं
युद्ध के दौरान उनके खिलाफ किसी भी आंदोलन में मदद नहीं करूंगा।" उस समय
राष्ट्रीय मंच पर गांधीजी नहीं किन्तु ऐनी बेसेण्ट और लोकमान्य तिलक ही छाए हुए थे
और सरकार के निकट भी उन्हीं दोनों का महत्व था। 1920 में गांधीजी अखिल
भारतीय होमरूल लीग में शामिल हो गये और अप्रैल 1920 में गांधी जी होम रूल लीग के
अध्यक्ष चुने गए। अखिल भारतीय होम रूल लीग के नेता बनकर गांधी ने इंग्लैंड की सरकार के
बजाय भारतीय स्वशासन के लक्ष्य को स्वीकार किया। कांग्रेस ने अभी तक स्वतंत्रता की
वकालत नहीं की थी।
लखनऊ समझौता
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन 26-30 दिसंबर, 1916 को अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में हुआ। कांग्रेस के इस
अधिवेशन ने होम रूल लीग को मान्यता दी, जिसने लोगों को जागृत
करने और स्वराज की मांग को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसमें
होम रूल लीगर्स को अपनी ताकत दिखाने का लंबे समय से प्रतीक्षित अवसर मिला। तिलक और
उनके साथियों का कांग्रेस में स्वागत उदारवादी अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार ने
किया: ‘लगभग 10 वर्षों के दर्दनाक अलगाव और गलतफहमियों के जंगल और अप्रिय विवादों
की भूलभुलैया में भटकने के बाद... भारतीय राष्ट्रवादी पार्टी की दोनों शाखाओं को
यह एहसास हो गया है कि एकजुट होकर वे खड़े हैं, लेकिन
विभाजित होकर वे गिर जाते हैं, और आखिरकार भाई-भाई मिल
गए हैं...’ । लखनऊ कांग्रेस प्रसिद्ध
कांग्रेस लीग समझौते के लिए भी महत्वपूर्ण थी, जिसे लखनऊ समझौते के नाम
से जाना जाता है। इस समझौते में कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन
क्षेत्र के सिद्धांत को मान्यता दी गई और केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानसभाओं में
उनके लिए सीटों का आवंटन किया गया। तिलक और एनी बेसेंट दोनों ने कांग्रेस और लीग
के बीच इस समझौते को लाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी, जो मदन मोहन मालवीय सहित
कई महत्वपूर्ण नेताओं की इच्छा के विरुद्ध था। यह समझौता बहुसंख्यक वर्चस्व के
बारे में अल्पसंख्यकों के डर को दूर करने की ईमानदार इच्छा से प्रेरित था। लखनऊ
कांग्रेस ने स्वशासन की दिशा में एक कदम के रूप में संवैधानिक सुधारों की एक और
खुराक की भी मांग की। हालाँकि यह होमरूल लीगर्स की इच्छा के अनुसार नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने कांग्रेस की एकता के हित में इसे स्वीकार कर लिया। तिलक
द्वारा किया गया एक और बहुत ही महत्वपूर्ण प्रस्ताव - कि कांग्रेस को एक छोटी और
सुसंगत कार्यकारिणी समिति नियुक्त करनी चाहिए जो कांग्रेस के दिन-प्रतिदिन के
मामलों को आगे बढ़ाए और वार्षिक सत्रों में पारित प्रस्तावों को लागू करने के लिए
जिम्मेदार हो, - दुर्भाग्य से उदारवादी विपक्ष द्वारा खारिज कर दिया गया था। चार
साल बाद, 1920 में, जब महात्मा गांधी ने
कांग्रेस के लिए एक सुधारित 'संविधान तैयार किया, तो यह उन प्रमुख परिवर्तनों में से एक था, जिन्हें कांग्रेस को एक
सतत आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आवश्यक माना जाता था।
होम रूल आंदोलन
कमज़ोर पड़ने लगा
जैसे ही होमरूल के लिए आंदोलन जोर पकड़ने लगा, सरकार ने पलटवार किया और उसने इस हमले के
लिए एक विशेष शुभ दिन चुना। 23 जुलाई, 1916 को तिलक का 60वाँ जन्मदिन था और प्रथा के अनुसार यह एक बड़े जश्न का
अवसर था। उन्हें एक लाख रुपये का एक पर्स भेंट किया गया। उसी दिन सरकार ने उन्हें
अपना उपहार दिया: एक नोटिस जिसमें उनसे कारण बताने के लिए कहा गया था कि उन्हें एक
वर्ष की अवधि के लिए अच्छे आचरण के लिए बाध्य क्यों न किया जाए और 60,000 रुपये की प्रतिभूतियाँ माँगी गईं। तिलक के
लिए, यह उनके जन्मदिन के लिए सबसे अच्छा उपहार
था। उन्होंने कहा, 'भगवान हमारे साथ हैं,' 'होमरूल अब जंगल की आग की तरह फैल जाएगा।' तिलक का बचाव मोहम्मद अली जिन्ना के
नेतृत्व में वकीलों की एक टीम ने किया। वह मजिस्ट्रेट कोर्ट में केस हार गए, लेकिन नवंबर में हाई कोर्ट ने उन्हें बरी
कर दिया।
होम रूल आंदोलन की बढ़ती लोकप्रियता ने जल्द ही सरकार के
क्रोध को आकर्षित किया। मद्रास सरकार सबसे कठोर थी और उसने सबसे पहले छात्रों को
राजनीतिक बैठकों में भाग लेने से प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया।
आंदोलन में महत्वपूर्ण मोड़ जून 1917 में मद्रास सरकार
द्वारा श्रीमती बेसेंट और उनके सहयोगियों, बी.पी. वाडिया और जॉर्ज अरुंडेल को नज़रबंद करने के
निर्णय के साथ आया। उनकी नज़रबंदी राष्ट्रव्यापी विरोध का अवसर बन गई। एक नाटकीय
संकेत में, सर एस. सुब्रमण्यम अय्यर ने अपनी नाइटहुड
की उपाधि त्याग दी। मदन मोहन मालवीय, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और एम.ए. जिन्ना जैसे कई उदारवादी
नेताओं सहित जो लोग इससे दूर रहे थे, वे अब नज़रबंद लोगों के साथ अपनी एकजुटता दर्ज करने और
सरकार की कार्रवाई की निंदा करने के लिए होम रूल लीग के सदस्य बन गए। तिलक ने
सरकार द्वारा नज़रबंद लोगों को रिहा करने से इनकार करने पर निष्क्रिय प्रतिरोध या
सविनय अवज्ञा के हथियार का इस्तेमाल करने की वकालत की। गांधीजी के कहने पर, शंकरलाल बैंकर और जमनादास द्वारकादास ने
एक हजार लोगों के हस्ताक्षर एकत्र किए जो नजरबंदी के आदेशों की अवहेलना करने और
बेसेंट की नजरबंदी की जगह तक मार्च करने के लिए तैयार थे। दमन ने केवल
आंदोलनकारियों के रवैये को कठोर बनाने और सरकार का विरोध करने के उनके संकल्प को
मजबूत करने का काम किया। मोंटेग्यू ने अपनी डायरी में लिखा, '... शिवा ने अपनी पत्नी को बावन टुकड़ों में
काट दिया, केवल यह पता लगाने के लिए कि उसकी बावन
पत्नियाँ थीं। वास्तव में भारत सरकार के साथ ऐसा ही होता है जब वह श्रीमती बेसेंट
को नजरबंद करती है।’ ब्रिटेन की सरकार ने नीति में परिवर्तन करने और समझौतावादी
रुख अपनाने का फैसला किया। एनी बेसेंट को सितंबर 1917 में रिहा कर दिया गया। एनी
बेसेंट अपनी लोकप्रियता के चरम पर थीं और तिलक के सुझाव पर दिसंबर 1917 में
कांग्रेस के वार्षिक सत्र में उन्हें अध्यक्ष चुना गया।
1918 में अनेक कारणों से होम रूल आंदोलन कमज़ोर
पड़ने लगा। नरमपंथी इस आंदोलन से निष्क्रिय हो चुके थे। असहयोग आंदोलन को लेकर ख़ुद
एनी बेसंट दुविधा में थीं। जुलाई 1918 में सरकारी सुधारों की योजना के प्रकाशन ने
राष्ट्रवादी रैंकों को और विभाजित कर दिया। तिलक अपने दृष्टिकोण में अधिक सुसंगत
थे, लेकिन बेसेंट के ढुलमुल रवैये और उदारवादी
रुख में बदलाव को देखते हुए, उनके लिए अपने दम पर आंदोलन को बनाए रखने के लिए बहुत कम
था। ‘इंडियन अनरेस्ट’ के लेखक वैलेंटाइन चिरोल के खिलाफ़ दायर मानहानि का मुकदमा
लड़ने तिलक सितंबर 1918 में इंग्लैंड चले गए थे और कई महत्वपूर्ण महीनों के लिए
बाहर रहे। उनकी अनुपस्थिति में बेसेंट सशक्त नेतृत्व देने में असमर्थ रहीं। ‘होम
रूल’ आंदोलन नेतृत्वविहीन हो चुका था। 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद
भारत में आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी थी। गांधीजी ने
आज़ादी की लड़ाई की बागडोर संभाल ली थी। 1920 में, अखिल भारतीय होम रूल लीग ने महात्मा
गांधी को इसके अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया। एक वर्ष में ये संगठन
एक संयुक्त भारतीय राजनीतिक मोर्चे के लिए भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय हो गया और इसका स्वयं का अस्तित्व खत्म हो गया।
उपलब्धि
होम
रूल आंदोलन और इसकी विरासत की जबरदस्त उपलब्धि यह थी कि इसने उत्साही
राष्ट्रवादियों की एक पीढ़ी तैयार की, जिन्होंने आने वाले
वर्षों में राष्ट्रीय आंदोलन की रीढ़ बनाई, जब
महात्मा गांधी के नेतृत्व में यह अपने वास्तविक जन चरण में प्रवेश कर गया। होम रूल
लीग ने शहर और देश के बीच संगठनात्मक संबंध भी बनाए, जो
बाद के वर्षों में अमूल्य साबित हुए। और इसके अलावा, होम
रूल या स्वशासन के विचार को लोकप्रिय बनाकर और इसे एक सामान्य बात बनाकर, इसने देश में व्यापक राष्ट्रवादी माहौल पैदा किया। 1918 में, राष्ट्रवादियों की नई पीढ़ी राजनीतिक चेतना से जागृत हुई और
परिवर्तन की गति से अधीर होकर, प्रभावी राजनीतिक
कार्रवाई के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करने का साधन तलाश रही थी। मोहनदास करमचंद
गांधी के प्रवेश के लिए मंच तैयार हो गया, एक
ऐसे व्यक्ति जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के संघर्ष का नेतृत्व करके और
चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा में भारतीय किसानों और मजदूरों के संघर्षों का
नेतृत्व करके पहले ही अपना नाम बना लिया था। और मार्च 1919 में, जब उन्होंने घृणित 'रॉलेट' अधिनियम के विरोध में सत्याग्रह का आह्वान किया, तो वे लगभग उन सभी लोगों के लिए एक केंद्र बिंदु थे, जिन्हें होम रूल आंदोलन द्वारा राजनीति के लिए जागृत किया गया था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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